Kisanon Ke Taranhar Mahapurush

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This article includes the prominent farmer leaders whose contribution to society has been highly appreciated and the society has been benefited by their deeds.

किसान वर्ग के तारणहार चौधरी कुम्भाराम आर्य

लेखक - प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण: पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

चौधरी कुम्भाराम आर्य

राजस्थान के किसानों को राजशाही व सामन्तशाही के दमन, शोषण व उत्पीड़न के चक्रव्यूह से बाहर निकालने की मुहिम को गति देने और फिर उन्हें खातेदारी का हक़ दिलाकर उनकी जिंदगी को रोशन करने का श्रेय चौधरी कुम्भाराम आर्य को जाता है। चौधरी कुम्भाराम आर्य ( जन्म: 10 मई 1914; देहावसान: 26 अक्टूबर 1995 ) में एक सफल संगठनकर्ता, कुशल वक्ता, मौलिक चिंतक, निपुण, निडर व निश्छल नेता, स्वाभिमानी राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक के गुण विद्यमान थे। राजनीति के क्षेत्र में कुंभाराम जी एक जुझारू, अक्खड़, स्पष्टवादी, निडरता से दो- टूक बात कहने वाले वाले नेता थे। अपने विश्वास आधारित और तर्कपूर्ण प्रतिक्रियाओं को छिपाना उनके स्वभाव में नहीं था।

चौधरी कुंभाराम राजस्थान में स्वतंत्रता सेनानियों की श्रंखला के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। युवावस्था में ही वे शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर मुक्ति संघर्ष से जुड़ गए। इस दौरान उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा तथा कई बार जेल की सज़ा भुगतनी पड़ी। उनका सारा जीवन सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था बदलने एवं काश्तकारों के कल्याण के लिए समर्पित रहा। सामंतवादी युग एवं उसके पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देहाती इलाका सामाजिक कुरीतियों के जाल में फंसा हुआ था; सामंतों एवं जागीरदारों के अत्याचारों से त्रस्त और भयभीत था। ऐसे समय में चौधरी कुंभाराम जैसे कर्मठ, दृढ़ निश्चयी, सुधारवादी एवं विचारक पुरुषों ने किसान वर्ग में जागृति एवं नव चेतना का संचार किया।

कुंभाराम जी बीकानेर राज्य की पुलिस में थानेदार की नौकरी करते हुए भी गुप्त रूप से प्रजा-परिषद की बैठकों में भाग लेकर भावी रणनीति बनाते थे। इसी सिलसिले में उन्होंने 17 सितंबर 1945 को लोहारू में रघुवरदयाल से रात्रि में मुलाकात कर बीकानेर स्टेट में राजनीतिक गतिविधियों के लिए स्थापित 'प्रजा परिषद' की गतिविधियों पर चर्चा की। प्रजा- परिषद का विधान बनाने में आर्य जी की प्रमुख भूमिका रही। परिषद का उद्देश्य था स्टेट में कृषक,मजदूर, प्रजा राज की स्थापना करना। स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र अब शहरों से हटकर ग्रामीण क्षेत्र में प्रस्थापित हो चुका था, क्योंकि शहरों में अनेक लोग राजा के प्रति श्रद्धा रखते थे और उनके लिए मुखबिरी का काम भी करते थे।

राज के साम-दाम- दण्ड- भेद के सभी प्रयास और नोकरी से 'डिसमिस' किए जाने की धमकी - ये सब कुम्भाराम जी को अपने पथ से डिगा नहीं सके। बेख़ौफ़ रहते हुए कुम्भाराम जी ने जनवरी 1946 में उदयपुर में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आयोजित 'अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद' के अधिवेशन में भाग लिया। आज़ादी के प्रति उनकी दीवानगी परवान चढ़ गई। रियासती सरकार ने मार्च 1946 में कुंभाराम को बर्खास्त करने का ढोंग रचा। सरकारी नौकरी से मुक्ति पाकर चौधरी कुंभाराम ने सदियों से शोषण की चक्की में पिसते आ रहे किसान वर्ग को संगठित कर राजशाही व जागीरदारों के ख़िलाफ़ खुलकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया।

बीकानेर स्टेट की प्रजा की दारुण दशा का चित्रण दाऊदयाल आचार्य ने अपने शोध ग्रंथ 'भारत के संग्राम में बीकानेर का योगदान' में इन शब्दों में किया है-" तब देश गुलाम था अंग्रेजों का, देशी नरेश गुलाम था ब्रिटिश सरकार का, जागीरदार गुलाम था नरेश का और किसान, मजदूर, कारीगर गुलाम थे इन तीनों के।" रियासत की 70% भूमि जागीरदारों ( पट्टेदारों, सरदारों व राजवियों ) में बंटी थी, जो निरंकुश होकर अपनी मनमर्जी करते थे और निरीह प्रजा की खून-पसीने की कमाई को लाग-बाग व टैक्स के नाम पर लूटते थे। लालबाग का कोई अंत नहीं था और बेगार के भय से सभी कारीगर जातियां भयाक्रांत थीं।

शोषण की तिहरी चक्की में पिसते किसानों व कारीगरों को संगठित कर उन्हें आंदोलित करने हेतु चौधरी कुम्भाराम के आग उगलने वाले भाषण और तूफानी दौरों से घबराकर रियासती सरकार ने 1 मई 1946 को संगरिया मंडी में उन्हें गिरफ्तार कर जेल की काल कोठरी में डाल दिया। राज का दमन का चक्र चलता रहा। 10 मई 1946 को राजगढ़ में और 15 मई को गांव हमीरवास में निर्दोष जनता पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया। फिर 1 जुलाई को रायसिंहनगर में प्रजा परिषद के राजनीतिक सम्मेलन में पुलिस की गोलीबारी से तिरंगे झंडे की रक्षा करते हुए एक दलित युवक बीरबल सिंह शहीद हो गया। इस घटना से भड़के जन -आक्रोश से घबराकर सरकार ने 27 जुलाई की मध्यरात्रि को सात राजबंदियों -- चौधरी कुम्भाराम, श्री रघुवर दयाल, चौधरी हनुमान सिंह बुडानिया आदि --को अचानक रिहाई दे दी गई। परंतु 2 अक्टूबर को चौधरी कुंभाराम को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और दमनचक्र चलता रहा। 29 अक्टूबर 1946 को रतनगढ़ तहसील के कांगड़ गांव में जागीरी जुल्म का विभत्स चेहरा बेनक़ाब हो गया।

