Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu/Upadhi

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Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, Agra, 2004

Author: Dr Ompal Singh Tugania

Publisher - Jaypal Agencies, Agra-282007


अध्याय 1. उपाधि

अध्याय-1:सारांश

अध्याय-1:सारांश- उपाधि सम्मान सूचक शब्द, पारितोषिक और सामाजिक बहिष्कार के कारण, राय साहब, सर आदि उपाधियां, अंग्रेजों का साथ देने वाले और उनकी उपाधियां, आदिकाल से उपाधियों का प्रचलन, चार वर्ण भी उपाधियां ही हैं. जनक एक उपाधि, काशी के राजाओं की उपाधि ब्रह्मदत्त, राम,कृष्ण की उपाधियां, अंगराज, भीष्म, मनुष्य आदि कर्म पर आधारित उपाधियां, उपाधियों को लौटाना, मुस्लिम काल की उपाधियां, छोटी और लंबी उपाधियां, उपाधि धारकों के असीमित अधिकार, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उपाधि धारकों की करतूत, घातक उपाधियां, कार्यक्षेत्र में विशिष्टता के कारण उपाधियां, खानदानी उपाधियां, छत्रपति, महाराणा, बृजराज, ठाकुर, चौधरी,मलिक, तोमर, पटेल, फ़ौज़दार आदि उपाधियों का श्री गणेश, नाम के रूप में, प्रमाण-पत्रों के रूप में, विशेष स्थान के कारण, व्यक्तित्व पर आधारित, प्रवीणता के आधार पर प्रचलित उपाधियां, जीवन पर्यंत और अल्पकालिक उपाधि, उपाधि वंश, गोत्र की प्रथम सीढ़ी, पीढ़ियों का संस्तरण

पृ.1.

[पृ.1.]:सरकार, संस्था, या मानव-समूह द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को प्रदत्त सम्मान सूचक शब्द ही उपाधि कहलाता है. इसका संबंध व्यक्ति के किसी महान कार्य,योगदान या उपलब्धि से होता है. उपाधि प्राप्त व्यक्ति की समाज में अलग पहचान स्थापित हो जाती है.

उपाधि के पीछे प्रदत्तक का स्वार्थ भी छुपा होता है. यह व्यक्ति के लिए पारितोषिक भी है और कई बार यह सामाजिक बहिष्कार का कारण भी बन जाता है. अंग्रेजों ने कुछ प्रभावशाली लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए राय साहब, सर जैसी कई उपाधियां प्रदान की थी. इस श्रेणी में सर छोटूराम, सर सी वी रमन, सर सैयद अहमद शाह, राय बहादुर गुजरमल मोदी, राय साहब मानिक राव आदि अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं. नाभा, पटियाला और जींद रियासतों के राजाओं ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों का साथ दिया था. अतः इन्हें राय बहादुर, पैट्रियट और सर की उपाधियां प्रदान की गई थी.

यह केवल अंग्रेजी ने ही किया हो ऐसी बात नहीं है. उपाधि प्रदान करना आदिकाल से चला आ रहा है. सृष्टि के सबसे पहले राजा मनु ने कर्मों के आधार पर जो चार वर्ण, यथा- ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र बनाए थे, यह वास्तव में भिन्न-भिन्न लोगों को उनके कर्मों के आधार पर प्रदान की गई उपाधियां ही थी जो बाद में जातियों का रूप धारण कर गई.

राजा जनक कोई नाम नहीं था अपितु यह एक विशेष लोगों को प्रदान की गई उपाधि दी थी परंतु कुछ इतिहासकार अज्ञानता वश सीता को विदेहराज सीरध्वज की पुत्री न लिखकर राजा जनक की पुत्री लिखते हैं जो उनकी अपूर्ण व्याख्या है.

