Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Jaipur Rajya Ki Rajnaitik Sthiti
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 19844. जयपुर राज्य की राजनैतिक स्थिति - एक विहंगावलोकन
(एक सम सामयिक स्त्रोत से)
जितना सिविल अधिकारी को जयपुर राज्य में कुचल रखा है,इसकी मिसाल संसार में पर्दे पर ढूढ़ने से भी नहीं मिलेगी। जितना यहां सिविल अधिकारियों को दबा रखा है उतने ही ठिकानेदारों को अपराधों के अधिकार दे रखे है। ठिकानेदार अपनी प्रजा पर बेहद जुल्म करते है। उन्होंने प्रजा की मनोवृतियों को इतना दबा कर रखा है कि बहुत से तो यह सोच भी नहीं सकते है कि इन जुल्मों से कोई छुटकारा भी हो सकता है जयपुर राज्य में एक तीन पैसे का कर्मचारी किसी आदमी को पुकारेगा तो वह आदमी "हाँ साहब" कहकर और "हुक्म" कहकर उत्तर देगा।
पत्र प्रकाशित करना, मीटिंग करना, संगठन करना, सभा सोसायटी बनाना ये तो यहाँ अनहोनी बातें है। जब से अंग्रेजी-प्राँतों में जागृति हुई है। उस समय से तो वहां के अधिकारी पहले से भी अधिक सतर्क हो गए है। खद्दर की साफ़ कमीज और टोपी पहनकर जयपुर राज्य में घुसना अपने को आफत में फंसाना है। जयपुर राज्य में रेलवे में हर एक गाड़ी में एक दर्जन से अधिक ख़ुफ़िया सिपाही चलते है, पहले तो खद्दर कमीज वाले का पता पूछकर वहीं पीछे हो लेंगे। इनकी निगाह से बचे तो स्टेशन की पुलिस पीछे हो लेगी। और कहीं उस व्यक्ति के हाथ में किताब या कागज हुए तो सारी पुलिस समझने लग जाती है कि वह कोई कांग्रेसी
भूत वहां आ गया है और राज्य को उथल पुथल कर देगा। जब तक वह राज्य से बाहर न चला जावेगा, उस समय तक पुलिस उसका पीछा नहीं छोड़ेगी।
जयपुर राज्य में जब इतना घोर अन्धकार, अत्याचार फैला हुआ था, तो ऐसे समय में प्रजामण्डल का जन्म हुआ। यों तो प्रजामण्डल कई वर्षो से कायम था लेकिन अब तक वह कागजी संस्था थी। गत वर्ष प्रजामण्डल ने अपना एक जलसा खास जयपुर में कर के थोड़ी बहुत जागृति पैदा कर दी। इस प्रजामण्डल के अधिवेशन को पहले तो अधिकारी होने ही नहीं देते थे, लेकिन जब राज्याधिकारियों को यह मालूम हो गया कि यदि अधिवेशन को नहीं होने देंगे, तो इस समय हमको मण्डल से लड़ना पड़ेगा। दूसरे, राज्य को यह भी जानना आवश्यक था कि प्रजामण्डल का इस समय कितना प्रभाव है। जलसे के बाद उसका किस तरह का स्तर रह जावेगा। राज्य ने कुछ मूर्खतापूर्ण शर्तो के साथ प्रजामण्डल का अधिवेशन हो जाने की स्वीकृति दे दी।