1947 ई. में बीकानेर राज्य प्रजा परिषद के अध्यक्ष पद पर किसान नेता स्वामी करमानंद के निर्वाचन के पश्चात किसान नेताओं ने जागीरी जुल्म के विरोध करने से आगे बढ़ते हुए जागीरदारी प्रथा को ही समाप्त करने का नारा लगाने शुरू कर दिए। तिलमिलाया हुआ जागीदार वर्ग अब किसानों का अधिक दमन करने लगा। चौधरी कुंभाराम ,चौधरी हरदत्त सिंह आदि नेताओं के सतत संघर्ष, व्यापक जनसंपर्क, कुशल नेतृत्व एवं अदम्य साहस का ही फल था कि सन 1947 तक बीकानेर में किसानों का संगठन इतना शक्तिशाली हो गया था कि कुछ जगहों पर उन्होंने जागीरदारों को लगान देना बंद कर दिया। इस प्रकार सदियों से पीड़ित व प्रताड़ित किसानों को बहुत थोड़े समय में गहरी नींद से जगा कर संगठित करना तथा जागीरदारों के शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध एकजुट कर चिड़ियों ( किसानों ) को बाज ( जागीरदारों ) से भिड़ा देने जैसा असंभव कार्य चौधरी कुंभाराम ने संभव कर दिखाया।

चौधरी कुंभाराम द्वारा किसानों की सभाओं में राजस्थानी भाषा में दिए गए जोशीले भाषण और संदेश उपस्थित जनसमूह के अंतर्मन को छू लेने वाले होते थे। आर्य जी भाषण कला में बहुत निपुण थे और मेलों-मगरियों में लोग कई-कई कोस ऊंटो पर चढ़ कर उनके भाषण सुनने जाते थे। वे चुनाव प्रचार के दौरान जिस- जिस गांव जाते थे, लोग उन्हें सुनने के लिए दूसरे से तीसरे गांव लगातार उनके साथ चलते रहते थे। उन्हीं की बदौलत ग्रामीण क्षेत्रों में राजनितिक लहर आई। देहाती इलाके में उनकी तूती बोलने लगी।

बीकानेर राज्य के गृह विभाग की गोपनीय फाइल 1948/ 9 में तत्कालीन आई.जी.पी चुन्नीलाल की खुफिया रिपोर्ट में चौधरी कुंभाराम के बारे में यह विवरण दर्ज़ है: " कुंभाराम का तूफान चलता रहा तो ग्रामीण इलाकों को संभालना बड़ा सिरदर्द सिद्ध हो सकता है। उसका ध्येय पट्टेदारों की संपूर्ण समाप्ति लगता है, जिसका प्रमाण सांखू, बांय और दूधवाखारा के आंदोलन हैं। उसका दृष्टिकोण पूर्ण व्यवहारिकता लिए हुए है, खुशमिजाजी का स्वभाव है, झूठ घमंड की धारणा से अछूता है। वह ,हर एक के साथ मिल सकता है , उनकी सद्भावना प्राप्त कर सकता है और उनके दुःख- दर्द में काम आता है।"

बीकानेर स्टेट के रेवेन्यू मिनिस्टर:- देश की राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे। अतः भावी स्थिति को ध्यान में रखते हुए बीकानेर महाराजा सादुल सिंह को किसान शक्ति के सामने झुकना पड़ा। 18 मार्च 1948 को एक समझौते के अंतर्गत बीकानेर महाराजा ने 10 सदस्यों का एक अंतरिम मंत्रिमंडल बनाया जिसमें चार मंत्री प्रजा- परिषद से लिए गए। चौधरी हरदत्तसिंह को उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री तथा चौधरी कुंभाराम को राजस्व मंत्री नियुक्त किया गया। उल्लेखनीय है कि चौधरी कुम्भाराम की उस समय आयु लगभग 33 वर्ष थी। किसी ने कल्पना भी नहीं कि थी कि वह इतनी छोटी उम्र में बीकानेर रियासत का राजस्व मंत्री बन जाएगा।

बीकानेर स्टेट के राजस्व मंत्री के रूप में किसान हितैषी चौधरी कुंभाराम ने किसानों के हित में कई कानून बनाए। उस समय जागीरदार वर्ग बलपूर्वक ग्रामीणों से पानी,लाग- बाग, बेगार आदि लेते थे। चौधरी कुंभाराम ने इनको गैरकानूनी करार कर दिया। "इस प्रकार माल मंत्री कुंभाराम की कलम की एक नोक से ही किसानों के कुए, तालाब और जोहड़, जिन पर ठिकानेदारों में अपना हक जमा रखा था, मुक्त हो गए। इसी तरह उन्होंने जागीरदारों द्वारा ली जाने वाली भेंट, बेगार, लाग-बाग और बांटा जैसी अनेक शोषणपरक प्रथाओं को समाप्त कर दिया।

