Gandhi Naam hai Man ki Majbuti ka

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

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गाँधी नाम है मन की मज़बूती का

महात्मा गांधी (1869-1948)

सुखद संयोग है कि भारत की दो महान विभूतियों, महात्मा गांधी ( 2. 10. 1869- 30.1. 1948 ) औऱ लालबहादुर शास्त्री ( 2.10.1904- 11.1.1966 ) की जयंती एक ही दिन 2 अक्टूबर को है। इन दोनों के विचार और व्यक्तित्व वैश्विक स्तर पर पीढि़यों के लिए प्रेरणादायक रहे हैं। सत्य- वचन, स्पष्टवादिता, संकल्प शक्ति, स्वाभिमान, सादगी, सरलता, सज्जनता, शालीनता, सहिष्णुता, मानसिक मज़बूती, निडरता, भाईचारा, करूणा, ईमानदारी आदि मूल्यों की वे प्रतिमूर्ति थे। चमक-दमक, तड़क-भड़क, प्रचार-प्रसार औऱ बड़बोलेपन से कोसों दूर रहने वाली इन महान विभूतियों ने 'सादा जीवन उच्च विचार' के सिद्धांत को अपने जीवन में आत्मसात कर जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

शास्त्रीजी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए सादगी, शालीनता, सच्चाई, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता व सत्यनिष्ठा के नए प्रतिमान स्थापित किए। देश की सुरक्षा में जवानों के अमूल्य योगदान तथा देशवासियों के लिए अन्नदाता के रूप में किसानों की महती भूमिका के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए उन्होंने 1965 के भारत पाक युद्ध के दौरान 'जय जवान, जय किसान' का नारा बुलंद कर देश में नव स्फूर्ति का संचार किया। शास्त्रीजी का मानना था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता तथा सुख-समृद्धि सैनिकों व शस्त्रों के साथ-साथ कृषकों व श्रमिकों के परिश्रम से संभव हुई है।

गांधी: युगांतरकारी व्यक्तित्व

गांधी जी का व्यक्तित्व एक ऐसे योद्धा का था, जिसने बगैर हथियार उठाए, जनतांत्रिक तरीके से आज़ादी के संघर्ष का संचालन किया। गांधी होने का अर्थ है -- अन्याय व अत्याचार से लड़ना, दमनकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर उसे समाप्त करने हेतु आंदोलन शुरू करना। गांधी नाम है मन की मज़बूती का, सिद्धांतों की राह पर अडिग रहने का। नरसी मेहता द्वारा रचित भजन "वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे", गांधी का सबसे प्रिय भजन था। सच तो यह है कि यही भजन पूरी तरह उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। गांधी ने हमेशा दिन-दुखियों और पीड़ितों-शोषितों के दर्द को समझा और उसे दूर करने के लिए सत्ता से संघर्ष किया।

गांधी जीवन को ही आंदोलन मानते थे - असत्य और पराधीनता के ख़िलाफ़ आंदोलन। चाहे वह असत्य समाज में हो, व्यक्ति के मन में हो या सरकार में हो। सरकार यदि असत्य के मार्ग पर है तो उसके विरुद्ध आंदोलन होना चाहिए। यही कारण है कि गांधी झूठ, पाखंड और अनाचारों से भरे माहौल में जहाँ भी गए, वहाँ एक आंदोलन शुरू कर दिया। गांधी से पहले दक्षिण अफ्रीका में कितने लोग गए थे, पर रंगभेद और अत्याचार-अन्याय से भरे वहाँ के माहौल में गांधी के पहुंचने पर एक आंदोलन का सूत्रपात हो गया, जिसका सुखद नतीज़ा भी निकला। जोहानसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में 7 सितंबर 1906 को पहली बार गांधी ने सत्याग्रह शब्द का प्रयोग किया।

महात्मा गांधी 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट कर आए। दक्षिण अफ्रीका में उनके आंदोलन की खबर भारत पहुंच चुकी थी। देश में लौटने के बाद देश को करीब से जानने के लिए गाँधी देशाटन पर निकल पड़े। इसी कड़ी में चंपारण के साहूकार राज कुमार शुक्ला के निमंत्रण पर गांधी 10 अप्रैल 1917 को बिहार के चंपारण पहुंचे। वहाँ उन्होंने किसानों की दुर्दशा का जायज़ा लेकर 19 अप्रेल को सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। उस समय अंग्रेजों के कानून के चलते किसानों को खाद्यान्न के बजाय अपनी जोत के एक हिस्से पर मजबूरन नील की खेती करनी होती थी। किसान अंग्रेजों के साथ-साथ अपने भू-मालिकों के जुल्म सहने को भी मज़बूर थे। राज कुमार शुक्ल ने चंपारण में ही सबसे पहले गांधी जी को 'बापू' कहकर संबोधित किया था। चंपारण सत्याग्रह गांधी के नेतृत्व में भारत का पहला सत्याग्रह आंदोलन था। चंपारण सत्याग्रह की सफलता ने देश में गाँधी जी की प्रतिष्ठा बढ़ा दी। इसके बाद 1918 में गुजरात के खेड़ा में एक और बड़ा सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया गया।

आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी ने लोगोंं को संघर्ष के तीन मंत्र दिए--सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान। उन्होंने खुद इसे अपने जीवन व समय की कसौटी पर कसा भी। सत्याग्रह/ सत्य के प्रति आग्रह यानी आदमी को जो सत्य दिखे उस पर वह पूरी शक्ति और निष्ठा से डटा रहे। बुराई, अन्याय और अत्याचार का किन्हीं भी परिस्थितियों मेंं समर्थन न करे, बल्कि उनका प्रतिरोध करे। अन्यायी और अत्याचारी सरकार के साथ किसी तरह का कोई सहयोग नहीं करे। सत्य और न्याय के लिए प्राणोत्सर्ग करने को गांधी ने बलिदान कहा।

गाँधी जी की लड़ाई ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण व दमनकारी नीतियों से थी। जब भी वे हुक़ूमत के ख़िलाफ़ कोई आंदोलन करते तो खुलकर कहते थे कि हुक़ूमत की अमुक नीतियां गलत हैं , इनका मैं विरोध करूंगा। उनकी लड़ाई सत्य और न्याय की हिमायत में थी। गांधी जी जो कहते थे वही करते थे या यों कहें जो करते थे वही कहते थे। उनकी कथनी और करनी में साम्यता थी।

अहिंसा का सिद्धांत

गांधी जी ने अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक तो नहीं थे परंतु इसे व्यापक स्तर पर राजनैतिक क्षेत्र में सफलतापूर्वक इस्तेमाल करने वाले पहले व्यक्ति थे। अहिंसा के संबंध में गांधी जी जैन मत तथा टॉलस्टॉय से अधिक प्रभावित थे। फलत: गांधी जी की अहिंसा का अर्थ काफ़ी व्यापक है। उनके अनुसार किसी प्राणी के प्रति शारीरिक कष्ट पहुँचाना ही नहीं, बल्कि मन एवं वाणी के द्वारा भी किसी को दुख पहुँचाना हिंसा का रूप है। उनकी अहिंसा का अर्थ बुराई के बदले भलाई करना, घृणा के बदले प्यार लौटाना तथा शत्रुओं से प्रेम करना है।

गांधी जी ने अहिंसा को शौर्य का शिखर माना। अहिंसा का अर्थ अन्यायी की इच्छा के आगे झुककर घुटने टेक देना नहीं बल्कि अत्याचारी की इच्छा के विरुद्ध अपनी आत्मा की सारी शक्ति लगाकर अन्याय का प्रतिरोध करना है। गांधी के अनुसार अहिंसा का मतलब कायर होना नहीं है। अहिंसा मजबूती का नाम है।

गांधी जी ने अहिंसा को एक नीति और विश्वास के तौर पर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। इसी वजह से वे सबसे न्यारे/अलग थे। गाँधी जी का अहिंसा का विचार मनुष्य की परस्पराश्रयी सभ्यता के संतुलन का संदेश है। गांधी जी कहते थे कि क्रिया की प्रतिक्रिया करने से पहले जरा सोचो, अपने विवेक का इस्तेमाल करो। आंख के बदले आंख फोड़ने से पूरी दुनियां अंधी हो जाएगी। An eye for an eye only ends up making the whole world blind.

मार्टिन लूथर किंग ने गांधी के अहिंसा के सिद्धांत की पुरजोर वक़ालत करते हुए अपने अंतिम भाषण में कहा था: “जिस मोड़ पर हम पहुंच चुके हैं उस मोड़ पर दुनिया के लिए चुनाव अब नॉन- वायलेंस और वायलेंस के बीच में नहीं है। अब चुनाव नॉन-वायलेंस और नॉन-एग्ज़िस्टेन्स के बीच में है। आप हिंसा और अहिंसा में से एक को नहीं चुन सकते। आपको अहिंसा और सर्वनाश के बीच में से एक को चुनना है। गांधीजी यह बात बार-बार कहा करते थे कि सत्य और अहिंसा, मैं कोई नई बात नहीं कर रहा हूं। सत्य और अहिंसा तो शाश्वत हैं। Truth and non-violence are as old as hillls.”

गांधी जी ने ऐसे किसी विचार का कभी समर्थन नहीं किया जो कि आक्रमकता या हिंसा की तरफ ले जाने वाला हो। उन्होंने समस्या का हल सत्याग्रह के रूप में पेश किया। वे यह मानते थे कि ब्रिटिश हुकूमत हमसे बहुत ताकतवर है। अगर हम उनके कुछ लोगों को मारेंगे तो वे भी हमारे दुगुने-तिगुने लोगों को मार देंगे और लड़ाई वहीं समाप्त हो जाएगी। गांधी जी इस लड़ाई को सबकी लड़ाई बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि सारे देशवासी मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करें। इसके लिए उन्होंने अनुकूल रणनीति भी अपनाई। उन्होंने कहा कि आमजन में और उनमें कोई फर्क नहीं है। इसलिए वे खुद भी आमजन जैसे हो गए। रवींद्रनाथ टैगोर ने 12 अप्रैल 1919 को गांधी जी को लिखे अपने पत्र में उन्हें 'महात्मा' के रूप में संबोधित किया था। हालांकि एक मत यह भी है कि गुजरात के जीवराम शास्त्री ने सबसे पहले गांधी जी को 'महात्मा' कहा था।

