Sakrai

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(Redirected from Shankaranaka)
Location of Sakrai in Sikar district

Sakrai (सकराय) or Sakray (सकराय) or Sakambari (साकम्बरी) is an ancient religious place in tahsil Neem Ka Thana of district Sikar in Rajasthan. Its ancient name was Shankaranaka (शंकराणक).

Location

Nearby village in north is Saidala Bhagwanpura. Sakambri is 16 km. from Udaipurwati & 56 km. from Sikar.

Population

As per Census-2011 statistics, Sakray village has the total population of 1970 (of which 1002 are males while 968 are females).[1]

Sakrai Mata temple

Shakambarimata at Sakrai

The place is famous for its sacred temple of Sakrai Mata built by Chauhan Raja Durlabhraja in 692 AD (?)[2]. It is located on mount malay at a place surrounded with the hills in three sides, the location is an ideal tourist spot.[3] Its population is 888. A statue of Mahishasura Mardini is installed in the temple.

The Sakrai inscription opens with three successive verses invoking the blessings of Ganapati, Chandika and Dhanada.

सकरायमाता मंदिर के शिलालेख

नोट - यह विवरण मुख्यत: रतन लाल मिश्र की पुस्तक शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.३११ से ३१९ से अध्ययन हेतु लिया गया है.

अरावली की एक उपत्यका के रम्य प्राकृतिक परिवेश में स्थित शाकम्भरी (सकरायमाता) के मंदिर में तीन प्राचीन शिलालेख उपलब्ध हैं.

प्रथम शिलालेख मंदिर के एक द्वार पर लगा है जो सबसे प्राचीन है. यह एपिग्राफिया इंडिका (Epigraphia Indica) के वोल्यूम सताईस पृष्ठ २७-३३ पर प्रकाशित हुआ है. इसका समय विक्रम संवत ६९९ माना गया है. इस पर ऐसियाटिक सोसाइटी वेस्टर्न सर्किल की १९३४ की रिपोर्ट में भी विचार हो चुका है. डॉ. भंडारकर इसकी तिथि ८७९ वि. तथा श्री ओझा ७४९ वि. मानते हैं. रतन लाल मिश्र लिखते हैं कि खंडेला में जो शाकम्भरी से पास ही है वोद्द के पुत्र आदित्य नाग ने अर्द्धनारीश्वर का मंदिर बनाया था. इसकी तिथि डॉ. डी.सी. सरकार ने ८६४ वि. मानी थी. आदित्य नाग ने खंडेला में अपना मंदिर बनाया था और सकराय में शाकम्भरी मंदिर के मंडप निर्माण के लिए अन्य दस गोष्ठियों के साथ सम्मिलित हुआ. यह मान्यता साधार लगती है. इस आधार पर डॉ. डी.सी. सरकार द्वारा सुझाई गयी तिथि वि. ८७९ स्वीकार करने योग्य है. [4] शाकम्भरी देवी के स्थान पर लगे संवत ८७९ के शिलालेख से ज्ञात होता है की ११ वणिकों ने एक संघ बनाकर एक अतीव सुन्दर मंडप शंकरादेवी के मंदिर के आगे बनाया. इन लोगों के नाम मदन (धूसर वंश) गर्ग, गनादित्य (धर्कट वंश) देवल, शंकर, आदित्यनाग आदि. [5]