जो शर्ते मनवायी गयी थी, उनमे से प्रमुख है कि एक प्रजामण्डल सीकर आन्दोलन 1938 ई. के बारे में कुछ न रहेगा। स्वराज्य या उत्तरदायी शासन का नाम तक नहीं लेगा वर्तमान राज्य व्यवस्था या अधिकरियों की आलोचना नहीं करेगा। स्वागताध्यक्ष पं. हीरालाल शास्त्री और अधिवेशन के अध्य्क्ष सेठ जमनालाल जी बजाज के व्याख्यान बहुत ही गम्भीर और भावपूर्ण हुए। इनका सारांश यह था कि इन राज्य और राज्याधिकारियों से मिलकर प्रजामण्डल का कार्य करना चाहते हैं। हमारी नीति विध्वसंक नहीं रहेगी। जब कभी भी वह उत्तरदायी शासन लेंगे, महाराजा की छत्र छाया में ही रहकर लेंगे। यह जयपुर की जनता के लिए एक नई चीज थी। हजारों की संख्या में राज्य के प्रतिनिधि और दर्शकों ने बड़े उत्साह से उसमे भाग लिया। अजीब जागृति चारों और दिखाई देने लगी।
राज्य व अधिकारियों ने अपनी दकियानूसी और प्रतिगामी नीति दिखाने
में कोई कसर नहीं रखी थी। हजारों की संख्या में रजिस्टर्ड गुण्डे तथा कुछ पेंट-पंथी खद्दरधारी जलसे में बाधाएं डालने को एकत्रित किये गए थे। यह पलटन गला फाड़-फाड़ कर महाराज की जय, देसी राज्य की जय और न मालूम किस-किस की जय के नारे लगाती थी। जितना प्रजामण्डल का प्रचार होता था उतना ही यह पेंट-पंथी पलटन राज्य की तरफ से कर थी थी। गंदी से गंदी भाषा में नोटिस जिसमे बजाज जी को "गद्दार" तक लिखा, बंटवाये गये। बजाज जी पर व्यक्तित्व आक्षेपों की बौछारें होने लगी। ये पेन्टपंथी सभ्यता, नम्रता और शिष्टाचार को अलग कर अपनी असली जाति और औकात पर उत्तर आये थे।
इस अवसर पर प्रजामण्डल के कार्यकर्ता और नेता शान्ति से काम नहीं लेते तो इन किराये के खद्दरधारी और गुण्डा पलटन ने तो उपद्रव मचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वे कहते थे कि हमको एकतंत्री शासन अच्छा लगता है इसमें यह तो संभव है कि कभी हमारी औलाद को लालजी का पद और दो गाँव तो जागीर में मिल जावेंगे।
प्रजामण्डल की इतनी नरम नीति रहने पर भी राज्य की आँखों में यह सूल की माफिक खटकने लगा। राज्य से मिलकर काम करना और जब कभी भी उत्तरदायी शासन चाहेंगे, महाराज की छत्रछाया में लेंगे, मंडल की इस नीति में भी राज्य को अपने लिए कबर कांटे दिखने लगे। राज अपनी मूर्खता पर माथा ठोकने लगा। क्यों प्रजामण्डल का जलसा होने दिया, जिससे चारों और जागृति के चिन्ह दिखायी देने लगे। राज्य अब प्रजामण्डल को जड़ से उखाड़ने की तरकीब सोचने लगा। अकाल ने अपना उग्र रूप धारण कर रखा था और जो उसकी लपेट में आता उसे संहारता हुआ वह आगे बढ़ रहा रहा। प्रजामण्डल ने यह निश्चय किया कि मण्डल अकाल पीड़ितों की जी जान से सहायता करेगा। राज्य को इसमें कांटे दिखाई दिए।
राज्य को भय था कि अभाव पीड़ितों की सहायता कर मंडल प्रजा के ह्रदय में अमिट स्थान बना लेगा। मंडल लाखों रूपये बाहर और भीतर से उगाह कर
पीड़ितों पर खर्च करेगा तो राज्य को भी थोड़ा बहुत अपने मुँह पर नाक कान रखने के लिए खर्च करना पड़ेगा, नहीं तो बची खुची मान मर्यादा भी धूल में मिल जावेगी।