सितंबर 1920 में शुरू किए गए असहयोग आन्दोलन के अंतर्गत उपाधियों तथा अनैतिक पदों का परित्याग करना, स्कूल, कॉलेज तथा सरकारी अदालतों का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं का परित्याग और स्वदेशी वस्तु के व्यवहार का कार्यक्रम बनाया गया। असहयोग आन्दोलन पूरे चरम पर था, तभी गोरखपुर के निकट चौरी-चौरा नामक स्थान पर स्थित थाने में आन्दोलनकारियों ने आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार और 21 सिपाहियों की जान चली गई। इस घटना से गांधीजी बेहद विचलित हो उठे। उन्होंने तत्काल आंदोलन को स्थगित कर दिया। इस फ़ैसले से कांग्रेस के कई नेता गांधी से रुष्ट हुए और उनकी खूब आलोचना की। लेकिन गांधी अपने इरादे से टस से मस नहीं हुए। वे हिंसा को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। उनकी दृढ़ता कमाल की थी।

गांधी जी ने नमक को सविनय अवज्ञा आंदोलन में केंद्रीय मुद्दे के रूप में चुना क्योंकि नमक गरीब व्यक्ति को प्रभावित करता था तथा नमक जैसी रोजमर्रा की वस्तु पर कर लगाये जाने के विरोध में किये गये आंदोलन से किसानों का समर्थन सहजता से प्राप्त किया जा सकता था। गाँधी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद से दांडी समुद्र के लिए मार्च प्रारम्भ कर 6 अप्रैल 1930 को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर दांडी समुद्र पर ब्रटिश हुक़ूमत द्वारा क्रियान्वित नमक कानून को नमक बनाकर तोड़ा। इसके बाद संपूर्ण देश में आंदोलन व्यापक रूप में फैल गया।

1931 में लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के मध्य एक समझौता हुआ, जिसे गांधी- इरविन पैक्ट​ का नाम दिया गया था। इस समझौते के अन्तर्गत यह तय हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, सविनय अवज्ञा आन्दोलन को समाप्त करेगी और लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भी हिस्सा लेगी।

ब्रिटिश सरकार भारत को आजादी देने से टालमटोल करने लगी तो गांधी ने 8 अगस्त 1942 को मुंबई में अंग्रेजो के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा था। कांग्रेस कमेटी की बैठक में गांधी जी ने कहा- आंदोलन का मूल अहिंसा है। मैदान में उपस्थित भीड़ को संबोधित करते हुए गांधी जी ने 'करो या मरो' का नारा दिया। उन्होंने कहा, 'हर भारतीय को स्वतंत्रता का हक है। अब हर भारतीय, खुद को स्वतंत्र मानने और अपना मार्गदर्शक खुद चुनने के लिए भी तैयार है।' इसी भाषण के बाद 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई। मुंबई में गोवालिया टैंक मैदान में गांधीजी के दिए भाषण के कुछ देर बाद उन्हें और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इस मैदान को अब अगस्त क्रांति मैदान कहा जाता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चर्चित घटना 'काकोरी कांड' के ठीक सत्रह साल बाद 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ शुरू हुए इस आंदोलन ने देखते ही देखते ऐसा स्वरूप हासिल कर लिया कि अंग्रेजी सत्ता के दमन के सभी उपाय निष्फल होने लगे थे। आजादी के आंदोलन में गांधी जी की सर्वोपरि भूमिका का सम्मान करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 4 जून 1944 को सिंगापुर से रेडियो पर दिए अपने संदेश में गांधी जी को 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया।

दृढ़व्रती गांधी

बात है साल 1931 की। जगह लंदन और मौका था दूसरे गोलमेज सम्मेलन का। महात्मा गांधी कांग्रेस के प्रतिनिधि की हैसियत से इसमें भागीदारी के लिए आए थे। वे पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे। जमीन पर बिस्तर लगाया। लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी- सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल। वे कोई तीन महीने वहां रहे।

दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटने के बाद गाँधी एक राजनेता के रूप में पहली बार विदेशी दौरे पर थे। वक्त बदल चुका था। दुनिया भर में चर्चित हो गए थे। दुनिया या तो उनसे प्यार कर रही थी या नफरत। लेकिन नज़रअंदाज़ अब कोई नहीं कर सकता था। असहयोग आंदोलन के प्रयोग ने अंग्रेज़ों के साथ ही पूरी दुनिया को समझा दिया था कि गांधी नाम का प्रयोगवादी बिना हिंसा किए भी जो हासिल करना चाहता है वो धीरे-धीरे कर रहा है।

गांधी- इरविन पैक्ट के बाद सितम्बर 1931 ई. में गाँधी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए तब भी उस ठंडे मुल्क में लँगोटी बांधे, धड़ पर चादर लपेटे, सहारे के लिए हाथ में लाठी लिए, पैरों में खड़ाऊ पहने वे लंदन की सड़कों पर चल रहे थे। अंग्रेज हतप्रभ थे। उनके सम्मान में जयकारे गूंज उठे। मालूम हो कि अपने देश में ग़रीबों के पास तन ढकने के लिए समुचित वस्त्र उपलब्ध नहीं होने की हालात से रूबरू होकर गांधी जी ने प्रचलित परिधान का परित्याग कर अपना तन ढकने के लिए खादी की लँगोटी और चादर धारण करना शुरू कर दिया था।

