Paryavaran aur Gramin Lok Sanskriti

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

पर्यावरण और ग्रामीण लोक संस्कृति

मोर का नाचना
झोंपड़ों की बस्ती
रेगिस्तान का नजारा

ग्रामीण लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी है और इसमें मानव की भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक के रूप में मानी गई है तथा पर्यावरण के साथ उत्तम सामंजस्य रखने की सीख दी गई है। इसमें पेड़ों की पूजा करने से लेकर धरती व नदियों को मां के पवित्र सम्बोधन से नवाजने का संस्कार भी है। हमारी ग्रामीण लोक संस्कृति के सभी घटकों में प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम और श्रद्धा का भाव झलकता है।

पर्यावरण क्या है?

मोटे तौर पर बात करें तो पर्यावरण समग्रता का नाम है, जिसमें हवा, मिट्टी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इस सृष्टि का कण-कण समाहित है। आंशिक विशिष्ट शब्दावली में बात करें तो पर्यावरण में हमारे आसपास का वो हरेक जीवित और निर्जीव सत्व (entity ) शामिल है, जिसका हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, निकट या दूर भविष्य में, कोई प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही ऐसी वो हर वस्तु या जीव भी शामिल है जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। सभी एक साथ सुखद परिवेश में समन्वयपरक अपना निर्धारित जीवन जी सकें, इसे ही निरापद पर्यावरण कहा जा सकता है।

हमारे चारों ओर जो कुछ है और हमारे जीवन का जो आधार है, वह सब कुछ पर्यावरण का अभिन्न अंग है। हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु एवं दृश्य-अदृश्य जीवन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा पर्यावरण को सन्तुलित रखने में उन सब की भूमिका है। मानव स्वयं पर्यावरण का ही एक अंग है। यह सृजनात्मक प्रकृति जिसने हमें जीवन और जीवन के लिए आवश्यक वातावरण दिया है, एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर टिकी है। इसलिए मानव समाज की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सब पर्यावरण के साथ तालमेल बनाते हुए ऐसी जीवन-शैली अपनाएं जिससे पर्यावरण का संतुलन क़ायम रहे। यहां यह बात भी ध्यान में रखनी जरूरी है कि प्राकृतिक पर्यावरण के अलावा सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण भी अपनी अहमियत रखता है।

प्रकृति अपने आप में एक सामुदायिकता है जिसमें सबका अस्तित्व एक-दूसरे से आपस में जुड़ा है। शायद इसीलिए मनुष्य का जीवन सामुदायिक जीवन (community life) के रूप में विकसित हुआ। इस बात को जानते-समझते हुए ही गांधीजी कहा करते थे कि 'धरती हर आदमी की जरूरतों की पूर्ति करने का पर्याप्त प्रबंध करती है, लेकिन लोभी आदमी के लालच को तृप्त नहीं कर सकती।'

"Earth provides enough to satisfy every man's needs, but not every man's greed." ---Gandhi

प्रकृति-प्रदत्त मुफ़्त सौगातों के उपयोग में किफायत बरतना और उन्हें प्रदूषण से बचाना हर इंसान का फ़र्ज़ है। इन पर हक़ आने वाली पीढ़ियों के भी है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए महात्मा गांधी ने प्राकृतिक संसाधनों के युक्तिसंगत उपभोग का आह्वान किया, ताकि आगामी पीढ़ियों को संसाधनों की कमी का सामना न करना पड़े।

भारतीय दर्शन यह मानता है कि मनुष्य की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटकों-- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश से हुई है। लोक मान्यताओं में प्रकृति को सर्वोच्च सत्ता के रूप में आसीन करने और धरती को ममतामयी माता माना गया है। ज़रा इस सारगर्भित उक्ति पर गौर कीजिए:

धरती/ज़मीन के मालिक हम नहीं;  हम पर मालिकाना हक़ ख़ुद धरती का है। हम धरती को अपने वश में नहीं कर सकते, लेकिन धरती हमें अपने वश में रखती है।

Earth does not belong to us; we belong to Earth. We cannot hold Earth but Earth holds us.

पर्यावरण के प्रति जागरूकता भारतीय समाज में आदिकाल से रही है। पर्यावरण के तत्त्वों—जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, वनस्पति आदि के प्रति यहां के ग्रन्थों में असीम श्रद्धा का भाव परिलक्षित होता है। प्रकृति की गोद में पलने वाले ऋषि-मुनियों ने वृक्ष और जल की महत्ता स्वीकारते हुए एक श्लोक में कहा गया है:

'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:'
'अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है।

पर्यावरण-प्रेमी ग्रामीण लोक संस्कृति

विचारकों ने संस्कृति को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। प्रो. हरिशंकर आदेश सहज शब्दों में समझाते हुए लिखते हैं: "संस्कृति जीवन शैली होती है जिसका निर्माण कोई एक दिन में न होकर शनै-शैने शताब्दियों में होता है।" (हिंदी भाषा: स्वरूप, शिक्षण, वैश्विकता, संपादक कमल किशोर गोयनका, लेख- प्रो. हरिशंकर आदेश [भारतीय संस्कृति तथा हिंदी ] 2015, पृष्ठ 68 )

