Jat History Thakur Deshraj/Foreword

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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प्रथम संस्करण की प्रस्तावना

प्रथम संस्करण की प्रस्तावना

ठाकुर देशराज

किसी भी समाज या जाति के विकास और अभ्युदय में इतिहास का स्थान सदा सबसे ऊंचा रहा है। मानव जाति के सुदीर्घ जीवन में शायद ही कभी ऐसा अवसर आया हो जब इतिहास की आवश्यकता न रही हो। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि कोई जन-समाज बिना इतिहास के अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता है। जिस समाज का इतिहास नष्ट हो जाता है उसके पुनरुद्धार में बड़ी कठिनाइयां पेश आती हैं। क्योंकि मनुष्य का प्रकृति-जन्य स्वभाव अनुसरण करने का है। कुछ व्यक्ति समाज में ऐसे भी होते हैं कि एक नवीन मार्ग और आदर्श समाज के सामने अमल करने को पेश कर देते हैं। किन्तु समाज में ऐसे बहुत ही थोड़े आदमी होते हैं, और ऐसे उदाहरण हमें बहुत ही कम मिलते हैं जहां आदर्शवादियों ने भी प्राचीन इतिहास का सहारा न लिया हो। अभ्युत्थान के लिए इतिहास मार्ग-दर्शक एवं नेता का काम देता है। नेता का मार्ग अस्पष्ट और संदिग्ध भी हो सकता है। किन्तु इतिहास का दिखाया हुआ मार्ग अनुभव में आया हुआ होता है। इतिहास जिन सिद्धान्तों को सामने लाता है वे कसौटी पर उतरे हुए होते हैं।

पुराने वैद्य और नवसिखिया वैद्य में जितना अन्तर होता है, उतना ही अन्तर अच्छे तथा गिरे नेता में समाज के कल्याण-मार्ग के लिए होता है। आज किसी देश और जाति को नेता की जितनी आवश्यकता है, वह भुलाने की बात नहीं। फिर इतिहास की तो नेता से भी अधिक आवश्यकता है।

इतिहास में होता भी क्या है? यही न कि भूतकाल में अमुक समाज और देश को अमुक नेता ने अमुक मार्ग से उन्नत किया।

यह समाज या जाति अथवा देश कितना कृतघ्न समझा जाना चाहिए जो अपने प्राचीन उद्धारकों और नेताओं तथा उनके सहायकों की स्मृति को जिसे कि इतिहास कहते हैं, सुरक्षित न रखे? ऐसा समाज अपने पाप (कृतघ्नता) का फल भुगतता है और वह फल उसको अपमान के रूप में मिलता है। क्योंकि सदैव किसी का स्वरूप एक सा नहीं रहता। प्रत्येक काल में उसका वर्तमान रूप देखकर लोक-


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-vii


समूह उसको सम्मान देता है। यदि वह सम्मान में रियायत चाहता है तो उसे पूर्वकाल का अपना विशेष सम्मानित होने का प्रमाण देना होता है। प्राचीन प्रमाण भी इतिहास और उसका स्वरूप ही होते हैं।

जाट जाति का गौरव-सूर्य किसी समय बहुत चमका था, उसका प्रत्येक व्यक्ति स्वाभिमानी और योद्धा था। उसके राज्य थे, रिसाले थे और भूमि थी। आज जहां उसे खेती करके जीवन-निर्वाह करते देखा जाता है तो उसे कोई वैश्य अनुमान करता है और कोई केवल किसान जाट। इस कथन के विरुद्ध कुछ कहने की इच्छा रखते हुए भी कह नहीं सकते, क्योंकि उन्होंने अपने गौरव का - अपने उच्च पद का कोई प्रमाण-पत्र (इतिहास) सुरक्षित नहीं रखा। एक विदेशी इतिहासकार ने लिखा है -

जाटों से जब कहा जाता है कि अपने स्मारक के लिए कोई समाधि, लेख व स्तूप खड़ा कीजिए तो वे कहते हैं कि सदगुण ही सच्चा स्मारक है।

इस समय भी अनेकों जाटों के दिमागों में यही बात है। अभी पिलानी में एक पढ़े-लिखे कहे जाने वाले जाट ने इसी बात को दुहराया था। उनके शब्दों का सार इस प्रकार है -

“मैंने सुना है कोई सज्जन जाट इतिहास लिख रहे हैं, उससे तो अच्छा यह होगा कि जितना रुपया इतिहास की छपाई में लगाया जाएगा, पिलानी में जाट बोर्डिंग हाउस बनवा दिया जाता।”

जाट लोगों ने इतिहास की आवश्यकता को अनुभव नहीं किया, दूसरी जातियों ने इस ओर पूरा ध्यान दिया, उसका फल सामने आया। जिन्होंने इतिहास लिखाया उनकी आज सब कद्र करते हैं। जाट अपने विषय में कुछ सोच लें कि इतिहास की उपेक्षा करने के कारण समाज में उनका स्थान गिरा या नहीं?

