Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Riyasati Sangharsh Aur Congress

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

तृतीय खण्ड-लेखमाला

9. रियासती संघर्ष और कांग्रेस

प्रारम्भ में कांग्रेस रियासतों में होने वाले आन्दोलनों, संघर्षों के प्रति अनुदार दृष्टिकोण ही अपनाये रही। उसका ध्यान मुख्यतः ब्रिटिश भारत तक ही केन्द्रित था। उसकी यह मान्यता थी, कि अगर देश में विभिन्न भागों में देशी नरेशों के विरुद्ध होने वाले आन्दोलनों में कांग्रेस सहयोग करने लगेगी, तो इससे मूल संघर्ष की शक्ति विभाजित होकर कमजोर हो जावेगी। यह स्थिति स्वतंत्रता संग्राम के लिए विघातक होकर कमजोर हो जावेगी। यह स्थिति स्वतंत्रता संग्राम के लिए विघातक सिद्ध होगी। साथ ही यह विचार धारा भी थी, कि राजनैतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के पश्चात् देशी राज्यों की समस्या का निदान मुश्किल नहीं होगा। यह भी भावना थी कि रियासतों में अभी जन संघर्ष को उग्र बनाने की मनोवृति, साधन और सुविधायें नहीं है। अतः कोई बड़ा संघर्ष छेड़ने की वहां के लोगों की स्थिति नहीं है।

ज्यों ज्यों समय बीतता गया, इस धारणा में परिवर्तन होने लगा। इधर रियासती जनता का अपना उत्पीड़न इतना तीव्र था, कि वह और अधिक पीड़ा लम्बे समय तक सहने में असमर्थ थी। जन आन्दोलन को सबल बनाकर उसने कांग्रेस की सहानुभूति बलपूर्वक अपने अधिकार के बल पर अर्जित की थी। लोक परिषदें, प्रजामण्डल आदि संस्थाओं के माध्यम से जन जागरण का जो प्रबल प्रचार आया, उसमे देशी नरेश की शक्ति तिनके की तरह तरोहित होती नजर आई। कांग्रेस इस महान संघर्ष से स्वभावतया अपने को अलग नहीं रख सकती थी।

कांग्रेस की प्रवृतियां सन 1920 के पहले वैध आन्दोलन तक ही सीमित थी। देशी राज्यों के प्रजाजनों के सम्बन्ध में उसने पहले नागपुर अधिवेशन में


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विचार किया। उसने देशी राज्यों की शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास किया, जिसका आशय था कि देशी नरेश अपने राज्यों में उत्तरदायी शासन की स्थपना करें।

सन 1927 देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना हुई। मद्रास कांग्रेस अधिवेशन के समय परिषद ने कांग्रेस का ध्यान देशी राज्यों की ओर दिलाया। कांग्रेस की यह राय है कि राजाओं को अपने अपने राज्यों के उत्तरदायी शासन की स्थापना कर देनी चाहिए। कलकत्ता अधिवेशन के समय कांग्रेस ने अपनी नीति को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि उत्तरदायी शासन की प्राप्ति के लिये वह जो भी उचित एवं शांतिमय प्रयत्न करेगी, उसमे कांग्रेस की पूरी सहानुभूति तथा समर्थन रहेगा। इसे सन 1930 में लाहौर अधिवेशन में भी दोहराया गया। अगले साल गांधी इरविन पेक्ट हुआ। महात्मा जी दूसरी गोलमेज परिषद में देशी राज्यों के प्रतिनिधि के रूप में गये। उन्होंने नरेशों से आग्रह किया था, कि वे अपने यहाँ उत्तरदायी शासन की स्थापना करें।

सन 1935 में जबलपुर में महासमिति की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें देशी रियासतों की जनता का आश्वासन दिया गया था, कि अपनी आजादी के लिये वे जो लड़ाई लड़ेंगें, उसमें कांग्रेस की पूरी सहायता रहेगी। कांग्रेस ने रियासती जनता के स्वराज्य के हक़ की घोषणा की संघ योजना के अवसर पर भी कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया था, कि नरेशों का सहयोग प्राप्त करने के लिये कांग्रेस प्रजाजनों के हितों की कदापि बलि नहीं होने देंगे।