राज्य ने निश्चित किया कि मंडल को अभाव पीड़ितों तक नहीं पहुंचने दिया जावे। पहले जमनालाल जी पर वार हुआ। सेठ जी अकाल संबन्धी मंडल की मीटिंग में भाग लेने जा रहे थे। उनको कैसे-कैसे कष्ट देकर राज्य के बाहर चलती मोटर से ढकेल दिया। सेठजी को जिस दिन पकड़ा उसी दिन प्रजामण्डल ने अपनी लड़ाई का शंख फूंक दिया।
सत्याग्रह शुरू हो गया। इसका रूप छोटा था। सप्ताह में दो बार 5-5 सत्याग्रहियों का जत्था सत्याग्रह करने लगा। प्रजा में इतना जोश था कि जैसे राज्य भर की रियाजा सत्याग्रह कर रही है। खास जयपुर में तो पांच सत्याग्रहियों के पीछे अस्सी हजार तक भीड़ रहती थी। इनकी जय के नारों आसमान गूंज उठता था। स्टेट अधिकारी अपनी मूर्खता पर फिर पछताने लगे कि प्रजामण्डल से छेड़छाड़ क्यों की।
पुलिस वाले कहते थे कि जैसे जैसे इस दबाया जावेगा वैसे ही यह भड़क उठेगा। आंदोलन को कुचलने को गुण्डा पलटने भर्ती होने लगी। सैकड़ों गुण्डे जोधपुर से बुलाये गये। जब मंडल के ऑफिस से जुलुस निकलने का समय होता, उसके एक घंटा पहले ही इस गुण्डा पलटन को आधी आधी बोतल शराब और दो दो पैसे के सेव खिलाकर सत्याग्रही जत्थे और जुलुस के साथ मार पीट करने को भेजी जाती। इनमें से बहुत से तो सड़क पर ही नशे से चूर होकर गिरे रहते और कुछ जुलुस के साथ ही नारे लगाने लगते। तात्पर्य यह है कि जैसी इनसे आशा थी वैसी उन गुण्डों ने सत्याग्रहियों से लड़ाई नहीं लड़ी। अब इनको शराब का राशन जुलुस के दिन आधा कर दिया गया। पाव बोतल शराब पीकर अब तो यह पलटन एक डीएम जत्था और जुलुस पर टूट पड़ती मारपीट गाली गलोच से रंग में भंग करना चाहते। जयपुर पुलिस भी इनका साथ मारपीट में खूब देने लगी। जत्था वालों
को पीटना, जुलुस पर पत्थर बरसाना, स्त्रियों की तरफ भद्दे इशारे करना, हड़तालियों की दुकानों को जबर्दस्ती ताला तुड़वाना यह इनका जुलूस के दिन का काम होता था।
एक दिन बड़ा भारी जुलूस सत्याग्रहियों का निकल रहा था, उसमे ये गुण्डे शराब के नशे में मारपीट कर रहे थे। पुलिस तमाशा देख रही थी। जुलूस बिल्कुल शान्त था। सहसा अमेरिकन घुम्मकड़ों का एक दाल कहीं से आ पहुंचा और वह खड़ा होकर गुण्डो का उपद्रव देखने लगा। इस दिन जुलूस में एक लाख के लगभग भीड़ थी। अगर वे चाहते तो इन गुण्डों की बोटी-बोटी काट डालते। जुलूस और जत्थे की उन शांतिमय नीति का अमेरिकनों पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे उसी समय गोरे प्राइम मिनिस्टर के पास पहुंचे, और इस प्रकार की गुण्डागर्दी का बड़ा विरोध किया। अमेरिकन लोगों ने इसकी फोटो उतारी।
अब राज्य की नीति ने पलटा खाया। जयपुर में तो गुण्डा राज 15 दिन बाद खत्म हो गया लेकिन अब यह गुण्डा राज राज्य के भीतरी भागों में स्थापित होने लगा। जयपुर सत्यागृह का असर राज्य भर में बिजली के माफिक फैल गया। श्री माधोपुर में 5-4 दुकानदार अखबार सुन रहे थे। गुण्डा पलटन उन पर टूट पडी। अखबार उनके हाथों से छीन लिया, मारपीट की और आयंदे के लिए अखबार न पढ़ने की ताकीद की।
चौमू-सामोद में 'जयपुर डे' मनाने के उपलक्ष्य में अधिकारीयों के न चाहते हुए भी पूर्ण हड़ताल हुई, सीकर में भी पूर्ण हड़ताल हुई। जुलूस इतना बड़ा निकला कि स्थानीय पुलिस का उसे देख हार्टफैल होने लगा। जयपुर तार गया कि पलटन भेजो। गाडी का टाइम नहीं, पक्की सड़क नहीं, पलटन कैसे आवे।
झुंझुनू में तो एक अर्से से अराजकता छाई है। यहां की जाट किसान पंचायत के अध्यक्ष सरदार हरलाल सिंह और उनके साथी बिना किसी जुर्म के जेल
में ठूंस दिए गए है। उनके दर्शनों को हजारों जाट किसान जाने लगे। हजारों लोग वैसे भी सौदा खरीदने आते है। राज्य ने मीणा लोगों एवं दादूपंथी साधुओं को लगाकर लोगों को पीटना शुरू किया। बहुत से देहातियों के मूछों के बाल उखाड़ लिए गये। जब किसानों ने झुंझुनू में आना बन्द कर दिया तो देहातों में जाकर अत्याचार किये जाने लगे। किसी ने झूंठ कह दिया कि फलां आदमी प्रजामण्डल में है या उससे सहानुभूति रखता है तो उसकी खैर नहीं थी।
स्टेट इस सत्याग्रह को रोकने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। तमाम राष्ट्रीय अख़बारों का प्रवेश रोक दिया है। स्टेट की तरफदारी करने वाले एक दैनिक की हजारों प्रतियां राज्य में आती है। इन्हे मुफ्त बांटा जाता है। एक दूसरा पत्र है 'प्रभात' यह जयपुर से प्रकाशित होता है। इसका नाम अँधेरा होना चाहिए था। प्रभात तो प्रकाश फैलाता है, यह अँधेरा फैलाता था।
सेठ जी के विरुद्ध पर्चे निकाले जा रहे हैं। एक पर्चे का शीर्षक है "गद्दार बजाज की कोई बात न सुनो" आन्दोलन नगरों से देहातों में फैल गया है। अब सौ-सौ का जत्था निकलने लगा है।
एक ताजीमी ठिकानेदार रेलवे से सफर करने स्टेशन आये। घड़ी शायद आपके रावले में न होगी, जो स्टेशन पर चार घन्टे पहले आकर पड़ाव दाल दिया। आपकी गाड़ी के पहले एक और सवारी गाड़ी आती थी उसमें कुछ प्रजामण्डल के स्वयं सेवक महात्मा गाँधी की जय या प्रजामण्डल की जय के नारे बुलन्द कर रहे थे। ठाकुर साहब बेंच पर आँखें बन्द करके हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे, जय के नारों की आवाज सुनकर अर्दली से बगैर पलक खोले ही पूछा कि यह कैसा शोरगुल मच रहा है अर्दली ने उसको पूरे 30 मिनट में समझाया कि ये गाँधी और जय नारायण की फौजे हैं श्री जी लड़ने जयपुर जा रही है। इन्होने पूरब का राज ले लिया है। बम्बई फतह कर ली है, अब यह थोड़ा सा राजपुताना बचा
है सो अबके इसको भी ले लेंगे ठिकानेदार ने सब कुछ सुनकर पूछा कि जयपुर राजा इनको मारते नहीं है? अर्दली ने कहा "अन्नदाता" यह इतनी बड़ी फौज है कि मारने में आती ही नहीं। एक को मारो, दस उसकी जगह आ जाते है। यह सब सुनकर ठाकुर साहब चिन्ता में डूब गए और अपने भविष्य की सोचने लगे।