Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Deshi Riyasaten Ek Sarvekshan
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984देसी रियासतें भारतीय शासन पद्धति का एक महत्वपूर्ण अंग रही है। भारतीय जनवर्ग एवं भूमि का एक बड़ा भाग देसी रियासतों के शासन के अंतर्गत रहा है। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व मुगलों के तथा मराठों के अधीन थे। बहुत समय पूर्व से ही वे अपनी स्वतंत्रता खोकर कई राज्य बन गए थे।
देशी राज्यों में ब्रिटिश भारत की अपेक्षा शासन तन्त्र अधिक कठोर और अनुदार था। प्रजातंत्र के नाम से देशी नरेशों का भय बढ़ जाता था तथा जनता के साथ सत्ता के बंटवारे को वे एक अनहोनी बात मानते थे। दैवी शासन का सिद्धान्त रियासतों में पूरी तरह लागू था। न्याय और प्रशासन सिर्फ राजा की इच्छा पर निर्भर थे। इस प्रकार की स्थिति में प्रजा की सुनने वाला कोई नहीं था। अंग्रेज भी प्रारम्भ में उनके अतिरिक्त मामलों में दखल नहीं देते थे।
भारत सरकार ने सन 1978 में मेमोरेण्डा ऑन दी इंडियन स्टैट्स नाम पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें देशी राज्यों संबन्धी संक्षिप्त जानकारी का समावेश किया गया था। इस पुस्तिका के अनुसार देश में 562 रियासतें थी। इनका कुल रकबा 7,12,508 वर्ग मील और जनसंख्या सन 1941 की जनगणना के अनुसार 9,31,89000 थी। क्षेत्रफल के हिसाब से देशी रियासतों के अंतर्गत समस्त क्षेत्र का चालीसा प्रतिशत भाग था और जनसंख्या 23 प्रतिशत थी।
रियासतों का विभाजन सलामी वाली तथा गैर सलामी वाली के भेद से किया जाता था। प्रथम श्रेणी की एक सौ बीस रियासतें थी और दूसरी श्रेणी की चार सौ तियालीस रियासतें थी। रियासतों का क्षेत्रफल भी विभिन्न प्रकार का था। 454
रियासतें इस प्रकार की थी, जिनकी जनसंख्या एक लाख से भी कम थी।
समस्त रियासतों में सिर्फ बारह रियासतें ऐसी थी, जिनका रकबा दस हजार वर्गमील से अधिक तथा आबादी दस लाख से ऊपर थी। इन रियासतों की आमदनी भी पचास लाख से ऊपर थी। इन रियासतों के रकबे एवं जनसंख्या की तुलना में ब्रिटिश भारत की जनसंख्या उन्तीस करोड़ थी एवं क्षेत्रफल 10,94,300 वर्गमील था। सारा क्षेत्र 575 जिलों में बंटा हुआ था हर जिले का औसत रकबा 4000 वर्गमील एवं आबादी प्रायः आठ लाख की थी।
रियासतों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं थी तथा न कोई निश्चित रकबा था पन्द्रह रियासतें इतनी छोटी थी कि उनका रकबा पूरा एक वर्गमील भी नहीं था। सताईस रियासतों का क्षेत्रफल सिर्फ एक वर्गमील था। चौनह रियासतों की सालाना आमदनी तीन हजार रुपयों से भी कम थी। तीन रियासतों की आबादी एक सौ से भी कम थी। पांच की आमदनी एक सौ रुपयों की आमदनी और बत्तीस की आबादी वाली भी एक रियासत इस देश मौजूद थी। उक्त आंकड़े बटलर कमेटी की रिपोर्ट व्हाट आर दी इन्डियन स्टेट्स के आधार पर दिये गए है।
प्रारम्भ में इन रियासतों का सम्ब्नध प्रान्तीय सरकारों से था पर आगे चल कर उनका सीधा संबन्ध गवर्नर जनरल से हो गया था। इनका नियंत्रण गवर्नर जनरल का एजेन्ट करता था। हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा और जम्मू कश्मीर तथा ग्वालियर का सम्बन्ध सीधा भारत सरकार से था। गवर्नर जनरलों की देश में अनेकों एजेंसियों स्थापित थी, जिनके द्वारा इन रियासतों पर नियंत्रण रखा गया। मध्यभारत एजेन्सी, डेक्क्न एजेन्सी, ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी, गुजरात स्टेट्स एजेन्सी राजपूताना स्टैट्स एजेन्सी इनके नाम थे। राजपूताना स्टेट्स एजेन्सी का मुख्य कार्यालय माऊंट आबू था। इनके अंतर्गत चौबीस रियासतें थी।
रियासतों का शासन अनुदार दकियानूसी एवं कठोर था। जब ब्रिटिश भारत में निरंतर शासन में सुधार हो रहे थे, तब भी रियासतों में प्रतिगामी शासन पद्धति
