Kapilavastu

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(Redirected from Kapilanagara)
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.)

Map of Nepal

Kapilavastu (कपिलवस्तु) (Kapilavatthu in pali) is a town in the Lumbini Zone of southern Nepal. It was one of the Buddhist places visited by Xuan Zang in 636 AD.

Variants

Location

It is located roughly 25 km to the northwest of Lumbini, a UNESCO World Heritage Site that is widely believed to be the birthplace of Gautama Buddha.[1]

Origin of the name

History

Kapilavastu was an ancient city on the Indian subcontinent which was the capital of Shakya. King Śuddhodana and Queen Māyā are believed to have lived at Kapilavastu, as did their son Prince Siddartha Gautama until he left the palace at the age of 29.[2] Buddhist texts such as the Pāli Canon claim that Kapilavastu was the childhood home of Gautama Buddha, on account of it being the capital of the Shakyas, over whom his father ruled.[3] Kapilavastu is the place where Siddhartha Gautama spent his 29 years of his life. According to Buddhist sources Kapilvastu was named after Vedic sage Kapila.[4] [5]

The 19th-century search for the historical site of Kapilavastu followed the accounts left by Faxian and later by Xuanzang, who were Chinese Buddhist monks who made early pilgrimages to the site.[6][7] Some archaeologists have identified present-day Tilaurakot, Nepal, while some others have identified present-day Piprahwa, India as the location for the historical site of Kapilavastu,[8][9]the seat of governance of the Shakya state that would have covered the region. Both sites contain archaeological ruins.[10]

कपिलवस्तु

विजयेन्द्र कुमार माथुर[11] ने लेख किया है ... कपिलवस्तु (AS, p.133) ज़िला बस्ती, उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग में पिपरावां नामक स्थान से 9 मील उत्तर-पश्चिम तथा रुमिनीदेई या प्राचीन लुंबिनी से 15 मील पश्चिम की ओर मेमिराकोट के पास प्राचीन कपिलवस्तु की स्थिति बताई जाती है। इसी क्षेत्र में स्थित तिलौरा या तिरोराकोट को भी कुछ लोग कपिलवस्तु मानते हैं, किंतु इन स्थानों पर अभी तक उत्खनन न होने के कारण इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। किंतु लुंबनी का अभिज्ञान ज़िला बस्ती में नेपाल-भारत सीमा पर स्थित ककराहा ग्राम से 13 मील उत्तर में वर्तमान रुमिनीदेई के साथ निश्चित होने के कारण कपिलवस्तु की स्थिति भी इसी के आसपास कुछ मील के भीतर रही होगी, यह भी निश्चित समझना चाहिए।

गौतम बुद्ध के पिता शाक्यवंशी शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु में थी। सौंदरानंद-काव्य में महाकवि अश्वघोष ने कपिलवस्तु के बसाई जाने का विस्तृत वर्णन किया है, जिसके अनुसार यह नगर कपिल मुनि के आश्रम के स्थान पर बसाया गया था। यह आश्रम हिमाचल के अंचल में स्थित था- तस्य विस्तीर्णतपसः पार्श्वे हिमवतः शुभे, क्षेत्रं चायतनं चैव तपसामाश्रमोअभवत् (सौंदरानंद 1,5)

तपस्वियों के निवास स्थान और तपस्या के क्षेत्र उस आश्रम में कुछ इक्ष्वाकु राजकुमार बसने की इच्छा से गए- तेजस्विंसदनं तपं क्षेत्रं तमाश्रमम्, केचिदिक्ष्वाकुवो जम्मुः राजपुत्रा विवत्सवः (सौदरानंद 1,18)


उन्होंने जिस स्थान पर निवास किया, वह शाक्य या सागौन वृक्षों से ढका था, इसलिए वे इक्ष्वाकु राजकुमार शाक्य कहलाए। एक दिन उनकी समृद्धि करने की इच्छा से जल का घड़ा लेकर मुनि आकाश में उड़ गए और राजपुत्रों से कहा- "अक्षय जल के इस कलश से जो जलधारा पृथ्वी पर गिरे, उसका अतिक्रमण ना करके क्रम से मेरा अनुसरण करो।" कपिल मुनि ने उस आश्रम की भूमि के चारों ओर जल की धारा गिराई और चौपड़ की तख्ती की तरह नक्शा बनाया और

