Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Mera Pyara Agraj

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

द्धितीय खण्ड - सम्मत्ति एवं संस्मरण

16. मेरा प्यारा अग्रज
श्रीमति पतासी देवी

मेरे प्यारे भैया करणीराम का नाम स्मरण करते ही मेरी आँखें सजल हो जाती हैं। आज भी मुझे लगता है कि ऐसा दयालु और सबका भला चाहने वाला इन्सान मर कैसे सकता है और यह भी मन में आता है कि उस जैसे सीधे साधे एवं करुणा की साकार मूर्ति को मारने वाला कोई इन्सान तो नहीं हो सकता -- कोई शैतान या जानवर ही होगा --करणीराम ने तो किसी चींटी का भी जी नहीं दुखाया। उसने तो हजारों दीन दुखियों के आँखों के आंसु ही पौंछे थे।

मैंने जब से होश संभाला तब से ही सफेद गाड़े की कमीज, धोती और टोपी ओढे करणीराम जी को देखा है। मेरा जन्म सन 1935 में हुआ था। जब करणीराम इलाहाबाद पढ़ते थे तब मै 6-7 वर्ष की थी तभी की उनकी यादें मेरे दिमाग में उभर रही है।

वे हमारी हवेली के अन्दर के चौक में आकर अपनी मामियों, भाभियों,बहनों और भतीजियों को पीढ़े पर बैठकर ज्ञान की बातें बताते थे ,प्यार से रहने की, मधुर वाणी बोलने तथा किसी की बुराई न करने के लिए तथा कभी झगड़ा न करने की बातें कहते थे। चर्खा कातने, चाँदी के जेवर न पहनने तथा गोटा किनारी साड़ियों पर न लगाने की बातें कहते थे और पढ़ाई के लिए कहते थे। मैं सबसे छोटी थी। अतः वे सबसे ज्यादा प्यार मुझे ही किया करते थे और प्यार में मुझे वे बानरी कहते थे।

वे दुर्बल का पक्ष लेते थे,मेरी बहिन कस्तूरी ससुराल पक्ष से थोड़ी कमजोर थी। करणीराम जी सबसे ज्यादा दया उसी पर करते थे और उसके दुःख दर्द की


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बात सुनते थे और उसे हिम्मत बंधाते थे।

वे बहुत ही सीधे सादे थे। अहंकार नाम की चीज उनमें कतई नहीं थी। मुझे याद पड़ता है कि मेरी चचेरी बहिन सुगणी गोठड़े ब्याही थी और उनके पति और ससुर बर्मा रहते थे। जब हमारे बहनोई चिरंजीलाल जी हमारे गाँव आते तो वे स्वयं मेरी माँ को गेंहू की रोटी बेलने में मदद करते थे।

करणीराम जी एक निर्लिप्त एवं निस्पृह व्यक्ति थे। अपनी स्वयं की बहिन नारायणी देवी से वे बहुत कम बातें करते थे तथा न अपनी धर्मपत्नी के सुख सुविधा पर ध्यान देते थे। जब इलाहाबाद पढ़ते थे, तब हम सबके लिए स्टील के संदूक लाकर देते थे।

वे अपनी बहिन व धर्मपत्नी के लिए कुछ नहीं लाते थे। मेरी भाभी मेरी माँ को जब ओलमा देती तो मेरी माँ उसे कहती कि तुम्हारे लिए तो उम्र भर ही अच्छी अच्छी चीजें लायेगा और इस प्रकार मेरी माँ सान्त्वना देती। अपनी बहिन का लड़का राधाकिशन जब देवलोक सिधार गया, उस समय करणीराम जी झुंझुनू वकालत करते थे, पर वहां गर्मी में बैठने नहीं जा सके क्योंकि दुनियां की तकलीफों को दूर करने में बुरी तरह फंसे हुए थे। सच कहते हैं कि बड़े आदमी खुद के लिये नहीं, दूसरों के लिए जीते हैं।

मेरे पिता मोहनरामजी करणीराम से बड़े डरते थे। वे दारू पी लिया करते थे,लेकिन जिस दिन उन्हें पता चलता कि करणीराम जी आज झुंझुनू से आयेंगे, तो सुबह से ही बड़े परहेज से रहने लग जाया करते थे, अगर संयोगवश बिना प्रोग्राम के करणीराम आ जाते तो वे चुपचाप सो जाया करते और दूसरे दिन सुबह बात करते थे। कितना सम्मान था करणीराम जी के प्रति।

