Jhansi: Difference between revisions

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'''Jhansi (झांसी)''' is a historic city in [[Uttar Pradesh]],[[India]]. Jhansi is the administrative headquarters of Jhansi district and Jhansi division.
== Variants ==
*[[Balwantnagar]]
*Jhansi (झांसी) (उ.प्र.) ([[AS]], p.377)
== Location ==
It lies in the region of [[Bundelkhand]] on the banks of the [[Pahuj River]], in the extreme south of [[Uttar Pradesh]].  Called the Gateway to Bundelkhand, Jhansi is situated between the rivers Pahuj and Betwa at an average elevation of 285 metres. It is about 415 kms from New Delhi and 99 kms  south of Gwalior.
Jhansi is well connected to all other major towns in Uttar Pradesh by road and railway networks. [[Srinagar]] to [[Kanyakumari]] North-South corridor passes through Jhansi as does the East-West corridor.
== History ==
The original walled city grew around its stone fort which crowns a neighbouring rock. The ancient name of the city was [[Balwantnagar]].
In the 18th century, the town of Jhansi served as the capital of a Maratha province and later the Princely State of Jhansi from 1804 till 1853, when the territory became a part of British India.
From 1817 to 1854, Jhansi was the capital of the princely state of Jhansi which was ruled by Gurjar rajas. The state was annexed by the British Governor General in 1854; Damodar Rao's claim to the throne was rejected but Rani Lakshmibai ruled it from June 1857 to June 1858.
== झांसी ==
[[Vijayendra Kumar Mathur|विजयेन्द्र कुमार माथुर]]<ref>[[Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur]], p.377</ref> ने लेख किया है ... '''[[Jhansi|झांसी]]''' (उ.प्र.) ([[AS]], p.377): झांसी मध्यकालीन नगर है. यहां का दुर्ग [[Orchha|ओरछा]] नरेश वीरसिंहदेव [[Bundela|बुंदेला]] का बनवाया हुआ है. इसको 1744 ई. में मराठा सरदार नारूशंकर ने परिवर्तित किया था और इसकी प्राचीर शिवराव भाऊ ने बनवाई थी (1796-1814 ई.). ओरछा के राजा छत्रसाल ने जैतपुर के युद्ध के पश्चात झांसी का इलाका बाजीराव पेशवा को दे दिया था. इस प्रकार झांसी व परिवर्ती प्रदेश [[Maratha|मराठों]] के हाथ में आया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधरराव के पूर्वजों यहां स्वतंत्र रियासत स्थापित की. 1857 ई. से पहले डलहौजी ने झांसी की रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को स्वीकृति प्रदान करने से इंकार कर दिया जिसके कारण रानी झांसी से अंग्रेजों का विरोध ठन गया और लक्ष्मीबाई की वीरता एवं शौर्य और स्वतंत्रता के लिए बलिदान होने की कहानी भारतीय इतिहास के पन्नों में अमिट अक्षरों में लिखी गई.
'''झांसी का किला''' नगर के निकट ही स्थित है. इसमें लक्ष्मीबाई का निवास स्थान था. इसके भीतर रानी का निजी महादेव मंदिर तथा उसका रमणीक उद्यान स्थित है. यह स्थान भी किले के परकोटे पर है जहां से अंग्रेजी सेना के किला घेर लेने पर हताश होकर रानी अपने प्रिय घोड़े पर सवार होकर नीचे कूद गई थी और फिर बिना रुके रातों-रात कालपी जा पहुंची थी. किले पर जगह-जगह वे झरोखे भी दिखाई देते हैं जहां से रानी की सेना ने,  जिसमें उसकी स्त्रीसेना भी थी, बाहर स्थित अंग्रेजी सेनाओं पर गोलाबारी की थी. लक्ष्मी बाई का एक अन्य प्रासाद नगर में था जो अब कोतवाली का भवन कहलाता है. इसमें वह  झांसी के छोड़ने के पूर्व रहती थी. उसके पति गंगाधर राव की समाधि नगर में है. इसके अतिरिक्त रामचंद्र राव की समाधि, मेहंदी बाग, लक्ष्मी मंदिर आदि ऐतिहासिक महत्व के स्थल हैं. लक्ष्मी मंदिर के निकट अनेक मध्यकालीन मूर्तियां हैं जिनमें विष्णु, इंद्र और देवी की प्रतिमाएं कलापूर्ण हैं.
== झांसी परिचय ==