[p.134]: उसे सीमाचिह्नों से सुशोभित किया। तब वास्तु-विशारदों ने उस स्थान पर कपिल के आदेश अनुसार एक नगर बनाया। उसकी परिखा नदी के समान चौड़ी थी और राजपथ भव्य और सीधा था। प्राचीन पहाड़ों की तरह विशाल थी- जैसे वह दूसरा गिरिव्रज ही हो। श्वेत अट्टालिकाओं से उसका मुख सुंदर लगता था। उसके भीतर बाजार अच्छी तरह से विभाजित थे। वह नगर प्रसाद माला से गिरा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानो हिमालय की कुक्षि हो। धनी, शांत, विद्वान और अनुद्धत लोगों से भरा हुआ वह नगर किन्नरों से मंदराचल की भांति शोभायमान था। वहां पुरवासियों को प्रसन्न करने की इच्छा से राजकुमारों ने प्रसन्नचित्त होकर उद्यान नामक यश के सुंदर स्थान बनवाये। सब दिशाओं में सुंदर झीलें निर्मित कीं, जो स्वच्छ जल से पूर्ण थीं। मार्गों और उपवनों में चारों ओर मनोरम, सुंदर, ठहरने के स्थान बनवाए गए, जिनके साथ कूप भी थे। (सौंदरानंद, 1,24-28-29-32-33-41-42-43-48-49-50-51) क्योंकि कपिल मुनि के आश्रम के स्थान पर वह नगर बसाया गया था, अतः कपिलवस्तु कहलाया- कपिलस्य च तस्यष्रेस्तस्मिन्नाश्रमवास्तुनि, यस्मात्तत्पुरं चकुस्तस्मात् कपिलवास्तु तत्। (सौदरानंद 1,57)

सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु में ही अपना बचपन बिताया था और सच्चे ज्ञान और सुख की प्राप्ति की लालसा से अपने परिवार और राजधानी को छोड़कर चले गये थे। बुद्धत्व को प्राप्त करने पर वे अंतिम बार कपिलवस्तु आए थे और तब उन्होंने अपने पिता शुद्धोधन और पत्नी यशोधरा को अपने धर्म में दीक्षित किया था।

कपिलवस्तु अशोक (मृत्यु 232 ई.पू.) के समय में तीर्थ के समान समझा जाता था। अपने गुरु उपगुप्त के साथ सम्राट ने कपिलवस्तु की यात्रा की और यहां स्तूप आदि स्मारक बनवाए। किंतु शीघ्र ही इस नगर की अवनति का युग प्रारंभ हो गया और इसका प्राचीन गौरव घटता चला गया। इस अवनति का कारण अनिश्चित है। संभवतः कालप्रवाह में नेपाल की तराई क्षेत्र में होने के कारण कपिलवस्तु के स्थान को घने वनों ने आच्छादित कर लिया था और इस कारण यहां पहुंचना दुष्कर हो गया होगा। चीनी यात्री फ़ाह्यान (405-411 ई.) के समय तक कपिलवस्तु नगरी उजाड़ हो चुकी थी। केवल थोड़े-से बौद्ध भिक्षु यहां निवास करते थे, जो अपनी जीविका कभी-कभी आ जाने वाले यात्रियों के दान में दिए गए धन से चलाते थे। यह भी उल्लेखनीय है कि फ़ाह्यान के समय तक बौद्ध धर्म से घनिष्ठ रूप से संबंधित अन्य प्रमुख स्थान जैसे बोधगया और कुशीनगर भी उजाड़ हो चले थे। वास्तव में बौद्ध धर्म का अवनति काल इस समय प्रारंभ हो गया था। हर्ष के शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी

[p.135}:पर्यटक युवानच्वांग ने कपिलवस्तु की यात्रा की थी (630 ई. के लगभग)। उसके वर्णन के अनुसार कपिलवस्तु में पहले एक सहस्र संघाराम थे, किंतु अब केवल एक ही बचा था, जिसमें 30 भिक्षु रह रहे थे। स्मिथ के अनुसार युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित कपिलवस्तु पिपरावा से 10 मील उत्तर-पश्चिम की ओर नेपाल की तराई में स्थित तिलौराकोट नामक स्थान रहा होगा (अर्ली हिस्ट्री ऑव इंडिया, चतुर्थ संस्करण, पृ. 167)

कपिलवस्तु परिचय

कपिलवस्तु प्राचीन समय में शाक्य वंश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध था। ये नगर, सिद्धार्थ नगर से 20 किलोमीटर और गोरखपुर से 97 किलोमीटर दूर स्थित है। कपिलवस्तु महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन के राज्य की राजधानी थी। यहाँ भगवान बुद्ध ने अपना बचपन व्यतीत किया था। यह श्रावस्ती का समकालीन नगर था। परंपरा के अनुसार वहाँ कपिल मुनि ने तपस्या की, इसीलिये यह कपिलवस्तु (अर्थात् महर्षि कपिल का स्थान) नाम से प्रसिद्ध हो गया। नगर के चारों ओर एक परकोटा था, जिसकी ऊँचाई अठारह हाथ थी। गौतम बुद्ध के काल में भारतवर्ष के समृद्धिशाली नगरों में इसकी गणना होती थी। यह उस समय तिजारती रास्तों पर पड़ता था। वहाँ से एक सीधा रास्ता वैशाली, पटना और राजगृह होते हुये पूरब की ओर निकल जाता था, दूसरा रास्ता वहाँ से पश्चिम में श्रावस्ती की ओर जाता था।

बौद्ध ग्रथों में: नगर के भीतर एक सभा-भवन बना हुआ था, जहाँ पर शाक्य लोग एकत्र होकर महत्त्वपूर्ण विषयों पर सोच-विचार किया करते थे। बाद में एक सभा-गृह और बनवा दिया गया, जिसका उद्घाटन स्वयं गौतम बुद्ध ने किया था। वे इस अवसर पर अपने शिष्यों सहित वहाँ आये थे। उनके सम्मान में नगर अच्छी तरह सज़ा दिया गया और चारों ओर एक योजन की दूरी तक रोशनी की गई। उनकी सुविधा के लिये इस समय शान्ति की पूरी व्यवस्था कर दी गई थी। कुछ बौद्ध ग्रन्थों में इसकी शोभा का वर्णन अतिशयोक्ति के साथ किया गया है। 'बुद्धचरित' नामक बौद्ध ग्रंथ में इसी पुर को सभी नगरों में श्रेष्ठ (पुराधिराज) कहा गया है। इसकी समता में तत्कालीन कोई भी नगर नहीं आ सकता था और इसके ठाट-बाट को देख कर लगता था, मानों स्वयं राजलक्ष्मी ही वहाँ पर निवास कर रही हों। दरिद्रता के लिये वहाँ कोई अवकाश नहीं था। नागरिकों के घर वहाँ उसी तरह सुशोभित थे, जिस तरह सरोवर में कमलों की पंक्तियाँ। ललितविस्तर नामक ग्रन्थ में इसके सुन्दर उपवन एवं विहार आदि का वर्णन मिलता है। नागरिक समृद्ध, अच्छे विचारों वाले तथा धार्मिक थे। यहाँ लोगों को युद्ध-शिक्षा दी जाती थी। नगर में सुन्दर बाज़ार लगते थे। राजा शुद्धोधन सदाशय और पुरवासियों के हित में संलग्न थे। 'सौन्दरनन्द' नामक काव्य में इसे गौतम की जन्मभूमि कहा गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार वहाँ के नागरिकों को अनुचित कर नहीं देने पड़ते थे और वे सुखी एवं संपन्न थे।