सकराय प्रथम शिलालेख का

Sakrai Inscription-1a
Sakrai Inscription-1b

मूल पाठ

१. ॐ रनदरदनदारनद्रुतसुमेरुरेनुद्भुतम सुगन्धि

मदिरामद-प्रभुदतालिझंकारितम (तम्) अनेक रनदुंदुभिध्वनि विभिन्न गंडस्थलं
महागनपतेर्मुखम् दिशतु भूरि भद्रानि व: (१) नृत्यनत्यास सांगहारम चरनभार परिखोभिता
क्षमातलाया: प्रभष्टेन्दु प्रभायाम निशि विसृत नखोद्योत भिन्नान्धकारा ये लीलोद्वोलिताग्रां
विदधति वितताम्भोज पूजाइव शासते हस्ताम् संपदा वो ददातु विदलित द्वेषिनश्चंडिकाया:
(२) मधुमद्जनु दृष्टि, स्पष्टनीलोत्पलाभों मुकुटमणि मयूखै: रंजति: पीतवास: जलधर:
इव विद्युच्छक्र चापानुविद्धो भवतु धनदनामों बुद्धिदां व: सुयक्ष:। (३) आसीद धर्म
परायनेति महती प्रोद्दाम कीत्युज्जवले । वंशे धूसर संज्ञके गुनवतो ख्यातो यशोवर्द्धन:
यस्या स्ताखिल दोष्ण उन्नत भुज: पुत्रो:भवत संत्यवाग्। राम: श्रेष्टिवरो वभूव च यतो
श्रेष्टि सुतो मंडन: । (४)
आसीच्च मालिनी प्रकाश यशसि श्री मत्युदारे धरक्कट नाम्नी प्रतिदिनं शक्रर्धि
विस्पर्धिनी। उच्चै मोदित मादरन् निजकुलं येनोदयं गच्छता। श्रेष्ठि: मंडन नामक:
संभवच्छ्रेष्ठि यतो मद्वन: ।। (५) तस्यापि अभूत सुत: श्रेष्ठि गर्गो धर्म परयण:. कुलीन:
शील संपन्न: सततं प्रियदर्शन: ., (६) श्रेष्ठिमंड
नाख्य: प्रभूतम प्राप्नोत्यर्थम् गर्गा नामा च लक्षमीम् । यो श्रेष्ठित्वं सर्वसत्वानुकंपा
सम्यक् कुर्वाणों नितवन्तौ समाप्तिम् ।। (७) तथा भट्टीयक श्चासीद् वनिग् धर्कट
वंशज:। सुनुस्तस्यापि अभूत धीमान् वर्द्धन: ख्यात सद्गुण:। (८) तस्य पुत्रौ महात्मानौ
सत्य शौचार्जवान्वितौ वभुवतु गर्गना
दित्य देवलाख्यावनन्दितौ।। (९) तथा वनिकच्छिवश्चासीत तत् पुत्रों जितेन्द्रिय:।
शंकरों विष्णु वाकस्य तथासीत् तनय: शुचि:।। (१०) आदित्यवर्द्धन सुतो मंडुवाको:
भवत सुधि:। वोद्दस्य आदित्य नामाख्य: पुत्रासीद् महदुयुति: (११) भद्राख्यो नद्धकस्या:भूत्
पुत्रों मतिमताम्बर: । तथा द्दो

७. (तन) संज्ञश्च ज्यूलस्या: भावत सूत: .. (१२) शंकर: सौन्धराख्यस्य

सुनुरासीदकल्मष: । शुश्रुषानन्य मनसा पित्रो येनासकृत कृत: ।। (१३) तैर्यम् गोष्टिकै:
भूत्वा सुरानामंडपोत्तम: कारित: शंकरादेव्या: पुरत: पुण्यवृद्धये. (१४) संवत ६९९
द्विराषाढ सुदि

सकराय दूसरा शिलालेख का

Sakrai Inscription2

दूसरा शिलालेख मंदिर के पार्श्व भाग पर लगा है. श्री ओझा इसे १०५६ वि.स. का मानते हैं.

मूल पाठ

१. (१०५) ६ श्रावण वदि। श्री शंकरादेव्याया मह (:)
२. राज श्री दुल्लह राजन्य राज्ये दुसाध्य
३. (शिव) हरिसुत तस्यैव भातृव्यज श्री
४. (सिद्धरा)ज ताभ्यां मंडपं कारापितं। कर्म्मका
५. (र आ) हिल सिंहटसुत: देव्यापादंक् नित्य प्र
६. (णमति) (बहु) रूपसुत: देवरूपेन

भावार्थ संवत १०५६ श्रावण बदी १ को शंकरादेवी का मंडप महाराज श्री दुल्लहराज के राज्य में दुसाध्य शिवहारी के पुत्र एवं उसके भतीजे सिद्धराज ने बनाया. कर्मकार का नाम आहिल था. जो सिंहट का पुत्र था. जो देवी के चरणों में नित्य प्रणाम करता है. प्रशस्ति खोदी बहुरूप के पुत्र देवरूप ने.

