Kamakhya

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(Redirected from Siddha Kubjika)
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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Kamakhya (कामाख्या) is an important Hindu Tantric goddess of desire who evolved in the Himalayan hills. She is worshiped as Siddha Kubjika, and is also identified as Kali and Maha Tripura Sundari.

Origin

Variants

History

According to the Tantric texts (Kalika Purana, Yogini Tantra) that are the basis for her worship at the Kamakhya temple, a 16th-century temple in the Kamrup district of Assam. The earlier manifest of the goddess sanctified at the Garo hills is destroyed, although the Vatsayana priests are said to have carried away the manifest of the goddess to the Hindu kingdom in Kashmir and later sanctified in a remote hill forest in Himachal. Her name means "renowned goddess of desire," and she resides at the presently rebuilt Kamakhya Temple in 1645 C. The temple is primary amongst the 51 Shakti Peethas related to the sect that follows Sati, and remains one of the most important Shakta temples and Hindu pilgrimage sites in the world.

कामाख्या

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...कामाख्या (AS, p.170) गुवाहाटी (असम) के निकट पर्वत पर कामाक्षा देवी का मंदिर है. मूर्ति अष्ट धातु से निर्मित है. यह स्थान सिद्ध-पीठों में है. वर्तमान मंदिर कूचबिहार के राजा विश्वसिंह ने बनवाया था. प्राचीन मंदिर 1564 में बंगाल के कुख्यात विध्वंसक कालापहाड़ ने तोड़ डाला था. पहले इस मंदिर का नाम आनंदाख्य था. अब वह यहाँ से कुछ दूर पर स्थित है.

कामाख्या शक्तिपीठ

कामाख्या शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है।

स्थिति: कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है, जो असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पर्वत पर स्थित है। अनुमानत यह 2000 मीटर ऊँचा है. कामाख्या देवी का मन्दिर पहाड़ी पर है, अनुमानत: एक मील ऊँची इस पहाड़ी को नील पर्वत भी कहते हैं। कामरूप का प्राचीन नाम धर्मराज्य था। वैसे कामरूप भी पुरातन नाम ही है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र-सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम की नयी राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलाचल पर्वतमालाओं पर स्थित माँ भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है।

यह भारत के ईशान कोण (51/65-66) तथा योगिनी तंत्र (पूर्व खण्ड-पटल 11/17-18,21) में इसकी सीमा है- पश्चिम में करतोया से दिक्करवासिनी तक, उत्तर में कंजगिरि, पूर्व में तीर्थश्रेष्ठ दिक्षु नदी, दक्षिण में ब्रह्मपुत्र और लाक्षानदी के संगम स्थल तक, त्रिकोणाकार कामरूप की सीमा-लंबाई 100 योजना, विस्तार 30 योजन है। नीलाचल पर्वत के दक्षिण में वर्तमान पाण्डु गौहाटी मार्ग पर जो पहाड़ियाँ हैं, उन्हें नरकासुर पर्वत कहते है। नरकासुर कामरूप के प्राग्जोतिषपुर का राजा था, जिसने त्रेता से द्वापर तक राज्य किया तथा वह कामाख्या का प्रमुख भक्त था।

इतिहास: कामरूप पर अनेक हिंदू राजाओं ने राज्य किया। युग परिवर्तन के कुछ काल तक यह महामुद्रापीठ लुप्त-सा रहा . ईसा की 7वीं से 12वीं शताब्दी पर्यंत कामरूप के राजाओं के ताम्र लेखों में कामाख्या का कोई उल्लेख नहीं है किंतु वरमाल और इंद्रपाल के शासन में कामेश्वर महागौरी का उल्लेख है। ये शायद उन राजाओं के इष्टदेव-शिव शाक्ति-थे। (कल्याणः शाक्तिअंक-पृष्ठ 657) बाद में कामाख्या मंदिर का निर्माण तथा जीर्वेद्धार कराने वालों में कामदेव, नरकासुर, विश्वसिंह, नरनारायण, चिल्लाराय, अहोम राजा आदि के नामोल्लेख मिलते हैं। ये सभी कामरूप के राजा थे। कामरूप राज्य का अहोम ही असोम हो गया। कामरूप तथा पर्वत के चतुर्दिक अनेक तीर्थस्थल हैं। कामाख्या मंदिर के 5 मिमी के अंदर जितने भी तीर्थस्थल हैं, वे सभी कामाख्या महापीठ के ही अंगीभूत तीर्थ के नाम से पुराणों में वर्णित हैं। देवी पुराण (2/9) में 51 शाक्तिपीठों के विषय में लिखा है- 'पीठानि चैकपंचादश भवन्मुनिपुंगवः' जिसमें कामरूप को श्रेष्ठ मानकर उसका विशद वर्णन किया गया है।

