Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu/Vansha

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Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, Agra, 2004

Author: Dr Ompal Singh Tugania

Publisher - Jaypal Agencies, Agra-282007


अध्याय 4. वंश

अध्याय-4: सारांश

मनुवंश, सूर्यवंश, चंद्रवंश, 36 वंशों का जन्म, जातियों के विभिन्न वंश, जाट, राजपूत, गुर्जर, अहीर आदि में गोत्र समानताएं, वंश और राजवंश, आबू-यज्ञ और अग्नि वंश, वंश प्रचलन के प्रमुख आधार- व्यक्ति, देश, स्थान, काल, उपाधि और भाषा आदि, विभिन्न जाट वंशों का विवरण, संपूर्ण गोत्र, नवीन वंशों की उत्पत्ति, वंशों, गोत्रों की आवश्यकता, वैवाहिक व्यवस्था में गोत्रों की प्रमुख आवश्यकता, महर्षि दयानंद द्वारा गोत्र की जानकारी वैवाहिक संबंधों के लिए क्यों जरूरी, रक्त संबंध और समाज का अस्तित्व, मानव धर्म शास्त्र द्वारा वंश गोत्र का महत्व, गोत्र एवं वंश की पहचान.

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प्राचीन काल में मनुवंश नामक एक ही वंश था. इसके बाद एक वंश मनु पुत्रों से तथा एक वंश मनु पुत्री इला से प्रारंभ हुआ जिन्हें क्रमश: सूर्यवंश और चंद्रवंश के नाम से ऐतिहासिक पहचान मिली. इन दोनों वंशों का प्रयोग आजतक अनवरत चला आ रहा है.

बौद्ध धर्म और जैन धर्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए कुछ तत्कालीन ब्राह्मणों ने नवीन ब्राह्मणवाद को जन्म दिया. उन्होंने माउंट आबू (राजस्थान) पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जो 40 दिन तक चला. इस इस यज्ञ में प्राय: देश के सभी राजा-महाराजाओं को आमंत्रित किया था. इसमें समाज संचालन के कुछ नए मापदंड स्थापित किए गए. जिन राजाओं ने इस यज्ञ में भाग लिया उन्हें ब्राह्मणों ने राजपूत की उपाधि से नवाजा. किंवदंती के अनुसार हवन-कुंड से चार वीर क्षत्रीय पैदा हुए जिनको प्रतिहार, परमार, सोलंकी तथा चौहान की उपाधियां प्रदान की गई. उन्हें चारों दिशाओं में भेजा गया.

जाट, राजपूत, गुर्जर, अहीर आदि में गोत्र समानताएं: यह घटना चाहे जिस रूप में हुई हो इसने समाज को ऐसा विभाजित किया कि आज तक दिलों की दूरी कम नहीं हुई. एक भाई ने यज्ञ में भाग लिया वह राजपूत कहलाया और दूसरा जो यज्ञ में भाग नहीं ले सका वह जाट, अहीर, गुर्जर या फिर जो कुछ भी वह था वही रह गया. परंतु गोत्र नहीं बदले जा सके, यही कारण है कि जाटों, राजपूतों, गुर्जरों आदि में समान गोत्र पाए जाते हैं. तोमर, चौहान, खत्री, मलिक, खोखर, लाकड़ा, छिकारा आदि गोत्र अथवा इस रूप में प्रयुक्त वंश अनेक जातियों, धर्मों, वर्गों द्वारा प्रयोग किए जा रहे हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक भाई दूसरे को अपनाने का प्रयत्न नहीं करता है.

वंश और राजवंश: निसंदेह वंश का संबंध राजवंशों से है जैसे रूस में जार वंश, चीन में हूण वंश और भारत में अग्निवंश आदि आज के सभी गोत्रों के लोग अपने को किसी ने किसी वंश से जोड़ने का प्रयास करते हैं.