मेरे पिताजी का सारा मन करणीराम में ही अटका रहता था। उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनते थे और यह पूरी कोशिश करते थे कि करणीराम जी को किसी बात में कोई ठेस न पहुंच जावे। वास्तव में मेरे पिताजी करणीराम जी को बहुत बड़ा बनाना चाहते थे और उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। करणीराम की मौत ने मेरे पिताजी का कलेजा


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ही निकाल लिया था, और उनकी मृत्यु के बाद पागल से ही रहने लग गये थे।

करणीराम करुणा के सागर थे। मेरी माँ पर बड़ी दया करते थे क्योंकि मेरी माँ सुबह से लेकर रात तक मेहमानों के लिए खाना बनाने के लिए रसोई में ही घुसी रहती थी तथा एक मेरी चाची अपंग थी, उसकी सेवा सुश्रुषा वही करती थी। करणीराम जी मेरी माँ को ही अपनी प्यारी माँ मानते थे और बड़ा प्रेम व श्रद्धा उनके प्रति थी।

करणीराम जी के जब टी.बी.हो गई तो संत की तरह से नंगे शरीर में हमारे खेत में टापी बनवाकर रहते थे। राखी के त्यौहार पर मैं और मेरी हम उम्र बहिनें भाई के राखी बांधने जाया करती थी। वे हम सबको एक एक चाँदी का रुपया दिया करते थे। कितना भाई का प्यार था। खुद टी.बी.के बीमार, मौत से संघर्ष कर रहे थे, और कुछ नहीं कमाते थे। फिर भी बहिनों के लिए कितने उदार और दयालु थे, मैंने तो एक बार भाई को कह दिया कि भाया कमाओ तब देना---अब क्या जरुरत है तो करणीराम जी हंसकर कहा "तुम क्यों चिन्ता करती हो।"

करणीराम जी को सभी गाँव वाले एवं सगे संबन्धी बड़ा आदर देते थे। उस समय हमारे ठिकानों में से बातें करके वे भी अपना अहोभाग्य समझते थे। करणीराम जी बड़े स्पष्ट वक्ता थे। वे किसी से दबते नहीं थे। सही बात डंके की चोट कहते थे,चाहे कोई नाराज हो या राजी हो। लेकिन एक बात यह थी कि उनकी बात से सभी को तसल्ली होती थी और उनकी बात से सभी सहमत हो जाते थे, क्योंकि किसी के प्रति घृणा या दुभार्वना उनके दिमाग में नहीं थी।

करणीराम जी का मुझ पर अपार स्नेह था। मुझे तो आज भी उनका अभाव बुरी तरह खटकता है पर क्या किया जावे विधि का विधान ही ऐसा था। उनकी बीमारी आदि पर काफी पैसा पिताजी का खर्च हो गया था और उनकी हालत आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो गई थी। मैं जब पहली बार ससुराल आने को थी, तो करणीराम जी झुंझुनू से आये और मेरी माँ को रूपये देकर गये। पतासी को


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बनवा देना। कितना प्यार,कितना लिहाज व कितनी आत्मीयता उनमें थी, वर्णन नहीं हो सकती।

करणीराम जी अब नहीं रहे, पर उनके व्यक्तित्व की सुगंध सदा ही समाज को सुरभित करती रहेगी। उनकी प्रेरणा सदा ही गरीबों के दिल में आशा की किरण जगाती रहेगी। नवयुवक सदा ही उनके उदात्त आदर्शो का अनुकरण करते रहेंगे। कौन कहता है वे मर गये वे तो अमर हो गए है। उनकी धवल कीर्ति आज भी अलौकिक आभा के साथ झुंझुनू में ही नहीं, अपितु राजस्थान के गगन में चमक रही है।

"मृत्यु से नया जीवन मिलता है, जो व्यक्ति और राष्ट्र मरना नहीं जानते, वे जीना भी नहीं जानते। केवल वहीं जहां कब्र है, पुनरुत्थान होता है।" ---------- जवाहर लाल नेहरू


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