कामरूप कामाख्या में सती के योनि का निपात हुआ था, इसलिए इसे योनिपीठ कहा जाता है- योनिपीठं कामगिरौ कामाख्या यत्र देवता।... उमानंदोऽथ भैरवः॥।

ईसा की 16वीं शताब्दी के प्रथमांश में कामरूप के राजाओं में युद्ध होते रहे, जिसमे राजा विश्वसिंह विजयी होकर संपूर्ण कामरूप के एकछत्र राजा हुए। संग्राम में बिछुड़ चुके साथियों की खोज में वह नीलाचल पर्वत पहुँचे और थककर एक वटवृक्ष तले बैठ गए। सहसा एक वृद्धा ने कहा कि वह टीला जाग्रत स्थान है। इस पर विश्वसिंह ने मनौती मानी कि यदि उनके बिछुड़े साथी तथा बंधुगण मिल जाएँगे, तो वह यहाँ एक स्वर्णमंदिर बनवाएँगे। उनकी मनौती पूर्ण हुई, तब उन्होंने मंदिर निर्माण प्रारंभ किया। खुदाई के दौरान यहाँ कामदेव के मूल कामाख्या पीठ का निचला भाग बाहर निकल आया। राजा ने उसी के ऊपर मंदिर बनवाया तथा स्वर्ण मंदिर के स्थान पर प्रत्येक ईंट के भीतर एक रत्ती सोना रखा। उनकी मृत्यु के पश्चात् काला पहाड़ ने मंदिर ध्वस्त कर दिया, तब विश्वसिंह के पुत्र नर नारायण (मल्लदेव) ने अपने अनुज शुक्लध्वज (चिल्लाराय) द्वारा शक संवत 1480 (1565 ईस्वी) में वर्तमान मंदिर का पुनर्निमाण कराया। मंदिर में रखे शिलालेख पर ऐसा उल्लेख है- प्रासादमद्रिदुहितुश्च रणारविंद भक्त्याकरोत्त दनुजा वरनील शैले। श्री शुक्लदेव इममुल्ल सितोपलेन शाक तुरंगजवेदशशांकसंख्ये॥

ऐसा प्रतीत होता है कि महापीठ के लुप्त हो जाने पर देवी-देवता छद्मनामों से पूजित होते रहे।

कहा जाता है कि माँ कामाख्या के इस भव्य मंदिर का निर्माण कोच वंश के राजा चिलाराय ने 1565 में करवाया था, लेकिन आक्रमणकारियों द्वारा इस मंदिर को क्षतिग्रस्त करने के बाद 1665 में कूच बिहार के राजा नर नारायण ने दोबारा इसका निर्माण करवाया है।

तन्त्रों में लिखा है कि करतोया नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र नदी तक त्रिकोणाकार कामरूप प्रदेश माना गया है। किन्तु अब वह रूपरेखा नहीं है। इस प्रदेश में सौभारपीठ, श्रीपीठ, रत्नपीठ, विष्णुपीठ, रुद्रपीठ तथा ब्रह्मपीठ आदि कई सिद्धपीठ हैं। इनमें कामाख्या पीठ सबसे प्रधान है। देवी का मन्दिर कूच बिहार के राजा विश्वसिंह और शिवसिंह का बनवाया हुआ है। इसके पहले के मन्दिर को बंगाली आक्रामक काला पहाड़ ने तोड़ डाला था। सन् 1564 ई. तक प्राचीन मन्दिर का नाम 'आनन्दाख्या' था, जो वर्तमान मन्दिर से कुछ दूरी पर है। पास में छोटा-सा सरोवर है।