गांधी जी के नेतृत्व में भारत में चल रहे आज़ादी के आंदोलन और गांधी जी के रुतबे की चर्चा ब्रिटेन के राजमहल में भी होने लगी थी। राजा जॉर्ज पंचम ने गांधी जी को उनकी लंदन यात्रा के दौरान बंकिघम पैलेस में चाय पर आमंत्रित किया। पहले तो राजा ने अर्ध नग्न लंगोटीधारी गाँधी से उनके इस 'विचित्र' पहनावे में उनसे मिलने से इनकार कर दिया था। गांधी भी इस बात पर अड़ गए कि वो राजा से मिलने घुटनों तक खादी की धोती बांधकर, शरीर पर चादर लपेटकर व पैरों में खड़ाऊ पहनकर ही जाएंगे। बंकिघम पैलेस में ऐसे पहनावे वाले शख्श का उस वक्त के दुनिया में सबसे शक्तिशाली राजा से मुलाकात करने पहुंचने का यह पहला वाक़या था। जिस साम्राज्य का कभी सूर्यास्त नहीं होता था, उसके सम्राट के दिल पर क्या बीती होगी, इसका इस वाक़ये से सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

मुलाकात के बाद राजा को यह कहते हुए सुना गया कि ये ‘नाटा आदमी’ ‘पर्याप्त कपड़े’ भी नहीं पहने हुए था। चलते-चलते राजा ने गांधी से कहा, ‘याद रखिए मिस्टर गांधी, मैं आपकी तरफ़ से अपने साम्राज्य पर किए गए किसी प्रहार को बर्दाश्त नहीं करूँगा।’ गांधी ने मुस्कराकर जवाब दिया , ’मैं आपके महल में, आपकी मेहमाननवाज़ी के बाद, आपसे किसी राजनीतिक बहस में नहीं उलझना चाहूँगा।’’ महल से बाहर निकलते समय पत्रकारों ने जब गांधी से पूछा कि क्या आप समझते हैं कि शाही मुलाक़ात के लिए आपका यह पहनावा उपयुक्त था, उन्होंने तुरन्त जवाब दिया ," आपके राजा ने हम दोनों के हिस्से के कपड़े पहन रखे थे." तीखा तंज़ था यह।

राजा और 'फ़क़ीर' की इस अप्रत्याशित मुलाकात के बारे में ब्रटिश समाचार पत्रों में उस समय जो समाचार प्रकाशित हुए, उनके कुछ शीर्षकों पर गौर कीजिए: 'Gandhi, Clad in Loin Cloth, is Received by Royalty.' 'लंगोटी धारी गाँधी का राजसत्ता द्वारा स्वागत' 'Royal Pair Greet Gandhi in Palace.' शाही जोड़े/ राजा-रानी ने गांधी का महल में अभिवादन किया' 'Loin-cloth Attire of Gandhi Causes London to Titter.' गांधी की लंगोटी लंदन में ठीं-ठीं/ हीं-हीं ( दबी हुई हंसी) का कारण बनी.'

जनता पर गांधी के प्रभाव को दृष्टिगत रखते हुए वायसराय ने गांधी जी को जेल से रिहाकर उनसे बातचीत करने का फ़ैसला किया। तत्समय ब्रिटेन की कंज़रवेटिव पार्टी के उभरते नेता विंस्टन चर्चिल, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी बने, को गांधी-इरविन की मुलाक़ात बहुत नागवार गुज़री थी। चर्चिल ने गांधी को 'अर्ध-नग्न फ़क़ीर'( Half-naked fakir ) की संज्ञा देते हुए यह अपमानजनक टिप्पणी की :

“Ít is alarming and also nauseating to see Mr Gandhi, a seditious middle temple lawyer, now posing as a fakir of a type well known in the East, striding half-naked up the steps of the Viceregal Palace, while he is still organising and conducting a defiant campaign of civil disobedience, to parley on equal terms with the representative of the King-Emperor."

"मिस्टर गांधी जैसे राजद्रोही, मिडिल टैंपिल वकील का अर्ध नग्न हालत में वॉयसराय के महल की सीढ़ियाँ चढ़ना और राजा के प्रतिनिधि से बराबर के स्तर पर बात करना बहुत ख़तरनाक और घृणास्पद था, ख़ासकर तब जब वो ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ असहयोग आँदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। इस तरह का दृश्य भारत में अशांति को बढ़ा सकता है और वहाँ पर काम कर रहे श्वेत लोगों को परेशानी में डाल सकता है।"

जब गांधी को गोलमेज़ सम्मेलन में शामिल होने का न्योता दिया गया तब भी चर्चिल ने उसका ज़ोरदार विरोध करते हुए कहा, "गांधी ने अपना आन्दोलन वापस नहीं लिया है, उसे स्थगित भर किया है। इसको दोबारा शुरू करने के लिए उन्हें अपनी छोटी उंगली भर उठाने की देर है।"

गांधी जब अनशन पर थे तो चर्चिल ने वायसराय को लिखा, "अगर गांधी वास्तव में मर जाते हैं तो हमें एक बुरे आदमी और साम्राज्य के दुश्मन से छुटकारा मिल जाएगा। ऐसे समय जब सारी दुनिया में हमारी तूती बोल रही हो, एक नाटे बूढ़े आदमी के सामने जो हमेशा हमारा दुश्मन रहा हो, झुकना बुद्धिमानी नहीं है।"

सालों बाद चर्चिल ने स्वीकार किया कि उनके चुनाव हारने से सिर्फ़ एक अच्छी बात ये हुई कि भारत को आज़ादी देने का फ़ैसला जब हुआ तब वो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नहीं थे। पाँच साल पहले जिस शख़्स ने सार्वजनिक रूप से ये ऐलान किया था कि हम अनिश्चित काल तक भारत पर राज करते रहेंगे, ये फ़ैसला लेना सबसे बड़ा अपमान होता।