काशी के राजाओं को ब्रह्मदत्त की उपाधि मिली हुई थी. मर्यादा पुरुषोत्तम तथा दशरथ नंदन जैसी उपाधियां श्री रामचंद्र जी को प्राप्त थी. इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण को कई उपाधि मिली हुई थी. जैसे- कान्हा, वासुदेव, रणछोड़ आदि.

महाभारत में हम देखते हैं कि दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा बना कर उसे अंगराज की उपाधि से विभूषित किया था. स्वयं भीष्म पितामह कहलाने वाले शांतनु पुत्र का वास्तविक नाम देवव्रत था. महान प्रतिज्ञा करने के कारण उन्हें भीष्म की उपाधि मिली थी. इस विवरण से यह भी आभास होता है कि ये उपाधियां न होकर जैसे पर्यायवाची शब्द हों यह संदेह होना स्वाभाविक भी है. चूँकि स्वयं मनुष्य का नाम भी उसके लिए समाज प्रदत उपाधि ही है परंतु इनमें थोड़ा सा अंतर है. नाम से व्यक्ति जीवन भर पीछा छुड़ा नहीं सकता जबकि उपाधि को वह

पृ.2.

[पृ.2.]: अपने कर्मों से नष्ट कर सकता है. उपाधि वापस भी की जा सकती है और इसे प्रदत्तक छीन भी सकता है.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के जुल्मों को देखकर अनेक भारतीयों ने सर जैसी उपाधियों को वापस कर साहस का परिचय दिया था. अंतर्राष्ट्रीय खेलों में प्रतिबंधित दवाओं के सेवन करने पर अनेक उपाधियां और खिलाड़ियों के मेडल छीन लिए जाते हैं. उपाधि किसे लिंग विशेष के लिए निर्धारित नहीं होती है. मनु को लक्ष्मी बाई, सुभाष चंद्र बोस को नेताजी, पीटी उषा को उड़नपरी की उपाधि उनके महान कार्यों एवं उपलब्धियों के आधार पर ही प्रदान की गई थी.

मुस्लिम काल में मनसबदार, औहदेदार, शहंशाह-ए-आलम, ख्वाजा जहां निजाम-उल-मुल्क, वजीर-ए-आजम, मुमताज आदि उपाधियों के अलावा लंबे-लंबे वाक्यों की उपाधियां भी प्रचलित रही हैं जिन्हें बादशाह के दरबार में आते समय जोर-जोर से दोहराया जाता था.

इसी प्रकार अंग्रेजी काल के मुखिया चौधरी, नंबरदार, मुकद्दम और जैलदार आदि भी कुछ अधिकार प्राप्त उपाधि धारक ही लोग थे. प्राय: ये अपने उपाधिदाता के पक्ष में बेकसूर जनता पर जुल्म ढाया करते थे.

इतिहास को यदि निष्पक्ष रुप में गहनता से परखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि अट्ठारह सौ सत्तावन की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में अंग्रेजों का सफाया होना निश्चित था परंतु अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त उपाधि प्राप्त अनेक राष्ट्र द्रोहियों ने समय से पहले अपने आकाओं को खबर कर दी और परिणाम स्वरूप हजारों देशभक्तों को फांसी के फंदे पर लटकना पड़ा, कत्ल किया गया, कोड़ों से उनकी खाल उधेड़ दी गई और फिर भारत को आजाद होने में करीब 100 साल और लगे. अतः उपाधियां कई बार राष्ट्र और समाज के हित में नहीं भी होतीं. ये कभी-कभी आदमी को स्वार्थ में अंधा तक कर देती हैं और वह अपने दुष्कर्म पर भी गर्व करने लगता है.

आधुनिक काल में भी अनेक उपाधियों का वर्णन मिलता है. जैसे दीनबंधु, भारत केसरी, कृषि पंडित, एमएलए, एलएलबी आदि. इनका प्राय: संबंध व्यक्ति विशेष से है तथा यह उपाधियां केवल उपाधि-धारक के जीवन काल में ही उनके नाम के साथ जुड़ी रहती हैं तथा कुछ उपाधियां अल्पकालिक भी होती हैं. इनके अतिरिक्त कुछ उपाधियां स्थाई हो जाती हैं तथा उनका व्यापक विस्तार होकर यह पारिवारिक और खानदानी स्वरूप ले लेती हैं तथा ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं.