भरतपुर और चित्तौड़ में कौन लोक की निगाह में चढ़ा हुआ है? चित्तौड़ - क्योंकि चित्तौड़ के लोगों ने चारणों से भाटों से, लेखकों से अपने कृत्यों का प्रचार कराया - उसका इतिहास तैयार कराया। चित्तौड़ पर देहली की ओर से चढ़ाइयां हुईं। भरतपुर पर हुईं। किन्तु चित्तौड़ देहली पर चढ़कर कभी नहीं गया। भरतपुर ने दिल्ली को खाक में मिला दिया । चित्तौड़ से जो वस्तु दिल्ली गई, भरतपुर उसे दिल्ली से घर ले आया। किन्तु भरतपुर ने इन घटनाओं और कृत्यों का प्रमाण (इतिहास) नहीं रखा, न उसके प्रचार के लिए कोई व्यय किया।

जाटों के समान दूसरी कौमें इतिहास के लाभों से अनभिज्ञ नहीं रहना चाहतीं और न पहले रहीं। उन्होंने इस काम के लिए लाखों रुपये व्यय किए हैं। हमने कई छोटी-छोटी राजपूत रियासतों के कई-कई इतिहास देखे हैं, किन्तु जाटों की बड़ी-बड़ी रियासतों का एक भी इतिहास नहीं मिलता।

दूसरे लोगों ने जाटों के इतिहास के प्रति ऐसी उदासीनता देखकर खूब लाभ उठाया। कहीं उन्हें राजपूतों की औलाद लिखा तो कहीं वर्ण-शंकर। विदेशी लेखकों ने जब इनका कोई भी अपना इतिहास नहीं देखा, तो कई तो इतने झुंझलाए कि


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-viii


असभ्य और जंगली तक लिख गए। ‘मथुरा मेमायर्स’ के लेखक मि. ग्राउस को भी फटकार लगानी पड़ी। कुछ एक विदेशी इतिहासकारों को भी वही बात माननी पड़ी जो उनके विरोधियों ने इनके विषय में गढ़ी थी।

इतने समय के पश्चात् थोड़ी सी आंख जाटों की खुलीं। बस इतना कहने भर के लिए कि जाट-इतिहास की बड़ी भारी आवश्यकता है। अब से तीन साल पहले जाट महासभा ने भी प्रस्ताव पास किया था कि इतिहास बनना चाहिए।

इसमें संदेह नहीं कि जैसा कर्नल टॉड ने कहा है कि - :एक समय आधा एशिया जाट जाति के प्रभाव से दग्ध हुआ था। जाट शासक जाति है। इस समय भी उसके कई राजवंश शासक हैं।

विदेशों में हम भारतीय साम्राज्य के जो चिह्न पाते हैं, जाटों का इनसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारत में भी उनका शासन विभिन्न शासन-प्रणालियों में रहा था। भारत उनकी जन्म-भूमि है। वे शुद्ध आर्य हैं, क्षत्रिय हैं और पौराणिक काल के नहीं, किन्तु वैदिक काल के क्षत्रिय हैं। भारत में वीरता, धीरता और निर्भयता में उनकी समता करने वाली कोई दूसरी कौम नहीं, किन्तु इतिहास न होने से उनके सम्बन्ध में अनेक गलत धारणाएं हो गईं। उन्हीं गलत धारणाओं के स्पष्टीकरण और जाटों के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करा देने के लिए मैंने जाट जाति का इतिहास लिखने का साहस किया था। मैं अपने उद्योग में कहां तक सफल हुआ, यह तो मेरे बताने की बात नहीं, किन्तु यह मैं अवश्य कह सकता हूं कि जाट जाति का इतिहास इससे कहीं कई गुना विस्तृत और महत्त्वपूर्ण है। यदि लगातार दस-पांच वर्ष तक अरबी-फारसी और पाली भाषाओं के इतिहासों को देखा जाए, जाट-प्रदेशों में भ्रमण करके अनुसंधान किया जाए, शिला-लेख, ताम्रपत्र और दन्तकथाओं का संग्रह किया जाए, तो जाट-जाति का इतना बहुत इतिहास लिखा जा सकेगा, जिसकी कि अभी से कल्पना नहीं की जा सकती।