लोक जीवन के प्रांगण में प्रस्फुटित, पल्लवित , विकसित मानवीय भावनाएँ, विश्वास, मान्यताएँ और रीतियाँ लोक संस्कृति का अंग हैं। दूसरे शब्दों में लोक में प्रचलित विभिन्न क्रियाकलाप, विश्वास, परंपराएं, मान्यताएं, आचार- विचार, प्रथाएं, लोक साहित्य आदि लोक संस्कृति के आधारभूत तत्व हैं। लोक संस्कृति में सार तत्व के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों--समता, स्वतंत्रता, विश्व बंधुत्व-- के साथ सहिष्णुता, सहयोग, शांति एवं लोक मंगल की भावना समाहित है।

भारत प्राचीन काल में कबीलों एवं बाद में गाँवो का देश रहा है। भारतीय संस्कृति मूलतः ग्रामीण संस्कृति ही थी। भारत का लोक गाँवो में निवास करता था। विभिन्न कबीलों की संस्कृतियों के संमिश्रण से ग्रामीण संस्कृति का विकास हुआ। मेरा ऐसा मानना है कि कालांतर में शहरी सभ्यता के विकास के साथ ग्रामीण संस्कृति के मूल तत्वों को दरकिनार कर उसमें कर्मकांडों का जाल बिछाकर उसे जटिल एवं कृत्रिम रूप दे दिया गया। शहरी मानसिकता ज्यों- ज्यों पैर पसारने लगी त्यों- त्यों इसे भारतीय संस्कृति के रूप में प्रचारित किया जाने लगा।

भारत की मूल संस्कृति का दर्शन तो यहाँ की ग्रामीण लोक संस्कृति में ही मिलता है। ग्रामीण लोक संस्कृति की सर्वाधिक महत्व वाली जो ख़ासियत है, वह है ‘आत्मीयता’ अर्थात अपने समान सभी को समझना। सह अस्तित्व (co-existence ) का सिद्धांत ही किसानों व वनवासियों को प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।

ग्रामीण लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी। मनुष्य का मनुष्य के प्रति निश्चल एवं सहज प्रेम लोक संस्कृति का साध्य रहा है। श्रम की पूजा के साथ साथ पारस्परिक प्रेम की उदात्त भावना इसका लक्ष्य एवं मूल आधार रहता है। आपसी प्रेम के साथ संपूर्ण लोक और समस्त जीव- जगत के कल्याण की भावना लोक संस्कृति की मूल जीवन शक्ति रही है।

मेरी दृष्टि में लोक संस्कृति जनता की संस्कृति होती है। इसे कमेरी जनता की संस्कृति माना जा सकता है क्योंकि ये उनकी सोच को परिलक्षित करती है तथा उनके क्रियाकलापों से फूलती- फलती है।

ग्रामीण लोक संस्कृति में मानव की भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक/प्रबंधक (gaurdian/steward ) के रूप में मानी गई है। इसमें मानव के सहचर्य के हजारों सन्दर्भ हैं और पर्यावरण के साथ उत्तम सामंजस्य रखने की सीख दी गई है। पेड़ों की पूजा करने से लेकर धरती व नदियों को मां के पवित्र सम्बोधन से नवाजने का संस्कार भी है।

हमारे लोकगीत, लोकनृत्य, लोककथाएं, लोक त्योहार--ये सब प्रकृति-प्रेम को प्रकट करने वाले हैं। मनोरंजन, खेतों में बुवाई, धान की कटाई आदि अवसरों पर हमारे पुरखे मिल-जुलकर जल, पृथ्वी, वायु अग्नि और आकाश की महिमा का बखान करते थे। कृतज्ञता का भाव उनके रोम- रोम से प्रकट होता था। लोक कहावतों व लोक कथाओं पर नज़र डालें तो उनकी सीख में पर्यावरण के प्रति श्रद्धा का भाव झलकता है।

खेती-बाड़ी से जुड़ा लोक इस बात को भलीभांति समझता है कि पृथ्वी पर मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़ पौधे एवं अन्य सभी जीव-जंतु एक प्रकृति प्रदत्त चक्र से आपस में बंधे हुए हैं। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए पेड़ों, नदियों, पहाड़ों, मिट्टी, वायु, जल तथा पशु एवं पक्षियों को अपने ही परिवार का अंग समझा और सभी के प्राकृतिक गुणों को समझकर एक ऐसी संस्कृति की नींव डाली, जिसमें सभी की सहभागिता हो सके। प्रकृति एवं मानव समुदाय में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हमारे पुरखों ने जीवन के हर स्तर पर विभिन्न प्राकृतिक तत्वों का समावेश कर इकोफ्रेंडली जीवन-पद्धति विकसित की। इसकी स्पष्ट छाप उनकी सहज-सरल जीवन- शैली, कला, संस्कृति, सामाजिक उत्सवों और त्योहारों में देखने को मिलती है। उन्होंने प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करने के लिए प्रकृति से केवल आवश्यकता भर प्राप्त करने का मूल-मंत्र दिया। अन्न-जल की बर्बादी रोकना, अपने शरीर को प्रकृति के अनुरूप ढालना, स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध वायु व जलस्रोतों की साफ-सफ़ाई को महत्व देना, पशु-पक्षियों के साथ मैत्री भाव रखना एवं उनके प्रति करुणा का भाव रखना आदि पर विशेष जोर दिया गया।