जागीरदारी प्रथा समाप्त : इसी क्रम में चौधरी कुंभाराम ने किसानों के हित में एक बड़ा कदम उठाते हुए महाराजा से जागीरदारी प्रथा समाप्त करने के लिए हामी भरवा ली तथा यह प्रस्ताव नवगठित मंत्रिमंडल द्वारा भी सर्वसम्मति से पारित करवा लिया गया। परंतु, जागीरदारों के संगठित विरोध के कारण इसे अमली जामा पहनाने में सफलता नहीं मिल सकी। इसी बीच महाराजा यूरोप के प्रवास पर चले गए और पीछे महारानी साहिबा पर जागीरदारों का चंहुतरफ़ा दबाव होने के कारण यह निर्णय कार्यान्वित नहीं हो सका, उल्टे कुंभाराम आर्य के विरुद्ध षड़यंत्र रचे जाने लगे। षड्यंत्रों के अंतर्गत स्वामी करमानंद गोलीकांड में कुंभाराम आर्य को भी अभियुक्त बनाकर उन्हें गिरफ्तार करने के प्रयत्न शुरू हुए। उस समय यदि गृह विभाग प्रजा परिषद वालों के पास नहीं होता तो आर्य जी को निश्चित रूप से गिरफ्तार कर लिया जाता। प्रजा परिषद वालों ने इन कुचक्रों के बीच सरकार चलाना उचित नहीं समझा और करीब 6 माह के बाद 28 अगस्त 1948 को वे मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर रियासती सरकार से अलग हो गए। महाराजा सादुलसिंह ने 7 सितंबर 1948 को उनका त्यागपत्र स्वीकार कर लिया और अंतरिम मंत्रिमंडल को भंग कर दिया। 'राजस्थान' के निर्माण के बाद बीकानेर रियासत का 30 मार्च 1949 को राजस्थान में विलय हो गया।

नवगठित राजस्थान राज्य का मुख्यमंत्री श्री हीरालाल शास्त्री को बनाया गया और मंत्रिमंडल का गठन 7 अप्रैल 1949 को हुआ। इस मंत्रिमंडल के गठन के बाद से ही राजस्थान के प्रमुख नेताओं में मतभेद उभरने लगे, जिसके परिणामस्वरुप 5 जनवरी 1951 को हीरालाल शास्त्री को त्यागपत्र देना पड़ा।

आज़ादी के बाद राजस्थान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान चौधरी कुंभाराम आर्य का कार्यक्षेत्र पूरा राजस्थान हो गया। वस्तुतः चौधरी कुम्भाराम और किसान पर्यायवाची बन गए। राजस्थान में श्री जयनारायण व्यास के नेतृत्व में 26 अप्रेल 1951 को गठित मंत्रिमंडल में चौधरी कुम्भाराम ने शामिल होकर गृहमंत्री की हैसियत से राजस्थान की राजनीति में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया और 31 मार्च 1952 ई. तक इस पद पर रहे। इस अवधि में उन्होंने किसानों के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उस समय राजस्थान में और खासकर पूर्व रियासत जोधपुर में जागीरदारों के सहयोग से बड़े-बड़े डाकुओं के गैंग बन गए थे, जो देहातों में डाके, आगजनी व हत्याएं करते थे। चौधरी कुंभाराम ने होम मिनिस्टर की हैसियत से डाकू- आतंककारियों का सफाया कर सुरक्षा के स्पेशल इंतजाम किए। जागीरदारों-भोमियों द्वारा किसानों से मनचाहे लगान लेने पर रोक लगाने के लिए इन्होंने "राजस्थान उपज लगान नियमन अधिनियम" जून 1951 ई. में पारित करवाया, जिसमें जागीरदार किसान से उसकी उपज का छठे भाग (1/6) से ज्यादा नहीं ले सकता था।

प्रथम आम चुनाव से पूर्व ही राजस्थान सरकार ने "राजस्थान भूमिसुधार और जागीर पुनर्ग्रहण अधिनियम 1952" पास किया जो 18 फरवरी 1952 ई. को कानून बन गया। इस कानून के आधार पर बाद में जागीरदारों को मुआवजा देकर उनकी जागीरें जप्त कर ली गईं और किसान को भूमि का खातेदार बना दिया।

इस तरह जो काम चौधरी कुंभाराम बीकानेर रियासत में राजस्व मंत्री के रूप में नहीं कर पाए थे, वही काम उन्होंने पूरे राजस्थान में कर दिखाया। 1952 ई. के प्रथम आम चुनाव से पहले मारवाड़ किसान सभा व राजस्थान किसान सभा का कांग्रेस में विलय होना चौधरी कुंभाराम के प्रयासों का ही फल था।

चीफ-मिनिस्टर मेकर : राजस्थान में 4 जनवरी से 24 जनवरी 1952 तक हुये प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को रजवाड़ों और सामंतों की संयुक्त शक्ति से कड़ा मुकाबला करना पड़ा। यहाँ तक कि श्री जयनारायण व्यास को आम चुनाव में जोधपुर से हार का मुँह देखना पड़ा। इसके बाद किशनगढ़ से चुनाव में व्यास जी को जिताने का बहुत कुछ श्रेय चौधरी कुंभाराम आर्य को जाता है। आर्य जी इस चुनाव में चूरु विधानसभा क्षेत्र से भारी मतों से विजयी हुए। 15 अप्रैल 1953 को टीकाराम पालीवाल व नाथूराम मिर्धा के त्यागपत्र देने के उपरांत मुख्यमंत्री श्री जयनारायण व्यास ने दूसरे ही दिन अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन कर चौधरी कुंभाराम को पुनः मंत्रिमंडल में स्थान दिया। बाद में 12 सामन्ती विधायकों को व्यास जी द्वारा कांग्रेस में शामिल करने का एकतरफा निर्णय किए जाने पर चौधरी कुंभाराम उनके विरोधी हो गए। उन्होंने मोहनलाल सुखाड़िया व मथुरादास माथुर के साथ मिलकर इसका प्रबल विरोध किया। परिणाम स्वरुप जयनारायण व्यास को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनके स्थान पर मोहनलाल सुखाडिया को मुख्यमंत्री बनाने में चौधरी कुंभाराम आर्य की प्रमुख भूमिका रही। इसीलिए वे राजस्थान में 'चीफ-मिनिस्टर मेकर' कहे जाने लगे।

