Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Kisanon Ki Karun Dasha

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

तृतीय खण्ड-लेखमाला

5. किसानों की करुणा दशा
(एक समसामायिक स्त्रोत से)

वैसे तो आमतौर पर सारे देश में किसानों की दशा खराब है, पर राजस्थान में उनकी हालत बदतर है। किसान धीरे-धीरे जागृत हो उठे हैं और जो थोड़ा बहुत उन्हें मिलता है, उसकी रक्षा करने लगे हैं। जयपुर राज्य में किसानों की दशा बहुत ही दयनीय है इसका मूल कारण है किसानों के प्रति नीति, जिसका आधार यह है कि जितना भी हो सके किसान को निचोड़ा जावे।

इस साल 1938 जयपुर मैं भयंकर दुर्दिशा है, खासकर पश्चिमी हिस्सो में अकाल पड़ा हुआ है। लाखों पशु भूखे प्यासे मर गये, हजारों किसानों के घर बरबाद हो गए, शेष राज्य छोड़कर भाग गये जो बचे हैं उनसे एक समय का खाना नहीं हो रहा है। राज्य की नीति फिर भी वही है। अखबारों में कुछ सब्ज बाग़ छपवा दिया गए हैं जैसे जहां जहां अकाल है किसानों से लगान न लिया जावे या कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जावे। जयपुर के ठिकानेदार ऐसे हुक्म की परवाह करते हैं, हुक्म को पढ़ा उसी समय उसको फाड़ डाला। हुक्म निकालने वाले को जब तक उनकी जीभ चली चुनिन्दा गालियां दी।

ठिकानेदारों ने अपने आदमियों को कड़ककर कहा "बड़े राज का खजाना भरा हुआ है वह तो चिल्लायेगा ही। किसानों पर लगान छोड़ दें तो हम क्या खावेंगे और क्या तुम्हे खिलावेंगे। मेह नहीं बरसता तो इसमें ठिकानेदार का क्या दोष ? क्या ठिकानेदार ने भगवान से मना कर दिया है कि इधर मेह नहीं बरसाना।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-III, पृष्ठांत-24

जब ठिकानेदार के नौकरों को मालिक ने इतना कह दिया तो नौकर भी अपने-अपने हथियारों से सुसज्जित होकर लगान वसूल करने निकल पड़े। कहीं-कहीं तो इन ठिकानेदारों के आदमियों को राज्य की पुलिस व अन्य अधिकारी इस लूट में पूरा सहयोग दे रहे है।

ऐसा देखा गया है कि बेचारा भूखा किसान दस पांच सेर मोठ बाजरा अपने तीन दिनों के भूखे अबोध बच्चों के लिए आया है। ठिकानेदार के आदमी उस अन्न को ही उठा ले गए। उसकी खेती करने के पशु, गाय, बैल खोलकर ले गए है। आठ दिन ठिकानेदार ने उनको अपने गढ़ में भूखा ही बांधे रखा और वे बंधे-बंधे ही मर गए। इन ठिकानेदारों के मारे किसानों को दो चार तांबे पीतल के बर्तन तक नहीं पाये। किसानों को दो-दो चार-चार रुपयों में अपने बच्चे बेचने पड़े। अपना रोना किसके सामने होवे ? यह सही है कि बड़े बड़े सेठ साहूकार ने चंदा दिया, जिससे मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अकाल पीड़ितों को अन्न वस्त्र बाँट रही है। लेकिन किसान अपने आत्म गौरव के कारण इन्हे कम ही ले रहे है।