चार्ली और गाँधी जी की मुलाकात

संयोगवश उसी दौरान दुनिया के महानतम अभिनेता के रूप में चर्चित हो चुके चार्ली चैपलिन भी अपनी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रमोशन के सिलसिले में अपनी जन्मस्थली लंदन आए हुए थे, और राजनीतिक पार्टियों से मुलाक़ात कर रहे थे, और उनकी चर्चाओं में भी भाग ले रहे थे। गांधी से मुलाकात करने का सुझाव उन्हें मिला और वे बेहद उत्साहित हुए।

चार्ली ने गाँधी जी के जेल जाने और भूख हड़तालों तथा भारत की आज़ादी के लिए उनकी लड़ाई के बारे में सुन रखा था। वे ये भी जानते थे कि गाँधी मशीनों के इस्तेमाल के विरोधी हैं।

गांधी जी से मिलने से कुछ रात पहले चैप्लिन की मुलाकात ब्रिटेन के घाघ राजनेता विंस्टन चर्चिल और उनके सहयोगियों, जो गांधी को कतई पसंद नहीं करते थे, से डिनर पर हुई। ‘अधनंगा फकीर’ ( Half-naked fakir ) कहकर चर्चिल ने ही गांधी का अपमान करने की कोशिश की थी। चर्चिल व उसके साथियों से हुई इस मुलाकात का ज़िक्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में इस तरह किया हैं:

”मैंने उन्हें बताया कि मैं गांधी जी से मिलने जा रहा हूं जो इन दिनों लंदन में हैं। तब विंस्टन के साथ आए ब्रैकेन बोल उठे, “हमने इस व्यक्ति को बहुत झेल लिया है। भूख हड़ताल हो या न हो, उन्हें ( भारत में अंग्रेजी हुक़ूमत ) चाहिए कि वे इन्हें ( गाँधी को ) जेल में ही रखें। नहीं तो ये बात पक्की है कि हम भारत को खो बैठेंगे। गांधी को जेल में डालना सबसे आसान हल होगा, अगर ये हल काम करे तो। ”

चार्ली ने टोकते हुए कहा, “लेकिन अगर आप एक गांधी को जेल में डालते हैं तो दूसरा गांधी उठ खड़ा होगा और जब तक उन्हें वह मिल नहीं जाता जो वे चाहते हैं, वे एक गांधी के बाद दूसरा गांधी पैदा करते रहेंगे।”

चार्ली की गांधी जी से मुलाक़ात 22 सितंबर 1931 की शाम को डॉ चुन्नीलाल कतियाल के निवास पर हुई। इस मुलाकात में चार्ली ने ही बात शुरू करते हुए कहा, "मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूँ, लेकिन आप मशीनों के खिलाफ क्यों है, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?

कुछ भी हो, मशीनरी ...से इन्सान को गुलामी के बंधन से मुक्त करने में मदद मिलनी चाहिये और इससे उसे कम घंटों तक काम करना पड़ेगा और वह अपना मस्तिष्क विकसित करने और ज़िंदगी का आनंद उठाने के लिए ज्यादा समय बचा पायेगा।"

गांधी जी ने मुस्कुराते हुए इसका जबाब यह दिया, “आप ठीक कहते हैं, मगर हमें पहले अंग्रेजी राज से मुक्ति चाहिए, मशीनों ने हमें अंग्रेजों का और गुलाम बनाया है। इसलिए हम स्वदेशी और स्वराज की बात करते हैं। हमें अपनी जीवन- शैली बचानी है। मशीनरी ने हमें इंगलैंड पर निर्भर बना दिया, और उस निर्भरता से अपने आपको मुक्त कराने का हमारे पास एक ही तरीका है कि हम मशीनरी द्वारा बनाये गये सभी वस्तुओं का बहिष्कार करें। यही कारण है कि हमने प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य बना दिया है कि वह अपना स्वयं का सूत काते और अपने स्वयं के लिए कपड़ा बुने। ये इंगलैंड जैसे अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्र से लड़ने का हमारा अपना तरीका है और हां, और भी कारण हैं। भारत का मौसम इंगलैंड के मौसम से अलग है और भारत की आदतें और ज़रूरतें अलग हैं। ...आपको खाना खाने के बर्तनों के लिए उद्योग की ज़रूरत होती है। हम अपनी उंगलियों से ही खाना खा लेते हैं। और इस तरह से देखें तो कई किस्म के फर्क सामने आते हैं।" गाँधी का जोर इस बात पर था कि भारत की आबोहवा ही इंग्लैंड से बिलकुल जुदा है, ठंडे मुल्क में अलग किस्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की जरूरत है।

चार्ली तब हैरान रह गए तब गांधीजी ने अचानक कहा माफ़ कीजिये हमारी प्रार्थना का वक्त हो गया है। चार्ली ने सोफे पर बैठे-बैठे देखा, गांधीजी और चार-पांच भारतीय पालथी मार कर बैठ गए और ‘रघुपति राघव…’ गाने लगे।

गाँधी से हुई इस चर्चा में चार्ली गांधी जी के विवेक, कानून की समझ, राजनीतिक दृष्टी, यथार्थवादी नज़रिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए। चार्ली अपनी आत्मकथा में यह प्रतिक्रिया देते हैं:

"मुझे भारत की आज़ादी के लिए सामरिक जोड़ तोड़ में लचीलेपन का वस्तुपरक पाठ मिल गया था और विरोधाभास की बात ये थी कि इसके लिए प्रेरणा एक यथार्थवादी, एक ऐसे युग दृष्टा से मिल रही थी जिसमें इस काम को पूरा करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति थी। उन्होंने मुझे ये भी बताया कि सर्वोच्च स्वंतत्रता वह होती है कि आप अपने आपको अनावश्यक वस्तुओं से मुक्त कर डालें और कि हिंसा अंतत: स्वयं को ही नष्ट कर डालती है।"

चार्ली ये भी कहते हैं: 'मैंने गांधी की राजनैतिक साफगोई और इस्पात जैसी दृढ़ इच्छा शक्ति के लिए हमेशा उनका सम्मान किया है और उनकी प्रशंसा की है। लेकिन मुझे ऐसा लगा कि उनका लंदन आना एक भूल थी। उनकी मिथकीय महत्ता, लंदन के परिदृश्य में हवा में ही उड़ गयी और उनका धार्मिक प्रदर्शन भाव अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहा है। इंगलैंड के ठंडे भीगे मौसम में अपनी परम्परागत धोती, जिसे वे अपने बदन पर बेतरतीबी से लपेटे रहते हैं, में वे बेमेल लगते हैं। लंदन में उनकी इस तरह की मौजूदगी से कार्टून और कैरीकेचर बनाने वालों को मसाला ही मिला है। दूर के ढोल ही सुहावने लगते हैं। किसी भी व्यक्ति के प्रभाव का असर दूर से ही होता है।'

शायद गांधी के विचार से प्रभावित होकर ही चार्ली ने 1936 में ‘मॉडर्न टाइम्स’ फ़िल्म बनाई जिसमें मशीनों और मशीनों के मोह-पाश में बंधी मानव जाति की खिल्ली उड़ाई। फ़िल्म यह दिखाती है कि दुनिया में तेजी से बढ़ रहे औद्योगिकीकरण के साथ मेल बिठाना कितना कठिन काम होता है।

गांधी का 'मेक इन इंडिया'

आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों को गाँधी जी की यह सलाह थी: Be humble. Be forbearing...Now you will be tested through and through. Beware of power; power corrupts. Do not let yourself be entrapped by its pomp and pageantry. Remember, you are in office to serve the poor in India's villages." ( Source: 'Mohandas, A True Story of a Man, his People and an Empire' written by Rajmohan Gandhi. Page 632)

' विनम्र बने रहें। सहिष्णु बने रहें...अब आपकी पूर्ण परख होगी। सत्ता से सचेत रहना; सत्ता भ्र्ष्ट बनाती है। ख़ुद को शान-शौकत/ दिखावा और आडम्बर से मुक्त रखना है। याद रखिए, आप भारत के गांवों में बसने वाले ग़रीबों की सेवा के लिए पद पर हैं।' ज़ाहिर है कि गांधी के 'मेक इन इंडिया' के केंद्र में 'दरिद्रनारायण' थे , न कि 'लक्ष्मीनारायण'।

सर्वोदय

'सर्वोदय समाज' गांधी की कल्पनाओं का समाज था, जिसके केंद्र में भारतीय ग्राम व्यवस्था थी। ‘सर्वोदय’ शब्द गांधी द्वारा प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें ‘सर्वभूत हितेश्ताः’ की भारतीय कल्पना, सुकरात की ‘सत्य-साधना’ और रस्किन की ‘अंत्योदय की अवधारणा’ - ये सब सम्मिलित हैं। अंग्रेज लेखक रस्किन की पुस्तक Unto This Last का गांधी जी ने 'सर्वोदय' शीर्षक से गुजराती में अनुवाद किया। 'अन्टू द लास्ट' का अर्थ है - इस अंत वाले को भी। सर्वोदय का अर्थ है - सबका उदय, सबका विकास। गांधी जी ने लिखा है, 'इस पुस्तक का उद्देश्य तो सबका उदय यानी उत्कर्ष करने का है। अतः मैंने इसका नाम सर्वोदय रखा है।'

सर्वोदय शब्द के मुख्य अर्थ दो हैं – सर्वोदय अर्थात् सबका उदय, दूसरा सब प्रकार से उदय अथवा सर्वांगीण विकास। अंत्योदय यानी समाज के अंतिम व्यक्ति का उदय। अंत्योदय का मतलब है अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक विकास का लाभ पहुंचे अर्थात सामाजिक सीढ़ी के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति की आँख के आँसू पोंछे जाएं।

गांधी के कालजयी विचार

गांधी जी के विचारों की चमक वक़्त की धूल से धूमिल नहीं हो सकती। शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण समाज की स्थापना में उनके विचारों की प्रासंगिकता सदैव क़ायम रहेगी। रूढ़िवादी, संकीर्ण व दकियानूसी सोच तथा असहिष्णुता के सरकारी संरक्षण में पनपने का प्रतिफल है कि आजकल एक विचार, एक जीवन पद्धति और एक आख्यान को श्रेष्ठ घोषित कर उसकी जोर-शोर से दुंदुभी बजाई जा रही है तथा बहुलतावादी संस्कृति और एक से अधिक आख्यानों के अस्तित्व को अस्वीकार किया जा रहा है। हमारे देश की उदारवादी परम्परा और साझा चूल्हे की संस्कृति के लिए यह बड़ी चुनौती है। ऐसे दौर में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता प्रबल हो जाती है।