क्रांतिकारी भूमि सुधार कार्य: - 13 नवंबर 1954 को शपथ ग्रहण करने वाले सुखाड़िया मंत्रिमंडल में चौधरी कुंभाराम आर्य को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इस अवधि में जागीरदारी प्रथा पुनर्ग्रहण संशोधन अधिनियम 1954 तथा राजस्थान टेनेंसी एक्ट 1955 पारित किए गए, जिसके परिणामस्वरुप जागीरदारी प्रथा राजस्थान में सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई और किसानों को अपने द्वारा जोते जाने वाले खेतों पर खातेदारी अधिकार बिना कोई मुवावजा चुकाए प्राप्त हो गया। इन कानूनों की गणना भारत के सर्वोत्तम प्रगतिशील भूमि सुधार कानूनों में की जाती है। ये वो क़ानून थे जिन्होंने सदियों से शोषित और उत्पीड़ित किसानों को जागीरदारों के चंगुल से मुक्त कराकर उन्हें भूमि का खातेदार बनाया। जमीन पर काश्तकारों के हक़ की बात चौधरी कुम्भाराम ने नपे तुले शब्दों में इन शब्दों में लिखी:- ' ज़मीन कींकी? बावै बींकी।'


Rajasthan Land Reforms, Abolition and Resumption of Jagirdari Act 1952 and Rajasthan Tenancy Act 1955: चौधरी कुम्भाराम के दिशा-निर्देश और सुपरवीजन में तैयार हुए और लागू हुए । इन अधिनियमों की मूलभूत विशेषताएँ ये हैं — 1.जो काश्तकार दिनांक 15 अक्टूबर1955 को जिस भूमि का लगान देता था या लगान देने का क़रार था, वह काश्तकार उस भूमि का खातेदार काश्तकार हो गया। खातेदार काश्तकार के खातेदारी भूमि पर अधिकार क़रीब - क़रीब मालिक के समान ही हैं ।

2. इस एक्ट का नतीजा यह हुआ कि काश्तकार रात को सोया तब तक उसके द्वारा काश्त की जा रही भूमि का मालिक राजा, जागीरदार या खालसा की राज्य सरकार थी। उस भूमि पर किसान के कोई हक़ नहीं थे। काश्तकार जब सुबह उठा तो उसने पाया कि ज़मीन की मालिक सरकार हो गई है तथा काश्तकार खातेदार बन गया है ।

3. खातेदारी अधिकार प्राप्ति के लिए काश्तकार को किसी रक़म या मुआवज़े का भुगतान नहीं करना पड़ा । जागीरदार को उसकी जागीर ज़ब्ती और मालिकाना हक समाप्ति का मुवावजा राज्य सरकार द्वारा भुगतान किया गया। जिन जागीरदारों के पास जोत के लिए भूमि नहीं रही, उन्हें सरकार ने सरकारी भूमि मे से भूमि आवंटित की ।

4. खातेदारी अधिकारों के लिए काश्तकार को कुछ नहीं करना पडा। खातेदारी अधिकार कानून के प्रभाव से ही प्राप्त हो गये। पटवारी व तहसीलदार ने कानून को प्रभाव देने के लिए इन्तक़ाल द्वारा काश्तकार को रिकार्ड मे खातेदार दर्ज कर लिया ।

किसानों का जागीरदारी से पिंड छुड़वाने और किसानों को खातेदारी का हक़ दिलाने के कारण देहात के बड़े-बुजुर्ग अब भी खातेदारी एक्ट को ' कुंभा एक्ट' के नाम से जानते हैं। विदित रहे कि जागीर उन्मूलन के समय किसान को खातेदारी हक दिलाने के लिए अन्य राज्यों में किसानों से मुआवजा वसूल किया गया। केवल राजस्थान में बिना किसी मुआवजे के चौधरी साहब ने किसानों को खातेदारी हक दिलाया। भूमि सुधारों के लिए बना चाहे टिनेंसी एक्ट हो, चाहे कॉलोनाइजेशन एक्ट या उनके अंतर्गत बने रूल्स, इन सभी की ड्राफ्टिंग में चौधरी साहब के किसान हितैषी विचारों का समावेश था।

वक़्त बीतने के साथ सीलिंग कानून, पंचायती राज कानून, सहकारिता, प्रशासनिक कार्य क्षमता आदि मसलों पर मुख्यमंत्री सुखाड़िया के साथ आर्य जी के गंभीर मतभेद पैदा हो गए। अंततः चौधरी कुंभाराम आर्य ने फरवरी 1956 में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।

पंचायती राज और सहकारिता आंदोलन:- वृहत राजस्थान के निर्माण में चौधरी कुंभाराम जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में सहकारिता, पंचायती राज एवं प्राथमिक शिक्षा को विशेष महत्व देने संबंधी चौधरी कुम्भाराम के विचारों से पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी सहमति व्यक्त की थी। उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के हितों की सुरक्षा सहकारिता के माध्यम से ही संभव है। इस आंदोलन को गति प्रदान करने में चौधरी साहब का योगदान अविस्मरणीय है। राजस्थान में ही नहीं अपितु पूरे देश में उन्होंने सहकारिता आंदोलन का नेतृत्व किया।

पंचायती राज की स्थापना में भूमिका: 25 फरवरी से 12 मार्च 1957 के दौरान राजस्थान में द्वितीय आम चुनाव हुए। चौधरी कुंभाराम आर्य को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया। इस तरह राज्य प्रशासन से अलग होकर वह पंचायती राज को शक्तिशाली बनाने में लग गए। उनका मानना था कि पंचायती राज के माध्यम से ग्रामीण अपने गांव में बैठकर अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सन 1957 में राजस्थान में 'पंचायत राज संघ' की स्थापना की और वे स्वयं उसके अध्यक्ष बने। उधर देश के स्तर पर पंचायत राज को गति देने के लिए 'अखिल भारतवर्षीय पंचायत राज संघ' की स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष पद पर जयप्रकाश नारायण एवं उपाध्यक्ष पद पर चौधरी कुंभाराम आर्य चुने गए। पंचायत राज संघ एक गैर सरकारी संगठन था, जिसने पंचायत के विविध पक्षों पर विचार करके उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। इसी पंचायती राज संघ के तत्वावधान में अनेक विचार गोष्ठियां आयोजित हुई, जिससे पंचायत राज के संस्थापन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

