Kattikvali Mahmari
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान |
कात्तिकवाली महामारी साल 1918 में भारत ही नहीं दुनिया भर में कहर बनकर टूटने वाली महामारी का नाम था। असल में इसका नाम था Influenza Pandemic of 1918 अर्थात 1918 की इन्फ्लूएंजा विश्वमारी। इसे 'स्पेनिश फ्लू' नाम से प्रचारित किया गया। बीमारी का ये क्लिष्ट नाम ग्रामीण भारत के लोगों की जबान पर नहीं चढ़ सका। आमजन ने इसे 'पचेतरे की कात्तिकवाली बीमारी' का नाम दिया क्योंकि यह महामारी विक्रम संवत 1975 के कार्तिक महीने में राजस्थान सहित ग्रामीण भारत में कहर बनकर सामने आई थी।
कात्तिकवाली बीमारी (स्पेनिश फ्लू 1918) का कहर
संदर्भ: कोविड-19
कहानी एक संक्रामक बीमारी की जो बन गई थी विश्वमारी। कैसे? वैसे ही जैसे कोविड-19 इन दिनों दुनिया को चपेट में लेती जा रही है।
साल था विक्रम संवत 1975 अर्थात 1918 ईसवी। महीना काती/कातक (कार्तिक) अर्थात अक्टूबर। यूरोपीय देशों में जन्मी-पली बीमारी ने भारत भर में कहर बरपा दिया था। समूचा देश भयाक्रांत हो गया। हर तरफ मौत का नंगा नाच।
असल में बीमारी क्या थी? आमजन की जुबान पर किस नाम से कुख्यात हुई? कितना इसने कहर बरपाया? ये सब जानने के लिए यह आलेख पढ़िए। तथ्यात्मक है। सारे तथ्य इस बीमारी के बारे में जारी रिपोर्ट्स और ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालकर जुटाए गए हैं। शब्द हैं इस नाचीज़ के।
पढ़ने के बाद जान सकेंगे कि वायरस जनित महामारी किस धूर्तता से सलूक करती है। इसे जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि दुनिया को किसी महामारी से 102 सालों बाद सामना करना पड़ रहा है। इसे पढ़ने के बाद वर्तमान विश्वमारी कोविड- 19 के बारे में सावचेती रखने की जरूरत का भी अहसास हो सकेगा। दिमाग़ में उमड़- घुमड़ रहे संदेह के कुछ बादल छंट जाएंगे। पढ़ के तो देखिए।
अंग्रेज़ी में महामारी के लिए दो अलग-अलग शब्द प्रयुक्त होते हैं। एपिडेमिक (epidemic) शब्द उस बीमारी के लिए प्रयुक्त होता है जो किसी एक इलाके या देश में तेज़ी से फैले। लेकिन जैसे ही कोई बीमारी देश की सीमाओं को लांघकर कई देशों में फैलने लगती है तो उसे पैनडेमिक (pandemic) कहा जाता है।
साल 1918 में भारत ही नहीं दुनिया भर में कहर बनकर टूटने वाली पैंडेमिक का असल में नाम था Influenza Pandemic of 1918 अर्थात 1918 की इन्फ्लूएंजा विश्वमारी। चालाकी से इसे 'स्पेनिश फ्लू' नाम से प्रचारित किया गया। बीमारी का ये क्लिष्ट नाम ग्रामीण भारत के लोगों की जबान पर नहीं चढ़ सका। आमजन ने इसे 'पचेतरे की कात्तिकवाली बीमारी' का नाम दिया क्योंकि यह महामारी विक्रम संवत 1975 के कार्तिक महीने में राजस्थान सहित ग्रामीण भारत में कहर बनकर सामने आई थी। वैसे इलाके की बोली (dailect) के हिसाब से इसे अलग-अलग नाम दिया गया। जैसे मारवाड़ में इसे भगी बीमारी नाम दिया गया। बाड़मेर-जैसलमेर के इलाके की बोली में ये बीमारी बड़ा-बड़ी (अर्थात भारी तबाही) और शेखावाटी में मरी (मारने वाली बीमारी) के नाम से कुख्यात हुई।
कोविड-19 के संदर्भ में सन 1918 में फैली महामारी के बारे में इतिहास में दर्ज और बुजर्गों की स्मृतियों में डेरा डाले कई बातों को खंगाला तो कई हैरतअंगेज समानताएं सामने आईं। दोनों में एक समान पैटर्न। संक्रमण का पैटर्न-ट्रेंड एक जैसा। हूबहू वही दहशत।
कोविड-19 एक अल्ट्रा मोडर्न वायरस जनित मर्ज़ है। प्रगति का झुनझुना थामे आत्ममुग्ध दुनिया को ठेंगा दिखाता बेरहम मर्ज़। आसमान में उड़ने वालों को भी इसने ज़मीन पर आने को मजबूर कर दिया है। अभी तक कोई नहीं जानता कि 'आख़िर इस मर्ज़ की दवा क्या है?'