राज्य भी एक रेलवे लाइन झुंझुनू से लुहारू तक खुलवा रही उसका काम इस समय चालू है, लेकिन जब हजारों मीलों के रकवा में अकाल है, और लाखों आदमी फसें हुसे हुए हैं तो कितने मनुष्यों को यहां मजदूरी मिल सकती है ? मजदूरी भी क्या मिलती है ? पांच पैसे बड़े आदमी चार पैसा स्त्री एवं दो पैसा बच्चों को तिस पर भी सैकड़ों जगह हजारों आदमी आठ दस मील चलकर आये है और काम नहीं मिलने पर वापिस चले जाते है। जयपुर के उत्तरी पश्चिचमी भाग में विशेष कर शेखावाटी में सब कुछ मेहनत पर निर्भर है। वहां पानी इतना गहरा है कि कुंओ से सिचाईं नहीं हो सकती। जमीन इतनी रेतीली है, जहां-जहां रेत के पहाड़ है, जिनको टीबा कहते है। समय पर मेह बरस जाने पर भी सिर्फ मोठ बाजरा थोड़ा पैदा होता है।

ठिकानेदारों का कहना है कि हमारी आमदनी का जरिया किसान है। यदि यदि किसान ही हमको कुछ नहीं देगा तो हमारे रावले, जनाने महलों का खर्चा कैसे चलेगा। किसान और उसके स्त्री, बच्चे तो भूखे भी मर सकते है, नंगे भी रह


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-III, पृष्ठांत-25

सकते है लेकिन ठाकुर साहब और रानी साहब और रावले की घाघरा पलटन न भूखों मर सकती और न उघाड़ी ही रह सकती है। इसलिए किसान के पास इस समय कुछ न होते हुए भी इन ठिकानेदारों के लिए इनको निचोड़ा और लूटा जा रहा है।

ठिकानेदारों लाख डेढ़ लाख के जागीरदार होते हुए भी महा भुक्क्ड़ है। इनके पास इतनी भी तो घर में सहायता नहीं है की किसान से रुपया न वसूल होने पर पाना खर्च भार महीने भी तो चला सके। एक नम्बर के उड़ाऊ खाऊ और हर बात में जयपुर-जोधपुर के महाराजाओं की नकल करते है। जयपुर की रानी साहिबा का यदि छः लाख का हार बना है तो अब ठिकानेदारिना भी मचल रही है कि 6 का नहीं तो पांच लाख का मैं भी बनवाउंगी, तभी तो अपनी बिरादरी में मुँह दिखा सकूंगी। अब ठिकानेदार परेशान. इस पूरी घाघरा पलटन की फरमाइशों को पूरा करने में ठिकानेदार दुबले हुए जाते हैं।

सुकाल में भी किसान छः महीने आधे भूखे रहते हैं। जो कुछ पैदा हुआ ठिकानेदार के घर में चला गया। जमीन के लगान के अलावा न मालूम कितना ऊलजलूल लागबाग (कस्टमरी ड्यूज) किसान से ली जाती है। यदि किसान ने इनको देने में आना कानी की तो वही ढलुआ ठिकानेदार या राज के कर्मचारियों का जूता और किसान का सर। इस वर्ष अभाव के कारण भी इनको लागबाग देने में किसी तरह की कमी नहीं रही है।

जमीन का लगान वसूल करने के पहले लागबाग तलब की जाती है, बाद में लगान तलब किया जाता है । इस साल अभाव के कारण किसान लागबाग भेट नहीं दे पाए, जिस पर जयपुर के गोरा दीवान को शक हो गया कि कोई प्रजामंडल का भूत इन किसानों को लालबाग नहीं देने के लिए बहका रहा है आपने उसी दिन एक जयपुर स्टेट बजट ऑर्डिनरी तारीख 16 दिसंबर 1938 निकाल कर फरमाया। " इन लोगों को जो किसानों को भड़काते हैं राज्य के बाहर निकाला जाता है। "

अभी प्रश्न यह है कि किसान बाहरी आदमी की बात क्यों मानने लगा ? वास्तव में उसके घर में कुछ देने को है ही नहीं। जमीन के लगान के अलावा उसे ना


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मालूम कितनी लागबाग देनी पड़ती है । यदि अभी लागबाग चुकाई जावे जिन्हें ठिकानेदार अपना हक बताते हैं तो उतनी तो अनाज के बाद भी हमारे खेत में नहीं होती है। यहां एक ही तो फसल होती है उसी पर किसान निर्भर है और उसका अधिकांश ठाकुर ले जाता है।