इन प्रयासों के परिणामस्वरुप 2 अक्टूबर 1959 को प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा नागौर में त्रिस्तरीय पंचायती राज की विधिवत शुरुआत हुई। ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। इस तरह राजस्थान में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का सपना साकार करने में चौधरी कुंभाराम आर्य की प्रमुख भूमिका रही।

सहकारिता आंदोलन के अगुवा : सन् 1960 में चौधरी कुंभाराम आर्य राजस्थान से कांग्रेस दाल की ओर से राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित होकर केंद्र में चले गए। वहां उनका संपर्क और विचार-विनिमय देश के शीर्ष नेताओं व विचारकों से हुआ। इसी बीच हनुमानगढ़ विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में श्री कुंभाराम आर्य को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित किया। 19 अक्टूबर 1964 को संपन्न इस उपचुनाव में वे भारी मतों से विजयी हुए। 14 नवंबर 1964 को मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया ने चौधरी कुंभाराम आर्य को रेवेन्यू मिनिस्टर बनाकर फिर अपने मंत्रिमंडल में स्थान दिया। उन्होने अब भूमि-सुधार के कार्य को गति दी और सहकारिता तथा पंचायतराज के सुदृढ़ीकरण में भरपूर योगदान किया।

राजस्थान में सहकारिता आंदोलन के अंतर्गत "एक सब के लिए और एक के लिए सब' जैसे सद्विचार पैदा करने में चौधरी कुम्भाराम की महती भूमिका रही। किसानों को ऋण उपलब्ध कराने के लिए ग्रामीण स्तर पर सहकारी समितियों की स्थापना करना व सहकारी क्रय-विक्रय समितियों के लिए भवन बनवाना, किसानों को अपनी उपज का सही मूल्य दिलाने और उसे सुरक्षित रखने के लिए ग्रामीण सहकारी समितियों को मंडी स्तर पर क्रय-विक्रय सहकारी समितियों से जोड़ना तथा इनकी राज्य स्तर पर क्रय-विक्रय सहकारी संघ "राजफैड" की स्थापना करना तथा राजस्थान में सहकारिता की जड़े मजबूत करने में चौधरी कुंभाराम का महत्वपूर्ण योगदान है। अध्यक्ष की हैसियत से आर्य जी ने संघ के लिए भूमि खरीद कर राजफैड के दफ्तर, फैक्ट्री और गोदामों की स्थापना करवाई जो आज राजफैड की करोड़ों की संपत्ति बन गई है। जयपुर में जिस भूमि पर आज सहकार भवन बना हुआ है, यह उन्हीं की देन है। चौधरी कुंभाराम वर्षों तक राजस्थान राज्य सहकारी बैंक के अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय सहकारी संघ के उपाध्यक्ष रहे। राजस्थान में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में चौधरी कुम्भाराम ने सहकारिता आंदोलन का नेतृत्व किया और सहकारिता के क्षेत्र में अपना विशिष्ट योगदान दिया।

किसान को हरे पेड़ काटने की इज़ाज़त : राजस्थान में किसानों को अपने खेत से अपनी आवश्यकता के अनुसार पेड़ काटने की रियायत चौधरी कुंभाराम आर्य ने ही राजस्व मंत्री की हैसियत से प्रदान की थी। इससे पहले खेत में हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध था, और मजबूरीवश पेड़ काटने वाले किसानों के ख़िलाफ़ मुकदमे दायर किए जाते थे। किसान अपने खेत के पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल खेती के काम आने वाले औजार, यथा हल आदि, के लिए भी नहीं कर सकता था। चौधरी कुंभाराम जी ने अपने तर्कों से राज्य कैबिनेट को यह मानने को मजबूर कर दिया कि किसान ही खेतों में पेड़ों का संरक्षण और पोषण करता है, इसलिए अपनी आवश्यकता अनुसार उन पेड़ों को काम में लेने का उनको अधिकार भी है। इससे पूरे राजस्थान में किसान अनावश्यक मुकदमेबाजी से मुक्त हुए और उन्हें बड़ी राहत मिली। चौधरी कुंभाराम भाखड़ा सिस्टम को लागू कराने हेतु भी निरंतर प्रयत्नशील रहे। उनके प्रयास से श्रीगंगानगर क्षेत्र में लोगों के लिए यह सिस्टम वरदान सिद्ध हुआ।

मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया से मतभेद : चौथे आम चुनावों ( 1967 ) से पूर्व चौधरी कुम्भाराम के मुख्यमंत्री सुखाड़िया से तीव्र सैद्धान्तिक मतभेद हो गए। इस कारण उन्होंने 20 दिसंबर 1966 को राजा हरिश्चंद्र झालावाड़, भीमसिंह मंडावा, कमला बेनीवाल, दौलतराम सारण के साथ मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर कांग्रेस दल से भी अपना संबंध तोड़ लिया। माँ मरुधरा की वाणी में त्यागपत्र में यह दोहा लिखा:

'सांम पड़ौसी झोंपड़ो, नित उठ करतो राड़।
आधो बगड़ बुहारतो, आखो बगड़ बुहार।।'

'यह विडंबना थी कि संस्थागत विकृति से क्षोभित, स्वार्थी आपा-धापी से दुखी चौधरी कुंभाराम को उस कांग्रेस से भारी मन से नाता तोड़ना पड़ा, जिसे उन्होंने राजस्थान में अपने खून-पसीने से सींचा था। चौधरी कुंभाराम जैसा निर्भीक और सैद्धांतिक व्यक्ति ही सत्ता मोह को ठोकर मारने का साहसिक कदम उठा सकता था।' इसके साथ ही उनके संघर्षमय जुझारू जीवन के एक अध्याय का पटाक्षेप हो गया और एक नए संघर्ष की शुरुआत हो गई।