गांधी जी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है। सत्य पर किसी धर्म का एकाधिकार नहीं है। वे कहते थे, 'पक्का हिन्दू होते हुए भी मेरी आस्था में ईसाई, इस्लामिक और पारसी शिक्षओं के लिए स्थान है---मेरी आस्था उदार है।' अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में वे लिखते हैं: 'सभी धर्म एक ही जगह ले जाने वाले अलग -अलग मार्गों की तरह हैं।'

बहुसंख्यकों का यह विश्वास कि उनकी आस्था ही सर्वोपरि और श्रेष्ठ है, बस यहीं से गाँधी के विचारों का कत्ल शुरु हो जाता है। गांधी एक व्यवहारिक हिन्दू थे। उनके जीवन और सिद्धान्तों में ओल्ड टेस्टामेंट, बाइबिल, सरमन आफ दि माऊंट, कुरआन, टॉलस्टॉय की 'किंगडम ऑफ गॉड विदिन यू ' आदि का गहरा प्रभाव परिलक्षित है।

गांधीजी कहते थे "मैं यह नहीं चाहता कि मेरे घर को ऊंची चार दीवारों से घेर दिया जाए और खिड़कियों को मजबूती से बंद कर दिया जाए; मैं चाहता हूं कि सभी संस्कृतियों का प्रवाह मुक्त रूप से मेरे घर में हो परंतु मैं उस प्रवाह में उखड़ने से इंकार करता हूं।"

धर्म के संबंध में उन्होंने कहा है कि धर्म एक व्यक्तिगत वस्तु है। हमें दूसरों के जीवन और धर्म की श्रेष्ठ बातों का अधिक से अधिक लाभ लेते हुए अपने आदर्शों पर चलना चाहिए। गांधी जी यह भी कहते थे कि आस्था/ विश्वास को तर्क/विवेक से तोलना चाहिए। जब विश्वास अंधा हो जाता है तो मर जाता है। Faith...must be enforced by reason. When faith becomes blind, it dies.


गाँधी जी ने 1930 के ऐतिहासिक दांडी मार्च के जरिए प्राकृतिक संसाधनों पर आाम लोगों के अधिकारों पर जोर दिया था। नमक एक महत्त्वपूर्ण और हमारी बुनियादी जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्य संसाधनों पर अपना एकाधिकार रखकर उन्हें उनके वैध मालिकों की पहुँच से वंचित रखना चाहता था। इसलिए गांधी ने नमक आंदोलन के ज़रिए इसका पुरजोर विरोध किया।

गांधी जी कहते थे कि किसी के भड़काने से भड़क जाना अपनी कमजोरी है। इसीलिए कमजोर आदमी माफ नहीं कर सकता। माफ करना ताकतवर आदमी का गुण है। The weak can never forgive. Forgiveness is the attribute of the strong.

गांधी मुफ्तखोरी के खिलाफ थे। वे मुफ्त के भोजन Free meals की व्यवस्था के खिलाफ थे। ' स्वस्थ मनुष्य को मुफ्त का खाना देना मुझे बर्दाश्त नहीं, जब तक कि वह इसके लिए ईमानदारी से काम न करे। मेरा बस चले तो मैं सारे सदावर्त बंद कर दूं। इनसे देश की इज़्जत घटती है औऱ आलस्य, निठ्ठलेपन ,पाखंड व अपराधों को बढा़वा मिलता है।'

गांधी ने चेताया था “ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया?” गांधी की यह भविष्यवाणी सच होती प्रतीत हो रही है। पर्यावरण के संबंध में उनके विचार राज्य व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और विकास से संबंधित उनके सभी विचारों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। 'Earth provides enough to satisfy every man's need but not every man's greed.' गांधी का प्रसिद्ध कथन “धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध है, किंतु किसी के लालच की तृप्ति के लिए नहीं” समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए नारा बन गया है।

प्रासंगिकता

मध्यकालीन विचारों और अंध आस्थाओं की गिरफ्त में फंसे लोग और संगठन आजकल बदलाव और विकास की बात बहुत करते हैं। वे नहीं जानते कि बिना प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच के बदलाव और विकास की सिर्फ बातें हो सकती है, वह घटित नहीं हो सकता। विध्वंस के कगार पर पहुंच चुके विश्व और आपाधापी से लड़खड़ाते सामाजिक जीवन के लिए गांधी द्वारा प्रयुक्त सत्य और अहिंसा के सिद्धांत संजीवनी हैं। गांधी कहते थे कि लोग अपने अंदर झांके और स्वयं को सुधार लें तो समाज, देश और अंत में विश्व में अपने आप सुधर जाएगा। गांधी कहते थे जो बदलाव आप दुनिया में देखना चाहते हैं, वैसे बदलाव का प्रतिरूप खुद बनें। Be the change that you want to see in the world.