आबू-यज्ञ और अग्नि वंश: जिन्होंने माउंट आबू यज्ञ में भाग लिया वे अपने गोत्रों का संबंध प्रतिहार, परमार, सोलंकी (चालुक्य) या चौहानों से जोड़ते हैं और जिन्होंने इस यज्ञ में भाग नहीं लिया आज भी अपने गोत्र की उत्पत्ति सूर्यवंश, चंद्रवंश या फिर किसी ऋषि से बताते हैं.

वंश प्रचलन के प्रमुख आधार: जाट वीरों का इतिहास के लेखक कैप्टेन दिलीप सिंह अहलावत ने लिखा है कि वंश प्रचालन के मुख्य आधार व्यक्ति, देश, स्थान, काल, उपाधि और भाषा हैं. व्यक्तित्व के आधार पर अनेक वंशों और गोत्रों का प्रचलन हुआ है. इनमें मुख्य हैं- यादव, रघुवंशी, पांडव, पौरव, कुरुवंशी

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तंवर, सलखलान, दहिया, जाखड़, कुशान, बुधवार, देशवाल, दलाल, मान, सिहाग, कादियान, लांबा, पूनिया, ललल, बालान, नव, तक्षक, काकराना, चंद्रवंशी, शिवी, गौर, मद्र, भिंभरोलिया, सांगवान, गिल, हाला और सूर्यवंशी आदि.

देश या स्थान के आधार पर सिंधु, गांधारी, कुंतल, खुटेल, अहलावत, चेदि, सिनसिनवार, भिंड, दायमा, नेहरू, तेवतिया, वाहिक, बैस, मागध, मोहिल, तुषार, मल्लोई (मालवा), सिकरवार, सिसौदिया आदि प्रमुख गोत्रों अथवा वंशों का अभ्युदय माना जाता है.

काल के अनुसार भी अनेक वंशनामों में परिवर्तन होते रहे हैं जैसे जो वंश का गोत्र पहले इक्ष्वाकु या रघुवंश के नाम से जाने जाते थे आज वे अग्निवंशी, काकराना आदि नामों से जाने जाते हैं. सतयुग से वर्तमान कलयुग तक पहुंचते-पहुंचते अनेक वस्तुओं के नाम परिवर्तित हो चुके हैं.

भाषा के आधार पर भी अनेक वंशों का जन्म हुआ है जैसे प्राचीन काकुरथ वंशी, दक्षिणी तेलंगाना में काक, पंजाब कश्मीर में कक्क, कुक्कुर, गांधार से गंधीर, गंडीर, गंडीला, गंडासिया, गिल से गुल, गाला, गोलिया, गालारान, गहलोत से गहलावत, गुहिलोत, गुहिलावत, गहलौत आदि. भाषा में परिवर्तन से गोत्र और वंश भी क्षेत्रीय भाषा से प्रभावित होकर समानार्थी नाम से विकसित हो गए हैं.

उपाधि के आधार पर प्रचलित प्रमुख गोत्र हैं- राव, रावत, हरावत, चौहान, सोलंकी, प्रमार, परिहार, ठाकुरेला, छोकर, ठेनवा, चापोत्कट, राणा, गोदारा, दीक्षित, मीठे, चट्टे, खट्टे, जंघारे, भगौर, लोहचब, ठाकुर, आंतल, मलिक, गठवाले, जठराना, चौधरी आदि.

जैसे ही राजवंश, राजशाही अथवा राजतंत्र व्यवस्था समाप्त हुई वैसे ही नवीन वंशों की उत्पत्ति के मार्ग भी बंद हो गए. इसके बाद इन राजवंशों में उत्पन्न होने वाले प्रसिद्ध व्यक्तियों के नामों पर विभिन्न गोत्रों का जन्म होता गया. जिस गोत्र का संबंध किसी वंश से सिद्ध नहीं होता, उसे संपूर्ण गोत्र का दर्जा कदापि नहीं मिल सकता.

