Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu/Khap
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Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, Agra, 2004
Author: Dr Ompal Singh Tugania
Publisher - Jaypal Agencies, Agra-282007
अध्याय-5: सारांश
सामाजिक अनुशासन, मर्यादा की स्थापना, सामाजिक धरोहर की रक्षा, असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण क्यों जरूरी, मनु व्यवस्था में घर का मुखिया ही मुख्य न्यायाधीश, गांव पंचायतें, जातीय पंचायतें, पंच परमेश्वर, समुदाय, गवाहण्ड की पंचायतें, चौपाल व्यवस्था, पंचायतों के सर्वमान्य फैसले, उकासे, फैसले लागू करना, पंचायती दंड का प्रभाव, खाप और उसकी सीमाएं, व्यवस्थाएं, मान्यताएं, अधिकार और कर्तव्य, खाप या पाल, खापों के विभिन्न नाम, मुस्लिम काल और सर्व खाप पंचायत, खापों के चौधरियों का एकत्र होना, आधुनिक न्यायालयों और सर्वखाप पंचायती व्यवस्था में अंतर.
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सामाजिक अनुशासन: समाज में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो सामाजिक व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते अपितु जन और धन बल से अपनी मनमर्जी की व्यवस्था कायम करने में विश्वास करते हैं. इसी कारण असामाजिक कार्य करने वालों को नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है. यदि ऐसा नहीं किया जाए तो समाज की सभी मान्यताएं, विश्वास, परंपराएं, मर्यादाएं तथा अन्य अनिवार्य व्यवस्थाओं का अस्तित्व खत्म होकर जंगलराज की स्थापना हो सकती है. मनु महाराज ने एक सभ्य व्यक्ति, एक सभ्य समाज, एक सभ्य राष्ट्र और एक सभ्य विश्व के निर्माण के लिए सामाजिक अनुशासन को एक आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार किया था.
गांव पंचायतें: मनु व्यवस्था में परिवार के मुखिया को ही सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में स्वीकार किया गया था जिसकी सहायता के लिए एक प्रबुद्ध व्यक्तियों की पंचायत होती थी. जाट समाज में यह पंचायती न्याय व्यवस्था आज भी किसी न किसी रूप में प्रचलित है. इसी आधार पर बाद में गांव-पंचायतों का जन्म हुआ जिसमें सभी परिवारों, समाजों का प्रतिनिधित्व होता है; तभी से ही यह कहावत चली आ रही है- "गाम तो राम होता है"
गवाहण्ड की पंचायतें: जब अनेक गांव इकट्ठे होकर पारस्परिक लेन-देन का संबंध बना लेते हैं तथा एक दूसरे के सुख-दुख में साथ देने लगते हैं. तब इन गाँवों को मिलाकर एक नया समुदाय जन्म लेता है जिसे जाटू भाषा में गवाहण्ड कहां जाता है. यदि कोई मसला गांव-समाज से न सुलझे तब स्थानीय चौधरी अथवा प्रबुद्ध व्यक्ति गवाहण्ड को इकट्ठा कर उनके सामने उस मसले को रखता है जिसे प्रचलित भाषा में गवाहण्ड की पंचायत कहा जाता है. सभी संबंधित लोगों से पूछताछ कर काफी गहन विचार-विमर्श करके समस्या का हल सुनाया जाता है जिसे सर्वसम्मति से मान लिया जाता है.
इस पंचायत में फैसला नहीं मानने वालों के लिए सामाजिक दंड-व्यवस्था का भी प्रावधान होता है. यह जरूरी नहीं है कि गवाहण्ड की इस पंचायत में एक ही गोत्र के लोग शामिल हों क्योंकि किसी भी गवाहण्ड में अनेक जाति, धर्मों और गोत्रों के लोग बसे हो सकते हैं जिस कारण गवाहण्ड व्यवस्था में स्थायित्व की कमी पाई जाती है.
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पंचायती दंड का प्रभाव: वैसे तो जब कोई समस्या जन्म लेती है तो उसे सर्वप्रथम संबंधित परिवार ही सुलझाने का प्रयास करता है. यदि परिवार के मुखिया का फैसला नहीं माना जाता है तो वह प्रभावशाली सामाजिक दण्ड व्यवस्था लागू करने में असमर्थ रहता है. फलस्वरूप समस्या का हल तो दूर, परिवार के विभाजन का खतरा और बढ़ जाता है. इसके बाद इस समस्या को समुदाय और गांव समाज की पंचायत में लाया जाता है. दोषी व्यक्ति या समूह यदि इस स्तर की पंचायत के फैसले को भी ना माने तो पंचायती लोग ज्यादा से ज्यादा उसे गांव समाज निकाला, हुक्का पानी बंद, लेन-देन पर रोक आदि कुछ सामाजिक दंड दे सकते हैं जिन्हें प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए कोई दृढ़ व्यवस्था नहीं होती और दोषी येन-केन प्रकारेण बच निकलता है जिसके बाद यदि वह समस्या का मसला गोत्रों से जुड़ा हुआ है तो गोत्र की पंचायत होती है. जिसके माध्यम से दोषी को पूरी तरह से घेर पाना संभव नहीं होता क्योंकि सामाजिक दंड व्यवस्था का गोत्र विवादों पर कम ही प्रभाव पड़ता है.
