Rani Rajindar
Rani Rajindar of Patiala was wife of ---. Raja Sahib Singh was her brother's son.
Rani Rajindar returns to Pattiala
Lepel H. Griffin writes:[1] In the meantime, Rani Rajindar had paid her visit to Sindhia at Mathra and had been well received, arranging for the payment of the nuzrana, and leaving Devi Ditta Mal as a guarantee for the fulfillment of the stipulated conditions. On returning to Pattiala, she found the arts which had been so effectual against the Minister had been employed with equal success against herself, and that the foolish Raja had been persuaded to fear her power as too great for his safety and dignity and to believe her in alliance with Nanun Mal to restore the old order of things and reduce the Chief to the mere cypher for which his intellect and vices so eminently fitted him.
Her death, A. D. 1791
She made several attempts to see Raja Sahib Singh, but he persistently avoided her, and, at last, wearied out and mortified at the ingratitude which repaid the most devoted service with suspicion and insult, she took to her bed and died at Pattiala after a short illness.
Her Character
Rani Rajindar was one of the most remarkable women of her age. She possessed all the virtues which men pretend are their own, courage, perseverance and sagacity, without any mixture of the weaknesses which men attribute to women ; and, remembering her history and that of Rani Sahib Kour and Rani Aus Kour, who, some years later, conducted, with so much ability, the affairs of the Pattiala State, it would almost appear that the Phulkian Chiefs excluded, by direct enactment, all women from any share of power from the suspicion that they were able to use it far more wisely than themselves.
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज
महाराज अमरसिंह के बाद आपके बालक पुत्र साहबसिंह पटियाला राज्य के उत्तराधिकारी हुए। उनकी उम्र उस समय केवल सात बरस की थी। राज्यारोहण के समय अनेक राजा, जिलेदार और सरदारों ने नजरें भेंट कीं और देहली के बादशाह शाह आलम की ओर से सरोपाव एवं महेन्द्र की उपाधि प्राप्त हुई। दीवान नन्नूमल की देख-रेख में राज्य-कार्य चलने लगा। महाराज की नाबालिगी से लाभ उठाने के लिए सरदार महासिंह ने विद्रोह खड़ा कर दिया और मौजा ढूढ़ान पर अपना कब्जा कर लिया। सरदार तारासिंह रईस राहूं भी तारासिंह का छिपे तौर से साथी हो गया। दीवान नन्नूमल ने अपनी बुद्धिमानी से 3 महीने के युद्ध के बाद महासिंह को दबाने में सफलता प्राप्त की। यह विद्रोह दबा ही था कि भटिंडा के पुराने वारिसों में से बक्सूसिंह की रानी राजू ने विद्रोह करके कोट समेर पर अपना अधिकार कर लिया। दो महीने तक दीवान नन्नूमल उनसे लड़ते रहे और आखिर उस पर दृष्टि रखने के लिए कोट समेर के पास एक कच्ची गढ़ी बना कर अपनी फौज रख दी। दीवान नानूमल को खास महाराज के पारिवारिक लोगों के साथ भी सख्त होना पड़ा। क्योंकि रानी खेमकुंवरि साहिबा के भाइयों ने भी विद्रोह खड़ा कर दिया था और इस विद्रोह में स्वयं रानी खेमकुंवरि का हाथ था। उन्होंने अपने पास का रुपया-जेवर जो लगभग दस लाख के करीब था, अपनी निजी जागीर मूलेपुर के कार्यकर्त्ता शार्दूलसिंह के पास गुप्त रूप से इसलिए भेज दिया था, क्योंकि वह चाहती थी कि उनका निज का रुपया दीवान नानूमल सरकार में व्यय न करे। इस रुपये को पाकर शार्दूलसिंह की नियत बिगड़ गई और वह बेईमानी कर बैठा। दीवान नानूमल ने बेईमानी का मजा चखाने के लिए शार्दूलसिंह पर चढ़ाई कर दी। लेकिन शार्दूलसिंह की चालाकी और षड्यन्त्र से दीवान नानूमल को जख्मी होना पड़ा और वह उसी दशा में पटियाला लाए गए तो रानी खेमकुंवरि साहिबा ने उनका इलाज कराने के बजाए उसे कैदखाने में पटक दिया और लाला कूमा को उनके स्थान पर दीवान बनाया, किन्तु राज्य में बढ़ती हुई बगावत को दबाने में दीवान कूमा असफल रहा। राजेन्द्र साहिबा ने