जारी रही। अंग्रेज कांग्रेस के आन्दोलन के कारण भयभीत थे। अतः वे उसके विरुद्ध राजाओं नरेशों की सत्ता और शक्ति का उपयोग करना चाहते थे। इन नरेशों की छवि निरंकुश शासकों की थी। अतः अंग्रेज उन्हें अपने अपने राज्य में शासन में सुधार करने का बराबर तकाजा कर रहे थे। इन्हीं दबावों तकाजों एवं बढ़ते हुए जन आन्दोलनों के कारण कुछ देशी राज्यों में सुधार हुए पर वे नाम मात्र के सुधार थे। सत्ता का केन्द्रीयकरण फिर भी नरेशों के हाथों में ही बना रहा।
कुछ राज्यों में धारा समायें बनी, पर उनमें सरकारी और नामजद सदस्यों की संख्या निर्वाचित प्रतिनिधियों से अधिक ही रहती थी। ऐसी सभाओं के निर्णय को राजा लोग मानने को बाध्य नहीं थे। सबसे अखरने वाली बात यह थी कि राजा सारी राज्य की आय को जेब खर्च मानता था। राज्य कोष का दुरूपयोग विदेशी यात्राओं, शान शौकत, मनोविनोद में होता था। जन कल्याण और विकास का पहलू पूरी तरह आँखों से ओझल था।
नरेंद्र मण्डल नामक संस्था नरेशों का संगठन था। इसमें 109 बड़े नरेशों का सीधा प्रतिनिधित्व था पर इनमे से केवल छप्पन ने अपना जेब खर्च नियत किया था, शेष बेहद खर्च कर रहे थे।
इनकी स्थिति भी बेहद ख़राब थी। राजा पर और उसके कर्मचारियों पर कानून का असर नहीं होता था। अधिकांश रियासतों में कोई निश्चित कानून नहीं होने से प्रायः मनमानी ही चलती थी। छोटे नरेश एक दम निरंकुश ही होते थे। प्रजा को मनमाना सताना, पैसा ऐंठना और उसे अपने ऐसो-आराम में लुटाना उनका धर्म हो गया था। नागरिक अधिकारों की कल्पना भी ऐसी शासन पद्धति में नहीं की जा सकती थी।
देशी नरेश आन्तरिक मामलों में स्वतंत्र होने के कारण उनके अन्याय की कहीं सुनवाई नहीं थी। पॉलिटिक्स दफ्तर को की गयी शिकायत उसी नरेश के पास लौट आती थी, जो बिना जाँच इसे झूंठा बता देता और शिकायत करने वाले पर और भी सख्ती होने लगती। भाषण, मुद्रण और प्रकाशन की कोई सुविधा मिलना तो कल्पना के बाहर की बात थी।
कई इस प्रकार के उदाहरण भी है जब निश्चित अन्याय को रोकने के बजाय
पॉलिटिक्स विभाग ने अन्यायी नरेशों की खुल कर मदद की है। सन 1939 में राजकोट में सत्याग्रहियों के दमन के लिए ब्रिटिश रेजिडेन्ट में पैदल और घुड़सवार पुलिस के दस्तों का उपयोग किया था।
देशी रियासतों की निरंकुशता और अन्याय से अंग्रेज लोग पूरी तरह परिचित थे, पर उनका अपना स्वार्थ नरेशों के नियंत्रण में बाधक हो रहा था। कांग्रेस के आन्दोलन के कारण उनके अपने पांव हिल रहे थे। अतः वे क्षीणकाय देशी नरेश रुपी बटवृक्ष से चिपक गए थे, और उन्होंने वस्तुस्थिति के प्रति अपनी आँखे मूंदली थी।
लन्दन टाइम्स ने सन 1943 में देशी नरेशों की स्थिति पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था पूरब के इन निस्तेज और निकम्मे राजा नामधारियों को जिन्दा रखकर हमने उनके स्वाभाविक अन्त से उनकी रक्षा कर ली है। बगावत के द्वारा प्रजाजन अपने लिये एक शक्तिशाली और योग्य नरेश ढूंढ लेने हैं। जहां अब भी देशी नरेश है,हमने वहां के प्रजाजनों के हाथों से पहले और अधिकार छीन लिया है। यह इल्जाम सही है कि हमने इन नरेशों को शता तो दे दी, पर उसकी जिम्मेदारी से उन्हें बरी कर दिया। अपनी नपुंसकता, दुर्गुण और गुनाहों के बावजूद हमारी तलवार के बल पर वे अपने सिंहासनों पर टिके हुए है। नतीजा यह है कि अधिकांश रियासतों में घोर अराजकता फैली हुई है। राज का कोष किराये के टट्टू जैसे सिपाही और नीच दरबारियों पर बर्बाद हो रहा है। गरीब रैयत से बेरहमी के साथ वसूल किये गए भारी करों के रुपयों से नीच मनुष्यों को पाला जाता है। असल में अब सिद्धान्त यह काम कर रहा है कि सरकार प्रजाजनों के लिए नहीं बल्कि जनता राजा और उसके सिंहसन की रक्षा करनी है, तब तक हमें भी भारत की सर्वपरिसत्ता के रूप में उन तमाम कर्तृव्यों का पालन करना होगा जो ऐसे राजा अपने प्रजाजनों के प्रति करते है।