हमारे पुरखे जानते थे कि धरती पर सभी के लिए स्थान है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढऩा रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी जरूरी हैं। सब जीवों की इस पारिस्थितिकी तंत्र में अहमियत है। यही सहजीवन है। यह सहजीविता ही विकास की बुनियाद होनी चाहिए।

लोक में प्रचलित धारणाओं को गहनता से समझने पर पता चलता है कि प्रकृति की गोद में पलने-बढ़ने वाले हमारे पुरखे अंग्रेज कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की तरह मूलतः प्रकृति उपासक (Nature worshipper) थे। प्रकृति के साथ उनका माँ का रिश्ता था। प्रकृति को वे ईश्वर का प्रतिरूप मानते थे। प्रकृति से वे अपनी नज़दीकी नातेदारी (kinship) मानते थे और हर कदम पर इसे व्यवहार में निभाते भी थे। प्रकृति ही उनकी सर्वोत्तम नैतिक शिक्षक थी। सभी जीव-जंतु सहजता से जीवन जी सकें, इस बात का वे विशेष ख़्याल रखते थे। जल, वायु और भोजन को निरापद रखना वे अपना नैतिक दायित्व समझते थे।

मौजूदा दौर में हालात बदल चुके हैं। बाजार के दबदबे व उपभोक्तावादी संस्कृति ने सब कुछ बदल डाला है। विज्ञापनों द्वारा ऐसी वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा दिया जा रहा है जो बिलकुल ही अनावश्यक है। अब सुविधाभोगी इंसान ऐश-ओ-आराम के मोह पाश में बंधकर दुनियादारी अर्थात उपभोग को ही जीवन का परम लक्ष्य मानने लगा है। फलतः हम प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी कर पर्यावरण को तबाह करने का कृत्य कारित कर रहे हैं।

"The world is too much with us."

पुरानी पीढ़ी के किसान पर्यावरण संरक्षण और खेती की उपज में पक्षियों के महत्व को भलीभांति समझते थे। गर्मियों में पक्षियों की मूलभूत जरूरत पानी और चुग्गा (चुगने के लिए अनाज के दाने) को पूरा करने में कोई कोताही नहीं बरतते थे। काम कष्टसाध्य था पर बड़ी निष्ठा से करते थे। फूटे हुए घड़े के गलकंठ को अलग कर उसके नीचे के गोल खुले भाग का इस्तेमाल तगरा/चेबरा (पक्षी-परिंडे) के रूप में करते थे। घर के आगे व पीछे के हिस्से में तगरा रखकर प्रतदिन उसे पानी से भरते थे और उसके आसपास पक्षियों के लिए चुगा डालते थे। इतना ही नहीं किसान तीन-चार किलोमीटर तक दूर स्थित अपने खेतों में पक्षी-परिण्डे की व्यवस्था करते थे। पेड़ की डाल पर रस्सी बांधकर परिण्डे को लटकाते थे या फिर खेत में चारे के ढेर पर रखते थे। अपने सिर पर पानी का घड़ा ढोकर ले जाते थे और वहाँ पर तगरा/चेबरे को पानी से भरकर आते थे और वहां पर पक्षियों के लिए चुगा डालकर आते थे। ये उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। मक़सद ये रहता था कि खेतों में गांव-बस्ती में दूर रहने वाले पक्षियों की दाने-पीने की जरूरत पूरी हो सके और वे जिंदा रह सकें ताकि पारिस्थिकीय संतुलन (ecological balance) क़ायम रहे।

'अब' हम पढ़े-लिखे पक्षी-हितैषी होने का प्रचार पाने के लिए क्या-क्या पाखण्ड रच रहे हैं, इसका एक नमूना पेश है। अब बस पैसा है, प्रचार पाने की भूख है। हमारे पुरखों का पर्यावरण के प्रति जो निश्छल प्रेम था, वो इन प्रचार-प्रेमियों में नदारद। धातु से बने चमकदार पक्षी-परिण्डे ख़रीद लेते हैं। उन पर खुद का या राजनीतिक पार्टी का नाम लिखवाते हैं। उसे पेड़ पर लटकाने के बज़ाय उसे सीधा पेड़ के बदन पर लोहे की किलों से ठोक देते हैं। इस प्रक्रिया में पेड़ के बदन को जगह- जगह से छलनी कर डालते हैं। एक दिन नियत करते हैं। मंडली के लोग जुटते हैं। बोतल से उन परिंडों में पानी उड़ेलते हैं। नज़रें फ़ोटो खींचने वाले पर टिकाए रखते हैं।मंद- मंद मुस्कान अधरों पर बिखराए रखते हैं। फ़ोटो सेशन ख़त्म, काम भी ख़त्म। इस तरह पर्यावरण-प्रेमी होने का ढोल बजवा लेते हैं। पेड़ो पर टांगे गए उन परिण्डे की फिर कोई खोज-ख़बर लेना का वक़्त उन्हें कभी मिलता नहीं।