सन 1936 को लखनऊ में कांग्रेस द्धारा इस नीति की जोरदार उद्घोषणा हुई। कांग्रेस ने इस बात पर दुःख प्रकट किया, की राज्यों में जनता का दमन किया जा रहा है। सन 1937 के हरिपुरा अधिवेशन में फिर इस नीति की घोषणा हुई। मैसूर में इस समय कांग्रेस कर्मियों पर अत्याचार हुए तो कांग्रेस ने इसकी घोर निन्दा की। कांग्रेस ने कहा कि देशी राज्यों में पूर्ण उत्तरदायी शासन और नागरिक स्वाधीनता की गारन्टी जरूरी है। कांग्रेस का मानना था कि आज की परिस्थितियों में रियासतों में स्वाधीनता की लड़ाई का भार वहां के प्रजाजनों को ही


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उठाना होगा। कांग्रेस की शुभकामनायें और समर्थन इसे शांतिपूर्वक और उचित तरीकों पर चलाये जाने वाले संघर्षों को सदा मिलता रहेगा।

कांग्रेस ने यह भी स्पष्ट कर दिया था, कि मौजूदा परिस्थिति में कांग्रेस केवल नैतिक समर्थन ही दे सकती है। कांग्रेस जनों को यह आजादी रहेगी कि वे खुद व्यक्तिगत रूप से इससे अधिक सहायता करें। इस तरह कांग्रेस संगठन को बिना उलझाये हुए साथ ही बाहरी बातों या परिस्थितियों के ख्याल से न रुकते हुए भी रियासती जनता की लड़ाई आगे कदम बढ़ाती जा सकती है।

कांग्रेस रियासती जनता को यह आश्वासन देना चाहती है, कि यह उनके साथ है और स्वाधीनता के लिये चलाई जाने वाली उनकी लड़ाई में उसकी पूरी सहानुभूति और सक्रिय तथा सावधान दिलचस्पी है। कांग्रेस को विश्वास है कि रियासती जनता की मुक्ति का दिन भी अधिक दूर नहीं है।

इस प्रस्ताव में उद्घोषित नीतियों का रियासती जनता पर बड़ा असर पड़ा। उसे वस्तु स्थिति मालूम हो गई कि उसे अपने पैरों पर ही खड़ा रहना है। उसे अपनी लड़ाई अपने बलबूते पर चलानी है। सन 1938 से राज्यों में जागृति की लहर आई और आन्दोलन को बड़ी गति मिली।

कांग्रेस का नैतिक समर्थन रियासती जनता के लिये एक अमूल्य सहयोग था। इस प्रकार आन्दोलन को एक नैतिक आधार प्राप्त हो गया था। रियासती जनता का आन्दोलन कांग्रेस के नैतिक और उसके सदस्यों के व्यक्तिगत सहयोग से प्रखर से प्रखरतर होता गया। जब जब मौका आया आया कांग्रेस ने रियासती जनता पर हो रहे अत्याचारों की भर्त्सना स्वभावतया बड़ी परिवेश लेकर सारे देश में एवं बाहर भी प्रतिध्वनि फैलती रही। सारा देश अब राष्ट्र के समुन्नयन और अत्याचार को मिटाने के लिये समृद्ध हो गया था।

महात्मा गांधी ने स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर राजाओं को उचित सलाह दी थी।


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उनका कहना था, "जब मैं हिंदुस्तान के राजा महाराजाओं पर विचार करता हूँ तो एक तरह की घबराहट मुझे घेर लेती है। यद्धपि मैं उनमें से अनेकों को जानता हूँ। हिन्दुस्तान के वे राजा महाराजा ब्रिटिश शासकों की ही पैदावार हैं। इस बात का दुःखद ज्ञान ही मेरी घबराहट का कारण है। उनका अस्तित्व अंग्रेजों की मेहरबानी पर रहा है, और इस मेहरबानी का आधार वह कीमत है जो उस समय के गद्दीधारियों ने चुकाई थी। आज कल के राजा साम्राज्य सरकार की रचना है। उनकी एक भ्रूभंग उन्हें खत्म कर सकती है। अगर वे राजा अपने को राष्ट्र का महत्वपूर्ण अंग समझते तो उनके लिये अपने को इतना असहाय मानने का कोई कारण नहीं रहता है। साम्राज्य तो नष्ट होने ही वाला है चाहे अंग्रेज इसे अपनी इच्छा से नष्ट करें चाहे उन परिस्थितियों के बल से वह नष्ट हो जिन पर उनका कोई काबू नहीं है। "


"धूल से नीचे कौन होगा ? मगर वह भी अपमान सहन नहीं कर सकती लात मारें तो सिर पर चढ़ती है। ---- रामायण


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