नवीन वंशों की उत्पत्ति: जब भी कोई नया वंश जन्म लेता है तो समस्त समाज में आमूल-चूल परिवर्तन होते हैं. प्राय एक विशिष्ट परंपरा का अंत होकर ही एक नई विचारधारा अस्तित्व में आती है. सल्तनत काल में और इससे भी पहले अनेक वंशों ने दिल्ली पर शासन किया. हर बार पूर्ववर्ती वंश से भिन्न विचारधारा ने जन्म लिया. यह इस बात का भी प्रमाण है कि नवीन वंश की स्थापना करना कोई सरल कार्य नहीं है और जब तक आज जैसी प्रजातांत्रिक विचारधारा का प्रचलन रहेगा तब तक तो नए वंशों का जन्म संभव ही नहीं है. प्राय: यह भी देखा गया है कि जिन गोत्रों के वंश सिद्ध नहीं होते, वे अपना गोत्र और वंश एक ही मानकर संतुष्ट रहते हैं जबकि वह खोज का विषय होना चाहिए.

वंशों, गोत्रों की आवश्यकता: कई बार यह प्रश्न भी उठता है कि इन गोत्रों, वंशों की आवश्यकता ही क्यों है? प्रश्न बड़ा ही महत्वपूर्ण है. इसे पहले समझना होगा. विश्व के प्रथम राजा मनु ने पशुवत घूमते लोगों को एकजुट कर घर, परिवार और समाज की नींव रखी थी. उसने समस्त मानव जीवन को 100 वर्ष का मान कर इसका चार वर्णों में विभाजन

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भी किया था.

वैवाहिक व्यवस्था में गोत्रों की प्रमुख आवश्यकता: इतना ही नहीं, मनु महाराज ने शादी-विवाह हेतु जो नियम बनाए उनमें यह स्पष्ट लिख दिया कि विवाह करते समय कम से कम तीन कबीलों (गोत्रों) की दूरी रखनी चाहिए. आज गोत्रों का अस्तित्व है उस समय विभिन्न कबिलों का अस्तित्व था.

रक्त संबंध और समाज का अस्तित्व: इसका कारण साधारण शब्दों में उन्होंने बताया कि यदि एक ही रक्त में शादी विवाह होता है तो इसके दो परिणाम हो सकते हैं या तो वैवाहिक सूत्र में बंधे दंपतियों की संतान वैराग्य को प्राप्त होकर ईश्वर भक्ति में लीन होकर समाज को भूल जाएगी या फिर संसार में अनैतिकता फैला कर समाज को नष्ट कर देगी. ऐसे ही विचार आर्य समाज के प्रवर्तक युगपुरुष महर्षि दयानंद के भी थे. अतः भिन्न रक्त संबंध समाज के अस्तित्व के लिए एक आवश्यक शर्त रखी गई. यह तभी संभव होगा जब कि लोगों को विभिन्न गोत्रों का ज्ञान हो. आजकल कई क्षेत्रों के लोग शादी-विवाह में लड़की का, उसकी माता का और उसकी नानी का गोत्र छोड़ते हैं और कहीं-कहीं प्रथम दो गोत्रों को छोड़कर बेटे-बेटियों की शादी तय की जाती है.

मानव धर्म शास्त्र द्वारा वंश गोत्र का महत्व: मानव धर्म शास्त्र, अध्याय-3, श्लोक-5 में अंकित है-

अस पिण्डा च या मातुर गोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार, कर्माणि मैथुने ॥

अर्थात जो कन्या मातृकुल की छ: पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो उससे विवाह करना उचित है.

इसी कारण हिंदुओं में विवाह संस्कार के समय गोत्र पूछे तथा बोले जाते हैं. दान-पुण्य के समय भी गोत्र पुकारा जाता है. सैकड़ों वर्षो से पिछड़े हुए कुटुंबी की पहचान गोत्र से होती है. एक ही वंश-गोत्र में विवाह करने से वैद्यक शास्त्र भी निषेध करता है. स्वगोत्र अथवा स्ववंश में विवाह करने से संतान निस्तेज, अंगहीन और निर्बल मस्तिष्क वाली पैदा होती है. यूरोपियन डॉक्टर भी इस बात की साक्षी देते हैं अतः गोत्र का बड़ा महत्व है तथा हर जाट को अपना गोत्र अवश्य स्मरण रखना चाहिए.


अध्याय-4.वंश, समाप्त

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