सकराय तीसरा शिलालेख का वि.स.१०५५

Sakrai Inscription-3a
Sakrai Inscription-3b

तीसरा शिलालेख वि.स.१०५५ का है. इसका उल्लेख रायल ऐसियाटिक सोसाइटी की रिपोर्ट के साथ ही एपिग्राफिया इंडिका (Epigraphia Indica) वो. ३८, भाग ७, पृ. ३२३,२४२ में भी इसका संपादन हुआ है. इस शिलालेख में प्राचीन प्रथा के अनुसार प्रथम दो अंक छोड़ दिए हैं और केवल ५५ का अंकन है. संपादक ने प्रथम दो अंकों को १० मानकर शिलालेख की तिथि १०५५ बताई है. इस सम्बन्ध में डॉ. दशरथ शर्मा मानते हैं कि विग्रहराज का उत्तराधिकारी दुर्लाभराज द्वितीय सं. १०५३ में राज्य कर रहा था इसलिए सकराय शिलालेख में उल्लिखित विग्रहराज की पहचान विग्रहराज तृतीय से करनी चाहिए ओर विलुप्त अंकों को १० की अपेक्षा ११ माना जाना चाहिए. इस के अतिरिक्त एक और तथ्य भी प्रासांगिक प्रतीत होता है जो शिलालेख के काल निर्धारण में सहायक होगा. विग्रहराज की मृत्यु का ठीक समय हमें ज्ञात नहीं है. विग्रहराज द्वितीय के समय का हर्ष-शिलालेख १०३० वि. का ज्ञात है. दुर्लाभराज १०५५ में गद्दी पर बैठ गया था. उस समय तक विग्रहराज की मृत्यु हो चुकी थी. नर्मदा विग्रहराज की पुत्री थी जिसका विवाह वत्सराज के साथ हुआ था. उसके गोविन्दराज नामक पुत्र हुआ था. उसकी पत्नी देयिका थी. गोविन्दराज-देयिका की पुत्री देयिनी थी जिसने शाकम्भरी के मंदिर का जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण करवाया था. इस प्रकार विग्रहराज, गोविन्दराज और देयिनी ये तीन पीढियां व्यतीत हो चुकी थीं. देयिनी ने संभवत: अपनी वृद्धावस्था में माता-पिता तथा स्वयं की पुन्यवृद्धि के लिए पितृग्रह में रहते हुए यह मंदिर बनवाया था (पितृमातृभ्याम आत्मन: पुण्य वृद्धये). इस प्रकार विग्रहराज से लेकर देयिनी द्वारा मंदिर निर्माण के काल तक प्राय: १०० वर्ष का समय व्यतीत हो चुका होगा. इस आधार पर शिलालेख की तिथि वि . १०५५ नहीं होकर वि. ११५५ मानना संगत प्रतीत होती है. [6] शाकंभरी देवी के १०५५ वि. (११५५ वि.) के शिला लेख से ज्ञात होता है कि देवी का मंदिर जो ईंटों का बना था कालांतर में टूट फूट गया था. देयिनी ने इसका जीर्णोद्धार करवाया और द्रोणक नामक गाँव अर्पित किया. (शाकंभरी शिलालेख श्लोक-१६)