झाँसी एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर है। 'भारतीय इतिहास' में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत की वीरांगनाओं में से एक झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के लिए भी यह शहर जाना जाता है। झाँसी उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और [[Bundelkhand|बुंदेलखंड]] क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह एक प्रमुख रेल एवं सड़क केन्द्र है और साथ ही झाँसी ज़िले का प्रशासनिक केन्द्र भी है। झाँसी शहर पत्थर निर्मित क़िले के चारों तरफ़ फ़ैला हुआ है। यह क़िला शहर के मध्य स्थित बँगरा नामक पहाड़ी पर निर्मित है।
9वीं शताब्दी में झॉसी का राज्य [[Khajuraho|खजुराहो]] के राजपूत [[Chandel|चन्देल वंश]] के राजाओं के अन्तर्गत आया। कृत्रिम जलाशय एवं पहाड़ी क्षेत्र के वास्तुशिल्पिय खण्डहर शायद इसी काल के हैं। चन्देल वंश के बाद उनके सेवक [[Khangar|खंगार]] ने इस क्षेत्र का कार्यभार सम्भाला। क़िले के समीप स्थित [[Karar|करार]] का क़िला इसी वंश के राजाओं ने बनवाया था। 14वीं शताब्दी के निकट [[Bundela|बुन्देलों]] ने विन्ध्याचंल क्षेत्र से नीचे मैदानी भागों में आना प्रारम्भ किया। वे धीरे-धीरे सारे मैदानी क्षेत्र में फैल गए, जिसे आज बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है।
झाँसी के क़िले का निर्माण 1613 ई. में ओरछा शासक वीरसिंह बुन्देला ने करवाया था। किवदंती है कि राजा वीरसिंह बुन्देला ने दूर से पहाड़ी पर एक छाया देखी, जिसे बुन्देली भाषा में 'झाँई सी' बोला गया। इसी शब्द के अपभ्रंश से शहर का नाम झाँसी पड़ा।
17वीं शताब्दी में मुग़लकालीन शासकों के बुन्देला क्षेत्र में लगातार आक्रमण के कारण बुन्देला राजा छत्रसाल ने सन 1732 ई. में मराठों से सहायता माँगी। 1734 ई. में छत्रसाल के निधन के बाद बुन्देला क्षेत्र का एक तिहाई भाग मराठों को दे दिया गया। मराठों ने इस शहर का विकास किया और इसके लिए ओरछा से लोगों को लाकर यहाँ बसाया। सन 1806 ई. में मराठा शक्ति के निर्बल होने पर ब्रिटिश राज तथा मराठों के मध्य एक समझौता हुआ, जिससे मराठों ने ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। 1817 ई. में मराठों ने बुन्देलखण्ड क्षेत्र के सारे अधिकार ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिए।
'''ब्रिटिश साम्राज्य में विलेय''': सन 1857 ई. में झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल ने झाँसी को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले लिया। गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने इसका विरोध किया और कहा कि "राजा गंगाधर राव के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी माना जाये।" परन्तु ब्रिटिश राज ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इन्हीं परिस्थितियों के चलते झाँसी में सन 1857 ई. का संग्राम हुआ, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिये नींव का पत्थर सिद्ध हुआ। जून 1857 ई. में 12वीं पैदल सेना के सैनिकों ने झाँसी पर कब्जा कर लिया और क़िले में मौजूद ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला। ब्रिटिश साम्राज्य से जंग के दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं सैन्य संचालन किया। किन्तु रानी की मृत्यु के बाद 1858 ई. में झाँसी को पुन: ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। बाद में झाँसी के अधिकार ग्वालियर के राजा को दे दिये गए। सन 1886 ई. में झाँसी को यूनाइटेड प्रोविंस में जोड़ा गया, जो देश की आज़ादी के बाद 1956 में उत्तर प्रदेश बना।
संदर्भ: [http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9D%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%B8%E0%A5%80 भारतकोश-झाँसी]
== Jat clan ==
'''Jhansi (झांसी)''' is a gotra of Jats.<ref>[[डॉ पेमाराम]]:राजस्थान के जाटों का इतिहास, 2010, पृ.301</ref>  
'''Jhansi (झांसी)''' is a gotra of Jats.<ref>[[डॉ पेमाराम]]:राजस्थान के जाटों का इतिहास, 2010, पृ.301</ref>  
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Latest revision as of 16:15, 15 March 2020

Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Jhansi district map

Jhansi (झांसी) is a historic city in Uttar Pradesh,India. Jhansi is the administrative headquarters of Jhansi district and Jhansi division.

Variants

Location

It lies in the region of Bundelkhand on the banks of the Pahuj River, in the extreme south of Uttar Pradesh. Called the Gateway to Bundelkhand, Jhansi is situated between the rivers Pahuj and Betwa at an average elevation of 285 metres. It is about 415 kms from New Delhi and 99 kms south of Gwalior. Jhansi is well connected to all other major towns in Uttar Pradesh by road and railway networks. Srinagar to Kanyakumari North-South corridor passes through Jhansi as does the East-West corridor.

History

The original walled city grew around its stone fort which crowns a neighbouring rock. The ancient name of the city was Balwantnagar.

In the 18th century, the town of Jhansi served as the capital of a Maratha province and later the Princely State of Jhansi from 1804 till 1853, when the territory became a part of British India.

From 1817 to 1854, Jhansi was the capital of the princely state of Jhansi which was ruled by Gurjar rajas. The state was annexed by the British Governor General in 1854; Damodar Rao's claim to the throne was rejected but Rani Lakshmibai ruled it from June 1857 to June 1858.

झांसी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ... झांसी (उ.प्र.) (AS, p.377): झांसी मध्यकालीन नगर है. यहां का दुर्ग ओरछा नरेश वीरसिंहदेव बुंदेला का बनवाया हुआ है. इसको 1744 ई. में मराठा सरदार नारूशंकर ने परिवर्तित किया था और इसकी प्राचीर शिवराव भाऊ ने बनवाई थी (1796-1814 ई.). ओरछा के राजा छत्रसाल ने जैतपुर के युद्ध के पश्चात झांसी का इलाका बाजीराव पेशवा को दे दिया था. इस प्रकार झांसी व परिवर्ती प्रदेश मराठों के हाथ में आया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधरराव के पूर्वजों यहां स्वतंत्र रियासत स्थापित की. 1857 ई. से पहले डलहौजी ने झांसी की रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को स्वीकृति प्रदान करने से इंकार कर दिया जिसके कारण रानी झांसी से अंग्रेजों का विरोध ठन गया और लक्ष्मीबाई की वीरता एवं शौर्य और स्वतंत्रता के लिए बलिदान होने की कहानी भारतीय इतिहास के पन्नों में अमिट अक्षरों में लिखी गई.

झांसी का किला नगर के निकट ही स्थित है. इसमें लक्ष्मीबाई का निवास स्थान था. इसके भीतर रानी का निजी महादेव मंदिर तथा उसका रमणीक उद्यान स्थित है. यह स्थान भी किले के परकोटे पर है जहां से अंग्रेजी सेना के किला घेर लेने पर हताश होकर रानी अपने प्रिय घोड़े पर सवार होकर नीचे कूद गई थी और फिर बिना रुके रातों-रात कालपी जा पहुंची थी. किले पर जगह-जगह वे झरोखे भी दिखाई देते हैं जहां से रानी की सेना ने, जिसमें उसकी स्त्रीसेना भी थी, बाहर स्थित अंग्रेजी सेनाओं पर गोलाबारी की थी. लक्ष्मी बाई का एक अन्य प्रासाद नगर में था जो अब कोतवाली का भवन कहलाता है. इसमें वह झांसी के छोड़ने के पूर्व रहती थी. उसके पति गंगाधर राव की समाधि नगर में है. इसके अतिरिक्त रामचंद्र राव की समाधि, मेहंदी बाग, लक्ष्मी मंदिर आदि ऐतिहासिक महत्व के स्थल हैं. लक्ष्मी मंदिर के निकट अनेक मध्यकालीन मूर्तियां हैं जिनमें विष्णु, इंद्र और देवी की प्रतिमाएं कलापूर्ण हैं.