प्रसंगवश सत्रहवीं सदी के अंग्रेजी के कवि एंड्रू मार्वेल की कविता Thoughts in a Garden याद आती है। बग़ीचे में पेड़ों की वेदना को व्यक्त करते हुए कवि कहता है कि प्रेम जाल में फड़फड़ाते प्रेमी यहां आते हैं और पेड़ों की छाल पर अपनी प्रेमिकाओं के नाम खोदकर चले जाते हैं। ऐसा करके वे पेड़-पौधों के बदन को छलनी करते रहते हैं। ये कैसी दीवानगी है? ये कैसी नादानी है? वो बेरहम बने प्रेमी क्या जानें कि उनकी प्रेमिकाओं की खूबसूरती महज़ चार दिन की चांदनी है जबकि इन पेड़ों का वैभव टिकाऊ है।

साझी संपति की सुरक्षा

राजस्थान के गांवों में पर्यावरण संरक्षण का अपना सुनियोजित तरीका था। एकदम देसी अंदाज़ वाला। लोक देवी-देवताओं के नाम से ओरण (वन-भूमि) आरक्षित किए जाने का प्रावधान रहा है। पाबूजी, रामदेवजी, तेजाजी, गोगाजी और अन्य स्थानीय देवी-देवता व जूंझार-भोमियों (गायों व भूमि की रक्षा लिए हुए शहीद) के नाम पर ये ओरण संरक्षित होते थे। इनमें से दरख़्तों को काटना पाप माना जाता था। इसी तरह गायों के चरने के लिए गोचर भूमि और दोपहर में उनके बैठने के लिए खैड़ा (गाँव के चारों ओर की खुली जमीन) और 'तांडा (कुओं व जोहड़ों/तालाबों के पास की जमीन) होता था। ये गांव के सार्वजनिक उपयोग में आने वाली जमीन होती थी। इन पर किसी व्यक्ति विशेष का मालिकाना हक़ नहीं माना जाता था।

गाँव की सामूहिक संपत्ति उन संसाधनों को माना जाता है, जिनका उपयोग का मालिकाना हक़ स्थानीय समूह या समुदाय विशेष के सब सदस्यों को प्राप्त रहता है। इन साझा संसाधनों में सामुदायिक उपयोग की भूमि, जलस्रोत, खनिज, तालाब, पेड़, रास्ते और वायुमंडल आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन पर किसी व्यक्ति विशेष का कोई अलग मालिकाना अधिकार नहीं होता। गांवों के चारागाह, वनभूमि, सामूहिक खलिहान, पहाड़, नदी-नाले एवं तालाब आदि इस सामूहिक संपत्ति की श्रेणी में आते हैं। सामूहिक वन और चारागाह इन समुदायों के जीवनस्रोत होने के कारण जीवन का महत्वपूर्ण आधार रहे हैं।

राजस्थान टेनेंसी एक्ट 1955 के अनुसार “चारागाह” वह भूमि है जिसे एक या अधिक गांव के पशुओं की चराई के काम में लिया जाता है अथवा जिसे इस एक्ट के लागू होने के समय सेटलमेंट रिकॉर्ड में इस रूप में दर्ज किया गया है अथवा इसके पश्चात इसे राज्य सरकार के नियमों के अनुसार चारागाह के रूप में सुरक्षित किया गया है। राजस्थान में सामुदायिक भूमि के लिए गोचर, चारागाह, गमाउ या खुला जंगल, गमाउ बीड़, ओरण आदि नाम प्रचलित हैं।

सामुदायिक भूमि का महत्व: सार्वजनिक जोहड़े और सामुदायिक चारागाह विभिन्न समुदायों के जीवनस्रोत और आधार रहे हैं। इसके साथ ही आसपास के गांवों का पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में इन आरक्षित क्षेत्रों का ख़ास महत्व रहा है। इस कारण सामूहिक वन और चारागाहों को अक्सर पवित्र और पूज्य स्थान मानने की परंपरा रही है।

जिन लोगों के पास अपनी व्यक्तिगत संपदा नहीं है उनके जीवन का आधार सामूहिक वन, चारागाह आदि ही होते हैं। उनसे प्राप्त चारा, लकड़ी व अन्य ज़रूरत की चीज़ों से वे अपनी जीविका चलाते रहे हैं।

सामुदायिक भूमि का प्रबंध: साझी भूमि के प्रबंध की आधारभूत मान्यता यह है कि इन संसाधनों पर निकटतम रूप से निर्भर लोग इन्हें सुधारने, इनकी रक्षा करने और इनका सही उपयोग सुनिश्चित करने के दायित्व का निर्वहन करेंगे। इसलिए सामुदायिक भूमि का प्रबंध नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक दायित्वों के अनुरूप किया जाता रहा है।गांव के आसपास गोचर भूमि के नाम पर जोड़े व आरक्षित भूमि छोड़ी जाती थी, जिसमें पेड़- पौधों को क्षति पहुंचाना सामाजिक रूप से पूर्णतया वर्जित था।