मूल पाठ

जयतिमुनि मनुजगीत: स(रभस) म् निरद्दारितारि राया (यौ) या: (य:) (१)
कृन् (न) द्... रु...नूपुर-मुखर: स (लसतम्म) लम् छन्न: प...
२. ...क्षमैरिव स्फ़ुरद विकटपन्नगा मलयपाद्श्रीरिव। सुरत्नकटको ज्व(ज्ज्व)
लो सुरगिरेश तति सन्निभा प्र...मृदाश्र (य) (२)
३. ...हितानीक: शक्तिर्मान विवुधारित हृत श्रीमद् विग्रहराजो भूच्चाहमानो गुहोपम:(३)
४. ....सद्धतवन्शे प्रभव: सद्वागुरा तस्यु नर्म्मदा (४) श्री बच्छराज
नृपते: प्रहतारितस्य सामन्त चक्राकरराजहंसी. साजीजनद् विजित शत्रु जनोर्जितम् श्री गोविन्दराज (राज)...
५.राजालोकम (कम्)। (५) हेलादलद विकट कुंभ कवाट मुक्त:
मुक्ताफलोच्चालितविस्फ़ुरितअंतरिक्षम्। येन क्वनन् मुदुजाल प्रचलालि मालामालोडितम् श (स)
६. लीलान (लान्)।। (६) देवं कर्मरतानित्यम् विनतानाम वरप्रदा: राजनीश्रीदेयिका,
कान्ता तस्याभूद् देवतोपमा।। (७) को दानेनपूरित: प्रतिदिशम् कस्याश्रयोनोवत: को ।
७. निवृतिम कस्याच्छ्रय नोद्धता। इत्येवं त्रिदेशेश्वरस्य भवने जेगीयते यश्शिचरम्
चित्रम् चा(रण) चक्रकै: विरचितम् चन्द्रावदातंयश: ।। (८) अस्ति उन्नते: सुरगृहै:(ना)
८. ना विधैद्विज वनिगवर वेश्मजालै:। सत श्रेष्ठि संसत महाजन सन्निवेशम श्री
पूर्णतल्लकपुरम् प्रथितम पृथ्वीव्याम (व्याम्)। (९) श्रेष्ठि जाज्जक जयमात्रयो: (र) र्पितम्
९. इदम् देवद्रोन्या-रम्य प्रदीप पंर्यतं लता व्यालोल पल्लवम्। कोकिला कुल
संघुष्ठं, मल्ली माला निषेविताम्।। (१०) पवनापात संभ्रान्त किन्नरा:
१०. तम् (तम) शिखालि (न्दी) केका कुलितम् हरि हारीत नादितम (तम्)। (११)
वृहदाद्रोण्याश्रितम् श्रीमत् सिद्धगधर्व संस्तुतम्। शोधम् श्री शंकरादेव्या: पुरा केनापि
कारितम (तम्)। (१२) विदीर्ण कूटशिखर (रम्)
११. तितेष्ठकम् . देव्यास्तद् मन्दिरं जातं कालयोगाच्चला चलम् (लम्) तयोंन्नियोगे
देयिन्या: स्थाने (घोसायी) तदायतनम् भूय: कारितम् रुचिमत्तरम (रम्) ।। (१४) जीवितम का...
१२. संपदातितरलास्तरंगवत् यौवनानिसुचिरंनदेहिनाम् । इति एत्य जागतोहि अनित्याम् ।। (१५)
१३. यस्याश्च पितृ मातृभ्याम् आत्मन: पुण्यवृद्धये....
ग्रामो द्रोनक संज्ञकश्च न्ययात्रेदापित:।। (१६) यावत् क्षितीह क्षितिधर: क्षणदाकरश्च
यावत् क्षिनोति तिमिरम् रवि अंशुजालै:-वृंदेनृतमतामगनमुखर नृपुर राव रम्यम्।। (१७)
१४. ....द् मकरन्दविसर्पि विन्दुमत् भ्रमद्भ्रमर संज्ञ विवृद्धराव काले
विलोलपा... रूम.... देवालयम्.... हितरुचिमद् विचित्रम्।। (१८)
१५. शकरसुनुना पूर्वा विरचिता हीऐषा। वराहेनाल्प मेधसा उत्कीर्णा सूत्रधार
सिलागनेन वोद्दक पुत्रेन संसंवत्सर ५५ माघ सुदि.

English translation of Sakrai Mata temple Inscription

Not available.

See also

External Links

References

  1. http://www.census2011.co.in/data/village/82283-sakray-rajasthan.html
  2. Encyclopaedia of tourism resources in India, Volume 1 By Manohar Sajnani, p.299
  3. http://sikar.nic.in/other_tourist.htm
  4. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.३११-३१२
  5. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.२६५
  6. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.३१३-३१४

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