बुद्ध द्वारा दीक्षा: गौतम बुद्ध के विश्राम की सुविधा के लिये शाक्यों ने नगर के बाहर शान्त वातावरण में निग्रोधाराम नामक विहार बनवा दिया था। पहली बार वे इसमें अपने बीस हज़ार शिष्यों के साथ पधारे थे। कपिलवस्तु के नागरिकों ने उनके व्यक्तित्व और उपदेशों में इतना आकर्षण पाया कि दूसरे ही दिन उनमें से अधिकांश उनके शिष्य बन गयें उनके भाई नन्द और पुत्र राहुल तथा इसी तरह राजकुल के कुछ और भी सदस्यों ने उनसे दीक्षा ले ली थी। उनके प्रभाव में आकर शाक्य बहुसंख्या में बौद्ध संघ के सदस्य बन गये। इस कारण वहाँ कुछ लोगों ने उनके ऊपर परिवारों को तोड़ने का आरोप लगाया। शुद्धोधन ने भी यह सब देखकर राजनियम बना दिया कि बिना माँ-बाप की अनुमति से राज्य का कोई भी व्यक्ति बौद्ध धर्म में दीक्षा न ग्रहण करे। शाक्यों और उनके विपक्षियों के बीच के झगड़ों में बुद्ध ने कई समयों पर मध्यस्थता की थी। एक बार कोसल के राजा विडुडभ ने शाक्यों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये कपिलवस्तु पर आक्रमण कर दिया। इस समय बुद्ध उसे समझाने के लिये इस नगर में आये हुये थे। शाक्यों के पड़ोसी कोलिय लोग रामग्राम में शासन करते थे। दोनों के बीच रोहिणी नदी के जल के प्रश्न को लेकर विवाद खड़ा हुआ। इस झगड़े के कारण भीषण संहार का ख़तरा आ खड़ा हुआ। गौतम बुद्ध की मध्यस्थता के फलस्वरूप दोनों ही दल एक संभावित भयंकर क्षति से बच गये। उनके महापरिनिर्वाण के अनन्तर शाक्यों ने उनके शरीर के अवशेष की प्राप्ति के लिये अपनी माँग पेश की थी। उन्हें उनकी अस्थियों का एक भाग प्राप्त हुआ, जिसके ऊपर उन्होंने स्तूप का निर्माण किया।

लुम्बिनी ग्राम: इस नगर के पास ही लुम्बिनी ग्राम स्थित था, जहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। इसकी पहचान नेपाल की तराई में स्थित रूमिनदेई नामक ग्राम से की जाती है। बौद्ध धर्म का यह एक प्रमुख केन्द्र माना जाने लगा। अशोक अपने राज्य-काल के बीसवें वर्ष धर्मयात्रा करता हुआ लुम्बिनी पहुँचा था। उसने इस स्थान के चारों ओर पत्थर की दीवाल खड़ी कर दी। वहाँ उसने एक स्तंभ का निर्माण भी किया, जिस पर उसका एक लेख ख़ुदा हुआ है। यह स्तंभ अब भी अपनी जगह पर विद्यमान है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि अशोक की यह लाट ठीक उसी जगह खड़ी है, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। अशोक ने वहाँ के निवासियों को कर में भारी छूट दे दी थी। जो तीर्थयात्री वहाँ आते थे, उन्हें अब यहाँ यात्रा-कर नहीं देना पड़ता था। वह कपिलवस्तु भी आया हुआ थां गौंतम बुद्ध के जिस स्तूप का निर्माण शाक्यों ने किया था, उसे उसने आकार में दुगुना करा दिया था।

महत्त्व: जैसे-जैसे शाक्य गणराज्य का अध:पतन होता गया, वैसे-वैसे कपिलवस्तु का राजनीतिक महत्त्व भी घटने लगा। बाद में चल कर इसकी प्रतिष्ठा अब केवल बौद्ध तीर्थ के रूप में ही रह गई थी। पाँचवीं सदी में जब चीनी यात्री फाहियान यहाँ आया, उस समय इसकी जनसंख्या काफ़ी घट गई थी। सातवीं शताब्दी में हुसेनसांग भी वहाँ आया था। वह लिखता है कि इस नगर में कई स्तूप थे, जो बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद राजाओं और भक्तों द्वारा बनवाये गये थे। वहाँ कई पुराने मठ भी थे, जो अब बर्बाद हो चुके थे। यह नगर इस समय काफ़ी उजड़ गया था। इसके खंडहरों के बीच जंगली जानवर रहते थे, जिनके कारण यात्रियों को ख़तरा बना रहता था।