आधुनिक न्यायालयों और सर्वखाप पंचायती व्यवस्था में अंतर: जब कोई समस्या परिवार, समुदाय, गांव-समाज, गवाहण्ड और गोत्र की पंचायतों द्वारा भी न सुलझ सके और दोषी सरेआम सामाजिक व्यवस्थाओं को खंड-खंड करने को स्वतंत्र घूमता फिरे तब क्या करें? कैसे उसे घेरा जाए? कैसे उसे समाज की मर्यादा में रहने हेतु विवश किया जाए? कैसे उसे सुधारा जाए? सन्मार्ग पर लाया जाए ताकि पूर्ववर्ती सामाजिक समरसता बहाल हो सके. यही तो अंतर है कि सामाजिक पंचायतों के फैसलों और सरकारी न्यायालय के फैसलों में. सामाजिक पंचायतों के फैसले दोषी को दोषमुक्त कर समाज में पुनः सम्मानित स्थान प्राप्त करने के मार्ग प्रशस्त करते हैं जबकि सरकारी न्यायालय के फैसले दोषी को ईर्ष्या, द्वेष और बदले की भावना में जलने के लिए समाज से अलग-थलग कर डालते हैं.
खाप की परिभाषा: सामाजिक न्याय व्यवस्था दोषी को एक नया जीवन देने का प्रयास करती है. एक लंबे अनुभव के बाद हमारे पूर्वजों ने इस सामाजिक न्याय व्यवस्था को जन्म दिया है जिसके अनेक स्तर हैं. जब गोत्र और गवाहण्ड की पंचायतें भी किसी समस्या का समाधान नहीं कर पाती तो एक बड़े क्षेत्र के लोगों को इकट्ठा करने का प्रयास किया जाता है जिसमें अनेक गवाहण्ड क्षेत्र, अनेक गोत्रीय क्षेत्र और करीब-करीब सभी हिंदू जातियों के संगठन शामिल होते हैं. इस विस्तृत क्षेत्र को खाप का नाम दिया जाता है. कहीं कहीं इसे पाल के नाम से भी जाना जाता है.
खाप की सीमाएं: गवाहण्डी पंचायत का क्षेत्र पांच-सात किलोमीटर तक अथवा पड़ोस के कुछ गिने-चुने गांवों तक ही सीमित होता है जबकि पाल या खाप का क्षेत्र असीमित होता है, हर खाप के गांव निश्चित होते हैं जैसे बड़वासनी बारहा के 12 गांव, [[Karala|कराला सतरहा के 17 गांव, चौहान खाप के पांच गांव, तोमर खाप के 84 गांव, दहिया चालीसा के 40 गांव, पालम खाप के 365 गांव, मीतरोल पाल के 24 गांव आदि.
मुसलमानों ने जब इस्लाम प्रचार-प्रसार के लिए खून के दरिया बहाए तो अपनी इज्जत और जानमाल की रक्षा के लिए लोगों को बड़ी संख्या में एकत्रित होकर
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जुल्मों का मुकाबला करने की आवश्यकता पड़ी. जिन-जिन गांवों की एकजुटता बन गई उन्होंने मिलकर सुख-दुख बांटे और एक खाप के रूप में अपनी अलग पहचान स्थापित कर ली. तभी से यह सामाजिक व्यवस्था कभी किसान संघर्ष के रूप में, कभी शासन-विरोध के रूप में, कभी वैवाहिक विसंगतियों को रोकने के रूप में चली आ रही है.
खाप की व्यवस्थाएं, मान्यताएं, अधिकार और कर्तव्य: जब कोई मसला खाप की पंचायत में आता है तो खाप के प्रमुख व्यक्ति इकट्ठे होकर एक चौधरी चुन लेते हैं तथा मसला सुना जाता है. खाप के फैसले को ठुकराना इतना आसान नहीं क्योंकि इसका आधार व्यापक होता है जो दोषी को अधिक प्रभावित कर सकता है. खाप की पंचायत, व्यक्तियों, समुदायों, गांवों, गोत्रों, गवाहंडों के आपसी विवादों को सुलझाने का एक सम्मानित मंच है. अनेक खापों के चौधरी वंशानुक्रम के आधार पर बनते आ रहे हैं और कुछ खापों के चौधरी लोकतांत्रिक आधार पर भी चुने जाते हैं. इस प्रकार हम देखते हैं कि जाटों की न्याय व्यवस्था व्यक्ति से लेकर खाप और सर्वखाप तक फैली हुई है जो विश्व की बेजोड़ न्याय व्यवस्था है.
अन्य जातियों ने भी इस प्रकार की न्याय व्यवस्था करने के असफल प्रयास किए हैं परंतु उनमें वह बात कहां? जाटों को छोड़कर अन्य लोग तो ऐसा सोच भी नहीं सकते. जिस रामराज्य की बात सब करते हैं, यही तो न्याय व्यवस्था थी जो सुधारवादी दर्शन पर आधारित है. जब तक जाटों की न्याय व्यवस्था को अपनाया जाता रहा, अपराध और भ्रष्टाचार का नाम भी सुनने में नहीं आया और जब से अंग्रेजीयत पर आधारित सरकारी न्यायालय बने तो मुकदमों के अंबार लग गए और अपराधियों से जेलें भर गई, अपराधों की समाज में बाढ़ सी आ गई और समाज का ताना-बाना ही चरमरा गया. इस बढ़ती अपराधिक प्रवृत्ति को रोकने का एकमात्र उपाय है जाटों की सामाजिक न्याय पंचायतों को पुनः जीवित करना. जाट, आज भी अनेक समस्याएं अपनी सामाजिक न्याय व्यवस्था के माध्यम से ही सुलझाते हैं.
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