ख़ैर, पहले उस कातिल कात्तिकवाली बीमारी की पृष्ठभूमि पर उचटती हुई नज़र डालते हुए बीमारी के बारे में सब कुछ जान लेते हैं। इससे वर्तमान महामारी को समझने में सहूलियत होगी।
भारत का अधिकांश भूभाग सन 1899 (विक्रम संवत 1956) में घनघोर अकाल (छपनिया अकाल के नाम से कुख्यात) से भारी जनहानि झेलकर अगले सालों में रेंगते-लड़खड़ाते आखिर उठ खड़ा हुआ था। जन-जीवन कमोबेश पटरी पर आने लगा था।
एक जनप्रिय कहावत है, 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेहु!' बात भी सही है क्योंकि बीती बातों पर चिंता करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसलिए विचारक ठीक कहते हैं, 'चिंता छोड़, चिंतन करें!' हरिवंश राय बच्चन की एक कविता है, 'जो बीत गई सो बात गई।' यानी बीती बातों पर चिंता करना बेकार है।लोक जीवन के दर्शन का यह अंग रहा है। अकाल की मार से उबरकर लोग नई ऊर्जा और कुछ नवाचारों के साथ जीवन की गाड़ी को आगे खेंचने लगे।
विक्रम संवत 1975 अर्थात 1918 ईसवी में फसल-कटाई की रुत। कार्तिक (अक्टूबर) के महीना। हरी फसल अब जर्द पीली पड़ चुकी थी। पक्की हुई फसल किसानों को खेतों में अल सुबह से फसल कटाई (harvesting) की पुरज़ोर ताक़ीद करने लगी थी। पर खेतों में ख़ामोशी पसरी पड़ी थी। घरों में कोहराम मचा रहता था। क्यों? एक अजीबोगरीब बीमारी ने लोगों को निढाल कर रखा था।
विश्वमारी कहाँ जन्मी-पली? प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम दौर में सन 1918 में H1N1 वायरस से एक संक्रामक बीमारी फैली। इससे सबसे पहले संक्रमित होने वालों में कैंसास के कैंप फ्यूस्टन में अमेरिकी सेना के एक रसोईया अल्बर्ट गिचेल शामिल था, जिसे तेज बुखार के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इसके बाद इस बीमारी का वायरस सैन्य प्रतिष्ठान से होता हुआ करीब 54000 सैनिकों में फैल गया। अप्रैल के अंत तक 1100 सैनिकों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा जिनमें से 38 सैनिकों की मौत न्यूमोनिया जैसे लक्षणों के बाद हो गई।
अमेरिकी सैनिकों से यह संक्रमण यूरोप में फैला गया। परंतु उस समय युद्धरत देशों --ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और जर्मनी--में सेनाओं के मनोबल को बनाए रखने के लिए इस संक्रामक बीमारी की रिपोर्टिंग नहीं की गई।
स्पेनिश फ्लू' नाम क्यों पड़ा? 1918 में फैली महामारी को 'स्पेनिश फ्लू' नाम से प्रचारित करने की पीछे युद्धरत ताक़तवर देशों की एक चाल थी। राजस्थानी की इन दो कहावतों पर गौर कीजिए, निहितार्थ समझ में आ जाएगा:
- 'ठाडै को डोको डांग नै फाड़ै।
- ठाडौ मारे अर रोवण भी कोनी दे।'
इसकी एक ताजा मिसाल पेश है। भारत से अमेरिका को एक ख़ास दवाई का निर्यात नहीं होने की स्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने पलटवार करने की धमकी दी। बस, फिर क्या था? आनन फानन में हमने उस दवाई के निर्यात पर लगी रोक हटा ली। 'मानवता' का तकाज़ा जो ठहराह!!
स्पेन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तटस्थ (neutral) था। इसलिए वहाँ प्रेस पर सेंशरशिप भी नहीं थी। इसके उलट युद्धरत फ्रांस, इंगलैंड और अमेरिका के अख़बारों पर सेंसरशिप लगी थी। सैनिकों की बीमारी के समाचारों से युद्ध के दौरान सैनिकों का मनोबल गिरने का डर था। इसलिए वहाँ सैनिकों में फैली बीमारी का समाचार छपने नहीं दिया गया।
वहीं स्पेनिश अखबार लगातार इस बीमारी की रिपोर्टिंग करते रहे। इसलिए इस बीमारी का उद्गम स्थल स्पेन मानकर इस पर 'स्पेनिश फ्लू' नाम का ठप्पा लगा दिया गया। वस्तुतः इस बीमारी का उद्गम स्थल स्पेन नहीं बल्कि अमेरिका के सैनिक शिविर थे। हालांकि अमेरिका ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया।
अमेरिकी सैनिकों को युद्ध के लिए यूरोप में कई जगह तैनात किया जाता रहा। स्वाभाविक है कि वे अपने साथ इस महामारी को कई देशों में ले गए। इंग्लैंड, फ्रांस, स्पेन और इटली में इस वायरस ने लोगों को तीव्र गति से संक्रमित किया। जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ और उसके अंतिम दौर में जब सैनिक अपने घरों को लौटे, तो अनजाने में अपने साथ इस खतरनाक वायरस को भी पूरी दुनिया में ले गए।
संक्रामक बीमारी और प्रथम विश्व युद्ध के बारे में शोध करने वाले अमेरिकी इतिहासकार जेम्स हैरिस के अनुसार, “पूरे विश्व में जवानों की त्वरित आवाजाही ने इस महामारी को फैलाने का काम किया। सैनिक पूरे साजो- समान के साथ समूह में यात्रा करते थे, इस वजह से इस महामारी ने भयंकर रूप ले लिया।”
'स्पेनिश फ्लू ' भारत में कैसे पहुंचा?
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों को लेकर एक जहाज 29 मई 1918 को बॉम्बे (अब मुंबई) के बंदरगाह पर पहुंचा था। यह शिप मुंबई के बंदरगाह पर करीब 48 घंटे तक फंसा रहा और बाद में उसे वहीं किनारे पर खड़ा रहने दिया गया। विश्व युद्ध की समाप्ति के उस दौर में मुंबई के बंदरगाह पर जहाज़ों की ख़ूब आवाजाही रहती थी। उस शिप से लौटे सैनिकों के ज़रिए यह वायरस मुंबई में पहुंच गया।
मुंबई में तत्समय तैनात हेल्थ इंस्पेक्टर जेएस टर्नर के मुताबिक इस फ्लू का वायरस दबे पांव किसी चोर की तरह दाखिल हुआ था और तेजी से फैल गया। 10 जून को मुंबई बंदरगाह पर तैनात पुलिस वालों में से 7 पुलिसवालों को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। उनमें इन्फ्लूएंजा का संक्रमण मिला। यह भारत में किसी बड़ी संक्रामक बीमारी का पहला हमला था। यह बीमारी उस समय पूरी दुनिया में बहुत तेजी से पैर पसार रही थी।
जून 1918 के टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में बॉम्बे (अब मुंबई) में फैल रही बुखार की महामारी “fever epidemic" के बारे में एक छोटी सी खबर छपी थी, जिसमें ये लिखा था:
- "बीमारी की वजह से कारखाने बंद होने लगे हैं तथा कार्यालयों में भारी तादाद में स्टाफ एक साथ छुट्टियां ले रहा है। इस बुखार से पीड़ितों को आराम करने की सलाह दी गई है।'
इस ख़बर में बीमारी का मुख्य लक्षण कम से कम तीन दिन से तेज बुखार और पीठ में दर्द होना बताया गया था।
देश में संक्रमण कैसे फैला? भारत में मुंबई इस बीमारी का हॉट स्पॉट साबित हुआ क्योंकि यहां पूरी दुनिया से और देश के सारे भागों से लोग आते-जाते थे। वहां से यात्रियों के साथ ट्रेन के जरिए ये वायरस देश के कोने -कोने में पहुंच गया। भारत में चूंकि इस बीमारी का आगाज़ बोम्बे से हुआ था, इसलिए भारत में शुरुआत में इसे बॉम्बे फीवर के नाम से जाना गया। मध्य जुलाई तक यह बीमारी मद्रास और इलाहाबाद में फैलने के भी समाचार छन- छन कर आने लगे।
सितंबर में यह महामारी दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में फैलनी शुरू हुई। इसके बाद उत्तरी भारत के दिल्ली और मेरठ जिलों में इसका संक्रमण फैल गया। 1 अगस्त 1918 को शिमला छावनी में एक सैनिक इस बीमारी से संक्रमित पाया गया। फिर अन्य छावनियों में मरीज सामने आने लगे। वहीं पंजाब के अंबाला, लाहौर, अमृतसर, फतेहगढ़ की छावनियों में भी यह फ्लू फैल गया। शिमला की पहाड़ियों से लेकर राजस्थान की रेतीली धरती और अलग -थलग पड़े बिहार के गाँवो तक इस बीमारी ने पैर पसार लिए थे। देश का कोई इलाका इस बीमारी से अछूता नहीं रहा। अक्टूबर में तो ये संक्रमण देश के गांव-गांव में फैल चुका था।
विश्वमारी फैलती कैसे है? संक्रामक बीमारी (communicable disease) या देशांतरगामी महामारी/ विश्वमारी ( pandemic ) चरणबद्ध तरीके से दुनिया में फैलती है। इतिहास इसका गवाह है। यह किसी एक देश से शुरू होती है फिर वहां से दूसरे देश में लोग जाते हैं वहां संक्रमण होता है। फिर वहां से तीसरे देश में लोग जाते हैं वहां संक्रमण होता है और इस तरह संक्रमण कई चरणों में पूरी दुनिया में फैलता है।
स्पेनिश फ्लू का पहला हमला
स्पेनिश फ्लू से पीड़ितों में सीजनल फ्लू के सारे लक्षण मौजूद थे। इसके साथ ही यह रोग अत्यधिक संक्रामक और विषाणुजनित था। बाद में यह बात सामने आई कि यह वायरस पक्षियों से आदमियों तक पहुंचा।
'स्पेनिश फ्लू' महामारी का पहला चरण (जून से अगस्त) मध्यम (mild) था और ऐसा माना गया कि वह मौसम बदलने की वजह से होने वाली आम बीमारियों अर्थात सीजनल फीवर की तरह है। पहले चरण में इस बीमारी ने पहले से बीमार और बुजुर्गों को अपनी चपेट में लिया। जो हष्ट पुष्ट थे, जवान थे, वे जल्द ही स्वस्थ हो गए। वायरस का पहला दौर उतना खतरनाक नहीं था। इसमें तेज बुखार और बेचैनी प्राय: तीन दिन तक रहती थी और इसकी मृत्यु दर सीजनल फ्लू जितनी ही थी।
महामारी का जानलेवा दूसरा चरण: जुलाई में इस बीमारी के मामलों में कमी आने लगी थी और ऐसी उम्मीद थी कि अगस्त में इस वायरस का असर समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह केवल तूफान से पहले की शांति थी। उसी समय यूरोप में अन्यत्र कहीं, 'स्पेनिश फ्लू' का रुपांतरित वायरस सामने आया और उसमें नौजवानों पर भी हमला कर मौत के मुंह में धकेलने की क्षमता थी। महामारी के वायरस का वो रुपांतरित स्वरूप इतना घातक साबित हुआ कि इसकी चपेट में आने से संक्रमित व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर जान से हाथ धोना पड़ा।
अगस्त के अंत से जब इस बीमारी का दूसरा दौर शुरू हुआ तब इसने शरीर से हट्टे- कट्टे, जवान, वयस्क सबको अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था। ये बीमारी जानलेवा साबित हुई और इसने देश भर में व्यापक कहर बरपाया।
उस समय के डॉक्टर्स के मुताबिक इस बीमारी से मरीज तेज बुख़ार की गिरफ्त में आने लगे। शरीर का तापमान 104 डिग्री और पल्स 100 से ऊपर पहुंच जाती थी। सिर, पीठ और शरीर के दूसरे अंगों में बहुत दर्द होता था। श्वासनली में सूजन आ जाती थी। नाक और फेफड़ों से खून बहना शुरू हो जाता था और फिर तीन दिन के भीतर ही मरीज दम तोड़ देता था।
मौत भी कष्टदायक रही। संक्रमित लोगों के कफ़ में खून का आना, नाक-कान से भी खून निकलना, और अत्यधिक बदन दर्द आदि कष्टों से रोगियों को गुजरना पड़ा। लोग तेज बुखार, नेजल हेमरेज, न्यूमोनिया और फेफड़ों में द्रव्यों के भर जाने की वजह से मर रहे थे।
भारत में महामारी के क्रूर महीने: स्पेनिश फ्लू महामारी भारत में हालांकि दो वर्षों ( 1918 व 1919 ) तक प्रहार करती रही लेकिन अधिकतर मौतें 1918 के सितंबर से नवंबर के तीन क्रूर महीने में हुई थीं। इतिहासकार मानते हैं कि स्पेनिश फ्लू के दूसरे दौर में हुई व्यापक जनहानि की वजह युद्ध के समय सैनिकों की त्वरित आवाजाही थी। इसी दौरान रूपांतरित हो चुके वायरस ने भयानक तबाही मचाई।
गाँधी जी भी इस महामारी के दूसरे दौर में 1918 में संक्रमित हो गए थे। उस वक्त उनकी उम्र 48 साल थी। गाँधी जी ने इसका जिक्र अपनी आत्मकथा में करते हुए कहते हैं कि उन दिनों जिंदा रहने में रुचि ख़त्म हो गई थी। फ़्लू के दौरान उन्होंने पूरी तरह से आराम किया और सिर्फ तरल भोज्य पदार्थों का सेवन किया। उनकी बीमारी की ख़बर सामने आई तो एक स्थानीय अखबार ने लिखा था, "गांधीजी की ज़िंदगी सिर्फ उनकी नहीं है बल्कि देश की है।" गांधी और उनके सहयोगी किस्मत के धनी थे कि वो सब बच गए।
हिंदी के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पत्नी और कई परिवारजन इस बीमारी की चपेट में आ गए और उनकी मृत्यु हो गई थी। निराला जी ने इस हादसे के बारे में ये लिखा है, "मेरा परिवार पलक झपकते ही मेरे आंखों से ओझल हो गया था।"
उस दौर के भयावह हालात के बारे में निराला जी लिखते हैं कि गंगा नदी शवों से पट गई थी। चारों तरफ इतने सारे शव थे कि उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कम पड़ रही थी। ये हालात और खराब हो गए जब खराब मानसून की वजह से सुखा पड़ गया और आकाल जैसी स्थिति बन गई। इसकी वजह से लोग और कमजोर होने लगे। उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई। शहरों में भीड़ बढ़ने लगी। इससे बीमार पड़ने वालों की संख्या और बढ़ गई। राजस्थानी में ऐसी स्थिति के लिए एक कहावत है, 'दुबले को दो साढ़ (आषाढ़)'। एक तरफ बीमारी का प्रकोप और दूसरी तरफ अकाल का साया ।
तत्कालीन सेनिटरी कमिश्नर ने बाद में जारी एक रिपोर्ट में लिखा कि सिर्फ गंगा ही नहीं बल्कि देश भर में नदियां शवों से पट गईं थीं। उनका प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध हो गया था। आँखों के सामने भयावह मंज़र था।
गांवों में मौत का मंज़र
गांवों में अज्ञानता के पैर जमे हुए थे। अंधविश्वास का बोलबाला था। संक्रमण से फैलने वाली बीमारियों के बारे में जानकारी थी नहीं। हर तरह का श्रम करते रहने से हाथों की समुचित साफ-सफाई आदि पर ध्यान नहीं दिया जाता था। सामाजिक और पारिवारिक तानेबाने ऐसे गूंथे हुए रहते थे कि सोशल डिस्टेंसिंग एंड फिजिकल डिस्टेंसिंग रखकर जीना उनके लिए दुश्वार था। दिलों की नजदीकी बनाए रखना जरूरी मानते थे। किसी की हारी-बीमारी में दौड़े चले आते थे। बीमार को घेरे बैठे रहते थे। इससे बीमारी अधिकांश लोगों को चपेट में लेती गई।
गाँवो में स्वास्थ्य सेवाओं का पूर्णतया अभाव होने से इस महामारी से कई गांव वीरान हो गए थे। एक मुर्दे की अंत्येष्टि कर घर पहुंचते थे तो दूसरे की मौत की खबर मिलती थी। एक ही चिता पर दो-तीन शव रखकर अंतिम संस्कार करते थे। कुछ परिवारों के सारे सदस्यों को इस महामारी ने मौत की कुंए में धकेल दिया था जबकि कुछ परिवारों में मात्र इक्का-दुक्का लोग जीवित बचे थे। कुछ गाँवो की 100-200 लोगों की आबादी में से महज़ पांच-सात लोग ही जीवित बचे थे।
बीकानेर रियासत के शिक्षा शून्य ग्रामीण इलाके में शिक्षा की पहली जोत जलाने हेतु 9 अगस्त 1917 को संगरिया में 'जाट एंगलो संस्कृत मिडिल स्कूल' (कालांतर में स्वामी केशवानंद द्वारा नामकरण ग्रामोत्थान विद्यापीठ) की स्थापना करने वाले चौधरी बहादुर सिंह भौभिया की पत्नी, एक पुत्र, दो पुत्रियां, बहिन की इस कातकवाली बीमारी से मृत्यु हो गई थी।
अंग्रेजों के सीधे अधीन इलाकों में इलाज़ की व्यवस्था इसलिए नहीं हुई कि अंग्रेज अफसरों ने यहां के संसाधनों को प्रथम विश्व युद्ध में झोंक रखा था। यहाँ के डॉक्टर-नर्स युद्ध में घायल सैनिकों के इलाज़ के लिए जंग के मैदान में तैनात थे। इतिहासकार मृदुला रमन्ना के मुताबिक, "जिन महामारियों को भारत में नियंत्रित करने में औपनिवेशिक काल के अधिकारी नाकामयाब रहते थे, उसके प्रसार के लिए वो भारत की गंदगी को जिम्मेवार ठहरा देते थे।"
रजवाड़ों/ रियासतों में राजाओं को तो खुद की और उनके इर्दगिर्द मंडराने वाले चाटुकारों की सलामती की चिंता सता रही थी। खुद महलों में दुबके रहे। प्रजा की कोई खैरख़बर किसी ने नहीं ली।
चूरू में स्वामी गोपालदास का सेवा-कार्य
चूरू जिले में भी अक्टूबर-नवंबर 1918 में कात्तिकवाली बीमारी (स्पेनिश फ्लू /इन्फ्लूएंजा ) का संक्रमण तेजी से फैला। इसका भारी प्रकोप गांवों में भी हुआ। चूरू (राजस्थान) में नव-चेतना की चितेरे और सेवा भावना के मूर्त रूप स्वामी गोपालदास ने स्वयं के स्तर पर 'सर्व हितकारिणी सभा' की छत्रछाया में स्वयंसेवक तैयार किए और पीड़ितों की सेवा करने के कार्य की अगुवाई की। चूरू में सभा के स्वयंसेवकों ने पांच राहत कैंप लगाए थे। चूरू में महामारी से विनाश की स्थिति स्वामी गोपाल दास के जीवनी से मिलती है| उस समय लोग भारी संख्या में मर रहे थे। जो लोग इस बीमारी से बच गए थे वे अपनी जान बचाने के लिए बीमार और कमजोर लोगों को पीछे छोड़कर अन्य शहरों में जा रहे थे. उनकी कोई देखभाल करने वाला नहीं था। ऐसे समय में स्वामी गोपाल दास उन बीमार और गरीब बेसहारा लोगों की सेवा में उतरे। उन्होंने इन लोगों के लिए भोजन, पानी और दवाइयों की व्यवस्था की। मरे हुए लोगों को जलाने की भी व्यवस्था की। उस समय लोग इतनी तेजी से मर रहे थे कि एक से दूसरे तक पैदल पहुंचने में बहुत समय लगता था इसलिए स्वामी गोपालदास ने एक घोड़ा खरीद लिया था और शहर का भ्रमण घोड़े से करने लगे।
चुरू के प्रसिद्ध कवि पंडित अमोलक चंद ने स्वामी गोपालदास की इस महामारी के दौरान की गई सेवाओं के लिए निम्न कविता के रूप में तारीफ की है:
- "चूरु शहर में सोर भयो, जद जोर करयो पलेग महामारी ।
- लाश पड़ी घर के अन्दर ढक छोड़ चले बंद किवाड़ी ।।
- आवत है गोपाल अश्व चढ देखत जहाँ बीमार पड्यो है ।
- देत दवा वो दया करके नाथ, अनाथ को नाथ खड्यो है ।।"
सर्व हितकारिणी सभा, चूरू की सन 1921 में प्रकाशित रिपोर्ट में उल्लेख है कि इस व्याधि से अकेले चूरू शहर में छह हजार लोग संक्रमित हुए थे और उनमें करीब 1200 लोगों की मृत्यु हो गई थी।
डॉ गौरीशंकर हीराचंद द्वारा लिखित 'बीकानेर राज्य का इतिहास' के खंड 2 पृष्ठ 537 पर रियासत में प्लेग, इन्फ्लूएंजा जैसी भयंकर व्याधियों के फैलने का तो उल्लेख है लेकिन रियासत की ओर से इन महामारियों से निपटने हेतु क्या कुछ किया गया, इसकी कोई जानकारी नहीं है। [1]
भारत में महामारी से जनहानि
1918 में जब महामारी फैली थी तब देश में चिकित्सकीय व्यवस्थाएं बहुत कम जगह सुलभ थीं और वो भी आमजन की पहुंच से एकदम दूर। एंटीबायोटिक का चलन बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ था। गंभीर रूप से बीमार लोगों का इलाज करने में इस्तेमाल किए जाने वाले मेडिकल उपकरण भी अस्पतालों में सुलभ नहीं थे। एलोपथिक दवाओं के प्रति देश में स्वीकार्यता का भाव नहीं था और ज्यादातर लोग देशी इलाज पर ही यकीन करते थे। इस महामारी में देशी इलाज के रूप में लस्सी/ छाछ का सेवन करने को तरजीह दी जाती थी। अंधविश्वास का बोलबाला था। अधिकांश लोग झाडफूंक और डोरा जंतर- मंतर पर यक़ीन करते थे।
'स्पेनिश फ्लू' महामारी के कारण भारत में कम से कम 1 करोड़ 20 लाख लोगों ने जान गवाईं थी। माना जाता है कि उस वक्त भारत की आबादी का छह फीसदी हिस्सा इस बीमारी से मौत के मुँह में चला गया था। भारत में यह बात सामने आई कि यहाँ मरने वालों में ज्यादातर महिलाएँ थीं। कारण यह था कि यहाँ महिलाएँ सामान्यतया कुपोषण का शिकार होने के साथ- साथ अपेक्षाकृत अधिक अस्वास्थ्यकर माहौल में रहने को मजबूर थीं। इसके अलावा वे घरों में बीमारों की देखभाल करने में हरावल दस्ते में रहती थीं।
एक सदी पहले फैली इस महामारी ने देश की जनसंख्या के प्रोफाईल को बदल दिया था। 1921 में हुई जनसंख्या गणना में यह तथ्य सामने आया कि देश की जनसंख्या में 1911 में हुई जनसंख्या की तुलना में 10 लाख से अधिक की कमी आई है। इसमें बीमारी और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुई भारतीय सैनिकों की संख्या शामिल है। बस, उसी साल जनसंख्या में कमी दर्ज हुई जबकि उससे पहले या बाद में हुई जनगणनाओं में जनसंख्या की हर बार बढ़ोतरी दर्ज होती रही है।
जनसंहारक महामारी अप्रैल 1918 में अमेरिका से शुरू हुई यह महामारी दिसम्बर 1919 तक विभिन्न चरणों में दुनिया भर में कहर ढहाती रही। 1918 में सितंबर से नवंबर तक इस महामारी से मरने वालों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। अमेरिका में ही अकेले केवल अक्टूबर माह में इस महामारी से लगभग दो लाख लोगों की मौत हुई थी। दिसंबर 1918 आते-आते, स्पेनिश फ्लू का दूसरा दौर अंतत: समाप्त हो गया। लेकिन महामारी की भूख अभी शांत नहीं हुई थी। महामारी का तीसरा दौर जनवरी 1919 में ऑस्ट्रेलिया में शुरू हुआ और इस दौर में भी भयानक महामारी ने तबाही मचाई।
इस महामारी से दुनियाभर के 50 करोड़ लोग संक्रमित हुए थे और इससे संक्रमित कुल लोगों में से लगभग 10% की मौत हो गई थी। अनुमान है कि दुनिया भर में करीब 2 करोड़ से 5 करोड़ के बीच लोग मौत के मुंह में समा गए थे। अकेले अमेरिका में इस महामारी से 6 लाख 75 हज़ार मौतें हुईं थीं।
1918 में फैली महामारी के वक्त मेडिकल साइंस के क्षेत्र में बहुत ज्यादा तरक्की नहीं हुई थी। H1N1 वायरस के खिलाफ कोई एंटीबायटिक या वैक्सीन नहीं बनी थी, जिससे यह बेकाबू हो गई थी। दुनिया भर की सरकारों ने उस दौर में लोगों को आइसोलेट करके और हाइजीन को बढ़ावा देकर इस वायरस के फैलाव पर काबू पाया था। उस दौर में भी स्कूल-कॉलेज सिनेमा थिएटर आदि बंद कर दिए गए थे। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने कुछ समय बाद ही इस बीमारी का वैक्सीन खोजकर इस पर काबू पाने का तोहफ़ा दुनिया को दे दिया था।
वर्तमान महामारी का नाम कोविड-19 क्यों?
चीन से फैले कोरोना बीमारी को स्पेनिश फ्लू की तर्ज़ पर चाइनीज फ्लू या वुहान फ्लू/प्लेग नाम से नहीं पुकारा जाता क्योंकि 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO ) ने बीमारियों के नामकरण हेतु एक गाइडलाइन जारी की थी जिसके अनुसार किसी देश में उत्पन्न बीमारी की वजह से उस सारे देश को कलंकित नहीं किया जा सकता। कोरोना वायरस जनित बीमारी का संक्षिप्त नाम COVID -19 ( Corona Virus Disease -19 ) दिया गया है। इसमें - 19 इसलिए जोड़ा गया है कि इस वायरस की व्युत्पत्ति ( origin ) का साल 2019 है।
उम्मीद की किरण: साल 1918 में H1N1 वायरस से फैली महामारी की रोकथाम के लिए जिस तरह वैज्ञानिकों ने वैक्सीन की जल्द ही खोज कर ली थी, उम्मीद है कि कोरोना वायरस के नियंत्रण के लिए भी जल्द ही वैक्सीन उपलब्ध हो जाएगी और दुनिया 'स्पेनिश फ्लू' से हुई जैसी तबाही से बच जाएगी। वैज्ञानिक रात-दिन इस काम में लगे हुए हैं। फ़िलहाल तो हाथों की समुचित साफ-सफाई एवं सांस लेते समय स्वच्छता ( Hand hygiene and Respiratory hygiene ) और आइसोलेशन ही इस बीमारी से बचाव का सबसे अच्छा तरीका है। खांसने-छींकने के शिष्टाचार ( etiquettes ) का पालन करना सबके लिए जरूरी है।
इतिहास से सबक: अमेरिका में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के अंग के रूप में काम करने वाली एजेंसी रोग नियंत्रण व रोकथाम सेंटर ( The Centers for Disease Control and Preventiion ) की उस समय की रिपोर्ट में 1918 के वायरस के बारे में एक ख़ास बात गौर करने लायक़ है: . “A uniquely deadly product of nature, evolution and the intermingling of people and animals. It would serve as a portent of nature’s ability to produce future pandemics of varying public health concern and origin."
यह वायरस प्रकृति का ख़तरनाक अनूठा प्रोडक्ट है, उद्विकास और व्यक्तियों व पशुओं के आपस में मिलने से जनित है। ये भविष्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य की चिंता को बढ़ाने वाली कई प्रकार की विश्वमारियों को पैदा करने की प्रकृति की क़ुव्वत/क्षमता का अशुभ संकेत है।
विपदाओं से आक्रांत रहना मानव जाति की नियति में रहा है। कोई विपदा आख़री विपदा नहीं। एक विपदा से जूझते हुए कुछ खोकर, कुछ सीखकर आगे बढ़ते चलने का नाम ही ज़िंदगी है। कुछ वक़्त गुज़रने पर दूसरी विपदा नए कलेवर में उत्पन्न हो जाती है। इतिहास इस बात की गवाही देता है।
कोविड -19 विश्वमारी से निपटने के लिए सरकार और जनता दोनों को 1918 की महामारी से सीख लेने की जरूरत है। इतिहास का मक़सद सबक सिखाना है। मानव जाति की भूल-चूकों की विवेचना करना है ताकि भविष्य में ऐसी भूल करने से बचें और आमजन को बचाएं।
घिरते अंधेरे में जलती रोशनी को और रोशन करने का जतन करना जरूरी होता है। रात के अंधेरे से पुरजोर ताकत के साथ लड़ती हुई शमा को जानबूझकर बुझा देना और फिर मोमबत्ती जलाकर और पटाखे फोड़कर अंधेरे पर जीत हासिल कर लेने का दावा करना नादानी है। 'सूरज को दीपक दिखाना', मुहावरा सुनते आए थे। एक नया मुहावरा भी बन गया है, 'ट्यूबलाइट को मोमबत्ती दिखाना'। क्या-क्या देखा हमने। क्या-क्या देखना बाकी है। खुदा खैर करे। खैर, यह न तो कोई पहली नादानी है और न ही आख़िरी। एक शेर दिमाग़ में कौंध रहा है:
"चरागा करके दिल बहला रहे हो क्या जहां वालो अंधेरा लाख रोशन हो उजाला फिर उजाला है। ”
लॉक डाउन का मतलब दिमाग़ का लॉक डाउन तो कतई नहीं। आओ, दिमाग़ का लॉक डाउन खोलें। ये वक़्त जश्न मनाने का नहीं, विपदा से लड़ने की तरक़ीब तलाशने का है। आत्म परीक्षण करने का है।जीवन शैली में बदलाव लाने पर मंथन करने का है।
नफ़रत और अफवाहों के वायरस के फैलाव को रोकें। गैरजिम्मेदाराना बर्ताव कर रहे मीडिया द्वारा भड़काई जा रही आग पर छींटे डालना जरूरी। जाहिलों की बार -बार की बेवकूफियाँ और नफरतबाजों की नफ़रतें कहीं तबाही का सबब ना बन जाए। याद रखें कि महामारी, नफ़रत और बेवकूफियों की आग सबके घरों में तबाही मचाती है।
"लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।"
अभी भी नहीं चेते तो चित हो जाएंगे। वक़्त रहते सब संभल गए तो समझो कि बच गए। एक कड़ी टूटी तो समझो कि चेन की ताकत भी टूटी।
प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ का परिणाम है कोविड-19
पर्यावरण संरक्षण को समर्पित पद्मश्री श्री हिम्मताराम भांभू नागौर राजस्थान के रहने वाले हैं। आप 'पीपल फॉर एनिमल्स' अभियान के राजस्थान प्रभारी हैं. इस पर्यावरण प्रेमी ने वर्ष 2008 में ही जनजागृती के लिए एक फोल्डर जारी कर सचेत किया था कि जिस गति से प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ हो रही है वह शीघ्र ही नए-नए वायरस और महामारियों को आमंत्रित करेगा. यह आज हम कोरोना माहमारी के रूप में देख रहे हैं. कोरोना वायरस के प्रभावों पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करना जरुरी है.
कोविड-19 एक जूनॉटिक बीमारी है। जूनॉटिक बीमारियां वायरस, बैक्टीरिया, पैरासाइट या फंगस की वजह से होती हैं। ये रोगाणु इंसानों व जानवरों में विभिन्न प्रकार की मामूली व गंभीर बीमारियों के कारण बन सकते हैं, जिनसे मृत्यु भी संभव है। इस आपदा की जूनॉटिक मूल की हमारी जानकारी बढ़ाने के लिए चीन में तीन महत्वपूर्ण कार्य जारी हैं। इनमें दिसंबर 2019 में वुहान में सामने आए इस बीमारी के लक्षणों के मामलों की जांच करना, हुआनान होलसेल सीफूड मार्केट और क्षेत्र के अन्य बाजारों से पर्यावरणीय नमूने लेना व हुआनान मार्केट में बिक्री के लिए रखी गई वन्यजीवों की प्रजातियों के स्रोत व प्रकार के साथ मार्केट बंद होने के बाद उनके गंतव्य स्थान के विस्तृत रिकॉर्ड्स का संग्रह करना शामिल हैं।
एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस वैश्विक स्वास्थ्य के लिए अब एक सबसे बड़े खतरों में शुमार हो चुकी है.
ये आपदाएं जानवरों पर अत्याचारों के दुष्प्रभावों की चेतावनी है। एक अभूतपूर्व रिपोर्ट के अनुसार, यूएन एड हॉक इंटरएजेंसी कोऑर्डिनेशन ग्रुप ऑन एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस ने चेताया था कोई कदम नहीं उठाया गया तो 2050 तक दवा प्रतिरोधी बीमारियों से एक करोड़ मौतें होंगी और अर्थव्यवस्था को 2008-09 से ज्यादा नुकसान होगा। 2030 तक एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस 2.40 करोड़ लोगों को गरीब कर सकता है। अबी हर वर्ष 7 लाख लोग दवा प्रतिरोधी बीमारियों से मरते हैं, जिनमें मल्टीड्रग-रेजिस्टेंट टीबी से मरने वाले 2,30,000 लोग हैं। वैज्ञानिक मानते हैं चारे में एंटीबायोटिक्स मिलाने से दवा प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। अमेरिका में आधे से अधिक एंटीबायोटिक्स का पशुपालन में उपयोग होता है।
जूनॉटिक बीमारियों के प्रकोप में एनिमल प्रोटीन की मांग बड़ा खतरा है। वैज्ञानिकों ने एच1एन1 स्वाइन फ्लू की आनुवांशिक वंशावली उस स्ट्रेन से जुड़ी पाई है जो अमेरिका के पोल्ट्री फार्म्स में 1998 में उभरा जहां यह फैला और म्यूटेट हुआ। 21वीं सदी की पहली वैश्विक महामारी, सार्स के शुरुआती मामलों को ग्वांगडोंग के वाइल्डलाइफ मार्केट्स व रेस्टोरेंट्स से जुड़ा पाया गया। इबोला भी चमगादड़ से शुरू हुई जिसका शिकार अफ्रीका के विशाल मांस व्यापार के कारण किया गया था।
चीन में लोग सांप, बिच्छू, चम गादड़, कछुआ आदि जानवरों को खाते हैं. यह धारणा है कि वुहान में कोरोना चमगादड़ से फैला है. दुनियाभर से कोरोना वायरस की दिल दहला देने वाली कहानियां सामने आ रही हैं। चीन में वायरस का खौफ इस कदर हावी हो चुका है कि एहतियात के तौर पर कुत्तों को मारा जाने लगा है जबकि जानवरों में वायरस फैलने की आशंका नहीं के बराबर है।
चीन में यह मान्यता बन रही है कि कोरोना की दवा भालू के शरीर से मिल सकती है. यह दवा खोजने के लिए चीन अब भालू के शरीर से पित निकालने के लिए भालू पर अत्याचार कर रहा है. इससे पूरे विश्व में भालू को मारने और उसका गाल ब्लेडर निकालने की होड़ मच जाएगी. चीन अब पैसे कमाने के लिए भालू की दावा निर्यात कर पैसा कमाएगा. इस तरह से तो जानवरों को मारने का दुश्चक्र शुरू हो जायेगा. दुर्भाग्य से चीन में वन्य प्राणीयों को संरक्षित नहीं मानकर प्राकृतिक संसाधन (Natural Resource) माना गया है जिसके कारण इनका दोहन खाने और व्यापार के लिए धड़ल्ले से किया जाता है.
जंगली जानवरों के व्यापार और उपभोग को जानलेवा कोरोना वायरस के लिये जिम्मेदार माना जा रहा है। देश की शीर्ष विधायी समिति नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (एनपीसी) ने जंगली जानवरों के अवैध व्यापार, अत्याधिक उपभोग की खराब आदत पर रोक लगाने और लोगों के जीवन तथा स्वास्थ्य के प्रभावी संरक्षण से संबंधित प्रस्ताव को मंजूरी दे दी.
इससे पहले 2002-2003 में 'सार्स' वायरस फैलने के दौरान जंगली जानवरों के व्यापार और उपभोग पर अस्थायी पाबंदी लगाई गई थी। सार्स के कारण सैंकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। चाइना सेन्ट्रल टेलीविजन (सीसीटीवी) ने कहा कि कोरोनो वायरस महामारी ने जंगली जानवरों के अत्यधिक उपभोग की बड़ी समस्या और इससे जन स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को होने वाले खतरों को उजागर किया है।
संदर्भ: भास्कर समाचार 6 अप्रेल 2020
✍️✍️ प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.
दिनांक: 10 अप्रैल 2020
संदर्भ
- ↑ स्रोत: गोविंद अग्रवाल, त्यागमयी सेवा- भावना के मूर्त रूप स्वामी गोपाल दास, प्रकाशक- जिला साक्षरता समिति, चूरू, ( राज. ) 2004, पृष्ठ 23