संदर्भ: भारतकोश-कपिलवस्तु

Visit by Xuanzang in 636 AD

Alexander Cunningham[12] writes that From Sravasti both of the Chinese pilgrims proceeded direct to Kapila, which was famous throughout India as the birth-place of Buddha. Hwen Thsang makes the distance 500 li, or 83 miles, to the south-east ;[13] but according to the earlier pilgrim Fa-Hian the distance was 13 yojanas, or 91 miles, in the same direction.[14] The difference oil yojana, or 7 miles, seems to be due to some confusion as to the relative positions of Kapila, and the birth-place of Krakuchanda, which were just one yojana apart. Fa-Hian reached the latter place first before visiting Kapila ; but Hwen Thsang went first to Kapila, and afterwards to the birth-place of Krakuchanda. As the site of this place may with great probability be identified with Kakua, 8 miles to the west of Nagar, which I propose to identify with Kapila-nagara, I am inclined to adopt the narrative of Fa-Hian. Now the distance between Sahet and Nagar is rather more than 81½ miles, as I found the road from Sahet to Asokpur 42½ miles, and from Asokpur to


[p.415]:

Nagar the distance is 39 miles measured direct on the large map of the Indian Atlas. The actual distance by the winding roads of this part of the country cannot therefore be less than 85 miles, and is probably about 90 miles, as stated by Fa-Hian.

Hwen Thsang estimates the circuit of the district at 4000 li, or 667 miles, which agrees very well with the size of the tract lying between the Ghagra and the Gandak from Faizabad to the confluence of those rivers. The direct measurement is 550 miles, which would be upwards of 600 miles in road distance.[15]

No trace of the name of Kapila has yet been discovered ; but I believe that the position of the city can be fixed within very narrow limits by many concurring data. According to the Buddhist chronicles of Tibet, Kapilavastu or Kapilanagara was founded by some descendants of the solar hero Gotama,[16] on the bank of a lake near the river Rohini in Kosala. Now the town of Nagar, or Nagar-khas, that is " the city," is situated on the eastern bank of the Chando Tal, near a large stream named Kohana, a tributary of the Rapti, and in the northern division of Oudh beyond the Ghagra river, and therefore in Kosala. Its distance and bearing from Sravasti have already been noted as agreeing most precisely with those stated by the Chinese pilgrims. To the west a small stream named Sidh falls into the lake. This name, which means the "perfect or the holy one," is always applied to the sages of antiquity, and in the present instance I think that it may refer to the sage Kapila, whose hermitage was


[p.416]: also on the bank of the lake opposite the city. The Gautamas had at first established themselves near the sage's dwelling ; but, as the lowing of their kine had disturbed his meditations, they founded their new city of Kapilanagara at some distance, that is on the opposite or eastern end of the lake.

The position of the Rohini river is more precisely indicated by the Chinese pilgrims and Ceylonese chronicles. According to Fa-Hian[17] the royal garden, named Lun-ming, or Lumbini, in which Buddha was born, was situated at 50 li, or 8.33 miles, to the east of Kapila. Hwen Thsang[18] calls the garden La-fa-ni, and places it on the bank of a small stream flowing to the south-east which the people called the " River of Oil." According to the Ceylonese Chronicles,[19] the Rohini flowed between the cities of Kapila and Koli, the latter being the birth-place of Maya Devi, the mother of Buddha. It was also called Vyaghra-pura, or " Tiger-town. "[20] When Maya was near her confinement she went to pay a visit to her parents at Koli. " Between the two cities there was a garden of Sal trees called Lumbini, to which the inhabitants of both cities were accustomed to resort for recreation." There she rested and gave birth to the infant Buddha. In another place it is said that during a season of drought the inhabitants of Kapila and Koli quarrelled about the distribution of the waters of the Rohini for the irrigation of their rice-fields. [21] From all these details I infer that the Rohini was most probably the Kohana river of the present day, which flows in a south-easterly


[p.417]:

course about 6 miles to the eastward of Nagar. It is the Kooana and Quana of the maps, and the Koyane of Buchanan,[22] who describes it as " a fine little river, which, with its numerous branches, fertilizes all the south-eastern parts of the district." It therefore corresponds in all essential particulars with the Rohini of the Buddhist chronicles.