जाट-इतिहास के लिखने में मैं अपने लिए अयोग्य और असमर्थ समझता था। किन्तु किधर ही से इस काम के लिए कोई प्रयत्न न होते देखकर हिचकते और झिझकते हुए इस काम में हाथ डाला। आरम्भ में, श्री विजयसिंह ‘पथिक’ जो कि मेरे राजनैतिक गुरु हैं, से मुझे काफी प्रोत्साहन मिला। वे विशुद्ध राष्ट्रवादी हैं किन्तु उन्होंने इस ओर मेरी रुचि देखकर हिम्मत करके जुट जाने की सलाह दी। यदि उनके पास बैठकर ही इतिहास लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता, तो इतिहास इससे कहीं अधिक अच्छा लिखा जाता। सन् 1931 के सितंबर से मैंने इस ओर कदम बढ़ाया था। अभी इच्छा थी कि दो वर्ष में शनैः-शनैः तैयार करूं, किन्तु कुंवर पन्नेसिंह जी (1902-1933) की अचानक मृत्यु ने यह भाव पैदा कर दिया कि ‘शुभस्य शीघ्रम्’ का अनुसरण किया जाए।

जिन कठिनाइयों को पार करके इस इतिहास को जाट-संसार के सामने मैं


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-ix


रख रहा हूं, उनके लिए इतना ही कहना काफी है कि ईश्वर को ही यह मंजूर था कि ‘जाट इतिहास’ प्रकाशित हो जाए।

एक सम्पादक की हैसियत से मुझे इसकी छपाई में होने वाली अशुद्धियां बहुत ही खटकती हैं। किन्तु कार्य की अधिकता, पैसे की कमी, पारिवारिक जनों की बीमारी तथा नन्हें-नन्हें दो बालक-बालिकाओं की मृत्यु ने इतना अवकाश मुझे नहीं मिलने दिया कि प्रूफ देख लेता या छपाई सम्बन्धी कोई सलाह दे देता। पुस्तक छप रही थी और मैं बीमार पड़ा था। एक बार नहीं, दो बार बीमार हुआ।

उक्त कठिनाइयों के कारण ही मैं अपनी रफ कापियों को, जिनमें कई-कई शब्द छूटे हुए थे, दोबारा नहीं देख सका। अतः रफ कापियां ही प्रेस को देनी पड़ीं जो बहुत घसीट लिखी हुईं थी। प्रूफ देखने का सारा कार्य ठाकुर रामबाबूसिंह ‘परिहार ने समयाभाव के कारण बहुत शीघ्रता में किया है। अतः जो अशुद्धियां रह गई हैं, उनके लिए हम ही दोषी हैं।

कान्ति प्रेस के स्वामी श्री पं० सत्यपाल जी शर्मा ने भी घर का काम समझ के बड़ी लगन के साथ अपने समय का हर्ज करके इस ‘इतिहास’ को दो महीने के अल्प समय में ही मुद्रित करने की कृपा की है। वास्तव में यह प्रेस सुन्दर चित्ताकर्षक छपाई के लिए यू० पी० में अद्वितीय है।

अंत में कृतज्ञता प्रकाशन के लिए यह बताना अति आवश्यक है कि प्रोफेसर पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति व्यवस्थापक ‘अर्जुन’ कार्यालय दिल्ली ने जो इस इतिहास की भूमिका लिखने की कृपा की है, उसके लिए पंडित जी का मैं हृदय से कृतज्ञ हूं और ठाकुर रामबाबूसिंह जी ‘परिहार’ ने जब भी आवश्यकता पड़ी, इस इतिहास के लिखने में मेरी बड़ी सहायता की है, इसके लिए वह प्रशंसा के पात्र हैं। श्री पन्नासिंह जी ‘परिहार’ को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अपनी सेवाएं इतिहास के लिए देने की कृपा की।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि चौधरी लादूराम जैसे उदार और मेरे प्रति मेहरबान सज्जन की सहानुभूति और पं० ताड़केश्वर जी शर्मा का सहयोग प्राप्त न होता तो इस समय इस पुस्तक का प्रकाशित होना असंभव था। पंडित जी ने कई रात-रात भर जगकर इतिहास लेखन में मेरे साथ कार्य किया है, इसके लिए मैं उनका अत्यंत कृतज्ञ हूं।


देशराज
माघ संक्रांति संवत् 1900



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