कांग्रेस छोड़ने के बाद चौधरी कुंभाराम ने राजस्थान में जनता पार्टी का गठन किया और उसके संस्थापक अध्यक्ष बने। फरवरी 1967 में हुए चौथे आम चुनावों में किसी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। दोनों तरफ 88-88 विधायक थे परंतु तत्कालीन राज्यपाल संपूर्णानंद ने कांग्रेस को बड़ा दल मानकर श्री मोहनलाल सुखाड़िया को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। विरोध ख़ूब हुआ। बाद में कुंभाराम जी ने जनता पार्टी को भारतीय क्रांति दल में समाहित कर दिया। वे दूसरी बार 1968 में भारतीय क्रांति दल की ओर से राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और 1974 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। सन 1980 में सीकर लोकसभा क्षेत्र से सातवीं लोकसभा के लिए लोकदल प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए।

अपनी लंबी राजनीतिक यात्रा में उन्होंने अनेक पड़ाव किये, हर पड़ाव पर साज़िश का शिकार हुए, उनके राजनीतिक जीवन की राह कंटकाकीर्ण रही। विभिन्न पार्टियों में अपने प्रखर व्यक्तित्व की छाप छोड़ी। कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, कभी हिम्मत नहीं हारी। उठापटक, द्वंद्व, संघर्ष का यह दौर मृत्यु तक चलता रहा। बाल्यकाल में गरीबी और अभावों से जूझना पड़ा, जवानी संकटों से लड़ते गुजरी, प्रौढ़ावस्था में राजनीति के घात-प्रतिघात के झँझावत को दिलेरी से सहा, जीवन की संध्या में एक दार्शनिक की स्थितप्रज्ञता को आत्मसात कर उतार- चढ़ाव को बिना किसी शिकायत के स्वीकार किया।

चौधरी कुंभाराम आर्य के निराले कथन :- चौधरी कुम्भाराम आमजन को अपनी बात आमजन की शब्दावली का इस्तेमाल कर प्रभावी ढंग से समझा देते थे। उनके कुछ लोकप्रिय कथन ये हैं:-

◆ शोषण वह अमरबेल है जो एक बार किसी पेड़ के चिपकने के बाद उस पेड़ को बढ़ने नहीं देती। हिंदुस्तान में किसान व मजदूर दोनों सदियों से शोषित हैं। मेहनत व उत्पादन वे करते हैं पर उसका फल अमीर हड़प लेते हैं। शोषकों का चक्रव्यू तभी टूटेगा जब किसान वर्ग संगठित होकर शासक वर्ग को अपनी शक्ति रूपी लाठी से हांकेगा। सरकारें अमीर वर्ग की हितसाधक होती हैं जबकि किसान को मात्र घोषणाओं के द्वारा खुश करती रहती हैं।

◆ कानून इंसान से बड़ा नहीं है। बदलते जमाने की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कानून में संशोधन एवं बदलाव जरूरी है। उलझी हुई समस्या को सुलझाने में कुम्भाराम जी माहिर थे। किसी पार्थी के काम विशेष के बारे में अधिकारी जब उनसे कहते थे कि यह कार्य नियमानुसार नहीं है तब चौधरी जी फाइल पर लिख देते थे कि नियम बदल दिया जावे और प्रार्थी का काम कर दिया जावे।

◆ राज्य व्यवस्था तो गन्ने के डण्ठल के समान है, जो संगठन शक्ति के दांत वालों के लिए तो रस भरा है परंतु बिना दांत वालों असंगठितों के लिए तो बांस की लाठी के समान है।

◆ जागृत एवं संगठित जनशक्ति का राजव्यवस्था/ सरकार पर जब दबाव एवं प्रभाव बराबर बना रहता है, तभी सरकार जनहित में जन कल्याणकारी ढंग से संचालित रहती है।

◆ मानव जितना प्रकृति से दूर रहेगा उतना ही दुखी रहेगा। अतः प्रकृति के समीप रहकर स्वतंत्र चिंतन करना जरूरी है।

राजस्थान के निर्माण और विकास में चौधरी साहब का योगदान अतुलनीय है। कुम्भाराम जी ठेठ देहाती परिवेश से उठकर राष्ट्रीय राजनीति के स्तर तक अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने वाले कुछ गिने- चुने नेताओं में शामिल थे। डॉ लोहिया ने अपनी एक पुस्तक में चौधरी कुंभाराम की प्रशंसा करते हुए उन्हें 'धरती पुत्र' की संज्ञा दी थी। सादा जीवन और उच्च विचार के वे मूर्तिमान रूप थे। दीर्घकाल तक चौधरी कुंभाराम जी के निकट संपर्क में रहे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने चौधरी साहब को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था "स्वर्गीय आर्य राज्य के स्वतंत्रता सेनानी एवं अग्रणी किसान नेता और जुझारू जनप्रतिनिधि थे, जिन्होंने सभी वर्गों ,विशेषकर किसानों, के हितों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। समाज, प्रदेश एवं देश की समस्याओं के समाधान के प्रति उनका मौलिक एवं प्रखर चिंतन था। वे सदैव जन आकांक्षाओं से जुड़े रहे। सामान्य जीवन में धरातल से जुड़े लोगों तक उनकी गहरी पैठ होने के कारण उनकी सूझबूझ एवं बुद्धिमता अपूर्व थी। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी निरंतर अध्ययनशील रहना उनकी प्रकृति में शामिल था।"

कार्यशैली संबंधी रोचक किस्से:-

1. राजा निरंजन सिंह, रिटायर्ड आई.ए.एस, एक वाक़ये को याद करते हुए लिखते हैं कि एक प्रकरण में चौधरी कुंभाराम जी के सचिव ने कानूनी पेचीदगियों का हवाला देकर ग्रामीणों को कुछ सहूलियतें देने में असमर्थता प्रकट की। इस पर चौधरी साहब ने उनसे कानून की धारा पढ़ने को कहा। सचिव उस कानून से संबंधित जिस लाइन को पढ़ते , आर्य जी उस लाइन को लाल पेन से काट देते। जब सचिव महोदय ने पढ़ना बंद कर दिया तब चौधरी साहब ने सचिव से फिर उस कानून को पढ़ने को कहा। इस पर सचिव ने कहा कि अब मैं क्या पढूं, आपने उसे काट दिया है। इस पर चौधरी साहब ने कहा यह कानून- कायदे हमने बनाए हैं। हमें इन्हें रद्द करने का अधिकार प्राप्त है। आप अब अपना नोट तैयार करके लाएं ताकि उसे मैं कैबिनेट में रखकर कानून में संशोधन करवा सकूं। जो कानून आमजन की परेशानी का कारण बने ,उस कानून को तत्काल बदल देने का यह एक उदाहरण है।