माहात्म्य वर्णन: देवीभागवत (7 स्कन्ध, अध्याय 38) में कामाख्या देवी के महात्म्य का वर्णन है। इसका दर्शन, भजन, पाठ-पूजा करने से सर्व विघ्नों की शान्ति होती है। पहाड़ी से उतरने पर गुवाहाटी के सामने ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य में उमानन्द नामक छोटे चट्टानी टापू में शिव मन्दिर है। आनन्दमूर्ति को भैरव (कामाख्या रक्षक) कहते हैं। कामाख्या पीठ के सम्बन्ध में कालिकापुराण (अध्याय 61) में निम्नांकित वर्णन पाया जाता है-

शिव ने कहा, प्राणियों की सृष्टि के पश्चात् बहुत समय व्यतीत होने पर मैंने दक्षतनया सती को भार्यारूप में ग्रहण किया, जो स्त्रियों में श्रेष्ठ थी। वह मेरी अत्यन्त प्रेयसी भार्या हुई। अपने पिता द्वारा यज्ञ के अवसर पर मेरा अपमान देखकर उसने प्राण त्याग दिए। मैं मोह से व्याकुल हो उठा और सती के मृत शरीर को कन्धे पर उठाए समस्त चराचर जगत् में भ्रमण करता रहा। इधर-उधर घूमते हुए इस श्रेष्ठ पीठ (तीर्थस्थल) को प्राप्त हुआ। पर्याय से जिन-जिन स्थानों पर सती के अंगों का पतन हुआ, योगनिद्रा (मेरी शक्ति=सती) के प्रभाव से वे पुण्यतम स्थल बन गए। इस कुब्जिकापीठ (कामाख्या) में सती के योनिमण्डल का पतन हुआ। यहाँ महामाया देवी विलीन हुई। मुझ पर्वत रूपी शिव में देवी के विलीन होने से इस पर्वत का नाम नीलवर्ण हुआ। यह महातुंग (ऊँचा) पर्वत पाताल के तल में प्रवेश कर गया।

शक्ति की पूजा: इस तीर्थस्थल के मन्दिर में शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है। यहाँ कोई देवीमूर्ति नहीं है। योनि के आकार का शिलाखण्ड है, जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिराई जाती है और वह रक्तवर्ण के वस्त्र से ढका रहता है। इस पीठ के सम्मुख पशुबलि भी होती है।

पौराणिक मान्यताएँ: यहाँ देवी की योनि का पूजन होता है। इस नील प्रस्तरमय योनि में माता कामाख्या साक्षात् वास करती हैं। जो मनुष्य इस शिला का पूजन, दर्शन स्पर्श करते हैं, वे दैवी कृपा तथा मोक्ष के साथ भगवती का सान्निध्य प्राप्त करते हैं। संस्पृश्यं तां शिलां मर्त्योह्यमरत्वमवाप्तुयात्। अमर्त्यो ब्रह्मसदनं तत्रस्थो मोक्षमाप्नुयात्॥ ( कालिका पुराण)

जब योनि का निपात हुआ, तब यह पर्वत डगमगाने लगा। अतः त्रिदेवों ने इसके एक-एक श्रृंग को धारण किया।

अतः यह पर्वत तीन श्रृंगों में विभक्त है। जहाँ भुवनेश्वरी पीठ है, वह ब्रह्मपर्वत, मध्य भाग जहाँ महामाया पीठ है वह शिवपर्वत तथा पश्चिमी भाग विष्णुपर्वत या वाराह पर्वत है। वाराहपर्वत पर वाराही कुण्ड दिखाई देता है। आषाढ़ माह में मृगाशिरा नक्षत्र के चौथे चरण आर्द्रा नक्षत्र के पहले चरण के मध्य देवी का दर्शन तीन दिनों तक बंद रहता है और माना जाता है कि माँ कामाख्या ऋतुमती हैं। चौथे दिन ब्राह्म मुहूर्त में देवी का श्रृंगार, स्नानोपरांत दर्शन पुनः प्रारंभ होता है। प्राचीन काल में चारों दिशाओं में चार मार्ग थे- व्याघ्र द्वार, हनुमंत द्वार, स्वर्गद्वार, सिंहद्वार। शनैः शनैः उत्तरी तथा पश्चिमी मार्ग लुप्त हो गए। अब चारों ओर पहाड़ी सीढ़ियाँ बनी हैं, जो काफ़ी दुर्गम हैं।[2] कुछ ही भक्त इन सीढ़ियों से जाकर देवी पीठ के दर्शन करते हैं। अधिसंख्य यात्री नीचे से टैक्सियों द्वारा जाते हैं। नीचे मुख्य मार्ग से पहाड़ी मार्ग कामाख्या पीठ बना है, जिसे नरकासुर पथ कहते हैं।