गांधी जी का मानना था कि अन्याय, अत्याचार, शोषण पर आधारित व्यवस्था या व्यवस्थित हिंसा के रूप में चल रही सरकार को सिर झुकाकर स्वीकार करने की बज़ाय इनके विरुद्ध एक सशक्त आंदोलन छेड़ा जाना चाहिए। गांधी एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने अन्यायी साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तो लगातार आंदोलन चलाया ही, भारतीय समाज में व्याप्त जात-पात, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच आदि को समाप्त करने की दिशा में भी समाज सुधार आंदोलन चलाया।

गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धान्तों से न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में अन्याय और उत्पीड़न के शिकार लोगों को अपने अधिकारों और मुक्ति के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा मिली। गांधी जी द्वारा आलोकित मार्ग का अनुसरण कर मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला और आंग सांग सू ची ने अपने-अपने देशों में आंदोलन के ज़रिए सफलता प्राप्त की।

20 वीं सदी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के भारत के बारे में कथन के मर्म को हमें समझना चाहिए: ' इस देश में तीन चीजों ने हमेशा मुझे आकर्षित किया है, वे हैं--महात्मा गांधी, हिमालय और ताजमहल। जहाँ ताजमहल कला और वैभव का बेजोड़ नमूना है और हिमालय आकाश की और ताकती धरती का पैमाना, उसी तरह इंसान इंसानियत की और कितना ऊपर उठ सकता है, इसके प्रतीक हैं--महात्मा गांधी।' मालूम हो कि गांधी से उनकी लंदन यात्रा के दौरान जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, प्रसिद्ध अभिनेता चार्ली चैपलिन आदि चर्चित हस्तियों ने मुलाकात की थी।

गांधी के विचार सार्वकालिक हैं। एक सत्यशोधक संत, समाज विज्ञानी और मानववादी विश्व निर्माण के स्वप्नद्रष्टा के रूप में उनका योगदान अमूल्य है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, सर्वधर्म समानता, स्वदेशी और समावेशी समाज निर्माण की परिकल्पना गांधी का आदर्श रहा है। गांधी जी का जीवन ही गांधीवाद था। उन्होंने जो सोचा, मनन किया, वह किया। भारी-भरकम दर्शन, विचारधारा तथा वाद से वे हमेशा दूर रहे। उनकी अंतरात्मा ही उनकी पथ प्रदर्शक थी और कर्म ही उनके जीवन की प्रयोगशाला। एक बार गांधी जी से पूछा गया कि आप विश्व को क्या संदेश देना चाहते हैं तो उनका कहना था, 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।'

गाँधी की दूरदर्शिता को स्पष्ट रूप से दिखाता उनका कथन प्रस्तुत है जो उन्होंने 5 नवम्बर 1947 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, “मैंने एक ऐसा रास्ता दिखाने की कोशिश की है जो शान्तिपूर्ण, मानवीय और उदात्त है। इसे ठुकराया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो विकल्प होगा एक रस्साकशी, जिसमें हर कोई दूसरे को गिराने की कोशिश करेगा।”

गांधी जी के अहिंसा के संदेश को विश्वव्यापी बनाने हेतु सयुंक्त राष्ट्र संघ ने गांधी जी की जयंती 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस ( The International Day of Non-violence ) के रूप में मनाने का प्रस्ताव 15 जून 2007 को पारित किया। गांधी के सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता, आपसी प्रेम-भाईचारा के पैग़ाम से मुहँ मोड़कर हमारे देश में 2 अक्टूबर 2014 से गाँधी जयन्ती पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू कर गांधी को स्वच्छता तक सीमित कर दिया है। स्वच्छता की शपथ लेकर उसकी फोटो अपलोड करने की परिपाटी प्रारम्भ की गई है। काश! संकीर्ण सोच का पोषण करने वाले नेतागण मन का मैल धोकर विचारों की निर्मलता आत्मसात करने और नफ़रत के अंधेरे का परित्याग कर प्रेम का प्रकाश फैलाने का प्रण लेते।

जिन जीवन मूल्यों के लिए गांधी औऱ शास्त्री ने जीवन जीया उनकी समाप्ति तिथि Expiry date नहीं हुआ करती। गांधी का दर्शन टॉलस्टॉय, रस्किन, बुद्ध आदि सभी दार्शनिकों, विचारकों के दर्शन का सार है, इसलिए इसका प्रासंगिक होना अवश्यंभावी है। गांधी सादगी, अहिंसा औऱ सत्य के विचार का नाम है। विचार लोगों के चेतन-अवचेतन में हमेशा जिंदा रहते हैं। किसी विचार के प्रणेता/ संवाहक को मारने वाला सिर्फ व्यक्ति को मार सकता है, उसके विचारों को नहीं। विचारों की दरिद्रता और रुग्ण मानसिकता व्यक्ति को हत्यारा बनाती है। कायर हत्यारा गोडसे गोली चलाकर गांधी की देह का अंत कर सका, उनके विचारों का नहीं। मौत ने गांधी को अमर कर दिया है। गांधी तो मरकर ग्लोबल हो चुके हैं। उनके विचार विश्व की धरोहर बन चुके हैं। वक्त के कुचक्र से एकदम मुक्त। तभी तो प्रसिद्ध समाजशास्त्री सोरोकिन ने महात्मा गांधी के जीवन दर्शन और चिंतन को 'डैथलेस' और 'बियॉन्ड डेथ' कहा है।

दुःखद बात है कि इस दुनिया में अच्छे इन्सानों की मौत उनकी अच्छाई की वजह से होती रही है। इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पडा़ है। 'शाख से तोड़े हुए फूल ने हंसते हुए यों कहा; अच्छा होना खुद के लिए बुरी बात है दुनिया में। It is indeed dangerous for a person to be too good here in this wicked world. अच्छा इन्सान बनने से ज्यादा मुश्किल काम इस दुनिया में कुछ भी नहीं। तभी तो ग़ालिब ने कहा है: 'बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना' आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।'

✍️✍️ Prof. H. R. Isran

Retired Principal, College Education, Raj.