देशी नरेशों से राजाओं के सम्पर्क दो बातों पर आधारित थे। प्रथम संधियों, इकरारनामे और सनदें तथा दूसरा रूढ़ियाँ, व्यवहार तथा अन्य कारणों से उत्तपन्न पारस्परिक अधिकार आदि। सन 1927 में भारत मंत्री लार्ड बेकनहेड थे। उन्होंने एक जाँच समिति नियुक्त की थी, जिसका नाम बटलर कमेटी था। इस कमेटी की रिपोर्ट में पारस्परिक संबंधों के आधारों की स्पष्ट किया गया था। रियासतों के
संबंध में ब्रिटिश नीति में निरन्तर परिवर्तन होते रहे। सन 1921 में असहयोग की शुरुआत सारे देश में बड़े जोर शोर से हुई। इसी समय शाही फरमान द्वारा नरेंद्र मण्डल की स्थापना हुई। ब्रिटिश सरकार अब नरेशों से पारस्परिक सहयोग के आधार की बात करने लगी थी।
बटलर कमेटी ने रियासतों की स्वतंत्र सत्ता के सिद्धांत का पर्दा पूरी तरह हटाकर रख दिया। कमेटी की रिपोर्ट के अंसार इतिहासिक सत्य से यह कथन मेल नहीं खाता कि ब्रिटिश सत्ता के सम्पर्क में देशी रियासते जब आई, तब वे स्वतन्त्र थी। प्रत्येक राज्य पूर्णतया सर्वसत्ता धारी था, और उसे वह प्रतिष्ठा थी जिसे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा कहा जा सकता है। प्रायः सब या तो मुग़ल साम्रज्य या मराठों की सत्ता या सिक्खों के राज्यों के अधीन थे। कुछ का निर्माण तो स्वयं अंग्रेजों ने किया यद्द्पि सिद्धान्त रूप से अंग्रेज यह कहते रहे कि रियासतों के अन्दरूनी मामलों में हम कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे पर आवश्यकता होने पर उन्होंने हमेशा इस सिद्धांत का हनन किया।
सार्वभौमसत्ता ने अनेकों कारणों से देशी राज्यों के भीतरी मामलों में बराबर हस्तक्षेप किया है। उसने इसे अपना हक माना है। हैदराबाद निजाम को लार्ड रीडिंग ने सन 1936 में एक पत्र लिखा था जिसमे स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया था कि नरेशगण अपने राज्य की सीमाओं के अन्दर जिस प्रकार की सत्ता का उपयोग करते है वह सार्वभौम की इस जिम्मेदारी के मातहत ही कर सकते है।
बटलर कमेटी ने शासन सुधार करने के लिए ब्रिटिश हस्तक्षेप को अपना एक अधिकार माना था। उसका कहना था सार्वभौमसत्ता भीतरी बगाबत से देशी नरेशों की रक्षा करती है, पर यह भी उसकी जिम्मेदारी है कि वह बगावत के कारणों की जाँच करें और वाजिब शिकयतों को दूर करें। कमेटी ने आगे चलकर कहा कि सम्राट ने नरेशों के अधिकार और विशेषाधिकारों को यथावत रखने का वचन दिया है, पर उसे ऐसे उपाय भी सुझाने पड़ेंगे, जिसमें नरेशों को कायम रखते हुए भी जनता की प्रजातंत्रीय मांग की पूर्ति की जा सके।
इस सम्बन्ध में लार्ड-कर्जन ने जो कुछ कहा है उसे उद्धृत करना समीचीन होगा
'एक देशी नरेश जब उसका सम्बन्ध साम्राज्य से होता है, तो वह सम्राट की वफादार रियासतों का राजा बन जाता है। जब उसका प्रजाजनों से सम्बन्ध होता है, तो वह गैर जिम्मेदार निरंकुश अत्याचारी बन जाता है और खेल तमाशों में तथा वाहियात बातों में अपना समय और धन बर्बाद करता है। ये दोनों चीजें साथ साथ नहीं चल सकती। उसे यह साबित करना चाहिए कि उसे जो अधिकार दिया गया है, वह ठीक ही दिया गया है। वह उसका दुरूपयोग नहीं करें। वह अपने प्रजाजनों का मालिक भी बने।
वह इस बात को समझे कि राज्य का खजाना उसके अपने एसो आराम के लिए नहीं बल्कि प्रजाजनों की भलाई के लिए है। उसका सिंहासन विषय विलासों के लिए नहीं बल्कि कर्तव्य पालन और कठोर न्याय का आसन है। वह केवल पोलोग्राउंडस रेस कोर्सेस और यूरोपियन होटलों में ही दिखायी नहीं दे, उसका असली स्थान तो उसके प्रजाजनों के बीच है। भविष्य बतायेगा कि वह जिन्दा रहेगा या दुनियां से मिट जावेगा। '