किसान केवल आर्थिक गुलाम ही हो सो बात नहीं है। वह सामाजिक गुलाम भी है यदि ठाकुर ठकुराइन का स्वर्गवास हो जाए तो तमाम किसानों की दाढ़ी मूछ सर मुंडवाना पड़ता है। किसानों की स्त्रियों को 12 से 13 दिनों तक बिना नागा रोज रावले में छाती कूट कूट कर रोने के लिए जाना पड़ता है और वहां बैठकर 4 घंटे सुबह और 4 घंटे शाम को रोना पड़ता है और यदि फिर डाबड़ी ने चुगली कर दी कि अमुक स्त्री के आंसू नहीं आए तो फिर उसकी धुनाई की जाती है जिससे उसके आंसू और लहू दोनों एक साथ निकलने लगे।

इन स्त्रियों को रोते समय कहना पड़ता है "हाय अन्नदाता जी थे म्हाने कठे छोड़ गया, म्हांको अब दुनियां में कुण है" यदि किसान मुंडन नहीं कराता है तो उसका जीना कठिन हो जाता है।

ठिकाने की राजकुमारी का विवाह होता है तो भार किसान पर आता है। एक या दो रुपया फिलाहल टैक्स बंध जाता है इसको बगैर चुकाये पिण्ड नहीं छूटता। बारात ऊंटों और बैल गाड़ियों में आयी तो उसका भार भी किसानों पर ही पड़ता है। साल भर बाद कुंवर पैदा हो गया, तो उसकी रस्म पूरा करने के लिए किसान को हाथ बंटाना पड़ता है।

मौरूसी हक क्या चीज है, इसे किसान नहीं जानता है। किसान सौ-सौ, पचास-पचास वर्षो से खेत जोतते हैं पर ठिकनेदार की महज सनक पर वे बेदखल हो जाते हैं। किसान पक्का मकान नहीं बना सकता। घास फूंस के घरों में रहता है, जिनमे बार-बार आग लग जाती है। इसमें जो कुछ है सब जलकर भस्म हो जाता है। जिस दिन से उसके खेत में बाल पकने आती है उसी दिन से दादूपंथी मूर्ति आकर बैठ जाते हैं, जिससे किसान कुछ खा पी नहीं सके।

जहां बटाई की रिवाज़ है वहां और भी कठोरता, धोकेबाजी, ठगी और


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डकैती होती है। किसान का खेत पका हुआ खड़ा है। वह बार-बार कामदार से अर्ज करता है कि अन्नदाता मेरे खेत का अन्दाज कर लें। चार-पांच आदमियों को लेकर कामदार पधारते हैं। एक ने 20 मन, दूसरे ने 25 मन, तीसरे ने 30, चौथे ने 35 मन बताया। इनको जोड़कर आधा कर कूंत करदी। किसान को कह दिया माल गढ़ में भिजवा देना।

इस बंटवारे के साथ-साथ मला खर्च, जाजम खर्च, कुंवर जी का कलेवा, बाई जी का हाथ, कारज खर्च, पड़वा मेख, धुंवाबाछ, खूटेबंदी, हलमेठिया, ठाकुर का नाई आदि लाग ली जाती है। एक हल की खेती पर करीब 3 मन पहुंचती है। ब्राह्मण, नाई, चमार, बढ़ई, चौकीदार,पटवारी, कामदार,महतर और बलाई को देना पड़ता है। ये सारे टैक्स एक हल पर 12 मन हो जाते है। तीन मन तो चौकीदार ले जाता है।

समय आ रहा है, बंद शोषित किसान इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ देगा और एक क्रांति पैदा कर देगा। तब इन ठलुआ ठिकानेदारों को मालूम होगा कि "बाजरो कांई भाव बिके है।"

" इस संसार में किसी दुःखी व्यक्ति के लिए थोड़ी सी भी सहायता ढेरों उपदेशों से कहीं अधिक अच्छी है। ".... वुलवर

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