राजस्थान की ग्रामीण लोक संस्कृति में सामुदायिक संसाधनों के प्रबंध की कारगर व्यवस्था व सार -संभाल सदियों से स्थापित परंपरा और रीति-रिवाज के अनुसार करने का प्रावधान रहा है। अक्सर इनके प्रबंध के लिए अलिखित नियम और संहिताएं प्रचलित थीं, और उसी के आधार पर सामूहिक उपयोग के संसाधनों के रख-रखाव की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाती रही है। ब्रिटिश संविधान की तरह गाँवों का अपना अलिखित, परम्पराओं की लीक पर चलने वाला संविधान होता था और इसका उल्लंघन करने वाले को गांव के पंच-पटेल दंडित करते थे।

आज के शिक्षित और आधुनिक समाज से तो वे हमारे निरक्षर पुरखे ज्यादा समझदार थे जो धरती को माता मानकर प्राकृतिक संसाधनों की क़दर करते थे। क़ुदरत की सौगतों को उपकार के भाव के साथ ग्रहण करते थे। पढ़े- लिखे होने का दंभ भरने वाली वर्तमान पीढ़ी से तो बुज़ुर्ग किसान और आदिवासी बेहतर हैं जो मनुष्य और प्रकृति के पावन रिश्ते को समझते हैं। वे प्रकृति के साथ पूरी श्रद्धा और आस्था से जीते हैं। वे अनपढ़ होकर भी जीवन, जल, जंगल और जमीन के उस संबंध को जिससे नैरन्तर्य बना हुआ है, उस प्रकिया की गहरी और वैज्ञानिक समझ रखते हैं।

पेड़ो की छंगाई 'तब' और 'अब'

हमारे पुरखों के जतन से पाले-पोषे पेड़ों के प्रति अब लोग कितने बेदर्द हो चले हैं, इसकी एक मिसाल पेश कर हूँ। शहर-कस्बों में सड़कों के किनारे हमारे पुरखों के लगाए हुए जो दरख़्त खड़े हैं, उनके साथ हो रही बदसलूकी मन को व्यथित करती है। इन पेड़ों के चारों तरफ सड़क इतनी सटा कर बनाई जाती है कि पेड़ों की जड़ों को कहीं से भी पानी सुलभ नहीं हो पाता। सामान्य समझ की बात है कि पेड़ों की जड़ों के आसपास कुछ हिस्सा कच्चा छोड़ा जाना चाहिए ताकि पानी रिसकर उनकी जड़ो तक पहुंच सके ताकि पेड़ की प्यास तृप्त हो सके।

पेड़ों की छंगाई करने व काटने का बुज़ुर्ग किसानों व वनवासियों का ढंग इतना वैज्ञानिक है कि वह पेड़ शीत ऋतु के बाद जल्द ही जीवन्त होने लगता है। हाल ही के कुछ वर्षों में मशीनों का इस्तेमाल कर पेड़ों की छंगाई के नाम पर बेरहमी से पेड़ो पर आरी चलाई जा रही है। नतीज़तन दरख़्तों की शाखाएं ठूंठ में तब्दील होती जा रही हैं। पेड़ों की शाखाओं की आरियों से होने वाली गोल कटाई से शाखाओं की उल्लने (कटाई के आगे से कोंपलें फूटने ) की क्षमता ख़त्म होती जा रही है। पेड़ अपनी जीवंतता खोते जा रहे हैं। इसके साथ ही छंगाई में मशीनों के इस्तेमाल से गाँवो में दिहाड़ी मज़दूरी के अवसर भी ख़त्म होते जा रहे हैं।

बुज़ुर्ग किसानों को पता है कि पेड़ों की टहनियों व शाखाओं का उपयोग पेड़ को बिना नुकसान पहुचाएं कैसे करना है। वे जानते हैं कि पेड़ों से फल, फूल व पत्तियां कब और कितनी लेनी हैं। जीवन की इस समग्रता को वे निरक्षर बुजुर्ग ग्रामीण व आदिवासी समझ सकते हैं क्योंकि उनका प्रकृति के साथ ईमानदार रिश्ता है। सामुदायिक जुड़ाव के रिश्ते को वे भलीभांति समझते हैं और उसे संजीदगी से निभाना भी जानते हैं।

स्वच्छता: गांव-ढाणियों में बसे हमारे पुरखे परिवेश को साफ-सुथरा रखने की जिम्मेदारी सजगता से निभाते थे। मानते थे कि स्वछता है जहां, ईश्वर बसता है वहां। प्रतिदिन अल सुबह जगकर महिलाएं घर-गुवाड़ी भूंवारती ( साफ-सफ़ाई करना ) थीं। घर को भूंवारी (खेतों में उगने वाले कूंचे के तिनकों से घर पर तैयार किया गया झाड़ू) से तथा सारी गुवाड़ी ( घर का परिसर ) को भूंगरे ( ख़रीन्टी पौधे के मजबूत तिनकों या रोहिड़े की नरम टहनियों से घर पर तैयार किया गया चौड़ा झाड़ू) से सलीके से भूंवारती थीं। इतना ही नहीं घर के आगे व पीछे के प्रवेशद्वार से सटे रास्ते / गली की भी प्रतिदिन साफ-सफाई करती थीं। ये हर घर की महिला के नैतिक दायित्व में शामिल था। नतीज़तन गाँव के रास्ते व गुवाड़ साफ-सुथरे रहते थे। क़ुरड़ी (घर से निकले कूड़े का ढेर) के लिए घर का एक कोना निर्धारित रहता था। गर्मियों में ये कूड़ा- गोबर ऊँटगाड़ी से खेतों में डालकर आते थे। बदलते दौर में लोक लिहाज़ और लोक लाज़ दोनों का क्षरण होने लगा। 1980 का दशक आते-आते एक दूसरे की देखा-देखी करते हुए गाँवो में लोग क़ुरड़ी का स्थान आम रास्ते या सार्वजनिक उपयोग की भूमि पर नियत करने लगे। नतीजा यह है कि कचरा रास्तों पर बिखरने लगा है।

संयमित जीवन: हमारे पूर्वज देसी संसाधनों से रहवास बना लेते थे। जलवायु को ध्यान में रखकर आहार- आदत अपनाते थे। मोटे धान की रोटी (बाजरा, जौ आदि), राबड़ी, खिचड़ी, घूघरी, बाजरिया आदि मुख्य भोजन में शामिल था। साथ में दूध- दही-छाछ का बहुतायत में उपयोग करते थे। जैसे जीवन सरल था वैसे ही खान पान। रहन- सहन में सादगी और सरलता। पर्यावरण के साथ पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर जीने की कला में पारंगत। प्राकृतिक संसाधनों की न्यूनतम खपत। संयमित जीवन में संयम को सर्वोपरि स्थान प्रदान कर हर चीज की बचत अधिक मूल मंत्र।

पशुओं के गोबर के उपलों व खेत-जोहड़ से इकट्ठी की गई लकड़ियों का इस्तेमाल ईंधन के रूप में कर लेते थे। हर घर में जीरो बजट (शून्य लागत) वाला ईंधन इस्तेमाल होता था। 'अब' सुविधाभोगी जीवन के मोहपाश में फंसकर जल, जंगल और जमीन की बेदर्दी से बर्बादी की जा रही है। कॉरपोरेट घरानों की तेल-गैस कंपनियों को प्रतिमाह लगभग तीन हज़ार रुपये चुका रहे हैं। इसके कुछ अनुषांगिक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। खेत में प्रकृति प्रदत्त ईंधन अर्थात लकड़ियों का अब कोई मोल नहीं रहा। किसान के आमदनी के सारे स्रोतों पर ताला जड़ दिया गया है। पशु धन की बिक्री, बकरियों के जट व भेड़ों की ऊँन की कतराई एवं खेत की लकड़ियों की बिक्री से होने वाली आमदनी से किसान वंचित हो चुका है।

विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रहार

महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, दो चीजें असीमित हैं-- एक ब्रह्मांड तथा दूसरी मानव की मूर्खता। मानव ने अपनी मूर्खता के कारण अनेक समस्याएं पैदा की हैं। इसमें से पर्यावरण प्रदूषण अहम है। आधुनिकता की चकाचौंध में फंसा मनुष्य अपनी सुख- सुविधा व समृद्धि में अंधाधुंध बढ़ोतरी करने की लालसा से वशीभूत होकर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहा है। इसके परिणामस्वरूप आज हवा, पानी और मिट्टी अत्यधिक प्रदूषित हो चुके हैं। पारिस्थिकी के संतुलन को बिगाड़ रहा है। ऐसा करके वह खुद अपने अस्तित्व के पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है।

प्रदूषण का ही नतीजा है कि हर साल लाइलाज गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। वातावरण में घातक गैसों के उत्सर्जन की मात्रा बढ़ रही है जिससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न होती जा रही है। यह समस्या अन्य जीवों के साथ-साथ मानव के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रही है।

विकास निःसंदेह प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व एवं सहूलियत भरी जिंदगी की ओर दौड़ लगाना नहीं है। विकास का सही अर्थ तो जीवन की गुणात्मक उन्नति है। प्रगति का पैमाना मानवीयता एवं विवेकशीलता में वृद्धि को माना जाना चाहिए।

पुरानी पीढ़ी का मनुष्य प्रकृति के साथ सामुदायिक जीवन पद्धति के आधार पर जो जीवन जीता था, उससे वर्तमान पीढ़ी दूर हो चली है। आधुनिक जीवन- शैली सहूलियत व भोग- विलास पर टिकी हुई है। विकास इसका नारा है, जो एक बहाना है। पर्यावरण प्रदूषण इसी की कोख़ से जन्मा है। धरती की कोख को उजाड़कर उसे बांझ बनाने का कुचक्र कई दशकों से चल रहा है। बाजारवाद व उपभोक्तावाद से प्रेरित विभिन्न सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक अनुक्रियाओं के कारण अनेकानेक पर्यावरणीय विसंगतियां पैदा हो रही हैं।

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों से नगरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर बिना सोचे-समझे अंधाधुंध काटे जा रहे वनों के कारण भूमि अपरदन, भूस्खलन तथा बाढ़ जैसी समस्याओं का प्रकोप बढ़ गया है। जोहड़े व तालाबों की सार्वजनिक उपयोग की भूमि पर अतिक्रमण करने व वहाँ कॉलोनियाँ बसाने का सिलसिला जारी है। जलस्रोतों को अपशिष्ट पदार्थों का गोदाम बनाया जा रहा है। जमीनें उजाड़ दी, उन्हें बंजड़ बना दिया। पर्वतों के सीने चीरकर लालची आदमी ने अपने लिए ऐशगाहों के निर्माण कर लिये, जंगल उजाड़ दिये, जल स्रोतों को लूट लिया और उन्हें सुखा दिया। जोहड़- वन भूमि पर अपने पूर्ण यौवन में पल रहे पेड़ों को काटकर वहाँ बेतरतीब कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दी गईं। जंगलों को तबाह कर कंक्रीट के जंगल बसाए जा रहे हैं। ड्राइंग रूम हो, चाहे बेडरूम हो, उनकी शोभा बढ़ाने के लिए प्लास्टिक के पौधों का इस्तेमाल कर प्रकृति-प्रेमी होने का ख़ूब ढोंग रच रहे हैं। बनावटी लोगों का लगाव बनावटी चीजों के प्रति ही रहता है। पर्यावरण संरक्षण का स्वांग रचते हुए 'प्लांटेशन' के लिये मैराथन दौड़ आयोजित कर, रिकार्ड बनाकर, सोशल मीडिया पर फोटो अपलोड करके हम फूले नहीं समा रहे हैं।

आर्थिक विकास के लिए जिस तरह से नदियों, जंगलों और पहाड़ों की हत्या की जा रही है, वह नीतियां वास्तव में हमें साझा मौत की तरफ ले जा रही हैं। प्रकृति और पारिस्थितिकी के सहजीवन के साथ खिलवाड़ करने का खामियाजा आज मानव को प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगतना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन, तूफान, बाढ़, भूकम्प, सूखा, अकाल, जल संकट व बीमारियां आदि दुष्परिणाम झेलने को हम अभिशप्त हैं। सुविधाभोगी मनुष्य का जीवन जीने का तरीका एकदम पर्यावरण विरोधी हो चला है।

उन्नत कृषि के नाम पर इस्तेमाल रासायनिक खादों, कीटनाशकों, उद्योगों के विसर्जन और अवैज्ञानिक धार्मिक कर्मकाण्ड जल को भयंकर रूप से प्रदूषित कर रहे हैं। जल की निर्मलता को बनाए रखने के लिए लोक चेतना का पूर्ण अभाव है। बाज़ारवादी ताक़तों ने धार्मिक- स्थलों की पवित्रता को भंग कर उसे कमाई का जरिया बना लिया है। धार्मिक पर्यटन एक व्यवसाय बन चुका है और इसकी आड़ में आजकल मौजमस्ती या यों कहें कि मटरगश्ती करने वाले लोग पूजा स्थलों के आसपास ख़ूब कचरा फैलाते देखे जा सकते हैं।

भोग-विलास की आधुनिक जीवन शैली का मूल मंत्र 'काम में लो, और फेंको' हो चला है। इसके कारण सिर्फ़ एक बार इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं (use-once-articles ) का उत्पादन और उपभोग परवान चढ़ा है। मौजूदा दौर में आदमी अपनी गतिविधियों से पर्यावरण को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। व्यक्ति को एक मनचला उपभोक्ता मानकर उसे विज्ञापनों के ज़रिए फुसलाया जा रहा है कि वह आधुनिक कहलाने का हक़दार बनने के लिए हर उस चीज का उपभोग करे जो कारखानों में उत्पादित हो रही है। आकर्षक प्रचार के ज़रिए व्यक्ति को उत्पादों की जरूरत का अहसास करवाया जा रहा है

सुविधाभोगी जीवन शैली के चंगुल में फंसकर आदमी ऐसी गलती कर रहा है कि पेड़ की जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है। जोहड़ों, चारागाहों पर कब्ज़ा कर व वनों को काटकर धरती को नंगा कर रहा है। अनेक वन्य प्रजातियों को बेघर कर उन्हें विलुप्ति के कगार पर पहुंचा रहा है। पक्षियों का जीना दूभर कर दिया।

दरअसल प्रकृति विरोधी भौतिक विकास आदमी को विनाश की ओर ले जा रहा है। विकास के नाम पर धरती के पानी की अंधाधुंध बर्बादी कर धरती के जलस्रोतों को जलविहीन करने का पाप कर रहा है। नहर- नदियों में अपशिष्ट पदार्थों को डंप कर उन्हें दूषित कर रहा है। वाहनों व फैक्टरियों से निकलने वाले जहरीले धुंए से हवा को जहरीला कर रहा है। बेशर्मी से प्रकृति की लूटमार में संलिप्त होकर खुद का व दूसरे जीवों के स्वास्थ्य व जीवन तबाह कर रहा है। आने वाली पीढ़ियों के जीवन पर कुठाराघात कर रहा है। क्या आने वाली पीढ़ियां इस दौर के आदमी को माफ करेंगी?

खासकर युवा पीढ़ी, इतनी साधनपरस्त और आलसी हो चुकी है कि एक-आधा किलोमीटर जाना हो तो भी पैदल चलना गवारा नहीं। सोशल स्टेटस और पोजीशन कुछ ज्यादा ही दिमाग़ में हावी हो बैठी है। इसके मोहपाश में फंसकर वो सब करने लगे हैं, जिनका ग्रामीण जीवन शैली से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है।

महानगरों में कम्फर्ट जोन में रहने वाले लोग तो इतने बेहया हो चुके हैं कि घर में जितने लोग उतने ही सबके अलग- अलग वाहन। हर जगह वर्तमान पीढ़ी इतनी आरामतलबी हो गई है कि ऑफिस या थोड़ी दूर इधर- उधर जाना हो तो वाहन का इस्तेमाल करते हैं। पार्क में घूमने या जिम जाने के लिए उस स्थल तक पहुंचने के लिए भी निजी वाहन का इस्तेमाल आदत में शुमार है। छोटे-मोटे कार्यों की पूर्ति के लिए भी निजी वाहन का उपयोग कर पेट्रोल, डीजल जैसे धरती पर ईंधन के सीमित स्रोतों को नष्ट किए रहे हैं। हमारे क्रियाकलापों के कारण ही वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, पार्टिक्यूलेट मैटर, ओजोन प्रदूषण का मिश्रण इतना बढ़ गया है कि हमें वातावरण में इन्हीं प्रदूषित तत्वों की मौजूदगी के कारण सांस की बीमारियाँ जकड़ने लगी हैं। पेट्रोल, डीजल से पैदा होने वाले धुएँ ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को बेहद खतरनाक स्तर पर पहुँचा दिया है।

पर्यावरण संरक्षण के लिए सामुदायिक जीवन पद्धति की ओर लौटना ही होगा। इको-फ्रेंडली जीवन-शैली अपनाकर ही पर्यावरण संकट से उबरा जा सकता है। धार्मिक उत्सवों, त्यौहारों व खुशियों का मौकों को मनाने का ढंग इको-फ्रेंडली हो, ये सुनिश्चित करना होगा। ऐश-ओ-आराम की तलब में बेजरूरत की ढेरों चीजें जुटाने की प्रवृत्ति पर नकेल कसनी होगी। प्रख्यात दर्शनशास्त्री रूसो का एक ख़ास कथन है कि मनुष्य को आदत न डालने की आदत डालनी चाहिए। इसके लिए प्रकृति की ओर लौटने ( Back to Nature ) की जरूरत है। आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती पर जीवन सुरक्षित करने के लिए हमें अपने को प्रकृति के अनुरूप ढालना ही होगा। प्राकृतिक संसाधनों के अपव्यय को रोकना होगा।

वर्तमान संदर्भ

कोविड-19 महामारी के खतरे से निपटने के लिए साल 2020 के मार्च महीने के अंतिम सप्ताह से घोषित किए गए लॉक डाउन के दौरान वाहनों के शोरगुल और प्रदूषण में कमी आने का ही नतीज़ा है कि शहरों में भी आसपास के पेड़ों पर व घर में रखे पक्षी परिंडो पर पक्षियों की स्वछंद आवक-जावक है और चहचाहट सुनने को मिल रही है।

मानव -निर्मित शोरगुल का पक्षियों पर असर ये देखा कि जनता कर्फ्यू के दिन 22 मार्च को शाम 5 बजे जब चारों ओर लोग थाली, घन्टा बजाकर और गलियों में पटाखे फोड़कर राष्ट्रभक्ति का पाखण्ड कर आत्ममुग्ध होने लगे तो घर व आसपास के दरख़्तों पर बैठे और उन्मुक्त गगन में उड़ते परिंदे भयभीत होकर पास की झाड़ियों में छुप गए और किसी आसन्न ख़तरे को भांपकर एक साथ करुण कराहट करने लगे।

आज 22 अप्रैल को 'विश्व पृथ्वी दिवस' है। आज से पर्यावरण के कुछ जाने-पहचाने पहलुओं पर लेखन की एक श्रृंखला शुरू कर रहा हूँ। सुसंगत प्रामाणिक साहित्य के अध्ययन के उपरांत लोक संस्कृति में पर्यावरण की समझ और संरक्षण पर कुछ जानकारी साझा करने का मन है। 'बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।'

चित्र गैलरी


✍️✍️ प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 22 अप्रैल 2020

संदर्भ