The position of Koli is doubtful ; but it may perhaps be referred to the village of Am Kohil, which is exactly 11 miles to the east of Nagar and rather less than 3 miles from the nearest point of the Kohana river. The road from Nagar to Kohil crosses the Kohana opposite the small town of Mokson, which may probably be the site of the once famous Lumbini garden, as it was also called paradi-moksha,[23] or "supreme beatitude." In later times this appellation would have been shortened to Moksha or Mokshan, to which I would refer the possible origin of Hwen Thsang's name of the " River of Oil," as mrakshan is the Sanskrit term for oil. Abul Fazl calls the place of Buddha's birth Mokta,[24] which is perhaps only a misreading of Moksa.

Another strong point in favour of the identification of Nagar with the ancient Kapila is the fact that the present chief of Nagar is a Gautama Rajput, and the districts of Nagar and Amorha are the head-quarters of the clan, as well as of the Gautamiya Rajputs, who are an inferior branch of the Gautamas. Now the Sakyas of Kapilavastu were also Gautama Rajputs, and Sakya Muni himself is still known amongst the people


[p.418]:

of Barma as Gautama Buddha, or simply Gautama. In the Vansalata[25] the Gautamas are said to be descendants of Arkabandhu, which is one of the names of Buddha given in the Amara Kosha of the famous Amara Sinha, who was himself a Buddhist.

I have not visited Nagar myself, but I am informed that it possesses a khera, or mound of brick ruins, and that there are numerous remains of brick buildings in the neighbourhood. As Fa-Hian describes Kapila in the beginning of the fifth century as " literally a vast solitude, in which there was neither king nor people," but only a few monks and some ten or twenty houses, it is scarcely possible that there would be any conspicuous traces of the city which has lain desolate for upwards of twelve centuries. In the middle of the seventh century Hwen Thsang found the place so utterly ruined that it was impossible to ascertain its original size, I am therefore quite satisfied that the absence of any cxtensive ruins at the present day cannot overthrow the very strong claims which Nagar certainly possesses to be identified with the ancient city of Kapila. But this identification is still further strengthened by the names of several places in the vicinity, which would appear to represent some of the more holy spots that were famous in the early history of Buddhism. I allude more especially to the birth- places of the two previous Buddhas, Krakuchanda and Kanaka-muni, and the Sara-kupa, or "arrow-fountain," which sprang into existence at the stroke of Buddha's arrow. Fa-Hian names Na-pi-kia as the birthplace of Krakuchanda ;


[p.419]: but in the Buddhist chronicles [26] the city is called Kshemavati and Khemavati.[27] In the books of Ceylon, however,[28] Krakuchanda is said to have been the Purohit, or family priest, of Raja Kshema, of Mekhala. According to Fa-Hian, the city was about 1 yojana, or 7 miles, to the west-north-west of Kapila ; but according to Hwen Thsang it was 50 li, or 8.3 miles, to the south of Kapila. In the absence of other data, it is difficult to say which of these statements may be correct ; but as I find a town named Kakua, exactly 8 miles to the west of Nagar, I am strongly inclined to adopt the account of Fa-Hian, as Kaku is the Pali form of Kraku. According to Hwen Thsang's bearing, the city should be looked for in the neighbourhood of Kalwari Khas, which is 7 miles to the south of Nagar.

A similar discrepancy is found in the position of the birthplace of Kanaka-muni, which, according to Fa-Hian, was to the south of Krakuchanda's birthplace, but to the north-east of it according to Hwen Thsang. They agree exactly as to the distance, which the latter makes 30 li, or just 5 miles, while the former calls it somewhat less than 1 yojana, that is about 5 or 6 miles. In the Ceylonese chronicles the town is named Sobhavati-nagara, [29] which may possibly be represented by the village of Subhay-Pursa, at 6½ miles to the south-east of Kakua, and the same distance to the south-west of Nagar.