कामाख्या मंदिर के समीप ही उत्तर की ओर देवी की क्रीड़ा पुष्करिणी (तालाब) है, जिसे सौभाग्य कुण्ड कहते हैं। मान्यता है कि इसकी परिक्रमा से पुण्य मिलता है। यात्री इस कुण्ड में स्नान के बाद श्री गणेशजी का दर्शन करने मंदिर में प्रवेश करते हैं। मंदिर के सामने 12 स्तंभों के मध्य-स्थल में देवी की चलंता मूर्ति (चलमूर्ति-उत्सव मूर्ति) दिखती है। इसी का दूसरा नाम हरिगौरी मूर्ति या भोग मूर्ति है। इसके उत्तर में वृषवाहन, पंच-वक्त्र, दशभुज कामेश्वर महादेव हैं। दक्षिण में 12 भुजी सिंहवाहिनी तथा 18 लोचना कमलासना देवी कामेश्वरी विराजती हैं। यात्री पहले कामेश्वरी देवी कामेश्वर शिव का दर्शन करते हैं, तब महामुद्रा का दर्शन करते हैं। देवी का योनिमुद्रा पीठ दस सीढ़ी के नीचे एक अंधकारपूर्ण गुफा में स्थित है, जहाँ हमेशा दीपक का प्रकाश रहता है। उसे कामदेव भी कहते हैं। यहाँ आने-जाने का मार्ग अलग-अलग बना हुआ है।

कालिका पुराण तथा देवीपुराण में 'कामाख्या शाक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा गया है। अंग प्रत्यंग पातेन छाया सत्या महीतले। तेषु श्रेष्ठतमः पीठः कामरूपो महामते॥ (देवी पुराण- 12/30)

ब्रह्मपुत्र नदी के पावन तट पर गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर कामाख्या का पावन पीठ विराजमान है। यहाँ की शाक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानंद हैं। योनिपीठ कामगिरौ कामाख्या यत्र देवता। उमानन्दोsथ भैरवः॥

कालिका पुराण के अनुसार पर्वत पर देवी का योनिमण्डल गिरा, जिससे समस्त पर्वत नीलवर्ण वाला हो गया। इस तरह यह पर्वत नीलाचल पर्वत कहा जाने लगा।

कालिका पुराणानुसार कामदेव जिस स्थान पर शिव के त्रिनेत्र से भस्म हुए और अपने पूर्वरूप की प्राप्ति का वरदान पाया,वह स्थान कामरूप ही है- शम्भुनेत्राग्निनिदग्धः कामःशम्भोरनुग्रहात्। तत्र रूपं यतःप्राप कामरूपं त तो भवेत्॥ (कालिका पुराण-51/67)

यहाँ कामनारूप फल की प्राप्ति होती है। कलिकाल में यह स्थान अत्यंत जाग्रत माना गया है। इसी से इसे कामरूप कहा जाता है- कामरूपं महापीठ सर्वकाम फलप्रदम्। कलौ शीघ्र फलं देवो कामरूपे जयः स्मृतः॥ (कुब्जिका तंत्र-पटल 7)

कामरूप के समान अन्य स्थल दुर्लभ हौ, क्योंकि यहाँ घर-घर में देवी का वास है- कामरूपं देवि क्षेत्रं कुत्रापि तत् समं न च। अन्यत्र विरला देवी कामरूपे गृहे गृहे॥ (योगिनी तंत्र, उत्तरखण्ड-6/150)

ब्रह्मवैवर्त पुराणानुसार कामदेव ने यहाँ देवी मंदिर के निर्माण हेतु विश्वकर्मा को बुलाया, जिसने छद्म वेश में यहाँ मंदिर का निर्माण किया। मंदिर की दीवारों पर 64 योगिनियों एवं 18 भैरवों की मूर्तियाँ खुदवा कर कामदेव ने इसे आनंदाख्य मंदिर कहा है।