2. चूरू के प्रथम जिला प्रमुख और पूर्व विधायक श्री रावत राम आर्य एक घटना का स्मरण करते हुए लिखते हैं कि चौधरी साहब के राजस्व मंत्री काल में उनके समक्ष 150 नए पटवारियों की नियुक्ति हेतु एक फाइल स्वीकृति हेतु प्रस्तुत की गई। शासन गरीब के कल्याण के लिए बना है, इसे ध्यान में रखते हुए चौधरी साहब ने पटवारी के उन सभी पदों को अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों से भरने का आदेश दिया। उस समय वहाँ संयोगवश बैठे श्री रावतराम आर्य के लिए एक सुखद आश्चर्य था। यह इस बात का द्योतक है कि आर्य जी के दिल में दलितों व वंचितों के लिए हमदर्दी थी।

3. राजस्थान पत्रिका के संस्थापक कर्पूरचंद कुलिश ने एक रोचक संस्मरण लिखा है: "एक दिन मैं स्कूटर पर चौधरी साहब को लेकर दुर्गापुरा से कालवाड़ रोड की तरफ जा रहा था, तो रेलवे का टोंक फाटक बंद मिला। वहां खड़े कुछ लोगों की नजर चौधरी साहब पर पड़ी और अपनी फरियाद उन्हें सुनाने लगे। अजमेर से आए एक भूमिहीन किसान ने जमीन मांगी। चौधरी साहब ने दरख्वास्त मांगी तो किसान असहाय नजर आया। उसने बताया कि उसके पास अर्जी नहीं है और वह पढ़ा लिखा भी नहीं है। चौधरी साहब ने अपना पारकर पेन निकाला और किसान की हथेली पर भूमि का आवंटन आदेश लिख दिया। उन्होंने किसान से कहा कि वह अजमेर के कलेक्टर के पास पहुंचे।"

4. राजस्थान विधानसभा में 27 अक्टूबर 1995 को चौधरी कुंभाराम के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करते हुए फलौदी के पूर्व विधायक श्री पूनमचंद विश्नोई ने यह कहा:" चौधरी साहब एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके सामने... उस वक्त आई.सी.एस और आई.पी.एस कैडर के अधिकारी जो यहां पर राजस्थान में लगे हुए थे और 22 रजवाड़ों के वरिष्ठतम अधिकारी थे, वे भी यहां थे लेकिन चौधरी साहब की पेशी में जाने से पहले सात दफा विचार करते थे कि कौन सा प्रश्न पूछ लेंगे, उनका हम क्या जवाब देंगे। राजनीतिज्ञों के लिए कुशल प्रशासक होना चाहिए ... यह चीज उन्होंने हम सबके लिए स्थापित की जो हमारे लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहेगी।"

जातिवाद व छुआछूत विरोधी:- चौ. कुम्भाराम आर्य जाति भेद के विरोधी पर वर्ग भेद के हिमायती थे। काश्तकारों, कारीगरों व मजदूरों को वे किसान-वर्ग में मानते थे तथा इस वर्ग की खुलकर तरफ़दारी करते थे। वर्ग चेतना पर बल देकर वे किसान वर्ग की सभी जातियों के संगठित होने की आवश्यकता पर जोर देते थे। आर्य जी के घनिष्ठ सहयोगियों और कार्यकर्ताओं में समाज के सभी जतियों और धर्मों के लोग शामिल थे। वे जातिवाद के संकीर्ण सोच से वे मुक्त रहे। छुआछूत को वे समाज का कलंक मानते थे। चौ. कुम्भाराम आर्य के घर पर रसोईया का काम मेघवाल जाति की महिला करती थी, जिसकी शादी की व्यवस्था और उस पर हुये खर्च का वहन चौधरी कुंभाराम ख़ुद ने किया।

लादूसिंह राजपूत 'फौजी', कुंभाराम जी के विश्वास पात्र ड्राइवर थे। जयपुर में दुर्गापुरा स्थित कुंभाराम जी के दाह -संस्कार स्थल पर निर्मित स्मृति स्थल पर ही कुंभाराम जी के ड्रावर लादूसिंह राजपूत तथा लादूसिंह की पत्नी का दाह संस्कार कर वहाँ उनकी स्मृति में चबूतरे बनाए गए हैं। यहाँ यह बता दें कि लादू सिंह ने तीन बार सरकारी नौकरी छोड़ी लेकिन आर्य जी का साथ कभी नहीं छोड़ा। लादूसिंह वहीं रहे, जहां कुंभाराम जी रहे।

आर्य ने जब भी दलित पिछड़े वर्ग में किसी व्यक्ति को नेता बनने के काबिल पाया तो उसकी पीठ थपथपा कर उसे आगे बढ़ाया। श्री रावताराम आर्य को चूरू जिले का पहला जिला प्रमुख बनाया। विदित रहे कि श्री रावतराम आर्य भारत भर में अनुसूचित जाति के पहले जिला प्रमुख निर्वाचित हुए और वह भी सामान्य सीट पर क्योंकि उस समय इन चनावों में आरक्षित सीटों का प्रावधान नहीं था।