The same unaccountable difference of bearing is found also in the position of the Sara-Kupa, or the


[p.420]: " Arrow Fountain," which Fa-Hian places at 30 li, or 5 miles, to the south-west of Kapila, while Hwen Thsang places it at the same distance to the south-east. In this instance also I believe that Fa-Hian is right, as Hwen Thsang makes the distance from the Sara-Kupa to the Lumbini garden from 80 to 90 li, or 13 to 15 miles, which, as I have already shown, was on the bank of the Rohini or Kohana river, to the east of Kapila. Now, if the Arrow Fountain was to the south-east of the capital, its distance from the Lumbini garden could not have been more than 6 or 7 miles, whereas if it was to the south-west, as stated by Fa-Hian, the distance would be about 12 or 13 miles. The probable position of the Sara-Kupa, or Arrow Fountain, may therefore be fixed near the village of Sarwanpur, which is exactly 5½ miles to the south-west of Nagar.

In proposing all these identifications, I have assumed that Nagar is the site of the ancient Kapila, but as I have not examined this part of the country myself, and as the information which I have been able to obtain is necessarily vague, I feel that the final settlement of this important inquiry can only be satisfactorily determined by an actual examination of Nagar itself and the surrounding localities. In the meantime I offer the results of the present disquisition as useful approximations until the true sites shall be determined by actual observation.

References

  1. "Lumbini, the Birthplace of the Lord Buddha". UNESCO.
  2. Trainor, K (2010). "Kapilavastu". In Keown, D; Prebish, CS. Encyclopedia of Buddhism. Milton Park, UK: Routledge. pp. 436–7. ISBN 978-0-415-55624-8.
  3. Trainor, K (2010). "Kapilavastu". In Keown, D; Prebish, CS. Encyclopedia of Buddhism. Milton Park, UK: Routledge. pp. 436–7. ISBN 978-0-415-55624-8.
  4. Kapila, VEDIC SAGE, Encyclopedia Britannica . Link: https://www.britannica.com/biography/Kapila
  5. UP’s Piprahwa is Buddha’s Kapilvastu? ,Shailvee Sharda May 4, 2015, Times of India
  6. Beal, Samuel (1884). Si-Yu-Ki: Buddhist Records of the Western World, by Hiuen Tsiang. 2 vols. Translated by Samuel Beal. London. 1884. Reprint: Delhi. Oriental Books Reprint Corporation. 1969. Volume 1
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  9. Chris Hellier (March 2001). "Competing Claims on Buddha's Hometown". Archaeology.org.
  10. Srivastava, KM (1980). "Archaeological Excavations at Piprāhwā and Ganwaria and the Identification of Kapilavastu". The Journal of the International Association of Buddhist Studies. 13 (1): 103–10; Sharda, Shailvee (May 4, 2015), "UP's Piprahwa is Buddha's Kapilvastu?", Times of India; Huntington, John C (1986), "Sowing the Seeds of the Lotus" (PDF), Orientations, September 1986: 54–56, archived from the original (PDF) on November 28, 2014
  11. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.133-135
  12. The Ancient Geography of India/Kapila, p.414-420
  13. Julien's 'Hiouen Thsang,' ii. 309.
  14. Beal's 'Fah-Hian,' xxi-xxii.
  15. See Map No. XI.
  16. Csoma de Koros in Journ. Asiat. Soc. Bengal, ii. 391.
  17. Beal's ' Fah-Hian; xxii. 87.
  18. 'Hiouen Thsang,' ii. 32-2.
  19. Hardy's 'Manual of Buddhism,' p. 307.
  20. Ibid., p. 136.
  21. Ibid., p. 307.
  22. 'Eastern India,' ii. 301.
  23. ' Fo-kwe-ki,' c. xxii., note 17, by Klaproth.
  24. 'Ayin Akbari,' ii. 503.
  25. Buchanan, ' Eastern India,' ii. 458.
  26. 'Sapta Buddha Stotra,' quoted by Remusat in 'Fo-kwe-ki,' c. xxi. note 3.
  27. Tumour's ' Mahawanso," Introduction, p. 33.
  28. Hardy's ' Manual of Buddhism,' 96.
  29. 'Mahawanso,' Introduction, p. 34.