ग्राम तुगाना के चौधरी कर्म सिंह पैदल 30 कोस दूर मुजफ्फरनगर, मेरठ से लौट-फेर शाम ढले तक कर देते थे, लोगों ने उसे घोड़ा कहना शुरू कर दिया. आज उस गांव में घोड़ों के 10 परिवार हो गए हैं. वास्तव में यह उपाधियां स्थाई रूप धारण कर गई हैं. कुछ स्वयं भी धारण की जाती हैं. जैसे शिवाजी ने सन 1672 ई. में छत्रपति की उपाधि धारण की, प्रताप सिंह ने महाराणा की उपाधि धारण की. महाराजा सूरजमल को बृजराज भी कहा गया है. इसी प्रकार चौहान भी एक उपाधि ही है जो पृथ्वीराज तृतीय को उनकी वीरता, युद्ध कौशल और बल बुद्धि के कारण प्रदान की गई थी. कालांतर में यही उपाधि स्थाई रूप धारण कर वंश में परिवर्तित

पृ.3.

[पृ.3.]: हो गई. इसी प्रकार तन वर (श्रेष्ठ) के कारण प्राप्त उपाधि पहले तंवर फिर तुंवर और वर्तमान में तोमर के रूप में स्थाई विस्तार प्राप्त कर गई. सन 1720 ई. में दिल्ली के बादशाह ने चुड़ामन जाट को ठाकुर की उपाधि प्रदान की. 18 मार्च 1723 ईस्वी को आमेर राज्य के दरबार में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने महाराजा बदन सिंह को ठाकुर की उपाधि से सुशोभित किया था. मुगल काल में जो सरदार डाक व्यवस्था से जुड़े हुए थे उन्हें राव जोधासिंह ने चौधरी की उपाधि प्रदान की थी. मंढ़ार राजपूतों को दबाने के लिए दिल्ली के बादशाह ने तुषार वंशी लल्ल गोत्र के गठवाले जाटों को भेजा था. विजयश्री प्राप्त करने पर इन्हें बादशाह ने मलिक की उपाधि से नवाजा था. दक्षिण भारत में पट्टीदार जमीदारों को पटेल की उपाधि दी गई थी. ये सब उपाधियां निरंतर चली रही हैं और काफी ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं.

उपाधि नाम के रूप में जैसे, सर, राय बहादुर आदि, पद के रूप में जैसे- गणपति, मुखिया, नंबरदार आदि, प्रमाण पत्रों के रूप में जैसे- एम ए शास्त्री आदि, विशेष स्थान से संबंधित जैसे नेहरू, काका हाथरसी, चौटाला, बरनाला आदि, व्यवसाय एवं कार्य के आधार पर जैसे- गांधी, पटेल आदि, व्यक्तित्व के आधार पर जैसे लौह पुरुष, बेधड़क, पंजाब केसरी, चाचा, ताऊ और बापू आदि, क्षेत्र विशेष में प्रवीणता के आधार पर जैसे- हिंदकेसरी, भारत रत्न आदि अनेक प्रकार की उपाधियां प्रचलित हैं. जिनमें से बहुत से व्यक्तियों के जीवन काल में ही प्रभावी रहेंगी और इन उपाधियों को उपाधि धारक के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति या उसकी अगली पीढ़ी के लोग प्रयोग नहीं कर सकते. इनमें प्राय: विभिन्न पारितोषिक तथा शिक्षा संबंधित डिग्री आती हैं.

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्रत्येक वंश, गोत्र आदि पूर्व में उपाधि के रूप में प्रारंभ होता है.

अध्याय-1.उपाधि समाप्त

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