झांसी परिचय

झाँसी एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर है। 'भारतीय इतिहास' में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत की वीरांगनाओं में से एक झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के लिए भी यह शहर जाना जाता है। झाँसी उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और बुंदेलखंड क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह एक प्रमुख रेल एवं सड़क केन्द्र है और साथ ही झाँसी ज़िले का प्रशासनिक केन्द्र भी है। झाँसी शहर पत्थर निर्मित क़िले के चारों तरफ़ फ़ैला हुआ है। यह क़िला शहर के मध्य स्थित बँगरा नामक पहाड़ी पर निर्मित है।

9वीं शताब्दी में झॉसी का राज्य खजुराहो के राजपूत चन्देल वंश के राजाओं के अन्तर्गत आया। कृत्रिम जलाशय एवं पहाड़ी क्षेत्र के वास्तुशिल्पिय खण्डहर शायद इसी काल के हैं। चन्देल वंश के बाद उनके सेवक खंगार ने इस क्षेत्र का कार्यभार सम्भाला। क़िले के समीप स्थित करार का क़िला इसी वंश के राजाओं ने बनवाया था। 14वीं शताब्दी के निकट बुन्देलों ने विन्ध्याचंल क्षेत्र से नीचे मैदानी भागों में आना प्रारम्भ किया। वे धीरे-धीरे सारे मैदानी क्षेत्र में फैल गए, जिसे आज बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है।

झाँसी के क़िले का निर्माण 1613 ई. में ओरछा शासक वीरसिंह बुन्देला ने करवाया था। किवदंती है कि राजा वीरसिंह बुन्देला ने दूर से पहाड़ी पर एक छाया देखी, जिसे बुन्देली भाषा में 'झाँई सी' बोला गया। इसी शब्द के अपभ्रंश से शहर का नाम झाँसी पड़ा।

17वीं शताब्दी में मुग़लकालीन शासकों के बुन्देला क्षेत्र में लगातार आक्रमण के कारण बुन्देला राजा छत्रसाल ने सन 1732 ई. में मराठों से सहायता माँगी। 1734 ई. में छत्रसाल के निधन के बाद बुन्देला क्षेत्र का एक तिहाई भाग मराठों को दे दिया गया। मराठों ने इस शहर का विकास किया और इसके लिए ओरछा से लोगों को लाकर यहाँ बसाया। सन 1806 ई. में मराठा शक्ति के निर्बल होने पर ब्रिटिश राज तथा मराठों के मध्य एक समझौता हुआ, जिससे मराठों ने ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। 1817 ई. में मराठों ने बुन्देलखण्ड क्षेत्र के सारे अधिकार ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिए।

ब्रिटिश साम्राज्य में विलेय: सन 1857 ई. में झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल ने झाँसी को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले लिया। गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने इसका विरोध किया और कहा कि "राजा गंगाधर राव के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी माना जाये।" परन्तु ब्रिटिश राज ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इन्हीं परिस्थितियों के चलते झाँसी में सन 1857 ई. का संग्राम हुआ, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिये नींव का पत्थर सिद्ध हुआ। जून 1857 ई. में 12वीं पैदल सेना के सैनिकों ने झाँसी पर कब्जा कर लिया और क़िले में मौजूद ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला। ब्रिटिश साम्राज्य से जंग के दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं सैन्य संचालन किया। किन्तु रानी की मृत्यु के बाद 1858 ई. में झाँसी को पुन: ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। बाद में झाँसी के अधिकार ग्वालियर के राजा को दे दिये गए। सन 1886 ई. में झाँसी को यूनाइटेड प्रोविंस में जोड़ा गया, जो देश की आज़ादी के बाद 1956 में उत्तर प्रदेश बना।

संदर्भ: भारतकोश-झाँसी

Jat clan

Jhansi (झांसी) is a gotra of Jats.[2]

Notable persons

Distribution

External links

References

  1. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.377
  2. डॉ पेमाराम:राजस्थान के जाटों का इतिहास, 2010, पृ.301