राजस्थान सरकार के केबिनेट मंत्री मांगीलाल आर्य जो जाति से मेहतर थे, जब सीकर के डाक बंगले में सांसद कुंभाराम आर्य से मिलकर उनके प्रति कृतज्ञता भाव से उनके पैरों में पसर गए तो आर्य जी ने तपाक से कहा, "अरे मांगीलाल! कोई देखेगा तो कहेगा कि राजस्थान की सरकार पसरी पड़ी है।" तब मांगी लाल आर्य ने कहा , "आर्यजी, आज सरकार में मंत्री आप की बदौलत ही हूँ। मैं ही नहीं ऐसे गरीब परिवारों से कई नेता बने हैं जिन पर आपकी कृपा दृष्टि पड़ी है।"

सीकर में कुम्भाराम जी के राजनीतिक साथी श्री रामेश्वर सेवार्थी तो उन्हें अनुसूचित जाति और जनजाति का मसीहा मानने के साथ साथ उन्हें जाति- धर्म से परे नेक महापुरुष मानते हैं। वर्ष 1956 में राजस्थान में मीणा जाति को एसटी में व मेघवाल जाति को एससी में शामिल करवाने में कुम्भाराम जी ने प्रभावी प्रयास किए। इस कार्य के लिए श्री पन्ना बारूपाल व बाबू जगजीवनराम की अहम भूमिका रही। समाज में गहरी पैठ रखने वाले कैप्टेन छुटनलाल मीणा, सर्व श्री मेघराज माली, रावताराम आर्य, माहिर आजाद, सम्पतराम , शोभाराम कुमावत, मालचंद खड़गावत (माली), खेतसिंह शेखावत (किसान यूनियन और सहकारिता के सहयोगी) राम कारण गुर्जर (पूर्व विधायक, कोटपुटली) आदि हजारों नेता आर्य जी के प्रबल समर्थक रहे।

भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत, कुम्भाराम जी के नजदीकी साथी रहे हैं। दोनों नेताओं में वैचारिक मतभेद रहे हैं लेकिन एक दूसरे से उनके संबंध हमेशा ही मधुर रहे। दोनों पुलिस विभाग में थानेदार की नोकरी छोड़कर राजनीति का मैदान में कूदे थे। स्व.भैरोसिंह का मानना है कि 'बीकानेर रियासत के राजस्व मंत्री की हैसियत से जो सुधार आर्य जी ने बीकानेर महाराजा से मिलकर किए, उसी बूते पर राजस्थान में जागीर का पुनर्ग्रहण हुआ, काश्तकारों को खातेदारी अधिकार मिले, काश्तकारों के लिए कानून बने।'

स्व.भैरोंसिंह शेखावत के मुख्यमंत्री काल में एक बार चौधरी कुम्भाराम आर्य किसी बात को लेकर एक दिन सुबह-सुबह मुख्यमंत्री आवास के सामने भूख हड़ताल पर बैठ गए । दोपहर एक बजे खाने का समय होते ही मुख्यमंत्री जी की पुत्री रतन कँवर धरना स्थल पर आई और भूख हड़ताल पर बैठे चौधरी कुम्भाराम जी के चरण स्पर्श कर भोजन करने हेतु आमंत्रित करते हुए कहा- बाबा भोजन तैयार है, घर के अंदर चलिए और भोजन कीजिये। चौधरी कुम्भाराम ने आशीर्वाद देते हुए कहा- बाईसा ! मैं भूख हड़ताल पर बैठा हूँ सो अन्न- जल कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? इस पर रतन कँवर ने हठ करते हुए आर्य जी से कहा- बाबा ! जब तक आप खाना नहीं खायेंगे, तब तक घर का हर सदस्य भूखा रहेगा। आप घर के आगे भूखे बैठे हैं तो हम भोजन कैसे कर सकते है? आखिर रतन कँवर द्वारा भोजन के लिए किया गया आग्रह और उसके संस्कार देखकर चौधरी कुम्भाराम जी गहरे सोच में पड़ गए। एक तरफ उनका भूख हड़ताल का निर्णय टूट रहा था तो दूसरी और बाईसा रतन कँवर द्वारा निभाया जाने वाला गृहस्थ धर्म टूटता नजर आने लगा। कुछ देर सोच- विचार कर चौधरी कुम्भाराम उठे और भूख हड़ताल त्याग कर रतन कँवर के साथ भोजन करने चल पड़े। घर के सभी सदस्यों ने कुम्भाराम जी के साथ बैठकर भोजन किया।

वर्तमान संदर्भ:- सामन्तशाही में किसानों का शोषण खेत मे हुए उत्पादन को जागीरदारों द्वारा हड़पने तथा बलपूर्वक लगान वसूलने के जरिए होता था, वह अब मण्डियों व बाजारों द्वारा किसानों की उपज का मनमाना मूल्य निर्धारित कर किया जा रहा है। ठगाई अभी भी जारी है, सिर्फ़ रूप बदला है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में किसानों की ठगाई कॉरपोरेट घरानों के लिए किसानों के खेतों को कब्जाने, नकली बीज-खाद की आपूर्ति , बीज-खाद के ऊंचे भाव, खेती के लिए बिजली की बढ़ी हुई दरों, किसानों को आवश्यक बिजली की अनुपलब्धता आदि के ज़रिए हो रही है। 'किसानों का उत्थान तो देश का उत्थान' का उद्घोष करने वाले व किसान हितों की गहन समझ रखने वाला चौधरी कुम्भाराम आर्य जैसा जुझारू नेता ही किसानों की सशक्त आवाज़ बन सकता है।

लगभग अर्ध शताब्दी तक राजस्थान की राजनीति के धुरीण पुरुष और राजनीतिक नभ में धूमकेतु की तरह छाए रहने वाले चौधरी कुम्भाराम आर्य को भावभीनी श्रदांजलि!!

नोट: यह विस्तृत आलेख चौधरी कुम्भाराम आर्य के योगदान पर इतिहासकार डॉ पेमाराम व अन्य लेखकों द्वारा लिखी पुस्तकों, जाट विकिपीडिया एवं डॉ रतनलाल मिश्र द्वारा संपादित 'चौधरी कुम्भाराम आर्य स्मृति ग्रंथ' में समाहित संदर्भ सहित प्रामाणिक सामग्री पर आधारित है।


प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण: पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान