Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Bhu Rajasv Lagbag Aur Begar

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

तृतीय खण्ड-लेखमाला

7. भू-राजस्व लागबाग और बेगार

जयपुर राज्य में भू-राजस्व को उगाहने की पद्धति अन्य देशी रियासतों से कुछ विशेष भिन्न नहीं थी। सारा राज्य दो भागों में विभक्त था। जो भूमि सीधे राज्य के नियंत्रण में रहती, उसे खालसा की भूमि कहते थे और जो भूमि जागीरदारों के नीचे थी, वह जागीरी भूमि कहलाती थी। जागीरदार राज्य की भूमि के उपभोग के बदले में अपने खर्चे से सेना रखते थे, जो आड़े वक्त राज्य के काम आती थी।

भू-राजस्व उगाहने के कई तरीके थे, जिनमें बंटाई, लटाई जब्ती और नकद लगान मुख्य थे। उस समय बांटे की पद्धति जारी थी। यह बांटा कूंत के आधार पर लिया जाता था। राज्य का कामदार पटवारी, चौधरी जाकर कूंत कर देते और उस कूंत हुए अनाज का प्रायः आधा किसान को राज्य के जागीरदार को देना पड़ता था। अनाज के अलावा जागीरदार किसान को वृक्षों की लकड़ी नहीं काटने देते और लूंग, फूस, पानी, चारे आदि में भी आधा बांटा लेते थे। इसके साथ-साथ कई तरह की लागबाग लगा रखी थी।

खालसा भूमि का लगान या भू-राजस्व राज्य के कर्मचारी उगाहते थे। कुछ भाग इजारे पर भी उठा दिया जाता था। एक बन्धी हुई रकम इजारेदार से ले लेते और इजारेदार को बड़े-बड़े अधिकार मिल जाते थे और वही सही अर्थों में उस भू-भाग का स्वयं मालिक बन जाता था। मामला उगाहने के साथ-साथ वह कानून शांति व्यवस्था आदि को देखता था।

मामले के अलावा किसान से कुछ अनाज लागबागों के रूप में लिया जाता


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-III, पृष्ठांत-34

था। ये लागबाग पूर्व से चली आती थी तथा इन्हें "कस्टमरी ड्यूज" कहा जाता था। इस लागबागों के कारण का प्रायः सारा अनाज जागीरदार और उसके आदमी ले जाते थे और किसान इतना पचकर भी भूखा का भूखा रह जाता था।

इन लागबागों का कोई तर्क संगत आधार नहीं था। कहते हैं कि एक बार सर्दी के दिनों में एक गांव में एक हाथी आ गया। इस पर जागीरदार की तरफ से गांव वालों को आज्ञा दी गई कि हाथी को कम्बल लाकर उढ़ा दे। लोग अपने अपने घरों से कंबल लाये। अगली साल हाथी नहीं आया पर फिर भी कंबलों की लाग ली गई। इसी प्रकार अन्य लाग बागें थी।

जहाँ चाही जमीन थी, वहाँ बारानी भूमि से अधिक लाग बागॆं थी। इन लागबागों में अनेकों हास्यास्पद लागबागें थी। छाली और भेड़ों की गिनती के पीछे पैसे लिये जाते थे। मक्का की झरडी प्रति लाव जागीरदार लेता था। इसके अतिरिक्त बख, सीमा, तपदारी आदि की लागे थी। बीड़ में बाजरा, मोठ बोने के लिए किसान से घर पीछे हल लिया जाता था। गुवार की फली एक टोकरा फी लाग जागीरदार लेता था। इसके अलावा मलवा, झोपड़ी, मोर की राड, इक्तला, मापा, भखेरा, घूघरी, पटवारी का सेरूणा, बलाई की लाग, मन्दिरों की लाग, माता जी की लाग, बालाजी की लाग आदि ली जाती थी। उन्हालू में सीगा, कोटड़ी खर्च, नाई की लाग, बलाई की लाग, मनिहार, धानका, धोबी कोली की लाग, पटवारी की लाग, खुद की लाग ली जाती थी।

भेंट बैगार होली तथा दशहरे जैसे त्योहारों के अवसर पर किसान को देनी होती थी। बीहड़ में से घास खोदने के लिए किसान को प्रति घर पीछे आदमी देना होता था। ढोल-डंका, पूला-पानी, बोल सूल, बागदम अढ़ाई रूपये से साढ़े तीन रूपये तक लगता था। चमारों को बैगार करनी पड़ती थी। बारह कोस तक उसे ठिकाने का कागज पहुंचाने जाना पड़ता था।

किसानों के पशुओं की खाल चमार को मिलती थी। वह किसानों को जूता पहिनाता और चड़स वगैरह सीता था। कृषक के अन्न में इस प्रकार बलाई की भी लाग थी। ठिकानेदार जब जोतने के लिए जमीन देते तो नजराना लेते थे। किसान


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-III, पृष्ठांत-35

का भूमि पर कोई अधिकार नहीं था। बराबर बेदखलियां होती थी और किसी को अधिक समय तक एक खेत पर काबिज नहीं रहने दिया जाता था।

सहणे की घूंघरी का अनाज लगता था। किसान को लकड़ी काटने का हक़ नहीं था। वह अपने खेत से या रामा की जमीन से घर के लिए भी लकड़ी नहीं काट सकता था। लकड़ी उसे दाम देकर लेनी पड़ती थी, किसान की सिरोपाव की लाग चुकानी पड़ती थी। मलवे की लाग के एक बीघा पीछे चार आने और बागदाम का सवा रुपया लगता था। नाता खर्च का भी सवा रुपया लिया जाता था। शादी गर्मी पर कासा की लाग किसान पर थी। इसके अलावा लोटा डोरी की नजर भी जागीरदार की ली जाती थी।

जागीरदार किसानों से घोड़े-हाथी के लिये घास लेता था। श्राद्ध आदि पर प्रति घर से एक घड़ा दूध का जागीरदार को देना पड़ता था। बाईजी का कलेवा, कुंवरजी का कलेवा आदि की अलग लागें थी। जो गेंहू पर 4 रूपये से 10 रूपये तक मक्का पर सवा दो रूपये तथा बाजरे पर सवा रुपया दस आना, बारह आने का एक रूपये तक की लाग थी। लागबागों के कारणों किसान बुरी तरह परेशान था। उसकी परिश्रम की कमाई इन लागबागों में चली जाती थी। राजस्थान में सबसे ज्यादा मेहनती व काश्तकारी पेशे को समझने वाली जातियां जाट, विश्नोई आदि थी। इन जातियों से बंटाई के बहाने उनकी कुल पैदावार अनाज व चारे का आधा हिस्सा एक बंटाई में ले लिया जाता था। इसके अलावा पचासों लागबागें थी। दूसरी जातियां मसलन, माली, अहीर वगैरह से तीसरा हिस्सा, राजपूत वगैर से चौथा हिस्सा, कुम्हार, दरोगा वगैरह पांचवा हिस्सा, बलाई, ब्राह्मण, चमार वगैर से छठा हिस्सा बंटाई का लिया जाता था। इस तरह इन रियासतों में उल्टे तरीके मालगुजारी वसूल होती थी।

अच्छे काश्तकारों में आबादी के हिसाब से जाटों की आबादी सबसे ज्यादा थी इसलिये इन पर लागबागों को बोझ सबसे ज्यादा पड़ता था। मालगुजारी वसूली का यह तरीका खालसे के साथ जागीरी इलाकों में भी वहीं था। जब वह ज्यादती ज्यादा बढ़ जाती तो काश्तकार लोग नाराज होकर जमींदार का गांव खाली कर के खालसा इलाके में चले जाते। वे दूसरे जागीरदारों के यहां चले जाते। उन्हें कुछ रियायतें अधिक मिलती।

जमींदारों में आपस में प्रतिस्पर्धा चलती थी और किसी-किसी के पास अच्छे काश्तकारों की कमी होती तो वे दूसरे जागीरदारों के पीड़ित काश्तकारों को रियायतें देकर अपने यहां बुला लेते। कई जगह जागीरदारों के यहां या खालसे में ज्यादतियां बढ़ जाती तो लोग गदहे को गाढ़कर "गदितक़" रोपकर अर्थात कसम लेकर गांव छोड़ देते और चले जाते। वहीं उनकी संतान भी कभी वापिस आकर आबाद नहीं होती।

जाटों के लिए कहावत मशहूर है 'वेलडियां बन छाया, जाट बरवां में आया" यदि जाट के खेत में फसल खड़ी हुई हो उस वक्त उससे आप चाहे जो वसूल कर सकते हैं और एक दफा वसूल हो जाने पर यह रिवाज बन जाता था। इस प्रकार चाहे माल उगाही का प्रश्न चाहे लागबाग का प्रश्न हो जाट ही सबसे अधिक पीड़ित व सब से ज्यादा करों से दबी हुई कौम थी।

जयपुर राज्य खालसे के गांवों में बेगार बन्द कर दी गई थी, पर जागीरदार इस आदेश का अनुसरण नहीं कर बराबर लागबाग ले रहे थे। अनेकों सुधारवादी संस्थाए समय-समय पर इन लागबाग और बेगार का विरोध करती थी। इन प्रयत्नों का सुपरिणाम निकला और सन 1942 में एक आदेश फिर प्रसारित किया गया जो निम्न प्रकार से था :--

चूँकि समस्त जयपुर राज्य में जिसमे इलाका जागीर का अख्तियारी ठिकाने जात व दीगर ठिकाने जात शामिल हैं, हर किस्म की बेगार की मनादी के बारे में कौंसिल ऑफ़ स्टेट के अहकाम मवरीखा 3 व 10 मार्च 1926 को हो चुका है उनकी अधिक से अधिक जानकारी मालूम करना जरूरी होता है। इसलिये सर्व साधरण को सूचनार्थ प्रकाशित किया जाता है कि कुल जयपुर रियासत में जिसमे इलाका जागीरी व अख्तियारी ठिकाने जात शामिल है। किसी रूप से बैगार लिए जाने की मनादी है। जब कभी राज्य के काम के लिये मजदूरों की दरकार होगी तो बाजार के चालू दर के हिसाब से उजरती दी जावेगी।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-III, पृष्ठांत-37

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