Maitreyavana
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Maitreyavana (मैत्रेयवन) is the ancient name of Konark in Orissa. It is also known as Padmakshetra.
Origin
Variants
- Maitreya Vana मैत्रेयवन (AS, p.760)
History
मैत्रेयवन
मैत्रेयवन (AS, p.760): कोणार्क (उड़ीसा) के क्षेत्र का पौराणिक नाम. इसे पद्मक्षेत्र भी कहा गया है। [1]
पद्मक्षेत्र
विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ... 1. पद्मक्षेत्र (AS, p.524): कोणार्क (उड़ीसा) के क्षेत्र का प्राचीन नाम है. पौराणिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को इस स्थान के निकट चंद्रभागा नदी में बहते हुए कमलपत्र पर सूर्य की प्रतिमा मिली थी जो बाद में कोणार्क मंदिर की अधिष्ठात्री मूर्ति के रूप में मान्य हुई. इस कमल पत्र के कारण ही इस तीर्थ को पद्मक्षेत्र कहा गया है. इसका दूसरा नाम मैत्रेयवन भी है (देखें कोणार्क)
कोणार्क
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ... कोणार्क (AS, p.233) उड़ीसा राज्य की प्राचीन राजधानी था। किंवदन्ती के अनुसार चक्रक्षेत्र (जगन्नाथपुरी) के उत्तरपूर्वी कोण में यहाँ अर्क या सूर्य का मन्दिर स्थित होने के कारण इस स्थान को कोणार्क कहा जाता था। पुराणों में कोणार्क को मैत्रेयवन और पद्मक्षेत्र भी कहा गया है.
एक कथा में वर्णन है कि इस क्षेत्र में सूर्योपासना के फलस्वरूप श्रीकृष्ण के पुत्र सांब का कुष्ठ रोग दूर हो गया था और यहीं चंद्रभागा में बहते हुए कमल पत्र पर उसे सूर्य की प्रतिमा मिली थी। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल लिखता है कि यह मन्दिर अकबर के समय से लगभग सात सौ तीस वर्ष पुराना था, किन्तु मंडलापंजी नामक उड़ीसा के प्राचीन इतिहास-ग्रंथों के आधार पर यह कहना अधिक समीचीन होगा कि इस मन्दिर को गंगावंशीय लांगुल नरसिंह देव ने बंगाल के नवाब तुग़ानख़ाँ पर अपनी विजय के स्मारक के रूप में बनवाया था। इसका शासन काल 1238-1264 ई. में माना जाता है। एक ऐतिहासिक अनुश्रुति में मन्दिर के निर्माण की तिथि शक संवत 1204 (=1126 ई.) मानी गई है। जान पड़ता है कि मूलरूप में इससे भी पहले इस स्थान पर प्राचीन सूर्य मन्दिर था। सातवीं शती ई. में चीनी यात्री युवानच्वांग कोणार्क आया था। उसने इस नगर का नाम चेलितालों लिखते हुए उसका घेरा 20ली बताया है। उस समय यह नगर एक राजमार्ग पर स्थित था और समुद्रयात्रा पर जाने वाले पथिकों या व्यापारियों का विश्राम स्थल भी था। मन्दिर का शिखर बहुत ऊँचा था और उसमें अनेक मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थीं। जगन्नाथपुरी मन्दिर में सुरक्षित उड़ीसा के प्राचीन इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि सूर्य और चंद्र की मूर्तियों को भयवंशीय नरेश नृसिंहदेव के समय (1628-1652) में पुरी ले जाया गया था।
1824 ई. में स्टार्लिंग नामक अंग्रेज ने इस मंदिर को देखा था. उस समय यह नष्टप्राय अवस्था में था. वह लिखता है कि 'मंदिर के ध्वस्त होने का कारण स्थानीय लोग यह बताते हैं कि प्राचीन काल में इस मंदिर के उच्च शिखर पर एक विशाल चुंबक लगा हुआ था जिसके कारण निकटवर्ती समुद्र में चलने वाले जलयान खींचकर रेतीले किनारे पर लग जाया करते थे. मुगलकाल में एक जहाज के मल्लाहों ने इस आपत्ति से बचने के लिए मंदिर के शिखर का चुंबक उतार दिया और शिखर को भी तोड़-फोड़ डाला. मंदिर के पुजारियों ने इस घटना को अपशकुन मानते हुये मूर्तियों को भी मंदिर से हटाकर पुरी भेज दिया.' स्टार्लिंग ने अपने समय की बचीखुची मूर्तियों की सुंदर कला को सराहा है. वह लिखता है कि कोणार्क की मूर्तिकारी की तुलना गोथिक मूर्तिकला की अलंकरण रचनाओं के सर्वोत्कृष्ट
[p.234]: उदाहरणों से सरलता से की जा सकती है. कोणार्क के सूर्य मंदिर को कृष्ण मंदिर या ब्लैक पैगोडा भी कहते हैं. इसकी आकृति सूर्य के रथ के अनुरूप है. इसके विशाल एवं भव्य-चक्रों पर जो मनोरम मूर्तिकारी अंकित है वह सर्वथा अभूतपूर्व एवं अनोखी है. मंदिर का शिखर 'आमलक' प्रकार का है जिसके ऊपर अमृतकलश आधृत है. मंदिर में उड़ीसा की प्राचीन मंदिर निर्माण शैली के अनुरूप ही स्तंभों का अभाव है. कोणार्क का मंदिर भारत के सुंदरतम प्राचीन स्मारकों में से है. इसका विशेष वर्णन नीचे दिया जाता है.
मंदिर का विशेष वर्णन: प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार 1200 कलाकारों ने इस मंदिर का निर्माण किया था. उन्होंने रातदिन परिश्रम करके इसे बनाया था किंतु इसके निर्माण का कार्य इतना विराट था कि मंदिर फिर भी पूरा न बन सका. मंदिर को बनाने के समय चंद्रभागा और चित्रोत्पला नदियों का प्रवाह रोकना पड़ा था. कहा जाता है कि इस मंदिर पर कुल 12 सौ करोड़ रुपए हुआ था. शायद संसार के इतिहास में किसी एक भवन के निर्माण में इतना धन व्यय नहीं हुआ. मंदिर की संरचना सूर्यदेव के विराट रथ या विमान के सात अश्वों के परिचायक रूप हैं.
एक किंवदंती है कि कोणार्क का प्राचीन नाम कोन-कोन था. सूर्य (अर्क) के मंदिर बन जाने से यह नाम कोनार्क या कोणार्क हो गया. सूर्य मंदिर के दो भाग हैं-- रेखा अथवा शिखर और भद्र अथवा जगमोहन, जिसके ऊपर शिखर निर्मित है. तांत्रिक मत के अनुसार (तांत्रिकों का प्रभाव उड़ीसा में काफी समय तक रहा है) मंदिर के दोनों भाग पुरुष और स्त्रीत्व के वास्तु-प्रतीक हैं जो अभिन्न रूप में जुड़े हैं. रेखा भाग 180 और भद्र 140 फुट ऊँचा है. मंदिर के चतुर्दिक परकोटा खिंचा हुआ है और पूर्व, दक्षिण और उत्तर की ओर इसके प्रवेश द्वार हैं. मुख्य द्वार पूर्व की ओर है जहां हाथी की पीठ पर आसीन सिंहों की मूर्तियां निर्मित हैं. दक्षिणी प्रवेश द्वार पर दो अश्वमूर्तियाँ और उत्तरी द्वार पर मनुष्यों को सूंड पर उठाए हुए दो हाथी प्रदर्शित हैं. पहले सभी द्वारों पर मूर्तियां उत्कीर्ण थीं किंतु अब केवल पूर्वी द्वार पर ही नक्काशी शेष है. द्वार के ऊपर नवग्रहों का अंकन था. (यह मूर्तिखंड कोणार्क के संग्रहालय में है). इसके ऊपर, सूर्य देव की पद्मासनस्ठ मूर्ति गोखा में स्थित थी.
मंदिर के सामने एक मंडप था जिसे 18वीं सदी में मराठों ने पुरी भेज दिया था. जगमोहन के आगे एक नाट्य मंदिर है जिसकी तक्षणकला
[p.235]: सराहनीय है. मंदिर के आधार के निम्नतम भाग में वन्य पशुओं तथा हाथियों के आखेट के जीवंत मूर्तिचित्र हैं. इसके ऊपर अनेक मूर्तियां विभिन्न प्रणयमुद्राओं में अंकित हैं जिससे मंदिर पर तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है. मंदिर मध्ययुगीन होते हुए भी गुप्तकालीन वास्तु परंपरा का उदाहरण है. अबुलफ़ज़ल इसके लिए ठीक ही लिखा है कि कला के आलोचक इस मंदिर को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं. वास्तव में यह अद्भुत कलाकृति अपने महान निर्माता के स्वप्न की साकार अभिव्यक्ति जान पड़ती है.