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-411
फगवाड़ा से आकर राज्य की बागडोर फिर से नानूमल के हथ में दे दी। दीवान नानूमल ने विद्रोहियों को दबा कर राज्य में शान्ति स्थापित करने की भरपूर चेष्टा की और इसमें वह बहुत कुछ सफल भी हुआ। 1787 ई० में अमृतसर के सरदार गुलाबसिंह की लड़की के साथ महाराज साहबसिंह का विवाह बड़ी धूम-धाम के साथ हुआ।
नानूमल दीवान बुद्धिमान, वीर और परिश्रमी व्यक्ति था। पटियाला की हालत को उसने उन दिनों में संभाले रक्खा था जब कि “घर को घर के चिराग से आग लगने वाली थी।” युद्धों में उसके बेटे और अन्य रिश्तेदारों से भी उसे बड़ी मदद मिलती थी। वह दरबार में भी हुक्का पीता रहता था और सिख सरदारों के प्रणामों का उत्तर हुक्के की नय से देता था। इस कारण से अथवा उसके बढ़े हुए प्रताप से दरबार के सिख सरदार उससे द्वेष रखते थे। द्वेष की मात्रा शनैः-शनैः यहां तक बढ़ गई कि उन लोगों ने महाराज से उसकी झूठी शिकायतें करना आरम्भ किया। महाराज को अभी अल्प वय के कारण संसार का अनुभव ही कितना था। वह सरदार लोगों की बातों में आ गए। एक दो घटना भी नानूमल के पुत्रों की ओर से ऐसी हो गई जो महाराज को भड़काने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुई। नानूमल के लड़के ने कोई घोड़ा खरीदा था। महाराज को भी वह घोड़ा पसन्द आ गया। महाराज उसे अपने लिए चाहते थे, लेकिन उस लड़के ने घोड़ा देने से साफ इन्कार कर दिया। घटना बिल्कुल मामूली थी, किन्तु यह भी महाराज के क्रोध का कारण हो गई। कुछ ही दिन के बाद मरहठे सरदारों का एक दल रानी रवां की मातहती में पंजाब में आ गया। नानूमल ने बीबी साहब राजेन्द्र से जो कि उन दिनों पटियाला में ही ठहरी हुई थीं, कहा कि आप भटिंडा चली जायें, वरना मरहठों को नजराना देने की फिकर करनी पड़ेगी। राजेन्द्र बीबी इस बात से नानूमल से नाराज हो गई। मरहठों के पटियाला की सीमा में आने पर जब नानूमल उनके पास गया, तो इधर राजेन्द्र बीबी ने उनके बेटे दत्तामल को इसलिए गिरफ्तार कर लिया कि कहीं नन्नूमल मरहठों के साथ मिल कर कोई दगा न कर बैठे। इससे तनातनी और भी बढ़ गई। नानूमल मरहठों को पटियाला ले ही आया और निकट के गांव में डेरे डाल दिए। मरहठों के कहने से राजेन्द्र बीबी ने दत्तामल को तो छोड़ दिया, किन्तु नजराना देने पर काफी चखचख होती रही। कई महीने बीत गए आखिर में यह लक्षण दिखाई दिए कि युद्ध की नौबत आयेगी। किन्तु किसी कारणवश मरहठा-दल मथुरा की ओर चल दिया। नानूमल को भी जमानत के तौर पर अपने बेटे दत्तामल को मरहठों के साथ भेजना पड़ा। राजेन्द्र बीबी भी कुछ आदमियों के साथ मरहठों के साथ मथुरा को गई।
मरहठों के देश से वापस जाते ही महाराज ने दीवान नानूमल का कुल माल-असबाब,
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ऊंट, घोड़े जब्त कर लिए और उसके बड़े लड़के नन्दराय को जो जिला बरनाला का तहसीलदार था, कैद कर लिया और उसकी लाखों की सम्पत्ति जब्त कर ली। इसके बाद महाराज ने नानूमल के रिश्तेदारों और मिलने वालों सभी के साथ यही सलूक किया। जब मरहठों के पास से नानूमल पटियाला को लौट रहा था तो उसे ये कुसमाचार प्राप्त हुए। आखिर वह विवश होकर महाराज के विरुद्ध अन्य जागीरदारों और सिख सरदारों के पास घूम-घूम कर तैयारी करने लगा। कुछ ही दिनों के बाद बीबी राजेन्द्र भी मथुरा से लौट आई। रास्ते में ही नानूमल ने उनसे मिलकर पटियाला की स्थिति और सरदारों की चुगलखोरी का हाल सुनाया। साथ ही उसने बीबी साहिबा की इतनी खुशामद की कि वह उसके पक्ष में हो गई। इधर महाराज के भी चापलूस सरदारों ने कान भर दिए। उन्होंने महाराज को बतलाया कि बीबी राजेन्द्र भी अपना दखल बनाए रखना चाहती हैं। इसलिए वह फिर से नानूमल को दीवान बनाने पर राजी हो गई हैं। महाराज चुगलों की बातों में ऐसे आए कि वह बीबी राजेन्द्र से उनके हजार कोशिश और इच्छा करने पर भी न मिले। बीबी राजेन्द्र अपने भतीजे की इस कठोरता पर इतनी रंजीदा हुई कि कुछ ही दिनों में इस संसार से चल बसीं। वास्तव में राजेन्द्र बीबी बहादुर, बुद्धिमान और एक आदर्श महिला थीं। उस समय में पंजाब की राजकुमारियों में उनका पहला स्थान था।
References
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