कामाख्या के उत्सव: यहाँ भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है। लोग माता के इस पिंडी को स्पर्श करते हैं, वे अमरत्व को प्राप्त करके ब्रह्मलोक में निवास कर मोक्ष-लाभ करते हैं। यहाँ भैरव उमानंद के रूप में प्रतिष्ठित हैं। तांत्रिकों की साधना के लिए विख्यात कामाख्या देवी के मंदिर में मनाया जाने वाला पर्व अम्बूवाची को कामरूप का कुम्भ माना जाता है। इस पर्व में माँ भगवती के रजस्वला होने के पहले गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर श्वेत वस्त्र चढ़ाए जाते हैं, जो बाद में रक्तवर्ण हो जाते हैं। कामरूप देवी का यह रक्त-वस्त्र भक्तों में प्रसाद-स्वरूप बांट दिया जाता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार के मृगशिरा नक्षत्र के चौथे चरण तथा आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण के बीच पृथ्वी ऋतुमती होती है। इसी अवधि में कामाख्या में दर्शन बंद रहता है। इस अवधि (काल खण्ड) को 'अम्बुवाची' कहते हैं। इस उत्सव-व्रत की अपार महिमा है। यह तंत्रोक्त व्रत है, जिसकी मान्यता असोम तथा बंगाल में अधिक है। यही काल भगवती के ऋतुमती होने का माना गया है, जिसमें देवी के रक्त-सिक्त वस्त्र को धारण करके उपासना करने से भक्त की समस्त मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होती हैं। कामाख्या वस्त्र मादाय जयपूजां समाचरेत्। पूर्ण कामं लभेद्देवी सत्यं सत्यं न संशयः॥ (कुब्जिका तंत्र, सप्तम पटल)

इस अम्बुवाची व्रत में मात्र फलाहार किया जाता है। अग्नि पर पकाई गई वस्तु का खाना वर्जित होता है। एक अन्य उत्सव है- देव ध्वनि, जिसमें ढोलक, नगाड़ा, झण्डा आदि वाद्य की उच्च ध्वनि की जाती है, साथ ही नत्य भी होता है। इसे 'देउधा' कहते हैं। देउथा का अर्थ है- देवता की कृपा का पात्र। पौष मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया, तृतीया को पुष्य नक्षत्र में पुष्याभिषेक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कामेश्वर की चलंता मूर्ति को कामेश्वर मंदिर में अधिवासन किया जाता है। कामाख्या मंदिर में चलता कामेश्वर मूर्ति का अधिवास होता है। दूसरे दिन कामेश्वर मंदिर से कामेश्वर की मूर्ति ढाक, ढोल, वाद्ययंत्रों की ध्वनि के साथ लाई जाती है एवं भगवती के पंचरत्न मंदिर में दोनों मूर्तियों का शुभ परिणय- समारोह, पूजा, यज्ञादि तथा हर-गौरी विवाह महोत्सव का पालन होता है।

यातायात साधन: कामाख्या देवी मंदिर के अलावा महाविद्याओं के सात मंदिरों में से भुवनेश्वरी मंदिर नीलाचल पर्वत के सर्वोच्च श्रृंग पर होने से विशिष्ट महत्त्व वाला माना जाता है। आजकल इस शाक्तिपीठ की पूजा-उपासना पर्वतीय गोसाई करते हैं। महापीठ की प्रचलित पूजा-व्यवस्था अहोम राजाओं की देन है। कामाख्या पीठ के लिए पूर्वोत्तर रेलवे की असोम-लिंक रेल लाइन (छोटी लाइन) से अमीन गाँव जाना होता है। वहाँ से ब्रह्मपुत्र नदी को स्टीमर से पार करके आगे की 5 किलोमीटर यात्रा बस/ टैक्सी/ कार/ आटो द्वारा (जो साधन भी उपलब्ध हो) कामाक्षी देवी पहुँचते हैं। अब ब्रह्मपुत्र नदी पर पुल बन जाने से आवागमन के समस्त साधन उपलब्ध हो जाते हैं। इस स्थान तक पहुँचने का एक अन्य विकल्प है- पाण्डु से रेल द्वारा गुवाहाटी आकर कामाक्षी देवी जाया जा सकता है। गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलो मीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुँचने के लिए आटोरिक्शा आदि भी उपलब्ध हो जाते हैं। गुवाहाटी रेल, सड़क तथा वायुमार्ग से पहुँचा जा सकता है।

संदर्भ: भारतकोश-कामाख्या शक्तिपीठ

External links

References

  1. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.170
  2. Reserve Bank of India- Without Reserve- (2002/No.4) P.35.