Aak
- प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
- द्वितीय संस्करण (जून १९७८ ई०)
- मुद्रक - जैय्यद प्रैस, बल्लीमारान, दिल्ली-६.
सुमित्रिया नः आप औषधयः सन्तु
हे प्रभु ! आपकी कृपा से प्राण, जल, विद्या और औषधि हमारे लिये सदा सुखदायक हों
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
नम्र निवेदन
सामान्य मनुष्य चाहे जंगल, ग्राम, कस्बे, बड़े नगर किसी भी स्थान में निवास करते हों, प्रायः सभी का एक ही स्वभाव है कि छोटे मोटे रोगों पर वैद्य, हकीम वा डाक्टर के घर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, जंगल, आस पड़ौस में सुगमता से जो भी घरेलू उपयोगी औषध मिल जाए, उसी का झट सेवन करते हैं । किन्तु प्रतिदिन दृष्टि में आने वाले जाने पहचाने पौधे वृक्ष आक, ढाक, नीम, पीपल बड़ आदि का यथार्थ ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इन के द्वारा भलीभांति वे नहीं कर सकते । जो आक, नीम आदि सभी लोगों को आगे पीछे घर और बाहर सर्वत्र और हर समय दिखाई देते हैं, जो पदार्थ अत्यन्त सुलभ हैं उनके द्वारा अनेक रोगों की स्वयं चिकित्सा भी कर सकें, इसी कल्याण की भावना से भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प अर्क वा आक (वैज्ञानिक नाम: Callotropis procera) आपको भेंट किया जा रहा है ।
इसमें सामान्य रूप से रोगों के निदान वा पहचान, चिकित्सा, उपचार, पथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है । आशा है प्रेमी पाठक इस से लाभ उठायेंगे ।
- - ओमानन्द सरस्वती
विभिन्न नाम
- Aak आक (हिंदी)
- Arka अर्क
- Ākaḍo/Akado आकड़ो (राजस्थानी)
- वैज्ञानिक नाम: Callotropis procera
पूर्वपीठिका
भगवान् की सृष्टि में असंख्य जड़ी-बूटियां हैं जो परम् दयालु प्रभु ने प्राणिमात्र के कल्याणार्थ उत्पन्न की हैं । जिनको उत्पन्न करने से पूर्व अपनी परम पवित्र वेदवाणी द्वारा उनके पवित्र ज्ञान का प्रकाश भी ऋषियों के हृदय में किया । इसीलिए वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है और वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना मानवमात्र का परम धर्म है । क्योंकि जब वेद सब सत्य विद्याओं का भंडार है तो इसी के पढ़ने तथा उसके अनुसार आचरण करने से हम सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकते हैं । किन्तु अलपज्ञ होने से मानव त्रुटि करता है, भूलें करता है, फलस्वरूप दुःख भोगता है, रोगी होता है किन्तु इसके चारों ओर रोग की औषध विद्यमान होते हुए भी अपनी अल्पज्ञता के कारण यह रोगी और दुःखी रहता है । "'पानी में मीन प्यासी, मुझे देखत आवे हांसी'" इस लोकोक्ति के अनुरूप मानव की दुर्गति हो रही है । इस दुर्दशा से बचाने के लिए यह अर्क वा आक नाम की छोटी सी पुस्तिका लिख रहा हूं । अर्क भारत का एक प्रसिद्ध पौधा है जो आयुर्वेद के शास्त्रों में जानी मानी हुई औषध है, जिसे छोटे-छोटे वैद्य तथा ग्रामीण अनपढ लोग भी जानते हैं तथा औषधरूप में प्रयोग भी करते हैं । किन्तु वेद में इस अर्क के एक विशेष गुण की ओर संकेत किया जिसका ज्ञान शायद हजारों अच्छे वैद्यों में से भी किसी वैद्य को होगा और उसका प्रयोग तो किसी वैद्य ने अपने जीवन में भूलकर भी नहीं किया है । मेरा ध्यान इस ओर क्यों गया, इसका एक मुख्य कारण है ।
एक बार हरयाणे के प्रसिद्ध आर्य दानी पुरुष चौ० प्रियव्रत जी खेड़ी आसरा निवासी ने मुझे चुनौती दी कि आप इस बात को प्रत्यक्ष करके दिखाओ कि “वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है” । मैंने उनको प्रत्यक्ष करके दिखाया, वे मान गये । तभी से मेरा ध्यान इस ओर अधिक गया और इतिहास के शोध-कार्य के साथ वेद और आयुर्वेद पर भी शोध-कार्य कर रहा हूँ । कई वर्ष से मेरे श्रद्धालु श्रोताओं ने मुझे अर्क वा आक पर लिखने के लिए बहुत बल दिया । बहुत कार्यों में फंसा होने के कारण लिखते-लिखते कई वर्ष निकल गये किन्तु आर्यसमाज स्थापना शताब्दी के होने वाले दिल्ली के महोत्सव २४ से २८ दिसंबर १९७५ पर भागते-दौड़ते कुछ लिख ही डाला जो पाठकों के हाथ में है । यह लेख लिखने के लिए मुझे दो-तीन घटनाओं से और अधिक बल मिला ।
बहुत वर्ष हुए रोहतक जिले में एक ग्राम सिवाना है जो दूबलधन माजरा के पास तहसील झज्जर में है । मैं वहां किसी कार्यवश गया । उस क्षेत्र में मुझे बहुत से लोग जानते हैं कि मैं चिकित्सा द्वारा जनता की कुछ सेवा करता हूँ । वहाँ पर एक माता अपनी पुत्री को मेरे पास लेकर आई जो सर्वथा अन्धी थी, दोनों आंखों में चेचक के बड़े-बड़े फोले थे । कितने ही वर्षों से उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता था, इसी कारण उस कन्या की माता बहुत दुःखी थी, बह बहुत करुणा-जनक शब्दों में इस प्रकार कहने लगी कि - मेरी पुत्री अंधी है, इससे विवाह कौन करेगा और मैं जवान अंधी बेटी को घर कैसे और कब तक रखूंगी ? मुझे माता के दुःख और विवशता पर बड़ी दया आ रही थी किन्तु मैं भी कुछ समझ नहीं पा रहा था, क्या करूं । मैंने कहा - माता जी, चेचक के फोले हैं, इनकी चिकित्सा डाक्टर, वैद्य किसी के पास भी नहीं, मैं तो चाहता हूं ईश्वर इसे आंखों वाली कर दे । उस माता ने फिर दुःख से रोकर कहा - भाई, मैंने सुना है आप अच्छी दवा जानते हैं, यह बेचारी कन्या है, इस पर दया करो । मुझे उस समय एक योग याद आ गया जो कभी पढ़ा था किन्तु उसका प्रयोग नहीं किया था । मैंने वह माता जी को बता कर विदा ली । वह तो बेचारी दुखिया थी, उसने श्रद्धापूर्वक बनाया और उसका प्रयोग किया । जब मैं अगले वर्ष उस ग्राम में गया तो वह माता अपने पुत्री के साथ मुझे मिली । मैं प्रसन्नता से आश्चर्य में पड़ गया । क्या देखा, दोनों आंखों के फोले कट गए और अन्धी कन्या सर्वथा आंखों वाली सुलाखी हो गई । वह माता बहुत प्रसन्न और कृतज्ञ थी ।
द्वितीय घटना
एक बार रोहतक में हरयाणे के सभी वैद्यों का सम्मेलन था । मुझे भी बुलाया था, उन सब ने मुझे अपनी सभा का अध्यक्ष बना दिया और सम्मेलन की समाप्ति पर सब ने मुझे अपने अनुभूत योग बताने का आग्रह किया । मैंने उस दिन अपने अर्क (आक) पर ही कुछ अनुभूत योग बताये । कुछ वैद्यों ने वे योग लिख भी लिए । उन वैद्यों में से एक वैद्य मुझे एक दिन गांव में मिल गया और उस ने मिलते ही पहली बात यही कही कि आप का आक का अनुभूत योग बहुत ही अच्छा है और अन्धों को दृष्टि प्रदान करने वाला है । कितने ही अंधों और काणों की आंखें उस योग से सर्वथा ठीक कर दी, योग क्या जादू है !
इन घटनाओं के पश्चात् मैंने स्वयं भी आक के योगों का खूब प्रयोग किया तथा अपने व्याख्यानों में भी इस की खूब चर्चा की, आक को दिव्य औषध के रूप में देखा । जितना आजमाया, उतना ही इस सत्य को पाया । इस सत्य को वेद में खोजने का मैंने यत्न किया, क्योंकि आयुर्वेद तो वेद का एक उपवेद ही है । मेरा ध्यान ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों पर गया जिन में अर्क की दिव्यता की चर्चा है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल से लेकर दशवें मण्डल तक १३ मंत्रों में १३ बार अर्क शब्द का प्रयोग हुआ है जिन में अर्क की दिव्यता और महत्ता पर प्रकाश पड़ता है - सूर्य, अग्नि, रश्मि, किरण इत्यादि । अर्क, आक, पादप और इस प्रसिद्ध औषध का भी नाम है जिसकी चर्चा इस पुस्तक में मैं कर रहा हूँ । वेद के मंत्रों के आधार पर अर्क (आक) की चर्चा विस्तार से तो फिर कभी करूंगा । इस समय कुछ थोड़ा सा लिखना पाठकों के हित के लिए आवश्यक है । ऋग्वेद के मण्डल १० अ० ५ और सूक्त ६८ का छठा मन्त्र है -
- यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् बृहस्पतिरग्दिस्तपोभिरर्कै:।
बृहस्पति जो सब से बड़ा विद्बान है, वेद, उपवेद (आयुर्वेद) आदि का महान् आचार्य है, वह अग्नितत्वप्रधान दिव्य औषध अर्क के द्वारा अपने शिष्यों रोगियों का वल आवरण चक्षु रोग, फोला, जाला, मोतियाबिन्द आदि को नष्ट करता है और अर्क के दिव्य गुणों के द्वारा ज्योति (प्रकाश) अर्थात् नेत्र दृष्टि प्रदान करता है । यह वह सत्य है जिसके कारण जितने संस्कृत भाषा में सूर्य के नाम हैं, वे सभी नाम इस अर्क के पौधे के हैं, जो सूर्य में प्रकाश ज्योति गर्मी आदि गुण हैं, वे इस अर्क के पौधे में हैं । सूर्य के निकलते ही अन्धकार, सर्दी, ठंडक, शीत भाग जाता है उसी प्रकार आक भी अन्धेपन आदि चक्षु रोगों को दूर भगाता है । काणों को आंख वाला और अन्धों को सुलाखा बनाता है वायु कफ के सब रोगों को नष्ट करने में अकेला ही समर्थ और शक्तिशाली है । सूर्य जिस प्रकार संसार की सारी मलनिता गन्दगी को नष्ट करता है उसी प्रकार आक पामा, दाद चर्मदल (चम्बल) तथा भयंकर गन्दे कुष्ट आदि रोगों को नष्ट करने वाला है । सर्व प्रकार के कृमिरोगों, पीड़ाओं, वायु कफ रोगों तथा आंखों के रोगों का आक परम शत्रु है, इन को दूर भगाता है । गर्मी के कारण जब ग्रीष्म ऋतु में सब कुछ सूख जाता है, तब मरुभूमि बागड़ में भयंकर रेगिस्तान जहां जल के दर्शन भी नहीं होते, वहां यह आक ही फलता फूलता जवानी की मस्ती में झूमता रहता हुवा दिखाई देता है क्योंकि यह भी सूर्य नामधारी है । इसमें आग्नेय तत्त्व का बाहुल्यु है जो कि अपने नाम राशि वाले मित्र सूर्य के निकत जाता उतना ही यह प्रसन्न होकर फलता फूलता है और वासा जिस प्रकार यह कहता है कि -
वासायं विद्यमानायां आशायां जीवितस्य च ।
रक्तपित्ती क्षयी कासी किमर्थमवसीदति ॥
संसार में वासा विद्यमान हो और रोगी को जीवित रहने की आशा हो तो फिर रक्तपित्त, क्षय (तपेदिक), खांसी का रोगी क्यों दुःख पाता है ? इसी भांति अर्क (आक) भी रोगियों को सम्बोधित करते हुए कहता है -
जीवितुं यदि वाञ्छन्ति सत्यर्के मयि भूतले ।
अन्धा: कुतोऽवसीदन्ति श्वासश्वित्रकफार्दिता: ॥१॥
वातोदरक्षयपीडां चक्षूरोगांश्च मूलत: ।
त्वग्दोष कण्ठमालां च क्षणे हन्मि प्रयुंक्ष्व माम् ॥२॥
हे मनुष्यो ! यदि नेत्रज्योति खोकर अंधे हो गये हो, श्वास, कास, श्वेत कुष्ठ और कफ के रोगों से पीड़ित हो और अब भी तुम्हारे जीने की इच्छा है तो मुझ आक के रहते हुए तुम कष्ट क्यों उठा रहे हो ?॥१॥
मैं वायुविकार, उदर, क्षय (तपेदिक), सभी प्रकार के नेत्र रोग, चर्मविकार और गण्डमाला आदि रोगों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता हूं, अत: विधिपूर्वक तुम मेरा सेवन करके रोगरहित हो जाओ । इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥२॥
अर्क के इन विशेष गुणों को देखकर ही इस पर कुछ लिखने का प्रयत्न किया है ।
- - ओमानन्द सरस्वती
अर्क (आक)
धन्वन्तरीय निघन्टु में अर्क अर्थात् आक के विषय में इस प्रकार लिखा है -
अर्कः सूर्याह्वयः पुष्पी विक्षीरोऽथ विकीरणः ।
जम्भलः क्षीरपर्णी स्यादास्फोटो भास्करो रविः ॥
धन्वन्तरीय निघण्टु में अर्क, सूर्याह्वय, पुष्पी, विक्षीर, विकीरण, जम्भल, क्षीरपर्णी, आस्फोट, भास्कर और रवि - ये नाम सामान्य रूप से गिनाये हैं । जितने नाम सूर्य के हैं, उतने अर्क अर्थात् आक के भी हैं । आक की उपविषों में गणना की है । राजनिघन्टु में आक के निम्नलिखित नाम लिखे हैं -
अर्कः क्षीरदलः पुष्पी प्रतापः क्षीरकाण्डकः ।
विक्षीरो भास्करः क्षीरी खूर्जघ्नः शिवपुष्पकः ॥१॥
भञ्जनः क्षीरपर्णी स्यात्सविता च विकीरणः ।
सूर्याह्वश्च सदापुष्पी रविरास्फोटकस्तथा ॥२॥
तूलफलः शुकफलो विंशत्येकसमाह्वयः ॥
राजनिघन्टु के अनुसार ये इक्कीस नाम होते हैं । जो नाम आक के धन्वन्तरीय निघन्टु ने दिये हैं उनमें से नौ नाम तो ज्यों के त्यों हैं । केवल एक जम्भल नहीं दिया । जो बारह नाम अधिक दिये हैं उनमें एक नाम सविता तो सूर्य का प्रसिद्ध नाम है ही । और कुछ नाम शब्दभेदों से मिलते-जुलते हैं । जैसे - विक्षीरः, क्षीरदलः, क्षीरी, क्षीरपर्णी, क्षीरकाण्डकः - ये समानार्थक ही हैं । प्रताप, सदापुष्प आदि नाम श्वेत अर्क अर्थात् सफेद आक के दिये हैं । शुक - तोते की आकृति के समान आक का फल होता है, इससे शुकफल इसका नाम रख दिया । तथा तूल - रुई वाला फल होता है इसलिए तूलफल अर्क का नाम है । खर्जू - खाज को नष्ट करने वाला होने से इसका गुणवाची नाम खर्जूघ्न है । इसके पुष्प कल्याणकारी हैं, अतः शिवपुष्पक इसका नाम है । भंजक और विकीरण दोनों नाम गुणवाची हैं । कुछ अन्य निघण्टुओं में और भी नाम पाठभेद से दे दिये हैं अथवा सूर्य के बहुत नाम हैं, वे सब आक के हैं उनका उल्लेख भी ग्रंथकारों ने कर दिया है । अर्क तीन-चार प्रकार के होते हैं । कुछ उनके नाम मिलते हैं । जैसे सफेद आक के नाम इस प्रकार से हैं -
राजार्क वा शुक्लार्क
राजार्को वसुकोऽत्यर्को मन्दारो गणरूपकः ।
एकाष्ठीलः सदापुष्पी स चालर्कः प्रतापनः ॥
धन्वन्तरीय निघन्टु में राजार्क जो अर्कों में विशेष प्रकार का आक होता है, इसके उपरोक्त नाम दिये हैं । इसी को श्वेत अर्क (सफेद आक) कहते हैं । कुछ विद्वान् श्वेत अर्क को पृथक् मानते हैं । जैसे राजनिघन्टु में इस प्रकार लिखा है -
शुक्लार्क
शुक्लार्कस्तपनः श्वेतः प्रतापश्च सितार्ककः ।
सुपुष्पः शंकरादिः स्यादत्यर्को वृत्तमल्लिका ॥
शुक्लार्क, तपन, श्वेत, प्रताप, सितार्क, सुपुष्प, शंकरादि नाम सफेद आक के हैं । इसको वृत्तमल्लिका भी कहते हैं । क्योंकि सफेद आक सभी आकों में श्रेष्ठ है, अतः इसे अर्कों का राजा राजार्क कहते हैं । शुक्लार्कः श्वेतः सितार्ककः वसुकः अत्यर्कः मन्दारः गणरूपकः एकाष्ठीलः सदापुष्पः श्वेतपुष्पः बालार्कः और प्रतापसः ये सभी नाम श्वेत अर्क अर्थात् सफेद आक के हैं । क्योंकि इसके पुष्प वा फूल श्वेत (सफेद) होते हैं, इसलिए इसका नाम श्वेत, सितार्ककः (सिता - मिश्री के समान श्वेत), स्वेतपुष्प, श्वेतपुष्पी और शुक्लार्क आदि नामों से इसकी प्रसिद्धी है ।
अर्क (आक) के भेद
अर्क वा आक चार प्रकार के होते हैं । १. श्वेतार्क अर्थात् सफेद आक, २. रक्तार्क वा लाल आक, ३ लाल आक का ही दूसरा प्रकार है जो उंचाई में सबसे छोटा और सबसे विषैला होता है । ४. पर्वतीय आक - यह पहाड़ी आक पौधे के रूप में नहीं, लता के रूप में होता है, जो उत्तर भारत में बहुत कम किन्तु महाराष्ट्र में पर्याप्त मात्रा में होता है ।
आक के अन्य भाषाओं के नाम
नामः - अर्क, राजार्क, विभावसु आदि संस्कृत भाषा के नाम ऊपर लिखे जा चुके हैं । हिन्दी - आक, मन्दार । बंगाली - पाकन्द । मराठी - रूई, रूचकी, पाठरी रूई । तेलंगी - नलि, जिल्ले, डेघोली, तेल जिल्लोड़े । फारसी - खरक, दूध । अरबी - ऊषर । अंग्रेजी - जाकजेन्टिक, स्वेलो वर्ट । लैटिनः - केलो ट्रोपिस जायजेण्टिका के प्रोसरि इत्यादि आक के विभिन्न भाषाओं के नाम हैं ।
आक का पौधा
भारत देश में आक के पौधे (झाड़) सब स्थानों पर मिलते हैं । ऊंचे पर्वतों पर इसका अभाव देखने को मिलता है । वैसे तो सामान्य रूप से इसको सब लोग जानते हैं, किन्तु औषध रूप में यह पौधा कितना गुणकारी और हितकारी है इसका विशेष ज्ञान तो किसी-किसी विरले वैद्य को ही है । सामान्य जनता को तो इतना ही ज्ञान है कि यह एक विषैला पौधा है, कभी-कभी औषध के रूप में कार्य में आ जाता है । इसके विशेष ज्ञानार्थ ही यह लघु पुस्तिका लिखी है ।
आक का पौधा दो हाथ से लेकर दस हाथ तक ऊंचाई में देखने को मिलता है । यह ऊंची शुष्क मरुभूमि वा बागड़ में अधिक होता है । बागड़ वा ऊसर भूमि में उत्पन्न होने के कारण अरबी में इसको ऊसर कहते हैं । इसके मुख्य कांड तथा छोटी-मोटी शाखाओं की त्वचा (छाल) अत्यन्त कोमल वा नर्म होती है । भार में भी बहुत हल्का होता है । बड़ी सुगमता से तोड़ी जा सकती है । इसकी कोमल शाखायें चपटी होती हैं । धुनी (पीनी) हुई रूई की भांति घने श्वेत लोमों से ढ़की रहती हैं । पत्ते लम्बे, पत्रवृन्त के पास पतले तथा आगे से चौड़े होते हैं । पत्रवृन्त इतने छोटे होते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि ये डालियों से ही निकले हुए हैं । पत्र के ऊपर की ओर वृन्त के निकट दलबद्ध ताम्रवर्ण कर्कश लोम होते हैं । पत्र के ऊपर की दिशा को उदर और विपरीत दिशा को पृष्ठ (पीठ) कहते हैं । आक के पत्रोदर में रूई के समान पतली तह पुड़त लोमों की होती है । पत्ते के ये लोम बहुत ही घने (घिनके) होते हैं । अतः इसी कारण से पत्ते की पीठ सफेद दिखाई देती है । ऊपर वर्णित पत्र श्वेत अर्क के पत्र हैं । सफेद आक के पौधे ही ऊंचे होते हैं जो आठ वा दस हाथ तक ऊंचे होते हैं । ये महाराष्ट्र में बहुत होते हैं । श्वेत अर्क और रक्त अर्क की सभी वस्तुओं में बड़ा भेद होता है । रक्त वर्ण के आक के पौधे छोटे तथा पत्ते वटवृक्ष (बड़) के समान गोल होते हैं । श्वेतार्क (सफेद आक) के पुष्प कुछ श्वेत ही होते हैं और इन्हीं अपने श्वेत पुष्पों के कारण ही श्वेतार्क, श्वेतपुष्पी आदि इसके नाम हैं । किन्तु इतना ध्यान रखें कि श्वेतार्क के पुष्प वा फूल सर्वथा सफेद नहीं होते, किन्तु ऊपर की ओर ईषत्पीत अर्थात् नवनीत (नूनी घी) के समान रंग वाले होते हैं । आक के पांच पुष्प पत्र विलग-विलग होते हैं । जैसे चमेली वा जूही होते हैं । इनकी लम्बाई एक-एक इंच तक होती है । उत्तर भारत में श्वेत जाति का आक अत्यन्त दुर्लभ वा दुष्प्राप्य है । बहुत वर्ष हुए लेखक ने एक श्वेत आक का पौधा प्रो० शेरसिंह जी आर्य रक्षा राज्यमंत्री भारत के ग्राम बाघपुर में मा. मांगेराम यात्री की कृपा से देखा था । उन्होंने इस पौधे की बड़ी रक्षा की, इसके बीज भी बोये किन्तु कुछ काल के पीछे वह श्वेत आक नष्ट ही हो गया । सफेद जाति के आक की खोज किमियागर (तांबे को सोना बनाने वाले) लोग बहुत रखते हैं । किन्तु इसी वर्ष देखने से पता चला कि श्वेत आक महाराष्ट्र में पर्याप्त मात्रा में मिलता है । इसके बड़े-बड़े पौधे हो जाते हैं । घरों और बागों में भी सफेद आक के पौधे लोगों ने लगा रखे हैं । वैद्यनाथ परली (मरहठावाड़ा) में आर्यसमाज के प्रधान की घरेलू वाटिका में अनेक श्वेतार्क के पेड़ लगे हुए हैं किन्तु इसके गुणों को यहां के निवासी बहुत कम जानते हैं । लाल जाति का आक सर्वत्र सुलभता से प्राप्य है । गुणों की दृष्टि से औषध के रूप में दोनों प्रकार के आकों का प्रयोग होता है । दोनों में कुछ समान गुण भी मिलते हैं किन्तु श्वेत अर्क में अधिक उत्तम गुण होने से आयुर्वेद में यह वनस्पति दिव्य औषध मानी जाती है । लाल आक इसके समान तो नहीं किन्तु यह भी गुणों का भण्डार है । जितना लाभ इस पौधे से वैद्यों और भारतीय चिकित्सकों ने तथा रसायनशास्त्रियों ने पहले उठाया था उतना किसी द्वितीय औषध से नहीं उठाया ।
वैसे आक का पौधा अपने आप में वात, कफ आदि के सभी रोगों को नष्ट करने के लिए पूर्ण औषधालय है । अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार तथा एलोपैथी के प्रसार से इस दिव्य औषध की कुछ उपेक्षा करने लगे हैं । फिर भी आज तक ग्रामीण लोगों में तो इसका प्रचुर मात्रा में औषध के रूप में प्रचलन और उपयोग होता है । शहरी लोग इसके लाभ से वंचित हो रहे हैं ।
किसी-किसी विशेषज्ञ ने तो आक को वानस्पतिक पारद लिखकर इसके गुणों की यथार्थता को प्रकट किया है । आयुर्वेद शास्त्रों ने इसके गुणों का इस प्रकार से वर्णन किया है ।
आक के गुण
धन्वन्तरीय निघन्टु गुणाः –
अर्कस्तिक्तो भवेदुष्णः शोधनः परमः स्मृतः ।
कण्डूव्रणहरो हन्ति जन्तुसन्ततिमुद्धताम् ॥१४॥
अर्कस्तु कटुरुणश्च वातहृद्दीपनः सरः ।
शोफव्रणहरः कण्डूकुष्ठप्लीहाकृमीञ्जयेत् ॥१५॥
श्वेत अर्क तीखा (कडुवा), उष्ण (गर्म), परमशोधक, रक्त मल आदि को शुद्ध करने वाला और बढ़िया जुलाब है । अच्छा विरेचन है । सूजन, खाज, दाद, फोड़ों को ठीक करता है । पेट के कृमियों तथा कुष्ठ (कोढ़) के कीड़ों को समूल नष्ट करता है । रक्तवर्ण का आक भी कडुवा, गर्म, वायु के रोगों को दूर करने वाला दीपक, पाचक तथा विरेचन कराने में अत्युत्तम है । भावप्रकाश निघन्टु में भावप्रकाश लिखते हैं -
अर्कद्वयं सरं वातकुष्ठकण्डूविषव्रणान् ।
निहन्ति प्लीहगुल्मार्शः श्लेष्मोदरशकृत्कृमीन् ॥६७॥
दोनों प्रकार के आक अर्थात् श्वेतार्क और रक्तार्क रेचक (दस्तावर) हैं । वायुरोगों को, कुष्ठ, खुजली, विष, फोड़ों, तिल्ली रोग, गुल्म (गोला), बवासीर, कफ के रोगों (श्वास कासादि), पेट के रोगों और मल के कृमियों (कीड़ों) को नष्ट करने वाले हैं ।
धन्वन्तरीय निघन्टु में रक्तवर्ण के आक के गुण ये हैं -
गुणाः -
अर्कस्तु कटुरुष्णश्च वातजिद्दोपनीयकः ।
शोफव्रणहरः कण्डूकुष्ठकृमिविनाशनः ॥
रक्तवर्ण का आक अर्थात् सामान्य आक कडुवा, गर्म, वायु के रोगों को जीतने वाला, दीपक, पाचक, शोथ (सूजन) फोड़ों को हरने वाला, खाज, कोढ़ और सब प्रकार के कृमियों का नाश करने वाला है ।
राजनिघण्टु में राजार्क और शुक्लार्क के गुण निम्न प्रकार से लिखे गये हैं -
गुणाः -
राजार्कः कटुतिक्तोष्णः कफमेदोविषापहः ।
वातकुष्ठव्रणान् हन्ति शोफकण्डूविसर्पनुत् ॥२८॥
राजार्क कडुवा तीखा और उष्ण प्रकृति का होता है । कफ, मेद (चर्बी) और विष को दूर भगाता है । वातरोगों को, कोढ़ और फोड़ों को दूर करता है । शोथ (सूजन), खुजली तथा विसर्प आदि रोगों का नाशक है ।
शुक्लार्क
गुणाः -
श्वेतार्कः कटुतिक्तोष्णो मलशोधनकारकः ।
मूर्त्रकृच्छ्रास्रशोफार्तिव्र्ण्दोषविनाशनः ॥३०॥
सफेद आक कड़ुवा, तीखा, उष्ण और मल का शोधक है, अच्छा विरेचन है । मूर्त्रकृच्छ्र (मूत्र कष्ट से आना), अस्र (रक्तपित्त), शोथ, फोड़ों के कष्टों और दोषों को नष्ट करने वाला है ।
भावमिश्र ने आक के पुष्प और दूध के गुणों को भी पृथक्-पृथक् लिखा है ।
श्वेत आक के फूल
अलर्ककुसुमं वृष्यं लघु दीपनपाचनम् ।
अरोचकप्रसेकार्शः कासश्वासनिवारणम् ॥६८॥
सफेद आक का फूल वीर्यवर्धक, हल्का, अग्नि को दीपन करने वाला, पाचक है । अरुचि, कफ, बवासीर, खांसी और श्वास विनाशक है ।
रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्टकृमिघ्नं कफनाशनं च ।
अर्शोविषं हन्ति च रक्तपित्त सग्राहि गुल्मे श्वयथौ हितं तत् ॥
लाल आक के फूल मधुर, कड़वे, कोढ़, कृमि, कफ, बवासीर, विष, रक्तपित्त, गुल्म (गोला) तथा सूजन को नष्ट करने वाला है । रक्तार्क के पुष्प बैंगनी रंग के होते हैं । खिल जाने पर पांच वा चार पंखड़ियां अलग-अलग हो जाती हैं और बीच में शिव की पिण्डी की मूर्त्ति के समान चौकोर पाई जाती है । इस रक्तवर्ण के पुष्प के आने का समय विशेष रूप से तो फाल्गुन और चैत्र मास ही हैं । साधारण रूप से ज्येष्ठ मास तक इनका खूब बाहुल्य रहता है । शीतकाल में तो पुष्पों का अभाव सा हो जाता है । वर्ष में नौ-दस मास तक इस आक पर फूल थोड़े बहुत पाते ही रहते हैं । ज्येष्ठ, आषाढ़ मास में सभी आक फूलों से लदे रहते हैं । आक का सूर्य के साथ विशेष सम्बन्ध है । इसलिए जितने सूर्य के नाम हैं उतने ही इस आक के पौधे के हैं । गर्मी में जब पृथ्वी सूर्य के निकट आ जाती है और सूर्य की भयंकर गर्मी से तपने और जलने लगती है, जोहड़, तड़ाग, बावड़ी सब का जल सूख जाता है, बड़े वृक्ष सूखने लगते हैं तब एक यही पौधा है जो मरुभूमि में भी जहां जल का नामो-निशान भी नहीं दिखाई देता और कुओं में भी जल सौ सौ हाथ नीचे होता है, उस समय यह आक खूब फलता और फूलता है । इस पौधे में युवावस्था ठाठें मारती है । यह आग्नेयतत्त्वप्रधान पौधा उस भयंकर उष्ण काल में खूब हरा भरा रहता है । सूर्य और गर्मी सबसे अधिक मित्र आक के ही हैं । सूर्य के गुणों को सबसे अधिक आक का पेड़ ही ग्रहण करता है । सूर्य के सभी गुणों का अर्क वा आक आदान करता है । जैसे सूर्य की उष्णता से गर्मी में वायु और कफ के रोग नहीं रहते, उनका लोप हो जाता है । उसी प्रकार वायु और कफ के रोगों को आक भी समूल नष्ट कर देता है । जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धकार दूर भाग जाता है, इसी प्रकार आक की यह दिव्यौषधि प्राणियों के चक्षु सम्बन्धी विकारों को दूर करके दिव्य ज्योति प्रदान करती है ।
आक की औषध
आक के पंचांग ही औषध में प्रयोग होते हैं । फल का उपयोग बहुत न्यून होता है किन्तु आक का दूध, मूल, अंकुर, पत्र आदि सभी वस्तुयें औषधार्थ प्रयुक्त होती हैं । इसका क्षीर वा दूध, पुष्प और मूल, त्वक् अधिक प्रयोग में आते हैं । क्षार बनाने के लिए पंचांग का ही प्रयोग किया जाता है ।
आक के दूध के गुण
गुणाः -
क्षीरमर्कस्य तिक्तोष्णं स्निग्धं सलवणं लघु ।
कुष्ठगुल्मोदरहरं श्रेष्ठमेतद्विरेचनम् ॥७०॥
भावमिश्र जी लिखते हैं - आक का दूध कड़वा, गर्म, चिकना, खारी, हल्का और कोढ़, गुल्म (गोला) तथा अन्य उदर रोगों का नाशक है । विरेचन कराने में (दस्तों के लिए) यह अति उत्तम है ।
श्वेत आक के पुष्पों के गुण
अलकंकुसुमं वृष्यं लघु दीपनपाचनम् ।
अरोचकप्रसेकार्श कासश्वासनिवारणम् ॥६८॥
सफेद आक के फूल वीर्यवर्द्धक, हल्के अग्नि को दीपन करने वाले, पाचक और अरुचि, कफ, बवासीर, खांसी तथा श्वास, दमा रोग के नाशक हैं ।
रक्तार्क के पुष्पों के गुण
रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्ठकृमिघ्नं कफनाशनं च ।
अर्शोविषं हन्ति च रक्तपित्तं संग्राहि गुल्मे शवयथौ हितं तत् ॥
लाल आक के फूल मधुर, कड़वे, ग्राही और कुष्ठ, कृमि, कफ, बवासीर, विष, रक्तपित्त, गुल्म तथा सूजन को नष्ट करने वाले हैं ।
अर्क फल
आक के फल देखने में अग्रभाग में तोते की चोंच के समान होते हैं । इसीलिए आक का एक नाम शुकफल है । ये फल ज्येष्ठ मास तक पक जाते हैं । इनके अन्दर काले रंग के दाने वा बीज होते हैं और बहुत कोमल रुई से ये फल भरे रहते हैं । इसकी रूई भी विषैली होती है । फल का औषध में बहुत न्यून उपयोग होता है । क्षार बनाने वाले आक के पंचांग में फल को भी जलाकर भस्म बनाकर क्षार निकालने की विधि से क्षार बनाकर औषध में उपयोग लेते हैं । चक्षु रोगों, कर्ण रोगों, जुकाम, खांसी, दमा, चर्म-विकारों में, विषमज्वर, वात और कफ के रोगों में इसके पुष्प, पत्ते, क्षीर, जड़ की छाल सभी का उपयोग होता है जिसका विस्तार से पृथक् पृथक् वर्णन आगे पढ़िये ।
श्वेतमन्दारः
श्वेतमन्दार विशेष प्रकार का आक केवल राजनिघण्टु ने माना है ।
श्वेतमन्दारकस्त्वन्यः पृथ्वीकुरबकः स्मृतः ।
दीर्घपुष्पः सितालर्को दीर्घास्यकः शराह्वयः ॥३७॥
एक श्वेत मन्दारक नाम का बड़े पुष्पों वाला, ऊंचा बढ़ने वाला, मिश्री के समान श्वेत आक होता है । जितने शर (तीर) के नाम होते हैं उतने ही इसके नाम होते हैं । यह सफेद आक का ही भेद है । इसके गुण निम्न प्रकार हैं -
गुणाः -
श्वेतमन्दारकोऽत्युष्णस्तिक्तो मलविशोधनः ।
मूत्रकृच्छ्रव्रणान्हन्ति कृमीनत्यन्तदारूणान् ॥३१॥
श्वेत मन्दारक अत्यन्त गर्म, तिक्त (तीखा), मल का शोधन करने वाला विरेचन है । मूत्रकृच्छ्र फोड़ों को नष्ट करता है । अत्यन्त दुःखदायी कृमियों (कीड़ों) का नाश करता है ।
जितने भी आकों के भेद आयुर्वेद के ग्रन्थों ने आक के पौधों के लिखे हैं, प्रायः सभी गुण सबसे मिलते-जुलते हैं । गुणों में थोड़ा भेद पाया जाता है । आयुर्वेद के ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो भी आक के औषध रूप में सैंकड़ों प्रकार के प्रयोग लिखे हैं वहाँ कहीं भी यह नहीं लिखा कि श्वेत आक का प्रयोग करें । केवल आक मात्र ही लिखा मिलता है । अतः पाठकों को भी यही उचित है कि जो आक उपलब्ध हो चाहे श्वेत वा सफेद आक हो अथवा रक्त वा लाल आक हो उसी का प्रयोग निस्संकोच होकर करें । शास्त्र-विधि के अनुसार आक का प्रयोग करने से अवश्यमेव लाभ होगा । इतना अवश्य ध्यान रखें यदि आपको श्वेत आक सरलता से मिल जाये तो उसी का उपयोग करें क्योंकि वह सर्वश्रेष्ठ आर्क वा आक का पौधा है । किन्तु वह न मिले तो लाल आक को व्यर्थ समझकर हीन भावना से न देखें क्योंकि लाल आक भी गुणों का भण्डार है । वह भी जादू के समान प्रभाव रखता है और सर्वत्र सुलभ है ।
विषैला आक
जो आक की जाति सबसे छोटी होती है अर्थात् यह उंचाई में सबसे छोटा होता है और यह मरुभूमि (बागड़) में ही होता है । इसके फूल सफेदी लिए हुए पिशताई रंग के होते हैं । इसको कुछ विद्वान् सबसे विषैला मानते हैं । अर्क कौन सा अधिक विषैला है तथा कौन सा न्यून विष वाला, इसकी पहचान यह है कि आक का दूध निकालकर अपने नाखून पर उसकी दो-चार बूंदें टपकायें । यदि दूध बहकर नीचे गिर जाये तो कम विष वला है और यदि वहीं अंगूठे पर जम जाये तो अधिक विषैला है । अर्थात् जो आक का दूध अधिक गाढ़ा होता है वह अधिक विषैला होता है और जो दूध पतला होता है वह कम विष वाला होता है । अधिक विषैले दूध को सीधा खिलाने की औषध में प्रयोग नहीं करना चाहिए । अन्य भस्मादि औषध बनाने में इसका प्रयोग कर सकते हैं ।
अर्क का मूलत्वक् (जड़ की छाल)
औषध के रूप में अर्क की जड़ की छाल वा छिलका बहुत प्रयोग में आता है । संस्कृत में इसे त्वक् वा वल्कल कहते हैं । अर्क की जड़ की छाल पसीना लाने वाली, श्वास को दूर करने वाली, गरम और वमनकारक है । उपदंश आतशक को नष्ट करने वाली है । यह छाल स्वाद में कड़वी तीखी होती है । उष्ण (गर्म) प्रकृति वाली, दीपन पाचन पित्त का स्राव करने वाली है, रसग्रन्थि और त्वचा को उत्तेजना देने वाली है, धातु परिवर्त्तक, उत्तेजक, बलदायक और रसायन है । थोड़ी मात्रा में यह आमाशय (मेदे) में दाह (जलन) उत्पन्न करती है । इससे वमन हो जाती है । इसके उपयोग से बहुत पसीना आता है, इससे इसका श्वेद जनन धर्म बहुत उत्तम माना गया है । इसका रसायन धर्म भी पारे के समान उत्तम है क्योंकि इसके सेवन से यकृत् की क्रिया सुधरती है और पित्त का स्राव भली भांति होता है । शरीर की पृथक् पृथक् ग्रन्थियों को उत्तेजित करती है जिससे सारे शरीर की रसक्रिया और जीवन विनिमय क्रिया अच्छी प्रकार से होने लगती है । इससे शरीर पुष्ट होकर बल की वृद्धि होती है । बढ़े हुए जिगर और तिल्ली को ठीक करती है । आंतों के रोगों को भी अर्क छाल का प्रयोग ठीक करता है ।
आक के मूलत्वक् को उतारने की विधि
किसी औषध में आक की छाल की आवश्यकता हो तो किसी पुराने आक की जड़ की छाल लेनी चाहिये । क्योंकि आक जितना पुराना होगा उतनी ही अधिक उसकी जड़ वा जड़ की छाल अधिक उपयोगी और गुणकारी होगी । पुरानी जड़ में कड़वी छाल की मात्रा अधिक होती है । ग्रीष्म ऋतु में चैत्र वा वैशाख मास में बागड़ वा मरुभूमि में उगे हुए पुराने आक की जड़ें खोदकर उस पर लगी हुई मिट्टी झाड़ पोंछ लें और हल्के हाथ से जल से इसकी जड़ें धो डालें और फिर छाया में ही सुखानी चाहियें । धूप में सुखाने से औषधियों के गुण घट जाते हैं । एक दो दिन बाद इसके ऊपर की मुर्दा छाल तथा मिट्टी यदि कुछ हो तो झाड़कर हटा देवें और अन्तर्छाल को उतारकर छाया में सुखाकर अपने उपयोग में लावें । यदि कुछ काल पीछे उपयोग लेना हो तो कूट कपड़छान करके अच्छी डाट वाली शीशी में बन्द करके रख देवें । आक की बढ़िया छाल के चूर्ण का रंग चावल के रंग के समान ही होता है । यह छाल ज्वर, प्रतिश्याय (जुकाम), खांसी, अतिसार, कास, श्वास तथा गले के रोगों को ठीक करती है । उपदंश की बहुत अच्छी औषध है । विस्तार से रोगप्रकरणानुसार लिखेंगे । जड़ की छाल की अपेक्षा आक के पुष्प अधिक गुणकारी हैं और पुष्पों की अपेक्षा आक का दूध अधिक और शीघ्र प्रभावकारी है ।
औषध की मात्रा - जड़ की छाल वा मूलत्वक् की मात्रा सामान्य रूप से १ रत्ती से ४ रत्ती तक है । विशेष अवस्थाओं में आधा माशे से दो माशे तक । मात्रा देश, काल, रोगी की शक्ति और प्रकृति को देखकर देनी चाहिये । यदि किसी अवस्था में वमन कराना हो तो ३ माशे से ६ माशे तक अर्क की जड़ वा छाल दी जा सकती है किन्तु वैद्य से परामर्श लेकर ही अधिक मात्रा में देना चाहिये क्योंकि यह विष भी है, हानि भी हो सकती है । एक से दो रत्ती देने से हानि की कम सम्भावना है ।
आक के दूध की मात्रा एक से चार बूंद तक है । विषैला अर्थात् गाढ़ा हो तो खिलाने में उसका प्रयोग न करें ।
आक के पत्ते के रस की मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक है । अंकुर की मात्रा १ माशे से ३ माशे तक है । अन्तर्धूमदग्ध पत्ते की मात्रा २ माशे से ४ माशे तक दे सकते हैं । पुष्प का चूर्ण १ माशे से २ माशे तक है ।
संशय निवारण
अर्क भेद के विषय में पाठकों को सन्देह हो सकता है क्योंकि अर्क को एक ही प्रकार का माना गया है । सुश्रुतकार ने अर्क और अलर्क दो भेद माने हैं । राजनिघण्टु ने अर्क, श्वेतार्क, राजार्क और श्वेत मन्दारक चार भेद लिखे हैं । भावप्रकाश निघण्टु में श्वेत अर्क और रक्तार्क दो भेद माने हैं ।
पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश, आगरा, अवध, बिहार और बंग देश में अधिकतर बैंगनी रंग के फूल वाले आक पाये जाते हैं और उन्हें ही रक्तार्क (लाल आक) कहते हैं । किन्तु बंगाल में श्वेत रंग के फूल पीतमिश्रित वर्ण के अधिक पाये जाते हैं । इन्हें ही श्वेतार्क (सफेद आक) सफेद फूल वाले कहते हैं । महाराष्ट्र में भी ये श्वेत अर्क पर्याप्त मात्रा में प्राप्य हैं । किन्तु धन्वन्तरीय वा राजनिघण्टु में मन्दारक और राजार्क क्या है, यह विचारणीय वा खोज का विषय है । राजार्क के पर्याय में राजनिघण्टुकार ने लिखा है - राजार्को वसुकाऽलर्को मन्दारो गणरूपकः । अतः यह मानन पड़ेगा कि मन्दारक, मन्दार, अलर्क और राजार्क सब एक आक के पर्यायवाची नाम हैं । अरुणदत्त तथा अन्य लेखकों ने मन्दार्क और अलर्क आदि को श्वेत श्वेतपुष्प सफेद फूल वाला लिखा है । अतः मन्दार्क राजार्क ये सब श्वेत अर्क की जाति के ही हैं । राजनिघण्टु में राजार्क को सदापुष्प और श्वेतमन्दारक तथा दीर्घपुष्प लिखा है । बंगाल का श्वेतार्क सदापुष्प नहीं होता और न ही उत्तरप्रदेश, हरयाणा आदि का छोटे फूलों वा गुच्छों वाला श्वेतार्क सदापुष्प होता है । अतः इससे यही सिद्ध होता है कि जिस जाति के श्वेतार्क वसन्त से भिन्न ऋतु वा अन्य ऋतु में भी फूल देते हैं वे ही राजार्क हो सकते हैं और जिस श्वेतार्क के पुष्प बड़े होते हैं वे ही श्वेत मन्दारक होते हैं । कुछ लेखकों का ऐसा मत है - रक्तार्क वा लाल आक की अपेक्षा दूध श्वेतार्क (सफेद आक) में अधिक पाया जाता है, वह ही अधिक गुणकारी होता है । उत्तरप्रदेश में जिस अर्क को मन्दार पुकारते हैं, वह बड़े-बड़े पतले पत्तों वाला और सफेद फूलों वाला होता है । यह चमेली तथा जूही के समान अथवा लाल कनेर के समान होता है । यह श्वेत मन्दारक वा राजार्क है ।
एक और प्रकार का श्वेत पुष्पों वाला छोटा पौधा मन्दार वा आक का होता है, इसके पुष्प भी श्वेत होते हैं । वह सदापुष्पी नहीं होता, यह हरयाणे में भी मिलता है । जो बड़ा सदापुष्पी होता है वह महाराष्ट्र वा बंगाल में पाया जाता है जिसे लोग शिवमन्दिर (शिवालयों) और अपने घरों में लगाते हैं । यह कम पाया जाता है । लेखक ने इसे महाराष्ट्र में बहुत देखा है । इसके फूलों को पौराणिक भाई शिवमूर्ति पर चढ़ाते हैं ।
सुश्रुत की टीका में डल्हण ने लिखा है - अलर्को मन्दारकः यस्य क्षीरं न विनश्यति । चरकशास्त्र में भी अर्क का अमृतघृतादि अनेक योगों में प्रयोगार्थ उल्लेख किया है । यथास्थान उसकी चर्चा होगी ।
अर्क और यूनानी चिकित्सा
ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के मानने वाले डाक्टर लोग अर्क को वायु रोग, दाद, खुजली आदि चर्म रोग, भगन्दर, नासूर आदि रोगों के लिए हितकर मानते हैं । उदर रोगों के लिए भी हितकर मानते हैं । यथा-स्थान इस विषय पर प्रकाश डाला जायेगा । आक का प्रत्येक अंग आयुर्वेद की दृष्टि से औषध के रूप में बड़ा महत्त्व रखता है । क्या वैद्य, क्या हकीम और क्या डाक्टर इस सत्य को सभी नतमस्तक होकर स्वीकार करते हैं किन्तु आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार यह दिव्य औषध जादू का प्रभाव रखती है । अनेक रोगों पर यह तुरन्त ही रामबाण के समान अचूक औषध है । इसका दूध, पुष्प, त्वक् सभी अद्वितीय हैं । जिन रोगों पर यह उपयोग में आते हैं, उन पर आगे पाठक पढ़कर यथोचित उपयोग करके लाभ उठायेंगे ।
धन्वन्तरीय निघण्टु में अर्क को कण्डूव्रणहरः कण्डू (खुजली) आदि चर्मरोग तथा व्रण (फोडों) को ठीक करने वाला लिखा है ।
- कण्डू रोग
- कण्डू, खुजली, खाज, पामा रोग यह सब पर्यायवाची हैं । चरक शास्त्र ने कण्डू खुजली को क्षुद्र कुष्ठ रोग माना है अर्थात् कुष्ठ (कोढ़) का छोटा प्रकार है । यह कण्डू रोग खुजली के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । आयुर्वेद का पामा नाम इस कण्डू वा खुजली के लिए प्रयुक्त होता है । शरीर के विभिन्न भागों में विशेष रूप से हाथ की अंगुलियों में बहुत सी फुन्सियां हो जाती हैं । इनमें दाह, जलन, पीड़ा और सख्त खुजली होती है । यह सूखी तथा पकने वाली गीली दो प्रकार की होती है । जंघाओं पर भी यह रोग होता है । पकने पर इसमें से गन्दा पीप (मवाद) निकलता है और जहां यह पीप लगता है वहीं और फुन्सियां निकल आती हैं । यह छूत का रोग है, एक दूसरे को लग जाता है । अतः सावधान रहने की आवश्यकता है । लेखक को विद्यार्थी जीवन में यह रोग हुआ था । इसकी डाक्टर से चिकित्सा कराई तो कोई लाभ नहीं हुआ । फिर देशी चिकित्सा से तुरन्त लाभ हुआ । इसी से मेरी रुचि देशी चिकित्सा पद्धति की ओर हुई थी । इसी श्रद्धा ने आयुर्वेद की ओर मुख मोड़ दिया । ज्यों-ज्यों आयुर्वेद के द्वारा सेवा करने का अवसर मिला, दिन दूनी रात चौगुनी आयुर्वेद में आस्था, विश्वास बढ़ता ही गया । इसी कारण दृढ़ निश्चय और मेरी मान्यता बन गई कि संसार में आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति ही पूर्ण वैज्ञानिक तथा सर्वोत्तम है । शेष सब चिकित्सा पद्धतियां अधूरी तथा हानिकारक हैं ।
- १. अर्कादि तैल
- आक के पत्तों का रस १ सेर, सरसों का तेल १ पाव, हल्दी पिसी हुई १ छटांक - पानी में पीसकर गोली बना लें । सबको एक पात्र में डालकर अग्नि पर पकायें, मन्दी आंच जलायें । जब केवल तैल शेष रह जाये तो इसे छानकर शीशी में सुरक्षित रखें तथा खुजली पर इसको लगायें । हल्के हाथ से मालिश करें । एक-दो घण्टा धूप में बैठें, फिर नीम के पत्तों के गर्म पानी से स्नान करें । स्नान से पूर्व गाय के गोबर में जल मिलाकर लेप करें फिर स्नान करें तो अधिक लाभ होगा । यह तैल कण्डू (खुजली) की रामबाण औषध है । सभी वैद्यों का अनुभूत तैल है । इस तैल से कच्छू, कुष्ठ तथा दाद भी दूर होता है ।
- २. लघु मरिच्यादि तैल
- बृहत् मरिच्यादि तैलों के प्रयोग से कण्डू खुजली, दाद, कुष्ठ सब दूर होते हैं । इनके योग कुष्ठ प्रकरण में पढ़ें । इनमें भी अर्कदुग्ध डाला जाता है ।
- ३. विष-तैल
- विष तैल भी खुजली दाद कुष्ठ की अच्छी औषध है । इसमें भी आक का दूध पड़ता है । कुष्ठ के प्रकरण में देखें ।
- ४. महासिन्दूरादि तैल, कन्दर्पसार तैल
- इन दोनों के प्रयोग से खुजली, दाद, सर्व प्रकार के कुष्ठ नष्ट होते हैं । कुष्ठ के प्रकरण में पढ़ने का कष्ट करें ।
- ५.
- आक का दूध चार तोले, जीरा काला चार तोले, सिन्दूर चार तोले, सरसों का तैल ४८ तोले और जल अढ़ाई सेर - सबको एक साथ बर्तन में आग पर चढ़ाएं । जीरा काला और सिन्दूर को कपड़छान करके डालें । मन्दाग्नि पर पकायें । तैल शेष रह जाये तब छानकर खुजली पर लेप करें । इससे कण्डू, दाद आदि चर्म रोग दूर होंगे ।
- ६.
- सिन्दूर, गूगल, रसौंत, मोम और नीलाथोथा - सब पांच-पांच तोले । सबको पीस छान लें और इनको पीसकर १० तोले आक के दूध में गोला बनायें । दो सेर सरसों का तैल तथा आठ सेर जल सब तांबे के पात्र में डालकर अग्नि पर चढ़ायें । जब तैल रह जाय तो छान लेवें । इस तैल के लगाने से खुजली, कण्डू दाद दूर होते हैं ।
- ७. खुजली दाद की अचूक दवा
- हल्दी ५ तोले को जल के साथ पीसकर चटनी सी बना लें । आक के पत्तों का रस चार सेर लेवें और सरसों का तैल आधा सेर - इन तीनों को कढ़ाई में मन्दाग्नि से पकायें । जब केवल तैल शेष रह जाये तो उतारकर छान लेवें । इसमें मोम १० तोले डालकर अग्नि पर पुनः गर्म करें । मोम के मिलने पर नीचे उतार लें । इसमें पारे गन्धक की कज्जली चार तोले, भुना हुआ सुहागा, सफेद कत्था, चीनी, कमेला, काली मिर्च, राल, मुर्दासंग, भुना हुआ नीलाथोथा, भुनी हुई फिटकड़ी, मैनशिल और गन्धक - ये सब दो-दो तोले लेवें । इनको कूट-छान कर कज्जली में मिला दें तथा तैल में मिलाकर बोतल में रखें । इसे दाद खुजली पर लगायें । खुजली दाद को समूल नष्ट करती है । जो व्यक्ति चिकित्सा करते करते थक गये हों और निराश हो गये हों, दाद जाने का नाम न लेता हो, भयंकर से भयंकर दाद खुजली भी इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं ।
- ८. दाद चमला की औषध
- ऊंट की दस मींगन जो गोल-गोल होती हैं, लेकर उन्हें एक साथ रखकर जलायें । वे सब जलकर सब निर्धूम हो जायें तो उन्हें एक-एक को चिमटे से पकड़कर एक छटांक आक के दूध में बुझायें । इनके ठण्डा होने पर नीम के ताजा डण्डे से इन्हें खूब रगड़ें, साथ-साथ थोड़ा सरसों का तैल भी डालते जायें । जब रगड़ते-रगड़ते यह मरहम सी बन जाये तो दाद व चम्बल पर दोपहर पश्चात् लगायें । प्रतिदिन लगाते रहें । यदि बीच में कुछ कष्ट होने लगे तो ढ़ाक के पत्तों का क्वाथ बनाकर उससे झारें क्योंकि किसी-किसी व्यक्ति पर आक के दूध का विष चढ़ जाता है । उस समय औषध लगाना छोड़ देवें । रोगी को घृत पिलायें तथा गर्म-गर्म करके घी ही लगायें अथवा गुरुकुल झज्जर का सञ्जीवनी तैल लगायें । यदि दाद चम्बल न जाये तो दो चार दिन के पीछे दाद चम्बल पर फिर औषध लगायें । औषध अच्छी है । दाद के चम्बल कृमियों को समूल नष्ट करती है । कष्ट अवश्य होता है किन्तु चम्बल (चमला) के समान जिद्दी हठी कुष्ठ समूल नष्ट हो जाता है ।
कुष्ठ नासूर और रक्तविकार
अठारह प्रकार के कुष्ठ होते हैं । इनमें से सात महाकुष्ठ और ग्यारह क्षुद्र्कुष्ठ - सब मिलाकर अठारह (१८) प्रकार के कुष्ठ रोग होते हैं जिनमें कन्डू (पामा) खुजली, दाद, चम्बल भी सम्मिलित हैं । ये विपरीत और मिथ्या आहार व्यवहार के कारण होते हैं । कुष्ठ रोगों की चिकित्सा अति कठिन है । आक को शास्त्रकारों ने कुष्ठ के कृमियों का नाश करने वाला लिखा है ।
नेत्र रोग और आक
- अनुपम काजल
- एक तोला शुद्ध (साफ) रूई लेकर पिनवा लें और उसकी अंगुली के समान मोटी बत्ती बना लें और उसे आक के दूध में भिगो दें । अगले दिन २४ घण्टे के पश्चात् उस रूई की बत्ती को आक के दूध में भिगो दें । इसी प्रकार सात बार भिगोयें और छाया में ही सुखायें । जब सर्वथा सूख जाये तो इसे तीन दिन गाय के एक पाव घी में भिगोयें और फिर तीन दिन के पश्चात् निर्वात (वायु रहित) स्थान पर दीपक को जलायें और उसके ऊपर मिट्टी वा धातु का शुद्ध पात्र लेकर काजल पाड़ें । जब सारा घी जल जाये और पात्रों के ठण्डा होने पर काजल झाड़कर किसी शीशी में रख लें । इस काजल को सलाई से सोते समय नेत्रों में डालें । रोग अधिक हो तो प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व भी प्रतिदिन डालते रहें । इस प्रकार निरन्तर कुछ मास इस काजल के सेवन से आंखों के सभी रोग दूर होंगे । दूर का न दीखना, निकट का न दीखना, रोहे, फोला, आंखों में पानी आना, पढ़ने से आंखों का थकना, आंखों की खुजली, आंखों का दुखना अदि सभी नेत्र रोगों को यह अनुपम काजल दूर करता है । यह चक्षु रोगों के लिए अद्वितीय औषध है । इससे नयनक (चश्मे) उतर जाते हैं । चेचक के फोले भी दूर होकर अन्धों को भी दिखाई देने लगता है । बार-बार की अनुभूत औषध है । आजमाओ, लाभ उठाओ और ऋषियों के गुण गाओ । यदि इसके साथ त्रिफला घृत तथा महात्रिफलादि घृत का सेवन किया जाये तो सोने पर सुहागे का कार्य करेगा । आंखों में लगाने के लिए यह काजल और खाने के लिए त्रिफलादि घृत दोनों ही चक्षु रोगों के लिए रामबाण औषध हैं । हमने बहुत रोगियों की इसके द्वारा चिकित्सा की है, प्रायः सभी को लाभ हुआ है । जहां पर सब औषध विफल हो जाती हैं, वहीं इस काजल ने लाभ किया है । कितने अंधों काणों को इसने चक्षुदृष्टि देखकर आंखों वाला (सुलाखा) बनाया है । यह अत्यन्त प्रभावशाली है । पहले-पहल एक ही सलाई काजल लगाना चाहिये । कुछ समय पश्चात् एक समय पर तीन सलाई तक लगाई जा सकती हैं । उससे और भी अधिक लाभ होता है ।
- २.
- जहां आक का दूध कम मिलता हो वहां पर केवल एक बार रूई की बत्ती को आक के दूध में भिगो लें और फिर सूखने पर तीन दिन गोघृत में भिगोकर काजल बनावें तथा उसका प्रयोग करें । तीन-चार बार भिगोकर यदि काजल बनाया जाये तो और अधिक लाभ होता है । यदि सात बार भिगोकर बनायें तो बहुत ही गुणकारी काजल बनता है । जितना परिश्रम करेंगे उतना ही लाभ होगा ।
- ३.
- रूई के एक पाव भर फोये को तीन-चार बार आक के दूध में सुखायें, फिर गाय के घी में खूब तर करके कढ़ाई में इसे जलाकर राख करें । राख सर्वथा ठण्डी होने पर इसको रगड़कर खूब बारीक पीसकर कई बार कपड़छान कर लें तथा सुर्मे के समान इसका प्रयोग करें । घी चक्षुरोगों में लाभ करता है ।
- ४.
- रूई के फोहे को तीन-चार बार आक के दूध में भिगोकर सुखायें तथा सूख जाने पर शुद्ध सरसों के तैल में खूब भिगोकर तवे वा कढ़ाई में जलाकर राख कर लें । फिर पीसकर सुर्मे के रूप में प्रयोग करें । इससे भी चक्षुरोगों में लाभ होता है किन्तु गोघृत के समान नहीं । निर्धन तैल में लाभ उठा सकते हैं ।
- ५.
- रूई के फोहे की बत्ती आक के दूध में एक बार अथवा तीन-चार बार अथवा सात बार भिगोकर छाया में सुखाकर सरसों के तैल में भिगोकर जलाकर काजल बनायें । इसको सुर्मे के रूप में आंखों में डालें । इससे भी चक्षुरोगों में लाभ होगा, किन्तु गोघृत तो अमृत है, तैल तैल ही है । दोनों में समानता कैसे हो सकती है ?
- ६.
- इन काजलों को बढ़िया कपूर अथवा भीमसेनी कपूर अथवा कोई और बढ़िया सुर्मा मिलाकर अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है ।
फोला और आक की जड़
१. - आक की जड़ को जल में घिसकर आंखों में लगाने से नाखून वा फोला नष्ट हो जाता है ।
२. - पुरानी रूई को तीन बार आक के दूध में सुखायें । तीन बार इस क्रिया को करें । छाया में सुखाना चाहिये, सर्वथा सूखने पर सरसों के तैल में भिगोकर सीप में रखकर जला लें । इस राख को खूब बारीक पीस कपड़छान करके सुर्मे की भांति सलाई से डालें तो कुछ समय में फोला कट जायेगा । यदि तैल पीली सरसों का हो तो अधिक लाभ करेगा ।
३. - यदि आक के दूध में भिगोई हुई रूई को गोघृत में रखकर जलाकर भस्म करें तो अधिक लाभदायक होगी ।
४. - श्वेत आक की जड़ को गौ के मक्खन के साथ पीसकर सुर्मे की भांति आंख में डालने से नेत्र-ज्योति बढ़ती है ।
मोतियाबिन्द
५. - जंगली कबूतर की बीठें आक के दूध में भिगोकर सुखा लें । फिर तांबे के पात्र में डालकर नींबू के रस में डाल दें । सात दिन भिगोये रखें, फिर खरल करके एक भावना मेंहदी के रस की देवें, फिर सुर्मे के समान बारीक पीस लें । इसको आंख में डालने से मोतियाबिन्द, जाला फोला कट जाता है ।
६. - पुरानी ईंट को बारीक पीस लेवें तथा आक के दूध में भिगोकर खरल करें । यदि यह चूर्ण १ छटांक हो तो इसमें ३० लोंग मिलाकर खरल करके सुर्मा बना लेवें और इसको थोड़ा नाक के द्वारा सूंघने से मोतियाबिन्द कट जायेगा । यह मान्यता यूनानी हकीमों की है ।
७. - आक के दूध की भावना देकर बनाये हुए बारहसींग की श्वेत भस्म को श्वेत पुनर्नवा की जड़ के रस में तीन दिन खरल करें, सुखाकर सुर्मा बना लें और इसको आंख में डालें । इससे फोला, जाला, मोतियाबिन्द सब दूर होंगे ।
८. - पहले लिखा हुआ काजल जो आक के दूध में रूई भिगोकर गोघृत से बनाया गया हो । श्वेत पुनर्नवा की जड़ का चूर्ण १ तोला, आक के दूध में बनाई गई बारहसींगे की भस्म १ तोला, भीमसेनी कपूर छः माशे, मेंहदी के पत्तों का चूर्ण १ तोला सबको बारीक पीसकर कई बार कपड़छान करें । सुर्मे के समान तैयार हो जाए तो सबसे पीछे भीमसेनी कपूर मिलायें । इस सुर्मे को डालने से नेत्रों के सभी रोग फोला, जाला, मोतियाबिन्द आदि दूर होंगे, नेत्र-ज्योति खूब बढ़ेगी ।
९. - ऊपर लिखी हुई औषध को प्रयोग करते समय महात्रिफलादिघृत अथवा त्रिफलादि घृत का सेवन भी रोगी को कराया जाये तो बहुत अधिक लाभ होगा ।
१०. - सायंकाल दो तोले त्रिफले को आधा सेर जल में भिगो देवें । प्रातःकाल जल को निथार कर इस जल से आंखों को धोवें तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा । नेत्र रोग के रोगियों को लाल मिर्च, खटाई, तैल, कच्चा मीठा, गुड़, शक्कर आदि नहीं खाना चाहिये ।
प्लीहा (तिल्ली) पर आक के योग
सामान्य रूप से स्वस्थ व्यक्ति की प्लीहा वा तिल्ली तीन इंच से चार इंच तक होती है । इसकी मोटाई एक इंच से ढ़ाई इंच तक होती है ।
स्थान - यह तिल्ली मानव शरीर का एक अंग है जो मनुष्य के पेट के अन्दर बाईं पसलियों के बिल्कुल नीचे रहती है । रक्त की न्यूनता वा चिकित्सा से यह घटती बढ़ती रहती है ।
कार्य - भोजन का रस पित्ताशय से गुजर कर यकृत् में जाता है और यकृत् से प्लीहा (तिल्ली) में जाकर रक्त वा खून का रूप धारण करता है । अर्थात् रक्त को उत्पन्न करने वाली बाईं ओर हृदय के नीचे रहने वाली रक्त को बनाने वाली रक्त नाड़ियों का मूल ऋषियों ने केवल तिल्ली को माना है ।
प्लीहा के बढ़ने के कारण
प्लीहा वा तिल्ली लम्बे समय तक ज्वर के आने से बढ़ जाती है । इससे भोजन नहीं पचता । हल्का सा ज्वर रहता है । पाचनशक्ति क्षीण होकर रोगी भी निर्बल हो जाता है । शरीर का रंग पीला पड़ जाता है । जब तिल्ली बहुत अधिक बढ़ जाती है तो नाक और दांतों से रक्त आने लगता है । रक्त के वमन (कै) होने लगते हैं । पांव, आंख, मुख और सारे शरीर पर सूजन हो जाती है, पीलिया अर्थात् पाण्डुरोग हो जाता है । किसी-किसी को खूनी दस्त होने लगते हैं । अन्त में जलोदर हो जाता है और जब मुख में जख्म हो जाये तो रोगी की अवस्था असाध्य होती है ।
चिकित्सा - तिल्ली के रोगी को कब्ज नहीं होना चाहिये । प्रारम्भ में रेचक औषध देनी चाहिये । रोग यदि पुराना हो तो भूलकर भी विरेचन न करें, दस्त न देवें । तिल्ली के साथ सूजन, ज्वर, दस्त, खांसी आदि जो भी रोग हों, उनकी चिकित्सा साथ-साथ करनी चाहिये ।
औषध - आक के पके हुए पीले रंग के पत्ते लेवें और सैंधा लवण को जल में बारीक पीस लेवें और आक के पत्तों पर इसका लेप करके धूप में सुखा देवें और सूखने पर एक मिट्टी की हांडी में भर देवें । इस हांडी के ऊपर कपरोटी करके सुखाकर गजपुट को आग में फूंक देवें और ठण्डा होने पर औषध को निकाल लेवें और बारीक पीसकर शीशी में सुरक्षित रखें । इसकी मात्रा ४ रत्ती से दो मासे तक गर्म जल वा गोमूत्र के साथ दोनों समय देवें ।
इससे सर्व प्रकार से बढ़ी हुई तिल्ली विशेष रूप से कफ से बढ़ी तिल्ली निश्चय से ठीक हो जाती है ।
वज्रक्षार
सांभर लवण, यवक्षार, समुद्र लवण, सुहागा सफेद भुना हुआ - सबको समभाग लेकर बारीक पीस लेवें और तीन दिन तक आक के दूध में खरल करें और इसके पश्चात् तीन दिन तक थोहर के दूध में खरल करें और एक हांडी में आक के पत्तों को बिछा देवें और उनके ऊपर ऊपरवाला चूर्ण डाल देवें । इस प्रकार हांडी को भर कर दृढ़ता से कपरोटी कर देवें और गजपुट की आग में फूंक देवें, ठंडा होने पर बारीक पीसकर रखें और नीचे लिखा चूर्ण इसमें मिला लेवें ।
सोंठ, काली मिर्च, पीपल बड़ा, वायबिडंग, राई, हरड़ का छिलका, बहेड़े का छिलका, चोया वा पीपलामूल, हींग घी में भुनी हुई - समभाग लेकर चूर्ण बना लेवें । इसमें से चूर्ण ३ माशे और ऊपर का वज्रक्षार २ माशे मिलाकर गर्म जल के साथ दो बार लेवें । यह एक मात्रा है । इसके प्रयोग से बढ़ी हुई तिल्ली निश्चय से ठीक हो जाती है ।
२. - सैंधा लवण को थोहर के दूध में पीसकर इसको आक के पत्तों पर लेप करके सुखा लें और मिट्टी की हांडी में बन्द करके चूल्हे पर चढ़ायें । जब जलकर पत्तों की राख हो जाये, इन को पीस कर राख का चूर्ण कर लेवें । इस में से १ माशा गाय की छाछ के साथ प्रतिदिन लेने से तिल्ली का रोग नष्ट हो जाता है ।
अन्य उदर रोग
१. - देवदारू का चूर्ण, ढ़ाक के बीज, आक की जड़ की छाल, गज पीपल, सुहाजना की छाल, अश्वगंध नागौरी - इन सबको खूब बारीक पीसकर पेट पर लेप करें, इससे उदर रोग नष्ट होते हैं ।
लाल चूर्ण
२. - आक की जड़ का छिलका १ तोला, गेरू १ तोला, नौशादर २ तोला, काली मिर्च १ तोला, कपूर छः माशे - सबको कपड़छान करके सुरक्षित रखें । सर्व प्रकार के उदर रोगों पर मात्रा १ माशे से तीन माशे तक यथोचित अनुपात से लेने से बहुत ही लाभ करता है । उदरपीड़ा, गुल्म (गोला), कब्ज दस्त, तिल्ली, यकृत् (जिगर) रोग नष्ट होते हैं । खांसी, जुकाम, ज्वरादि रोगों को दूर करता है । श्री वैद्य बलवन्तसिंह आर्य पहलवान का प्रसिद्ध योग है जो अमृतधारा के समान बहुत से रोगों की अचूक औषध है । अन्य रोगों के ऊपर यथास्थान अनुपान लिख दिया जायेगा । उदर रोगों पर गर्म जल, गाय की छाछ और गोमूत्र के साथ लेवें ।
उदर रोगों पर
३. बिन्दुघृत - - आक का दूध ८ तोले, थोहर का दूध ४ तोले, त्रिवृत (निसोत) ४ तोले, बड़ी हरड़ का छिलका ४ तोले, कमेला ४ तोले, जमालगोटे की जड़ ४ तोले, अमलतास का गूदा ४ तोले, शंख्पुष्पी ४ तोले, नील की जड़ ४ तोले - इन सबको बारीक पीस कर जल के साथ घोटकर गोला बनायें और कढाई में एक सेर जल चढावें, मन्दाग्नि जलायें, सब वस्तु जल जायें केवल घृत रह जाये तब उतारकरछान लेवें, यही बिन्दुघृत है । इसकी मात्रा १ बून्द (बिन्दु) से १० बूंद तक है, गर्म जल के साथ सेवन करने से पेट के सभी रोग, कब्ज, गोला, पीड़ा, तिल्ली, जिगर आदि दूर होते हैं । इस घृत की जितनी बूंदें रोगी को देंगे उतने ही दस्त होंगे तथा पेट के सभी रोग नष्ट होते हैं । यह आयुर्वेद शास्त्र का प्रसिद्ध योग है, सभी वैद्य इसका प्रयोग करते हैं, अच्छी औषध है । पथ्य-सूजन के रोग में खटाई और लवण न खायें । सूजन में कब्ज भी नहीं होना चाहिये ।
४. शोथ (सूजन) पर - पीपल बड़ा एक छटाँक को बारीक कपड़छान कर लें । तीन-चार दिन आक के दूध में खरल करें तथा तीन-चार दिन तक थोहर के दूध में खरल कर लें अथवा दानों के समभाग दूध ले लेवें और उनसे इकट्ठा सात दिन खरल करके दो रत्ती की गोलियां बना लेवें । दो गोली प्रतिदिन गर्म जल से प्रयोग करने से कफ वाली सूजन दूर होगी । यह औषध भी पाचक और रेचक है, शक्ति और काल देखकर लेवें ।
५. - आक के पत्ते, पुनर्नवा, नीम की छाल - इन सबको समभाग लेकर कूट छान कर क्वाथ बनायें और रोगी के शरीर पर छींटे लगाने से सूजन (शोथ) दूर होगा ।
६. - अर्क की जड़ की छाल, अरंड की जड़ की छाल, करंजवे की जड़ की छाल, पुनर्नवा, दोनों प्रकार का श्वेत और लाल - समभाग लेवें । इनका क्वाथ बना लें । इससे रोगी के शरीर को धोया करें । यह सूजन के लिए उत्तम औषध है ।
७. - उपरोक्त औषधों के साथ, पुनर्नवादि चूर्ण, पुनर्नवा अष्टक क्वाथ, पुनर्नवादि तैल, पुनर्नवादि अरिष्ट - इनमें से किसी भी औषध का प्रयोग करें तो बहुत ही लाभ होगा ।
८. - सूंठ का चूर्ण ३ माशे एक तोला गुड़ के साथ मिलाकर लेवें तथा ऊपर से पांच तोला पुनर्नवा का रस (ताजा) कुछ दिन पीने से सूजन रोग इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे वायु के वेग से बादल नष्ट होते हैं । शोथ (सूजन) रोग के लिये पुनर्नवा अत्यन्त पथ्य वा हितकर है ।
श्वास रोग पर आक
१. - आक का पत्ता १, काली मिर्च ५२ - इन दोनों को खरल करके माष के दाने के समान गोलियां बनायें - इनमें से छह गोलियां उष्ण जल के साथ कुछ दिन प्रयोग करने से श्वास रोग दूर होता है । छोटे बच्चे को एक गोली देनी चाहिये ।
२. - आक की जड़ का छिलका तीन तोले, अजवायन देशी दो तोले, पुराना गुड़ ५ तोले - सब रगड़कर जंगली बेर के समान गोली बनायें । ताजे जल के साथ एक-एक गोली लेवें, दिन में कई बार लेवें, श्वास रोग की उत्तम औषध है ।
३. - भुने हुए जौ (यवों) को आक के रस में १४ दिन तक निरन्तर रखें । फिर धूप में सुखाकर बारीक पीस लें । इनमें से १ माशे से ३ माशे तक छः माशे शहद में मिलाकर लेवें । यह अत्यन्त लाभप्रद औषध है, विचित्र प्रभाव डालती है ।
४. - नीलाथोथा भुना हुआ एक माशा, गुड़ एक माशा - दोनों को कूटकर आक के दूध में खरल करके इसकी सात गोलियां बनायें । एक गोली प्रतिदिन जल के साथ निगलवा दें । इसके प्रयोग से तीन-चार दिन तो खूब वमन (कै) तथा दस्त लगेंगे । इसके पश्चात् आराम हो जाएगा । मूंग चावल की खिचड़ी और घी खिलायें । इस उत्तम औषध से पुराने से पुराना दमा श्वास रोग समूल नष्ट हो जायेगा ।
५. - लोटा सज्जी १० तोले को निरन्तर आठ दिन तक आक के दूध में भिगोवें, तत्पश्चात् एक मिट्टी के सकोरे में सज्जी को डाल कर आक के दूध से भर लेवें । फिर इसकी कपरोटी कर सुखाकर दस उपलों की आग में फूंक देवें । सर्वथा ठण्डा होने पर निकालकर बारीक पीस लेवें और प्रतिदिन १ माशा गर्म जल से प्रयोग करने से श्वास रोग दूर होता है ।
६. - आक के पांचों अंगों को जलाकर राख बना लें और उसे तोल से आठ गुने जल में भिगो देवें । दिन में कई बार हिलाते रहें । तीन दिन पीछे ऊपर का जल निथार छानकर पकायें, क्षार बन जायेगा । मात्रा १ रत्ती पान वा अदरक के रस वा मधु के साथ सेवन करायें । श्वास रोग दूर होगा ।
७. - आक की कोमल-कोमल कोंपलें, पीपल बड़ा, सैंधा लवण सब सम भाग लेकर खूब बारीक पीसकर जंगली बेर के समान गोली बनायें । एक गोली गर्म पानी के साथ प्रतिदिन लेने से दमा दूर होगा ।
८. - आक का पत्ता एक, काली मिर्च पांच - इन दोनों को खूब बारीक पीसकर जंगली बेर के समान गोली बनायें । इनमें से ७ गोलियां प्रयोग करने से ही लाभ हो जायेगा ।
ये सभी प्रयोग कफ वाले दमे को लाभ करते हैं ।
श्वास रोकने की अद्भुत औषध
धतूरे के पत्ते, भांग के पत्ते, कल्मीशोरा, सबको कूटकर मोटा मोटा चूर्ण बना लें और इसे एक बार आक के दूध वा आक के पत्तों के रस में भिगोकर छाया में सुखा देवें । जब दमा का रोगी तड़फ रहा हो और उसे किसी प्रकार भी आराम न होता हो, उस समय इस औषध की एक दो चुटकी धधकते हुये कोयलों पर डाल कर रोगी को इसका धुंआं मुख के मार्ग से खिंचवायें, यह औषध जादू के समान प्रभाव डालेगी । दमा का दौरा सर्वथा शान्त होगा । रोगी यह अनुभव करेगा कि रोग सर्वथा चला गया है । इस औषध को हुक्के की चिलम में एक दो चुटकी तम्बाकू के स्थान पर रखकर पिलायें, कुछ ही घूंट लेने से लाभ होगा । यह श्वास वा दमा की स्थायी चिकित्सा नहीं है । विदेशों से करोड़ों रुपये की सिगरेट इसी प्रकार की औषध की आकर भारत में बिकती है, जिससे दमे के रोगी पीकर लाभ उठाते हैं । समय पड़ने पर रोगी को इसका लाभ उठाना चाहिये क्योंकि यह उसी समय तुरन्त लाभ करती है ।
आक से यक्ष्मा रोग की चिकित्सा
राजयक्ष्मा वा क्षय वा तपेदिक प्रसिद्ध तथा भयंकर रोग है । इसकी चिकित्सा बहुत कठिन तथा महंगी अर्थात् व्ययसाध्य है । धनाभाव के कारण कितने रोगी इस रोग में ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में चले जाते हैं । वीर्य आदि धातुओं के क्षय वा नाश से यह रोग होता है । इसकी चिकित्सा में ब्रह्मचर्यपालन वा वीर्यरक्षा सब औषधियों से बढ़कर तथा सर्वोत्तम पथ्य वा हितकर है । निर्धनों के लिए एक अत्यन्त हितकारी और साथ ही बहुत ही सस्ता योग अर्क का नीचे लिखता हूँ ।
मेरे एक परिचित डॉ. भरतसिंह जी थे । वे तपेदिक के रोगियों को यह योग पुरानी आयु में मुफ्त दिया करते थे । उस से रोगियों को बहुत लाभ होता था किन्तु वे यह योग किसी को नहीं बताया करते थे । कभी-कभी वे लेखक से मिलने आया करते थे । वे मुझ से स्नेह करते थे । एक दिन मैं वैद्य कर्मवीर जी के पास नरेला में बैठा हुआ था, वे मुझे मिलने आये । उन्हें दूर से वैद्य कर्मवीर जी ने आते देख लिया । वैद्य कर्मवीर जी ने कहा डाक्टर जी की यक्ष्मा की औषध है जो बहुत अच्छी है किन्तु ये किसी को बताते नहीं । सम्भव है आप को बता दें । उनके मेरे पास आने पर मैंने कुशलक्षेम पूछा और फिर उनसे कहा - अब आप बहुत वृद्ध हो गये हो, न जाने कब प्रभु की आज्ञा आ जाये । क्या आप तपेदिक की औषध लेकर ही मरोगे, किसी को बताओगे नहीं ? उन्होंने कहा मैं आपको बता सकता हूँ क्योंकि आप तो सेवा ही करेंगे । उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक वह योग मुझे बता दिया ।
तपेदिक का योग - आक का दूध १ तोला, हल्दी बढ़िया १५ तोले - दोनों को एक साथ खूब खरल करें । खरल करते करते बारीक चूर्ण बन जायेगा । मात्रा - दो रत्ती से चार रत्ती तक मधु के साथ दिन में तीन-चार बार रोगी को देवें । तपेदिक के साथी ज्वर खांसी, फेफड़ों से कफ में रक्त (खून) आदि आना सब एक दो मास के सेवन से नष्ट हो जाते हैं और रोगी भला चंगा हो जायेगा । इस औषध से वे निराश हताश रोगी भी अच्छे स्वस्थ हो जाते हैं जिन्हें डाक्टर हस्पताल से असाध्य कहकर निकाल देते हैं । बहुत ही अच्छी औषध है
यक्ष्मा पर वैद्य बलवन्तसिंह जी का योग
श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी आर्य हरयाणे के माने हुए चिकित्सक हैं । उनका बहुत बार का अनुभूत योग है ।
योग - आक का ताजा दूध १ तोला, हल्दी छोटी गांठों वाली ५ तोले, सर्पगन्धा की जड़ की छाल १० तोले, महारुद्रदन्ती के फल का चूर्ण २० तोले, स्वर्णबसन्तमालती रस १ तोला - सब को इकट्ठा बारीक पीसकर चूर्ण बना लें । मात्रा - चार रत्ती से एक माशे तक दिन में चार बार मधु में मिलाकर रोगी को चटायें । एक-दो मास के निरन्तर प्रयोग से रोग समूल नष्ट हो जाता है । वैद्य जी का यह योग सैंकड़ों रोगियों पर आजमाया हुआ है । निराश हताश रोगी जो अनेक डॉक्टरों वैद्यों से चिकित्सा कराते थक जाते हैं, उन को यह औषध स्वास्थ्य प्रदान करती है । आयुर्वेद की यह जादूभरी औषध है । आजमायें और लाभ उठायें ।
विषकण्टक (जहरीला फोड़ा)
विषकण्टक एक विषैला फोड़ा है जो हाथ के अंगूठे में ही निकलता है । रोगी को बहुत बेचैन कर देता है, सोना और खाना सब हराम हो जाता है । इसकी एक बहुत अनुभूत औषध है जो परम्पराओं से वैद्य हरिश्चन्द्र जी नारनौल (हरयाणा) के कुटुम्ब में चली आती है ।
योग - अंगूठे पर आक के दूध का लेप करके आक का पत्ता बांध देवें । दो-तीन बार ऐसा करने से वह फूट जायेगा । फिर गुड़ के शर्बत से धोयें तथा ज्वार को गोमूत्र में पीसकर लेप कर दें, उसके मुख को खाली छोड़ देवें । मुवाद निकल कर एक छोटी हड्डी निकलेगी और फोड़ा ठीक हो जायेगा । लेप पर लेप करते रहें ।
कण्ठमाला
गले वा ठोडी पर बड़ी वा छोटी सख्त न घुलने वाली गोल गांठ हो जाती हैं, इनको कंठमाला, गलगंड वा बेल कहते हैं । इसे गलग्रन्थी भी कहते हैं । यह कष्टसाध्य रोग है । रोगी को बड़ा कष्ट देता है ।
१. - पीपल बड़ा बारीक चूर्ण कर लें और इसको आक के दूध वा थोहर के दूध में लेप करने से कंठमाला दूर होती है । आक के दूध का लेप दोपहर पश्चात् करना चाहिये । दोपहर लेप करने से आक का दूध चढ़ता है । सूर्य के चढ़ने के साथ आक चढ़ता है इसीलिये आक के सभी नाम सूर्य के नाम-सार्थक हैं ।
२. - आक का दूध, गढ़ल के फूल, तिल का तैल, अपामार्ग का क्षार और जल - सम भाग लेकर इकट्ठे करके कूट-पीस रगड़ कर कंठमाला पर लेप करें । प्रतिदिन लेप करने से एक सप्ताह में यह रोग दूर होता है ।
३. - गुंजादि तैल, श्वेत घूंघची (गुंजा) की जड़, कनेर की जड़ का छिलका, बिधारा के बीज, आक का दूध, सरसों - सब पांच-पांच तोले लेवें । सब को मूत्र के साथ पीसकर गोले बना लेवें और पाँच सेर गोमूत्र, सवा सेर सरसों का तैल सबको कलीदार पात्र में चढ़ाकर पकावें और तैल रह जाये तो दो-तीन बार, यहां तक कि दस बार उपरोक्त वस्तुओं को पुनः पुनः नई नई लेकर डालें । मन्दाग्नि से पकायें । केवल तैल रह जाने पर इसे निथार छान लेवें । इसको कण्ठमाला पर बार-बार लगाने से कण्ठमाला नष्ट हो जाती है । यह गलगण्ड अपची और प्रत्येक प्रकार की कंठमाला के लिए रामबाण औषध है । इसे नियमित रूप से लगाने से पुराना रोग भी नष्ट हो जाता है ।
पथ्य - अपामार्ग की जड़ के मणके बनाकर उसकी माला गले में पहनने से कण्ठमाला रोग में लाभ होता है । इस माला को एक सप्ताह के पीछे बदलते रहें ।
कचनार गूगल जो आयुर्वेद के चिकित्सा ग्रंथों में सर्वत्र लिखा है, इसके निरन्तर प्रयोग करने से कंठमाला समूल नष्ट हो जाता है । यह ऋषियों की इस रोग की अचूक औषध है । सभी पुराने वैद्यों की हजारों बार की अनुभूत औषध है । इसका सेवन करें तथा लाभ उठावें । इस रोग में खाने की सर्वोत्तम औषध है ।
रिसोली की गांठ
ग्रन्थी वा रिसोली की गांठ प्रायः चर्बी और कफ की अधिकता से होती है । पहले इसका सूजन दूर करना चाहिये ।
लेप - आक का दूध, जमालघोटे की जड़, चित्रक की छाल और गुड़ मिलाकर सबको रगड़कर लेप तैयार करें और बढ़ी से बढ़ी हुई गांठ पर लेप करें । इस लेप के लगाने से गांठ पककर फूट जाती है और गन्दा (मुवाद) निकलकर रिसोली वा अर्वुद गांठ नष्ट हो जाती है । यह इसकी सर्वोत्तम चिकित्सा है ।
पथ्य - कचनार गूगल को रोगी को खिला देने से सोने पर सुहागे का कार्य होता है ।
किसी अच्छे जराह वा डाक्टर से शल्यक्रिया कराने अथवा अग्नि से दाग देने से भी यह रोग दूर हो जाता है । किन्तु उपरोक्त लेप इस रोग की सर्वोत्तम चिकित्सा है । इसका प्रयोग करके लाभ उठायें ।
गुल्म वा गोले का रोग
गुल्म वा गोला एक ही रोग होता है । हृदय स्थान, पक्वाशय और नाभि के मध्य में वायु के कुपित होने से वायु का गोला सा उत्पन्न हो जाता है जो बहुत कष्टप्रद होता है ।
कारण - बार-बार अधिक खाने, न पचने वाला भोजन करने, मांस, मछली अभक्ष्य पदार्थों के खाने से, अधिक भार उठाने से, अपने से अधिक बलवान् से कुश्ती करने से, तीनों दोषों के बिगड़ने से, हृदय से मसान तक गांठों के समान गोला उत्पन्न हो जाता है । इसको गुल्म कहते हैं ।
चिकित्सा
पथ्य - वैद्य के लिये आवश्यक है कि गुल्म के रोगी को वायु कुपित करने वाले आहार-व्यवहार से बचाये । गुल्मरोगी को प्रायः कब्ज रहता है । अफारा होता है, अपानवायु नहीं निकलता । इन कष्टों को दूर करने के लिए गाय के गर्म दूध में एक तोला अदरक का रस डालकर पिलाने से लाभ होता है । गर्म जल की बोतल से पेट पर सेक करने से भी लाभ होता है ।
१. - प्लीहा (तिल्ली) के प्रकरण में लिखे वज्रक्षार के प्रयोग से गुल्म रोग में बहुत लाभ होता है ।
२. - सूँठ, काली मिर्च, पीपल बड़ा, लौंग, हींग घी में भुनी हुई सब सम तोल लेवें और इन सबके समान भाग आक के फूल (छाया में सुखाये हुए) लेवें । इन फूलों से आधा काला लवण लेवें । सबको कपड़छान कर लेवें ।
मात्रा - दो माशे से चार माशे तक गर्म जल के साथ दिन में दो-तीन बार लेने से वायु और कफ का गुल्म (गोला) रोग दूर होता है ।
ज्वर चिकित्सा
आक का फूल जो अभी खिला न हो, केवल एक फूल की डोडी वा कली लेकर गुड़ में लपेटकर तेइया की बारी के दिन खिलायें, ज्वर नहीं चढ़ेगा ।
वातज्वर
वातज्वर में शरीर का कांपना, मुख गले का सूखा रहना, नींद कम आना, पेट दर्द, कब्ज, अफारा, शरीर, पैर और सिर में पीड़ा (भड़क), जम्भाई आना, छींक न आना आदि उपद्रव होते हैं ।
गोदन्ती भस्म को आक के पत्तों के रस में खरल करके टिकिया बनाकर धूप में सुखायें और मिट्टी के पात्र में बन्द करके गजपुट की आग दें । इस प्रकार तीन बार करें, बहुत बढ़िया भस्म बनेगी।
मात्रा - एक रत्ती से दो रत्ती तक मुनक्का के बीज निकालकर उसमें भस्म लपेटकर रोगी को खिलायें । दिन में तीन-चार बार देवें और ऊपर से थोड़ा गाय का दूध, मिसरी मिला कर पिलायें । इसकी तीन-चार मात्रा से वातज्वर दूर होगा ।
कफज्वर
कफज्वर में रोगी को खांसी, श्वास, हिचकी, भोजन में अरुचि तथा इसमें नींद बहुत आती है तथा तन्द्रा रहती है । मुख में जल आता रहता है तथा मुख का स्वाद अत्यन्त बुरा रहता है ।
चिकित्सा
१. - बारहसिंगा के सींग के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें । उन्हें मिट्टी के पात्र में डालकर ऊपर से आक का दूध इतना डालें कि वे श्रंग के भाग सब डूब जायें । सम्पुट करके गजपुट की आग देवें । यह क्रिया तीन बार करें । अत्यन्त श्वेत रंग की भस्म बनेगी ।
मात्रा - आधा रत्ती से एक रत्ती तक शहद में मिलाकर दिन में तीन-चार बार देवें । पसलियों की पीड़ा, खांसी, निमोनिया सब दूर होंगे ।
२. - शंख बीस तोले साफ कर लें तथा टुकड़े बनाकर मिट्टी के बर्तन में डालकर आक का दूध इसमें भर देवें जिसमें शंख के टुकड़े डूब जायें । फिर सम्पुट करके गजपुट की आग देवें और इसी प्रकार सात बार आक के दूध की भावना देकर आग देवें । बहुत अच्छी भस्म बनेगी ।
मात्रा - एक रत्ती से दो रत्ती तक मधु के साथ अथवा मुनक्का में, दिन में दो बार देने से खांसी, श्वास, कफ ज्वर, हिचकी आदि सब रोग दूर होंगे ।
भस्म अभ्रक काली - शुद्ध अभ्रक टुकड़े-टुकड़े करके आक के पत्तों के जल में तीन दिन तक खरल करें और गजपुट की आग देवें तथा इस प्रकार बारह बार खरल करें और गजपुट की आग देवें तथा इस प्रकार बारह बार खरल करके आग देवें । बहुत ही बढ़िया भस्म तैयार होगी । रोगी को एक रत्ती से दो रत्ती तक मधु के साथ सेवन कराने से कफ ज्वर, खांसी सब दूर भागेंगे ।
पथ्य - कफज्वर के रोगी को उष्ण जल जो खूब पकाया हो, वह देवें । कफज्वर के रोगी को आरम्भ में उपवास करायें । ज्वर उतरने पर भूख लगे तो मूंग की दाल का पानी, काली मिर्च, सौंठ आदि डालकर पिलायें । घी, चिकनाई, किसी प्रकार की न देवें । गाय का दूध, काली मिर्च, सौंठ, पीपल उसमें उबाल कर पिलायें ।
गोदन्ती भस्म
गोदन्ती हड़ताल १० तोले को घी गंवार के रस में भस्म बना लें । फिर इस भस्म को आक के पत्तों के रस में खरल करके टिकिया बनाकर धूप में सुखा लेवें । फिर गजपुट की आग में फूंकें और इस प्रकार तीन बार करने से इसकी अच्छी भस्म बनेगी ।
मात्रा - १ रत्ती से २ रत्ती तक मुनक्का में लपेट कर रोगी को दो तीन बार देवें । ऊपर से गाय का दूध देवें । वातज्वर दूर हो जायेगा । रोगी को गर्म जल ही पिलावें ।
शोथ वा सूजन
आक के पत्ते, विषखपरा, नीम का छिलका - इनका क्वाथ करके सूजन वाले रोगी को छींटे लगाने से शोथ (सूजन) दूर होता है ।
शोथ पर शोथ उदरादि लोह आयुर्वेद का प्रसिद्ध योग है । उसमें आक की जड़ की छाल पड़ती है । किसी फार्मेसी वा वैद्य से बनी हुई ले लेवें । बड़ा योग है, स्वयं बनाना कठिन है ।
इसकी मात्रा १ माशे से ३ माशे तक गर्म जल, गर्म गोदुग्ध, अर्क सौंफ अथवा दही के मट्ठे (तक्र) के साथ लेवें । इसके प्रयोग से शोथ, गोले का रोग, पीलिया, पाण्डुरोग, अर्शादि सभी उदर रोग दूर होते हैं ।
मुटापा
१. - आक की जड़ का छिलका, अरंड की जड़ का छिलका, त्रिफला - तीनों सम भाग करके कपड़छान कर लें और रात्रि को आधा पाव गर्म जल में ६ माशे भिगो देवें । प्रातःकाल मल छानकर इसमें चार तोले शहद मिलाकर पिलायें । यह औषध चालीस दिन देने से मोटापा दूर होगा । औषध की मात्रा थोड़ी-थोड़ी बढ़ाकर १ तोले तक लेवें ।
२. - सौंठ, काली मिर्च, पीपल बड़ा, हरड़, बहेड़ा, आंवला, आक की जड़ का छिलका - सब एक-एक तोला, काला लवण दो तोले कपड़छान कर लेवें । इसमें से चार माशे तक उष्ण जल के साथ लेने से मोटापा दूर होगा ।
बद्ध की चिकित्सा - आक के पत्तों पर अरंड का तैल चुपड़कर आग पर सेक लें और बद्ध पर बांधें । कुछ दिन बांधने से बद्ध दूर होगी ।
उपदंश वा आतशिक
आक की जड़ का वल्कल (छाल) एक-दो रत्ती शहद वा गाय के मक्खन वा मलाई के साथ एक मास खिलाने से पूर्ण लाभ होगा । अनुभूत है ।
कुष्ठ
कुष्ठ रोग के अठारह प्रकार होते हैं । इसमें सात महाकुष्ठ और ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ कहाते हैं ।
कारण - वात, पित्त और कफ दूषित होकर शरीर के रस, रक्त, मांस, चर्बी आदि धातुओं को बिगाड़ देते हैं और कुष्ठ वा कोढ़ की उत्पत्ति का कारण बनते हैं ।
चिकित्सा
श्वित्र (सफेद कोढ़) फुलबरी - जो फुलबरी नई हो, जिसके बाल सफेद न हुए हों, सूई चुभोने पर रक्त (खून) निकलता हो वह साध्य है, उसकी चिकित्सा हो सकती है ।
तालेश्वर रस - आक का दूध, घी गंवार का रस, हल्दी, करंजवे की गिरी, घुंघची, शंख भस्म, भिलावा शुद्ध, कलिहारी, गंधक शुद्ध, पारा शुद्ध, वायबिडंग, काली मिर्च, मधु और शहद - सब एक-एक तोले को आठ गुणा गोमूत्र में पकायें । खूब गाढ़ा होने पर सुरक्षित रखें ।
मात्रा - दो रत्ती से १ माशे तक प्रतिदिन प्रयोग करने से फुलबरी आदि सभी कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं ।
भूतभैरव रस - हड़ताल बरकिया शुद्ध १५ तोले, गंधक शुद्ध ६ तोले, बढ़िया नई इमली १५ तोले, कत्था १० तोले - इन सबको बारीक पीस लें । आक के दूध और थोहर के दूध, दोनों में सात-सात दिन तक निरन्तर खरल करें । फिर रोहिड़ा (रोहितक) की जड़ के क्वाथ में खरल किया हुआ पारा १ तोला इसमें मिलायें तथा २ रत्ती से १ माशे तक ताजे जल के साथ प्रयोग करें । यह भी श्वेत कुष्ठ आदि सभी कुष्ठ रोगों की उत्तम औषध है ।
अर्केश्वर रस - पारा शुद्ध १६ तोले, गंधक शुद्ध ४८ तोले, तांबे के बारीक पत्र ४८ तोले - सब को एक खरल में डालकर इसका गोला बनाकर मिट्टी की हांडी में रखकर एक सकोरे से ढ़क देवें और उसके ऊपर खूब राख भर देवें और हांडी का मुख दृढ़ता से बन्द कर देवें । इसके नीचे ६ घण्टे तक आग जलायें । ठण्डा होने पर औषध को निकालकर आक के दूध में एक दिन खरल करें और पहले की भांति ६ घण्टे तक आग देवें । यही क्रिया न्यून से न्यून १२ बार करें ।
श्लीपद
जिन प्रदेशों में वर्षा अधिक होती है और वर्षा का जल खड़ा रहता है, जहां सदैव सीलन वा ठण्डक रहती है, वहां यह रोग हो जाता है । इस रोग को यूनानी में फील पांव अर्थात् हाथी पांव भी कहते हैं । इस रोग में सूजन पेडू वा जांघों में उत्पन्न होकर पांवों में चली जाती है और साथ ही ज्वर भी उत्पन्न करती है । यह रोग शरीर के अन्य अंगों पर हो जाता है, कुछ वैद्यों का मत है ।
प्रारम्भ में इस रोग में स्वेदन, उपवास, विरेचन (जुलाब), दाग देना, खून निकलवाना आदि हितकर होते हैं ।
१. लेप - सफेद आक की जड़ का छिलका कांजी वा सिरके में पीसकर लेप करने से यह हाथी पांव रोग दूर हो जाता है ।
२. - आक की जड़ का छिलका, चित्रक छाल, सौंठ, देवदारू का बुरादा - इन सब को सम भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर निरन्तर लेप करने से यह रोग दूर होता है ।
३. बिडंगादि तैल - बायविडंग, आक की जड़, काली मिर्च, सौंठ, चित्रक छाल, देवदारू चूर्ण, एलवा, सैंधा लवण आदि पांचों लवण अलग-अलग तथा नौशादर - सबको दस-दस तोले लेवें और कपड़छान कर लें । तिलों का तैल चार सेर, जल सोलह सेर को कलीदार पात्र में मन्दाग्नि से पकायें । तैल शेष रहने पर निथार कर छान लें । इसमें से १ तोला गर्म जल के साथ प्रतिदिन लेने से और इसी तैल की मालिश करने से यह हाथीपांव (श्लीपद) रोग दूर होता है ।
पथ्य - बढ़िया हरड़ों को अरंड के तैल में भून लें और छः माशे से एक तोले तक १० तोला गोमूत्र के साथ लेवें । यह भी बहुत अच्छी औषध है । इस रोग में श्लीपद, गजकेसरी, पिपल्यादि चूर्ण और नित्यानन्द रस का सेवन भी बहुत लाभप्रद है ।
नाड़ीव्रण (नासूर)
जब कोई व्रण (फोड़ा) बिगड़ जाता है और बढ़ा हुआ गन्दा मुवाद रक्त में मिलकर शरीर की नस नाड़ियों में प्रविष्ट हो जाता है और पीछे किसी भाग से शनैः शनैः बहने लगता है तो इस प्रकार के व्रण (फोड़े) को नासूर वा नाड़ीव्रण कहते हैं ।
१. - थोहर का दूध, आक का दूध, दारूहल्दी का कपड़छान किया हुआ चूर्ण - इन तीनों की बत्ती बनाकर नासूर में रखने से यह जख्म ठीक हो जाता है ।
२. - आक के पत्ते, चमेली के पत्ते, अमलतास, करंजवे की गिरी, जमालघोटे की गिरी, सैंधा नमक, काला नमक, जोखार, चित्रक - सबको समभाग लेवें और कपड़छान कर लेवें और थोहर के दूध में बत्ती बनाकर नासूर में रखें । इसके प्रयोग से नासूर दूर होता है
भगन्दर
१. - थोहर का दूध, आक का दूध, दारूहल्दी का बारीक चूर्ण - इन तीनों को इकट्ठा पीसकर भगन्दर के जख्म में भर दें । इससे यह रोग शान्त हो जायेगा ।
२. निशादि तैल - हल्दी, आक का दूध, सैंधा नमक, गूलर का छिलका, कनेर का छिलका, गूगल, इन्द्रजौ - सबको समान भाग लेकर जल के साथ पीसकर गोला बनायें और इससे दुगुना तिल का तैल और तैल से चौगुना जल लेवें । सबको मन्दाग्नि पर पकावें । तैल शेष रह जाने पर निथार छानकर भगन्दर के जख्म पर निरन्तर लगाने से बहुत शीघ्र लाभ होता है ।
निस्यन्दादि तैल से भी यह रोग दूर होता है और इस तैल में भी आक का दूध डाला जाता है ।
स्नायु रोग (नहारवा)
यह एक प्रकार का विषैला फोड़ा होता है जो उन मरुभूमि (बागड़ आदि) प्रदेशों में होता है जहाँ जोहड़ तालाब का जल पीया जाता है ।
हाथ-पांव आदि सूजकर सूत के समान एक धागा फोड़े के पक कर फूटने से निकलता है । यह धागा शनैः शनैः बाहर निकलता हुआ रोगी को बड़ा कष्ट देता है ।
तिल का तैल गर्म करके नाहरवे पर लगावें और आक के पत्तों को सेक कर उन पर तैल लगाकर बांध देवें । इससे निश्चय से यह रोग चला जाता है ।
पथ्य - अश्वगन्धादिघृत के सेवन से इसमें बड़ा ही लाभ होता है ।
कर्ण रोगों पर आक
१. - पीले रंग के पके हुए आक के पत्तों पर घी चुपड़ कर आग पर सेकें, फिर इनका रस निचोड़कर और इस रस को थोड़ा गर्म करके कानों में डालने से कर्ण पीड़ा (दर्द) दूर होती है ।
२. - आक के नर्म-नर्म पत्तों को कांजी के साथ पीसकर इसमें सैंधा लवण और सरसों का तेल मिलाकर डण्डा थोहर के खोल में भर दें और ऊपर से सम्पुट करके आग पर सेक लें और फिर निचोड़ कर रस निकालें । इस रस को कानों में डालने से पीड़ा तुरन्त दूर होगी ।
३. - तिल का तैल एक पाव, धतूरे का रस १ सेर और आक के पत्ते १४ - तीनों को कढ़ाई में चढ़ाकर अग्नि जलायें । तेल शेष रहने पर उतार लेवें । इस तेल को कानों में डालने से कान के सभी रोग बहना, पीड़ा, बहरापन आदि दूर होते हैं ।
नाक के रोग
आक का दूध १ तोला, चित्रक छाल, चोया, अजवायन, कण्टकारी, करंजवे के बीज, सैंधा नमक - सब एक-एक तोला । सब को बारीक पीसकर गोला बनायें तथा २४ तोले तिल का तैल और ९९ तोले गोमूत्र लेवें । सबको आग पर पकायें । तैल शेष रहने पर निथार छान लें तथा इसकी नसवार लेने से नाक की बवासीर दूर होती है ।
नस्य वा नसवार
आक के दूध में चावलों को खूब भिगोवें । छाया में सुखा कर कपड़छान कर लेवें । इसकी नसवार लेने से छींक आकर नाक खुल जाता है तथा जुकाम ठीक हो जाता है । रुका हुआ नजला बह कर निकल जाता है । यह बहुत तेज नसवार है अतः थोड़ी लेनी चाहिये । अधिक छींक आयें तो गर्म करके घी सूँघ लेवें ।
एड़ियों की पीड़ा
यह पीड़ा जो पैर की ऐड़ी में हो जाती है, वह किसी औषध से दूर नहीं होती, कुछ दिन आक के फूलों को जल में खूब पकायें तथा इसकी भापों से खूब सेकें तथा पीछे फूलों को भी गर्म-गर्म हालत में ऐड़ियों पर बांधकर सो जायें । कुछ दिन यह चिकित्सा करने से यह रोग दूर होता है । अनेक बार की अनुभूत औषध है ।
शरीर के किसी भी अंग पर पीड़ा होवे तो वह उपरोक्त औषध से ठीक हो जायेगी ।
कुष्ठ
१. विष तैल - आक का दूध, कनेर की छाल, करंजवे की गिरी, हल्दी, दारूहल्दी, तगर, कुठ, बच, लाल चन्दन, मालती के पत्ते, सतोना, मंजीठ, सिन्दूर सब दो-दो तोले, मीठा तेलिया चार तोले - सब को जल में पीसकर चटनी सी बना लें । तैल सरसों ६४ तोले और गोमूत्र २५६ तोले डालकर तांबे के पात्र में पकायें । मन्दी आग जलायें । केवल तैल रह जाये तो उतार छानकप रख लें । इस तैल के लगाने से सब प्रकार के कुष्ठ दूर होते हैं, दाद खुजली की विशेष औषध है ।
२. करवीरादि तैल - श्वेत करवीर (कनेर) की जड़ का छिलका १० तोले, आक का दूध १० तोले, मीठा तेलिया १० तोले - इनको घोट कर गोला सा बना लें । १२० तोले तिल का तैल, ४८० तोले गोमूत्र लेकर तांबे के पात्र में पकायें, मन्दी आंच हो । तेल के शेष रह जाने पर उतार छान लें । इस तेल मे लगाने से प्रत्येक प्रकार का कुष्ठ दूर हो जाता है ।
३. - गोमूत्र में शुद्ध की हुई बावची तथा शुद्ध गन्धक सभी मिलाकर मधु के साथ ३ माशे प्रातः सायं सेवन करने से श्वेत कुष्ठ (फूलबरी) दूर होता है ।
उदर रोग
शोथ उदरादि लोह - आक की जड़ का छिलका आधा सेर, विष खपरा, गिलोय, चित्रक, गुल सिकरी, मनकन्द, सुहांजना की जड़ का छिलका, हुलहुल बूटी की जड़ ये सभी आध-आध सेर - इन सबको कूट-छान फौलाद (लोह) भस्म आधा सेर, आक का दूध १० तोले, थोहर का दूध २० तोले, शुद्ध गन्धक ४ तोले, शुद्ध गूगल १० तोले, शुद्ध पारा २ तोले - पारा और गन्धक को एक साथ रगड़ कर सुर्मे के समान पीसें । सर्वप्रथम क्वाथ का आठ सेर जल कढ़ाई में डालकर आग पर चढ़ायें । इसमें पारा गन्धक की कजली और भस्में मिलाकर मन्दी आग पर पकायें । जब गाढ़ा हो जाये, ऊपर का सभी शेष मिला लें तथा निम्नलिखित वस्तुयें बारीक पीसकर कपड़छान कर इसी में मिला देवें ।
शुद्ध जमालघोटे की गिरी, ताम्र भस्म, मुर्दासंग, चित्रक की छाल, जमीकन्द, सरफूंका, ढ़ाक के बीज, त्रिफला, बायबिडंग, निसौत सफेद, जमालघोटे की जड़, गुलसिकरी की जड़, विषखपरे की जड़, हडगोड़ बूटी प्रत्येक अढ़ाई तोले । यही शोथोदरादि लोह है । मात्रा ४ रत्ती से ३ माशे तक अर्क सौंफ, उष्ण जल के साथ अथवा गोदही की छाछ के साथ प्रयोग करने से सभी उदर रोग, बवासीर, गोला, पाण्डू, सूजन दूर होते हैं ।
लेप - अर्क छाल, दियार का बुरादा, ढ़ाक, गज पीपल, सुहांजने की छाल, अश्वगन्ध नागौरी - इन सब को गोमूत्र में पीसकर पेट पर गाढ़ा लेप करें । इससे उदर रोग नष्ट होते हैं ।
तिल्ली रोग
आक के पत्ते १ सेर, सैंधा लवण १ सेर इन दोनों को हांडी में एक दूसरे के ऊपर तह बनाकर रखें । जलाकर पीसकर रख लें । मात्रा १ माशा गर्म जल वा गोमूत्र के साथ लेने से तिल्ली का रोग नष्ट हो जाता है । यह औषध श्वास और कास रोग को भी दूर करती है ।
१. - आक की कली ६ तोला, काली मिर्च ३ तोले, सैंधा लवण ३ तोले, लौंग ८ माशे, कली का चूना ३ माशे, शुद्ध अफीम डेढ़ माशा - इन सब औषधियों को कपड़छान करके एक भावना अदरक के रस की देवें और दूसरी भावना नींबू के रस की देवें और चणे के समान गोलियां बना लें । गर्म जल के साथ एक गोली से चार गोली तक देवें । इस से सर्वप्रकार की उदरपीड़ा (पेट दर्द), आमाशय के रोग, अजीर्णता आदि दूर होते हैं । विशूचिका (हैजा) में गुलाब जल के साथ देने से बड़ा लाभ होता है ।
२. - आक के फूल सूखे कूट करके आक के पत्तों के रस में तीन दिन तक खरल करके चने के समान गोलियां बनायें । इन में दो गोली उष्ण जल के साथ देने पर कठिन से कठिन उदरशूल (पेट दर्द) को तुरन्त आराम होता है ।
३. - आक के फूल १ तोला, लाहौरी नमक १ तोला, पीपल १ तोला - इन सबको कूट पीस कर काली मिर्च के समान गोलियां बनाएं । रात को सोते समय बालक को एक गोली तथा बड़ों को दो गोली देने से सर्व प्रकार के श्वास और खांसी में लाभ होता है । वहीं पेट दर्द, हैजा और सोते समय लार बहने के रोग में भी यह बहुत अच्छी औषध है ।
४. - आक के हरे फूलों का रस २ सेर, इस रस में १ सेर आक का दूध और सवा सेर गाय का घी अग्नि पर चढ़ा के धीमी आंच से पकायें । घी के शेष रहने पर उतार छान कर सुरक्षित रखें । यह अर्कघृत आंतों के कृमियों (कीड़ों) को नष्ट करने के लिए अमूल्य औषध है । आंतों के कीड़ों के कारण पाचनशक्ति बिगड़ गई हो और जिसको बवासीर हो उनको इस घी की मात्रा तीन माशे से ६ माशे तक आधा पाव दूध के साथ देने से बहुत लाभ होता है ।
५. - सज्जीक्षार ५ तोले, नौसादर ५ तोले, सैंधा नमक अढ़ाई तोले, सौंचर नमक अढ़ाई तोले - इन सब वस्तुओं को ४० तोले आक के दूध में ४० तोले थूहर का दूध घोट कर एक हांडी में भर कर कपड़-मिट्टी कर गजपुट की आग में फूंक लें । शीतल होने पर राख निकालकर तोल लेवें और उसका पांचवां भाग चित्रक छाल, पांचवां भाग हरड़ की छाल, पांचवां भाग बहेड़ा, पांचवां भाग आंवला और पांचवां भाग निसोत छाल लेकर सब को कूट छानकर ऊपर वाली औषध में मिला लें । मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक । इसमें २ रत्ती शंख भस्म मिला लेवें । इसके सेवन से यकृत दोष, कलेजा के सब रोगों को ठीक करती है । पत्थर के समान सख्त पेट को यह धीरे धीरे नर्म करके रोग रहित कर देती है । यह आनाह (अफारा) और कोष्ठबद्धता (कब्ज) को दूर करने के लिए रामबाण औषध है । गोमूत्र अथवा कुमारी आसव के साथ लेने से तो सोने पर सुहागे का कार्य करती है ।
६. - आक के पीले पत्ते १००, करंजवे के पत्ते १००, वरुण की छाल ४० तोले, थूहर (नागफण) के डोडे १०० तोले, घीग्वार का रस ८ तोले, गूगल २ तोले, लहसुन २० तोले, काङ्कज की छाल २० तोले, सौंचर नमक १२ तोले, सोंठ ७ तोले, काली मिर्च ७ तोले, पीपल ७ तोले, समुद्र नमक ४० तोले, विड नमक ४ तोले, अजवायन २ तोले, अजमोद २ तोले, हींग ४ तोले, काला जीरा ४ तोले, राई १६ तोले, चित्रक छाल ३२ तोले - इन सब औषधियों को कूट छानकर १६ तोले आक का दूध और १६ तोले सरसों का तैल डालकर एक हांडी में भरकर कपड़ मिट्टी करके सुखा देवें और आग पर चढ़ा कर औषधियों की राख बना देवें । कपड़छान करके सुरक्षित रक्खें । मात्रा ६ माशे गाय की छाछ के साथ देवें । पुराना अजीर्ण, मन्दाग्नि, स्ब उदर रोग कुछ दिन में दूर होंगे । यह पाचक तथा रेचक है । इसलिए वायु गोला, गुल्म, उदर शूल, अजीर्ण आदि रोगों के लिए अमृत है ।
विसूचिका वा हैजा
१. - आक के फूलों के अन्दर की लौंग १ तोला, काली मिर्च १ तोला और १ तोला अदरक मिलाकर घोटकर चने के समान गोलियां बनायें । इसमें से एक गोली हैजे के रोगी को सौंफ के वा पौदीने के जल के साथ देने से तुरन्त लाभ होता है ।
२. - आक के जड़ की छाल १ तोला, काली मिर्च १ तोला - दोनों को बारीक पीसकर चने के समान गोलियां बनायें । दो गोली अर्क-सौंफ वा अर्क-सिकंजवीन के साथ देने से हैजे की कठिन अवस्था में मरणासन्न रोगी को भी तत्काल लाभ होता है ।
३. - आक की जड़ की छाल १ तोला, काली मिर्च ३ माशे, सौंचर नमक ३ माशे - इन सब को बारीक पीसकर चने के समान गोली बनायें, ६ माशे घी के साथ एक-एक गोली देने से निराशा की अवस्था में भी लाभ होता है ।
नेत्र रोग
१. - सफेद आक की जड़ को मक्खन के साथ पीसकर आंख में लगाने से नेत्र-ज्योति तेज होती है ।
२. - पुरानी ईंट का महीन चूर्ण एक तोला लेकर आक के दूध में भिगोकर सुखा लें और छः दाने लौंग को पीसकर इसमें मिला लें । थोड़ा सा चूर्ण नाक द्वारा सूंघने से मोतियाबिन्द में लाभ होता है ।
३. - बंगसेन का कथन है - १ तोल आक की जड़ की छाल को कूटकर पाव भर जल में घण्टे भर भिगोकर उस जल को छान लें । इस जल की बूंद आंख में डालने से आंख की लाली, भारीपन और आंख की खुजली दूर होती है ।
४. - पुरानी रूई को तीन बार आक के दूध में भिगोकर छाया में सुखा लें । फिर उसको सरसों के शुद्ध तैल में तर करके सीपी में जला लें । फिर जली हुई बत्ती की राख को बारीक पीसकर आँख में डालने से आँख का फोला कट जाता है । अच्छी औषध है । यदि गोघृत में उपरोक्त कार्य किया जाए तो अधिक लाभ होगा ।
कर्ण रोग
कर्णशूल, कर्णनाद, कर्णस्राव अथवा कान का बहना आदि रोग होते हैं । इनकी चिकित्सा लिखी जाती है ।
१. अर्कादि तैल - आक के पत्तों का रस १ सेर, अरण्ड के पत्तों का रस १ सेर, मूली के पत्तों का रस १ सेर, धतूरे के पत्तों का रस १ सेर, थोहर का दूध १ सेर, अमलतास के पत्तों का रस १ सेर, तिलों का तैल १ सेर - सब को पकायें । इसमें १ छटांक सैंधा लवण, हल्दी १ छटांक - इनको ४ सेर गोमूत्र में मिलाकर साथ डाल दें । मन्द अग्नि से पकायें, तैल रह जाने पर निथारकर रख लें । इसे थोड़ा गर्म करके दोनों समय कान में डालने से बहरापन, कान का बहना, कर्णशूल आदि सभी रोग दूर होंगे ।
२. - आक के पत्तों का रस १ सेर, १ सेर बेलगिरी को पीस कर गोमूत्र में गोला बनायें । पांच सेर तिलों का तैल और २० सेर गाय का दूध मन्द आग से पकायें, तैल शेष रहने पर निथार छान लेवें । इसको कानों में डालने से बहरापन दूर होगा ।
३. - आक के फूल और कोमल पत्तों को कांजी में पीसकर और सैंधा लवण और तिल का तैल मिलाकर थोहर के डंडे को पोला (खोखला) करके उसमें भर देना चाहिये । फिर उस डंडे के चारों ओर आक के पत्ते लपेटकर धागे से बांध कर कपरोटी कर दें, सूखने पर आग में पकायें । ऊपर की मिट्टी लाल होने पर उसे निकाल लें और उसका गर्म-गर्म रस कान में टपकाने से कान की सर्व प्रकार की पीड़ा सर्वथा दूर होती है ।
४. - पोहकरमूल, दालचीनी, चित्रक, गुड़, दन्तीबीज, कुठ और कसीस को आक के दूध में पीसकर लेप करने से कर्णपीड़ा नष्ट होती है ।
नाक के रोग
१. - एक छटांक चावलों वा अरणों की राख को आक के दूध में भिगो लें । सूख जाने पर बारीक पीस लें । इसके सूंघने से छींकें आयेंगी, बन्द नाक खुलकर बहने लगेगा । जुकाम, सिरदर्द दूर होगा ।
२. - गोसों वा आरणों की राख को आक के दूध में भिगोकर उपरिलिखित नसवार भी बनायी जाती है जो लाभदायक तथा सस्ती भी है । कौड़ी भी इस पर व्यय नहीं होगा । सूंघने से खूब छींकें आती हैं ।
अर्क विष तथा अर्क से विष-चिकित्सा
किसी व्यक्ति को संखिया, वत्सनाभ (मीठा तेलिया), कुचला आदि दिया गयाहो तो पहले खूब वमन (कै) करानी चाहिये । विलम्ब होने पर विरेचन देना चाहिये । दूध में घी मिलाकर बार-बार पिलाने से सब विष शान्त होते हैं । आक स्वयं भी एक उपविष है । इसके विष को दूर करने के लिये निम्न उपाय करें ।
१. - यदि किसी मनुष्य ने आक के पत्ते, फूल वा दूसरा भाग अधिक मात्रा में खा लिया हो तो उसको ढ़ाक (पलाश) के पत्तों का क्वाथ बनाकर पिलाएं । इससे आक का विष दूर होगा ।
२. - यदि अर्क का दूध लगने से जख्म हो जाये तो ढ़ाक के पत्तों का क्वाथ बनाकर उससे जख्म को अच्छी प्रकार से धोने से लाभ होता है । इस प्रकार आक की औषध ढ़ाक है ।
३. - बिनौले की गिरी ४ तोले, ठण्डाई से समान घोटकर पिलाने से आक का विष तुरन्त बिना किसी कष्ट के दूर हो जाता है ।
भिरड़, ततैय्या मक्खी का विष
भिरड़ ततैये वा मधुमक्खी के काटने पर काटे हुए स्थान पर आक का दूध लगाएं । विष और पीड़ा दूर होगी, सूजन भी नहीं चढ़ेगी । भिरड़ ततैय्ये के डंक को निकालकर दूध लगाने से शीघ्र लाभ होता है । मच्छर आदि काट जाये तो उस स्थान पर लगाने से विष तथा पीड़ा खुजली दूर होती है ।
पागल कुत्ते का विष
१. - पागल कुत्ते के काटे हुए स्थान पर आक के दूध का लेप करने से कुछ दिन में विष दूर हो जाता है
२. - आक के दूध में सिन्दूर मिलाकर पागल कुत्ते के काटे हुये स्थान पर बार-बार लेप करने से कुछ दिन में विष दूर हो जाता है ।
३. - आक का दूध, गुड़ और तिलों का तैल - तीनों वस्तुओं को मिलाकर प्रयोग करने से कुत्ते का विष इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार तेज वायु से बादल नष्ट हो जाते हैं । मात्रा १२ तोले । चार-पांच बार प्रयोग करायें ।
पागल कुत्ते के काटे हुए स्थान को तुरन्त जला देना चाहिये वा पछने लगाकर सींगी लगाकर खून निकाल देने से विष निकल जाता है ।
मकड़ी का विष
करंजवे की गिरी, आक का दूध, कनेर की छाल, अतीस, चित्रक छाल, अखरोट - इन सबको जल में पीसकर पिष्टी बनाकर इससे चार गुणा सरसों का तैल, तैल से चार गुणा जल - सबको कली वाले पात्र में पकायें, तैल शेष रहने पर निथार लें । मकड़ी के काटे स्थान पर लगाने से सब कष्ट दूर होता है ।
नपुंसकता का रोग
१. भस्म संखिया श्वेत - संखिया की पांच तोले की एक डली ले लेवें और उसे लोहे की कड़छी में रखें और इसे चूल्हे पर रखकर मन्द-मन्द अर्थात् धीमी आंच जलायें । इस पर आक का दूध पांच सेर पक्के का चोया दें अर्थात् टपकाते रहें अर्थात् एक बार संखिया की डली को अर्क दूध से ढक देवें । जब दूध जल जाये तो और डाल दें । जब जले हुये दूध की बहुत सी मैल इकट्ठी हो जाए तो उसे दूर कर दें तथा आक का दूध डालते रहें । जब सारा पांच सेर दूध जल जाये तो डली को लेकर तीन दिन तक अर्क के दूध में ही खरल करें और टिकिया बना सुखा लें । फिर पांच तोला मीठा तेलिया (वत्सनाभ) लेकर इसको खूब बारीक पीस लें और कपड़छान कर लें और आक के दूध में गूंदकर संखिया की टिकिया पर लपेट देवें । सूख जाने पर एक मिट्टी की हांडी में रखकर हंडिया के मुख पर सावधानी से एक प्याला जोड़ देवें और कपड़मिट्टी से सम्पुट कर सुखा लेवें और चूल्हे पर चढ़ाकर सर्वथा धीमी-धीमी अग्नि जलावें । पूरी आठ घण्टे आग जलाने के पश्चात् आग बुझा देवें तथा हांडी को ठंडी होने पर प्याले तथा हांडी में उड़कर लगे हुये जोहर को ले लेवें । यही संखिया की भस्म है । मात्रा आधे चावल से एक चावल तक है । दूध की मलाई के साथ दिन में केवल एक बार प्रयोग करें और ऊपर से पुष्टिकारक घी दूध का भोजन करें । यह भस्म बूढ़ों को जवान बनाती और नपुंसकों को पुंस्त्व प्रदान करती है । अमोघ औषध है । इसके प्रयोग करने वालों को तैल, खटाई, लाल मिर्च से बचना चाहिये तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । यदि हांडी में कुछ नीचे बचा रह जाये तो अग्नि जलाकर फिर जोहर उड़ा लेना चाहिए ।
२. नपुंसकता नाशक तिला - संखिया श्वेत की डली पांच तोले लेकर आक के दूध में भिगो देवें और निरन्तर सात दिन तक भीगा रहने देवें, फिर इसे निकालकर गाय के बहुत अच्छे बीस तोला घृत में इक्कीस दिन तक खरल करें । तत्पश्चात् इसे दूध में रख देवें और जितना घृत निथर जाये उसे रूई के फाये द्वारा शनैः शनैः ले लेवें और इस घृत में निम्नलिखित वस्तुयें प्रति तोले के हिसाब से बारीक पीसकर मिला देवें ।
केसर १ माशा, कस्तूरी ४ रत्ती, अकरकरा ४ रत्ती, लौंग ४ रत्ती, अत्तर कस्तूरी २ माशे - इनको मिलाकर शीशी में रखें । यह अद्वितीय औषध तिला है । इसकी मालिश से उपस्थेन्द्रिय पर लाल पित्ती सी निकल आती है । जब पर्याप्त पित्ती निकल आयें और पर्याप्त सूजन वा कष्ट हो तो इसे लगाना छोड़ देवें, घी गर्म करके लगावें । इसके एक-दो बार प्रयोग करने से सब निर्बलता दूर होकर नपुंसकता दूर हो पुनरपि पुंस्त्वशक्ति प्राप्त होती है ।
३. रोगन सिंगरफ - सिंगरफ रूमी पांच तोले की डली लेकर इसे एक मास तक अर्क के दूध में डुबोये रखें । तत्पश्चात् १० सफेद प्याज लेकर इन्हें रगड़कर गोला सा बनावें । उसके बीच में सिंगरफ की डली को रखकर कपरोटी कर लें । फिर सूखने पर आध घण्टे तक कोयलों की आग में रखें । फिर डली को निकाल नीम के पानी तथा शहद में बुझायें । इकतालीस बार यही क्रिया करें । प्रत्येक तीन बार में नये प्याज बदलें । इस कार्य को करके डली को पन्द्रह तोले हिरणखुरी के रस में खरल करें । फिर ५ तोला आक के दूध में खरल करके गोलियां बनायें और इन गोलियों को एक छोटी सी आतिशी शीशी में भरकर शीशी के मुख में लोहे के तार वा बाल भर देवें और शीशी को पाताल यन्त्र में रखकर दो सेर बकरी की मींगनों की आग देवें । जितना सिंगरफ का तैल निकले, उसे शीशी में सुरक्षित रखें ।
मात्रा - १ बूंद पान वा मलाई में रखकर खायें । प्रकृति का खेल देखें । यह पुंस्त्व की वृद्धि करने वाली अद्वितीय औषध है ।
४. संखिया की भस्म श्वेत - दो तोले सफेद संखिया की डली लेकर एक सप्ताह तक आक के दूध में भिगोवें । फिर हरमल के छः तोला रस में खरल करें और फिर जंगली गोभी के ९ तोले रस में खरल करें और टिकिया बनाकर धूप में सुखा लें । फिर सफेद फूलवाली हिरणखुरी १५ तोले के कूटे हुए गोले (लुगदे) में लपेट कर सात बार कपड़मिट्टी करें । सुखाकर दो सेर जंगली आरणों (उपलों) में आंच देवें, शीतल होने पर निकाल लेवें । बहुत बढ़िया श्वेत रंग की भस्म बनेगी ।
मात्रा - राई के एक दाने के समान दूध की मलाई वा मक्खन में लपेटकर खायें, ऊपर से थोड़ा गाय का गर्म दूध पीवें । इसके प्रयोग से खूब शक्ति (पुंस्त्व) बढ़ती है । पौष्टिक भोजन घी, दूध तुरन्त पचकर शरीर का अंग बन जाता है ।
विसर्प रोग
सर्प के समान विशेष रूप से फैलने वाला होने से विसर्प कहलाता है । खारी, खट्टे और गर्म तीक्ष्ण पदार्थों के सेवन से त्रिदोष के दूषित होने से रक्त, मांस और मेद खराब हो जाते हैं और शरीर पर सूजन फुन्सियां फैल जाती हैं ।
चिकित्सा
करंजादि तैल - आक का दूध, थोहर का दूध, कलिहारी, सतोना, चित्रक छाल, भांगरा, हल्दी, मीठा तेलिया - सब एक-एक तोला जल के साथ घोट पीसकर टिकिया बनाएं । चौगुणा सरसों का तैल अर्थात् ३२ तोले लेवें और ११८ तोले गोमूत्र लेवें । मन्दी आग पर पकायें । तैल रहने पर निथार छान लेवें । इस तैल की मालिश से विसर्प और विस्फोटक रोग का नाश होता है ।
श्वास रोग
श्वास से सम्बन्ध रखने से इस रोग का नाम श्वास पड़ा है । इसी को दमा कहते हैं । इस रोग के विषय में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि दमा दम के साथ है अर्थात् जब तक दम प्राण हैं, दमा (श्वास) भी तब तक रहता है । जीवन पर्यन्त यह पिण्ड नहीं छोड़ता । इसी कारण दमे वा श्वास के रोगी इसे असाध्य रोग समझकर निराश होकर अत्यन्त दुःखी रहते हैं । वैसे यह बात तो ठीक है कि यह रोग दुःसाध्य वा कष्टसाध्य है । बड़ी ही सावधानी और तत्परता से इसकी चिकित्सा की जाय तो यह समूल नष्ट हो सकता है । इसके लक्ष्ण वा पहिचान यही है तेज दौड़ने से लगातार और शीघ्र श्वास आने लगते हैं । इसी प्रकार सुखपूर्वक बैठे रहने से भी मनुष्य को तेजी और तंगी से श्वास आने लगें तो इसको श्वास (दमा) रोग कहते हैं ।
कारण
गर्म, रूक्ष, कब्ज करने वाले, देर से पचने वाले भारी पदार्थ अधिक खाने से, ब्रह्मचर्य नाश से, बर्फ का ठण्डा पानी पीने से, अधिक ठण्डी वस्तुओं के खाने से, धूल, धुंवें से, अधिक उपवास करने से, शक्ति से अधिक परिश्रम वा व्यायाम करने इत्यादि कारणों से श्वास रोग की उत्पत्ति होती है । श्वास पांच प्रकार का होता है । नीचे इस प्रकार के योग आक के लिखे जा रहे हैं जो सभी प्रकार के श्वास रोगों पर लाभदायक हैं । वात और कफ से कुपित श्वास रोग पर विशेष हितकर है । पित्त से दूषित श्वास पर अर्क योग किसी वैद्य के परामर्श से ही सेवन करने चाहियें । कुछ योग ३६, ३७ और ३८ पृष्ठों पर श्वास सम्बन्धी लिखे जा चुके हैं । शेष नीचे दिये जा रहे हैं ।
- १.
- एक ताजा खूब पका हुआ गोला बाजार से लेवें और चाकू से उसका एक भाग इस प्रकार काटें कि उसे फिर उस पर ठीक जमाकर ढक्कन के रूप में रखा जा सके । इस गोले को आक के दूध से भर देवें और इसमें एक तोला अफीम खालिश डाल के कटा हुआ ढ़क्कन उस पर लगाकर गेहूं के आटे से कपरोटी करके धूप में सुखा देवें । सूख जाने पर भेड़ की पांच सेर मींगनों के ढ़ेर के बीच में रखकर आग जला दें । जब यह गोला अग्नि के समान लाल हो जाये तो आग को हटाकर सावधानी से इस गोले को निकाल लें । सर्वांग शीतल होने पर आटे को हटाकर गोले को कूटकर सुरमे के समान बारीक कर लें । मात्रा एक रत्ती से चार रत्ती तक मधु में मिलाकर देवें । श्वास की रामबाण के समान अचूक औषध है । सेवन करके लाभ उठावें । अनुभूत औषध है ।
श्वास और कास
- २.
- आक के फूल डेढ़ माशा, सैंधा लवण डेढ़ माशा, अफीम ३ रत्ती, अजवायन ६ माशे - इन सब को कूट पीसकर चने की दाल के समान गोलियां बनायें । तीन-तीन घण्टे के अन्तर से एक-एक गोली गर्म पानी से देने से श्वास और खांसी दोनों में लाभ होगा ।
- ३.
- आक की बन्द मुंह की कली २ तोले, अजवायन १ तोला, गुड़ ५ तोला - इन तीनों औषधियों को खूब कूटकर एक आकार बना लें । फिर आक के सात पत्तों पर इस औषध को रख ऊपर नीचे करके सोमकर कपड़ मिट्टी करके गर्म भूभल में दो प्रहर तक दबा देवें, फिर निकालकर बारीक पीसकर सुरक्षित रखें । मात्रा १ माशा मक्खन के साथ देने से श्वास और पुरानी खांसी में बहुत लाभ होता है ।
- ४.
- आक के फूल और काली मिर्च समान भाग लेकर खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें । इनमें से एक-एक गोली गर्म जल से चार बार देने से श्वास, खांसी, हिस्टेरिया, वायु और कफ के रोगों में बहुत लाभ होता है ।
- ५.
- आक के कोमल पत्तों का काढ़ा करके जौ की भुनी हुई धानी को सात भावना देकर सुखा लेना चाहिये । फिर उसका चूर्ण करके मात्रा ६ माशे शहद के साथ चटाने से श्वास कास रोग में लाभ होता है ।
- ६.
- आक के फूल, आक का दूध, आक की जड़ की छाल, आक के पत्तों का रस - ये सभी वायु कफ के श्वास कास आदि रोगों को दूर करने वाले हैं । आक की सभी वस्तुयें बहुत थोड़ी मात्रा में मक्खन मलाई और गाय के दूध के साथ देनी चाहियें । आक उपविष है, वमनकारक तथा विरेचक भी है, अतः इसका प्रयोग सावधानी से तथा थोड़ी मात्रा में करना चाहिये, नहीं तो हानि भी हो सकती है ।
श्वास पर आक के योग
- १.
- सफेद फिटकड़ी १० तोला लेकर कूटकर मोटी छलनी में से छान लेवें और २० तोला आक का दूध लेकर दोनों वस्तुओं को मिट्टी के छोटे पात्र (बर्तन) में डालकर अच्छी प्रकार कपरोटी कर सुखाकर इसे उपलों की आंच में फूंक लें । यह कोयलों की अंगीठी पर भी फूंकी जा सकती है । ठण्डी होने पर बारीक पीस लें । मात्रा - आधा रत्ती से एक रत्ती तक यथाशक्ति रोगी को देखकर मलाई में लपेटकर दिन में दो बार देवें । श्वास रोग समूल नष्ट हो जायेगा ।
- २.
- आक के पत्तों का रस एक से दो तोले तक रोगी को पिलाने से वमन होकर कफ निकल जाता है और तत्काल रोगी को आराम हो जाता है ।
- ३.
- आक के फूलों की कली, १ माशा काली मिर्च - दोनों का चूर्ण बना लें । मात्रा - एक माशा प्रातः-सायं मधु के साथ देने से श्वास रोगों में बहुत ही लाभ होता है ।
- ४.
- अपामार्गक्षार वा यवक्षार - इनमें से कोई क्षार दो माशे लेकर गोघृत ६ माशे मिलाकर चटायें । इससे कफ निकलकर रोगी को लाभ होगा ।
- ५.
- आक का क्षार १ माशे से २ माशे तक गोघृत ६ माशे में मिलाकर चटाने से रोगी को लाभ होगा ।
- ६.
- बासा क्षार २ माशे लेकर ६ माशे गोघृत में मिलाकर चटाने से कफ निकलकर रोग दूर हो जाता है ।
- ७.
- अर्क, बासा, यव, अपामार्ग और केला - इन सब के क्षार जो समय पर मिल जायें, समान भाग ले लेवें और जितना क्षार हो, उतना ही सितोपलादि चूर्ण ले लेवें और इनमें थोड़ी मात्रा में गोघृत मिला लेवें जिससे इनकी रूक्षता दूर हो जाये और १ माशे से तीन माशे तक औषध मधु में मिलाकर रोगी को दिन रात में अनेक बार उसकी आयु, रोग और शक्ति को देखकर चटायें । सर्वप्रकार के श्वास, काली खांसी, कुत्ता खांसी आदि रोग नष्ट होंगे ।
- ८.
- आक के पुष्प ५ तोले, आकाश बेल जिसे अमरबेल भी कहते हैं, यह भी पांच तोले लेकर दोनों को खूब बारीक घोट पीसकर, रगड़कर काली मिर्च के समान गोली बना लें तथा दो गोली मुख में रखकर प्रातः सायं दोनों समय चूसें तो दमा दुम दबाकर भाग जाता है । अत्यन्त सस्ती और लाभदायक औषध है किन्तु निरन्तर दीर्घकाल तक न्यून से न्यून एक वर्ष तो अवश्य लेवें । यदि किसी रोगी को गर्मी में दमे का दौरा न पड़ता हो तो न लेवें । जिन ऋतुओं में श्वास का प्रकोप होता हो, उन दिनों में अवश्य लेवें । यह अनुभूत औषध है ।
- ९.
- तम्बाकू देसी आध सेर सुखाकर कपड़छान कर लेवें और मिट्टी की हांडी में दालकर उसमें आक का दूध इतना डालें कि तम्बाकू का चूर्ण उस में भलीभांति डूब जाये । अच्छी प्रकार कपरोटी करके ५ सेर उपलों (गोसों) को अग्नि में फूंक देवें । ठण्डा होने पर बारीक पीसकर शीशी में सुरक्षित रखें । मात्रा आधा रत्ती मधु के साथ सेवन करायें । लाभदायक औषध है ।
- १०.
- अर्क क्षार, हरमल क्षार, तम्बाकू क्षार और गुड़ जलाया हुआ - चारों समभाग लेकर खूब अच्छी प्रकार से खरल कर लें । मात्रा - आध रत्ती मधु वा घृत के साथ सेवन करायें । यदि कफ न निकले तो घृत के साथ और कफ निकलता हो तो मधु के साथ प्रातः सायं सेवन करायें । इससे दमे के रोगी को लाभ होगा ।
दमे की सिग्रेट
१. - आक के सूखे पत्ते, धतूरे के सूखे पत्ते, भांग के सूखे पत्ते और कलमीशोरा - चारों समभाग लेकर मोटा-मोटा कूट लेवें और कागज पर डालकर बत्ती सी बनायें । सिग्रेट बनाकर दमे का दौरा पड़ने पर रोगी को पिलावें, तीन चार बार पीने पर दौरा तुरन्त ही शान्त हो जायेगा । यह श्वास के भयंकर वेग को जादू के समान नष्ट कर देती है । यह सामयिक चिकित्सा है । रोगी को श्वास आकर शान्ति मिलती है । वह यह अनुभव करता है कि दौरा हुआ ही नहीं । इसी प्रकार का एक योग ३८ पृष्ठ पर है । यहां कुछ विस्तार से लिखा है ।
श्वास रोगामृत
२. - लाल फिटकड़ी ६० माशे, सैंधा नमक ६० माशे लेकर बारीक चूर्ण कर लें । फिर मिट्टी की हांडी में आध सेर आक का दूध लेकर उस में पूर्व लिखित दोनों वस्तुओं का चूर्ण बारीक पिसा हुआ मिला दें । इसके बाद हांडी का मुख ढ़ककर कपरोटी करके सुखा दें, फिर गजपुट की अग्नि दें । सारी ठंडी होने पर दवा निकालकर पीस लें और शीशी में सुरक्षित रखें । श्वास रोग पर अमृत तुल्य है ।
सेवनविधि - रोगी जितनी खीर खा सके उतनी सायंकाल तैयार कर लें और रात्रि को उस खीर में आधा माशा १२ प्रहरी पीपल (३६ घण्टे खरल की हुई) मिलाकर ३ घण्टे तक चन्द्रमा की चांदनी में रखें, फिर उपरोक्त दवा में से २ रत्ती दवा खीर में मिलाकर रोगी को खिलावें और रोगी को कहें कि प्रातःकाल जितनी दूर तक घूम सके, घूम आवे । तीन मास तक रोगी को तैल, खटाई, शीतल तथा वायुकारक वस्तुओं से परहेज रखना ठीक है । इसी प्रकार तीन मास तक रोगी को सेवन करावें । इन तीन मासों में रोगी को ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है । यह दमे का उत्तम योग है ।
दमे का नुस्खा
३. - किसी आक की ऐसी जड़ निकालें जिसको जिह्वा पर रखते ही मुख कड़वा हो जाये या सफेद बड़े आक की । बड़े वा छोटे-मोटे आकों को उखाड़ने से ४-५ में से एक आध मिल जाता है जिस की जड़ में कटुता हो, उसे धोकर साफ करें और छिलका उतार दें और भीतरी भाग को छाया में सुखा दें । जब सूख जाये तब उसे कूटकर चूर्ण बना लेवें और कपड़छान करके उस चूर्ण के समभाग काली मिर्च और मिश्री मिलाकर गोली बना लें । बस, दमे का नुस्खा तैयार है । मात्रा - एक गोली जल के साथ प्रातः सायं देवें । अच्छी औषध है ।
४. - आक की जड़ की लकड़ी का कपड़छान चूर्ण यदि १ छटांक हो तो उसमें एक छटांक काली मिर्च का चूर्ण और एक छटांक मिश्री मिलाकर गोली बना लें ।
५. - सज्जी एक पाव लेकर कपड़छान कर लें और इसको आक के दूध में भिगो देवें । आक का दूध सज्जी के ऊपर एक उंगल ऊंचा रहे । इसी प्रकार एक सप्ताह तक इसको आक के दूध में भिगोये रखें, फिर मिट्टी के पात्र में कपरोटी कर सुखाकर रात्रि में १५-२० सेर उपलों की अग्नि में इसे फूंक देवें । ठण्डा होने पर निकालकर पीसकर सुरक्षित रखें । मात्रा - १ रत्ती से २ रत्ती तक शहद वा बताशे में रखकर प्रातः सायं दिया करें । यह औषध श्वास रोग के लिए अमृत के समान है । सेवन करें और आयुर्वेद के चमत्कार को देखें । नये श्वास रोग को एक ही सप्ताह में उखाड़ कर समूल नष्ट करती है । दोनों के लिए रामबाण के समान अचूक औषध है । सज्जी, जो वस्त्र धोने के कार्य में आती है, उसी से यह औषध बनती है । इस औषध की जितनी प्रशंसा करें, थोड़ी है ।
६. - बढ़िया खांड को चीनी के पात्र में आक के दूध से अच्छी प्रकार भिगो दें और वस्त्र से ढ़क देवें । सूख जाने पर फिर भिगो देवें । दो-तीन बार यह क्रिया करें । सूख जाने पर तवे पर रख कर अग्नि जलाकर इसकी राख कर लें और कपड़छान कर सुरक्षित रखें । मात्रा - एक चावल से एक रत्ती तक गाय के मक्खन वा बादाम रोगन में देवें । वर्षों की पुरानी खांसी को दूर करती है केवल एक सप्ताह में । श्वास रोग पर भी लाभदायक है । आक के सभी योग श्वास और कास दोनों को साथ नष्ट करने वाले हैं ।
७. - आक की कोमल-कोमल कोंपलें ३ तोले और देशी अजवायन डेढ़ तोला, दोनों को बारीक पीसें और एक छटांक (५ तोले) गुड़ मिलाकर दो-दो माशे की गोलियां बनायें और प्रतिदिन प्रातःकाल खाली पेत एक-एक गोली खायें तो रोग सर्वथा और शीघ्र नष्ट होगा ।
८. - सीप, शंख, कौड़ी और श्रंग भस्म - इन चारों को आक के दूध में भावना देकर भस्म बना लें और इनमें से किसी भी एक भस्म की मात्रा १ रत्ती से २ रत्ती तक अदरक के रस वा मधु में अथवा मक्खन में रोगी को देने से रोग समूल नष्ट होगा । कास, श्वासादि के लिए उत्तम औषध है ।
९. - शाखा मूंगा (प्रवाल) लेकर कपड़छान कर लें और आक के दूध में खरल करके टिकिया बनाकर सुखाकर अग्नि में फूंक करके भस्म बनायें । मात्रा - १ रत्ती मधु, पान के रस, अदरक के रस वा बताशे में देवें । श्वास रोग में लाभदायक है । इन सभी भस्मों में श्वास, कास और कफ के रोगों को नष्ट करने का गुण आक के दूध की भावना देने से आता है । यथार्थ में कफ और वायु के रोगों को नष्ट करने के लिए आक स्वयं औषधालय है ।
१०. - आक के पत्तों का रस १-२ तोला पिलाने से रोगी को वमन होकर कफ निकल जाता है तथा श्वास रोग में लाभ होता है ।
११. - आक के फूलों की कली एक माशा तथा काली मिर्च एक माशा - दोनों का चूर्ण बना लें । मात्रा - ४ रत्ती से १ मासे तक मधु के साथ लेने से श्वास, कास रोग नष्ट होते हैं ।
१२. - आक का पत्ता १, काली मिर्च २५ - दोनों को खूब खरल करके माष के दाने के समान गोली बनायें । इनमें एक समय छः गोलियां गर्म जल के साथ देने से श्वास रोग दूर होता है । छोटे बालक को एक गोली देनी चाहिए ।
१३. - आक की कोमल छोटी पत्ती को एक पान में रखकर रोगी को खिलाएं । इस प्रकार ४० दिन इस औषध के प्रयोग से सर्व प्रकार के श्वास, कास समूल नष्ट होते हैं ।
१४. - आक के पके हुए पत्ते १ सेर, चूना १ तोला, सैंधा नमक १ तोला - इन दोनों को जल में बारीक पीसकर आक के पत्तों पर लेप करें और छाया में सुखाकर हांडी में भरकर उसका मुख कपरोटी से बन्द करके चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे छः घण्टे तक तेज अग्नि जलायें । ठण्डा होने पर बारीक पीसकर सुरक्षित रखें । मात्रा - एक रत्ती प्रातः सायं पान में रखकर खिलाने से श्वास कास दूर हो जाते हैं ।
१५. - अजवायन ८ तोले, हरड़ की छाल, विड नमक, कत्था, सैंधा नमक, हल्दी भारंगी की जड़, इलायची, सुहागा, कायफल, अडूसा, अपामार्ग की जड़, जवाखार और सज्जीखार - ये सब चार चार तोले, आक के फूल सूखे हुए १६ तोले सबका बारीक चूर्ण करके घीग्वार के रस में घोटें । फिर उसकी टिकिया बनाकर सुखा लें और मिट्टी की हांडी में रखकर कपड़मिट्टी करके चूल्हे पर चढ़ाकर औषधियों को जला लें और राख को कपड़छान कर लें । मात्रा डेढ़ माशे तक मधु के साथ चटाने से श्वास, कास, खांसी, कफ के रोग शान्त होते हैं ।
श्वास तथा कास
१. - गुड़ ६ माशा, आक का एक हरा पत्ता दोनों को खूब रगड लें । इसकी एक वा दो मात्रा बना लें । इसे प्रातःकाल अथवा दोनों समय सेवन करें, तीन चार दिन सेवन करने से कफ सरलता से बाहर निकल जाता है और कास और श्वास में लाभ होता है ।
२. - आक के पत्तों पर सफेद रेत सा लगा रहता है, उसे चाकू से उतारकर बाजरे के समान गोली बना लें और एक पान के पत्ते में जिसमें कत्था चूना लगा हो, रखकर खा लें । इसके सेवन से पुरानी से पुरानी खाँसी दो चार दिन के सेवन से चली जाती है और श्वास में भी लाभ होता है । प्रातः समय दोनों समय सेवन करें ।
३. - आक के पीले पत्ते ५ तोले और धतूरे के हरे पत्ते ५ तोले, अडूसे (बांसे) के हरे पत्ते ५ तोले, गुड़ पुराना १५ तोले, सबको खूब घोट पीट रगड़कर चने के समान गोली बना लें । शहद के साथ प्रातः सायं एक एक गोली सेवन करें । इससे श्वास और कास दोनों में लाभ होगा ।
४. - आक की जड़ की छाल दो तोले, बांसा घनसत्त्व आठ तोले, अफीम १ तोला, कपूर १ तोला । इन सबको पीसकर दो दो रत्ती की गोली बनायें, एक दो गोली का सेवन करें । इसके सेवन से श्वास, कास, रक्तपित्त, अतिसार, रक्तप्रदर, उरःक्षत और संग्रहणी में भी लाभ होगा ।
बांसा घनसत्त्व - एक सेर बांसा पंचांग को चार सेर जल में सायंकाल भिगो दें । प्रातःकाल क्वाथ करें, एक सेर शेष रहने पर छानकर पुनः पकायें । जब अफीम जैसा गाढ़ा हो जाये, उतार लें । यही बांसे का घनसत्त्व है । उपरिलिखित चारों योग वैद्य बलवन्तसिंह आर्य पहलवान के बहुत बार के अनुभूत हैं । पाठकों के हितार्थ दे दिये हैं ।
५. - आक की जड़ के छाल सहित कोयले बना लें, समान भाग काला नमक भी मिलाकर पीस लें । मात्रा एक से २ रत्ती तक मधु के साथ प्रातः सायं लेने से श्वास कास दोनों को ही लाभ होता है ।
वायुरोग
सभी रोग वात, पित्त और कफ - इन तीनों दोषों के दूषित वा कुपित होने से उत्पन्न होते हैं । किन्तु आयुर्वेद शास्त्र में वायुरोगों को विशेष रूप से प्रधानता दी है । क्योंकि -
पित्तं पंगु कफः पंगु पंगवो मलधातवः ।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेधवत् ॥
पित्त, कफ, मल और धातु सभी लंगड़े हैं । यह वायु ही है जो इनको जहां चाहे वहां धकेलकर ले जाता है । वायु इन सबमें बलवान् है । यही बहुत से रोगों का कारण है । रूखी, शुष्क और ठण्डी वस्तुओं के न्यून (कम) खाने, ब्रह्मचर्य के नाश, कर्षली और चरचरी वस्तुओं के प्रयोग करने से, पूर्वी वायु लगने, अधिक जागने से, जल में अधिक समय तैरने से, चोट लगने, अधिक परिश्रम करने, अधिक व्यायाम करने से, ठण्डक लगने तथा अधिक उपवास आदि के कारण वायु कुपित होकर अनेक वात व्याधियां, वायुरोग हो जाते हैं । वायु के रोग वर्षा ऋतु, वसन्त ऋतु और दिन रात्रि के तीसरे भाग में, भोजन के पचने पर वायु के विकार वा रोग उत्पन्न होते हैं । आक कफ और वायु के रोगोंका नाश करता है । जहां-जहां आक का उपयोग होता है, नीचे लिख रहे हैं ।
अर्कादि तैल
१. - आक के पत्ते ढ़ाई तोले, धतूरे के पत्ते ढ़ाई तोले, कनेर की छाल ढ़ाई तोले - सबको जल के साथ पत्थर पर रगड़कर गोला बना लें । तिल का तैल १ पाव लेकर सबको कढ़ाई पर चढ़ायें और गोमूत्र १ सेर इनमें डाल दें । जब सब जलकर केवल तैल रह जाये तो निथारकर छान लें । इसकी मालिश करने से लकवा आदि वायु रोग नष्ट होते हैं ।
२. - नारायण तैल की मालिश करने से सभी वायु रोग नष्ट होते हैं । मालिश के पीछे आक के पत्तों पर नारायण तैल अथवा ऊपर वाला अर्कादि तैल चुपड़कर आक के पत्तों को वायु के रोगों पर बांधने से सोने पर सुहागे का कार्य करता है ।
३. - आक के फूलों को किसी पात्र में जल में डालकर उबालें । शरीर के हाथ, पांव आदि जिस अंग में कष्ट हो वा वायुरोग हो, उसे भांप से सेकें ।
शरीर के अंग को गर्म वस्त्र से ढ़क देवें । भांप की टंकार से पसीना निकलेगा । फिर वस्त्र से पूंछकर अर्कतैल वा नारायण तैल की मालिश करें तो वायु रोग सब दूर होंगे । वायु के रोगों की पीड़ा को दूर करने के लिए आक से बढ़कर कोई औषध नहीं है ।
पैर की एड़ी की पीड़ा
पैर की एड़ी में जब वायु रोग वा चोट के कारण पीड़ा होती है तो वह बहुत चिकित्सा करने पर भी नहीं जाती । वैद्य डाक्टर प्रायः सभी विफल हो जाते हैं । उस समय आक के फूलों से भाप द्वारा सिकाई (सेक) करनी चाहिये और आक के फूल ही बांधने चाहियें । एक सप्ताह में सब पीड़ा दूर होकर रोगी भला चंगा हो जाएगा । यदि वायु के रोगों में योगराज गूगल साथ-साथ खिलाते रहें तो सोने पर सुहागे का काम होगा ।
अर्कत्वक् वायु के रोगों पर
आक की जड़ की छाल उतारकर छाया में सुखायें और कूट कर कपड़छान कर लें । मात्रा १ रत्ती से दो रत्ती तक गाय की मलाई वा मक्खन के साथ लेवें । न मिले तो गुड़ में मिलाकर गोली बना लें और उसे खाकर ऊपर गर्म जल वा गोदुग्ध पिलायें । वायु की पीड़ा जैसे रींगन वात, रांगड़ आदि की पीड़ा सब दूर होगी ।
अर्कादि तैल
योग - आक की जड़ का छिलका १ पाव, कुचला आध पाव, संखिया सफेद १ तोला, सरसों श्वेत १ तोला, धतूरे के बीज ५ तोले - सबको जौकुट करके एक आतिशी शीशी में डालें । उसके मुख में बारीक तारों का अथवा घोड़ों के बालों का गुच्छा भर देवें और शीशी पर दृढ़ कपरोटी करके सुखा लें तथा पाताल-यन्त्र से तैल निकालें । तैल को सुरक्षित रखें और जिस अंग पर वायु का प्रभाव हो उस पर मालिश करें । लकवा, अर्धांग आदि सभी वायु रोग इसके प्रयोग से नष्ट होते हैं । खिलाने के लिए योगराज गूगल का प्रयोग सभी वातरोगों में लाभप्रद है ।
विषगर्भ तैल
आक के पत्तों का रस १ सेर, कनेर के पत्तों का रस १ सेर, धतूरे के पत्तों का रस १ सेर, संभालू के पत्तों का रस १ सेर, जटामांसी का क्वाथ १ सेर, तिल का तैल १ सेर - सब एक कली वाले पात्र में चढ़ाकर मन्दाग्नि से पकायें । जब सब पानी जल जाये, केवल तैल शेष रह जाये तो इसमें नीचे लिखी वस्तुयें कपड़-छान करके मिलायें । धतूरे के बीज, फूल प्रियंगू, मीठा तेलिया, सत्यानाशी के बीज, रासना कनेर की जड़ का छिलका, मलकंगनी, काली मिर्च, गूगल, मजीठ, बालछड़, बच, चित्रक, देवदारू का चूर्ण, हल्दी, दारू हल्दी, एरंड का छिलका, हरड़, बहेड़ा और आंवला - इनका छिलका प्रत्येक वस्तु एक-एक तोला लेवें । सबको सुर्मे के समान बारीक पीस लेवें । ऊपर वाले तैल में मिलाकर सुरक्षित रखें । जब प्रयोग करना हो तो इसे खूब हिलायें और इस विष गर्भ तैल की मालिश से सभी वायुरोग तथा उनकी पीड़ा समूल नष्ट होती है ।
सेक
वायु के रोगों को अथवा उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए सेक वा सिकाई से बहुत लाभ होता है ।
योग - पुराने आक की जड़ के पास से रेत लेकर उसके समान ही लवण बारीक पीसकर मिला लें और इनको एक कढाई में गर्म करके बड़ी-बड़ी पोटलियां बनायें और इनसे रोगी के उन अंगों पर सिकाई करें जहां वायु रोग के कारण पीड़ा हो । सेकने से पसीना आयेगा और सब प्रकार की पीड़ा तथा रोग दूर होगा ।
वातरक्त
लेप - आक की छाल, सरसों, नीम की छाल, बालछड़, यवक्षार, काले तिल - सबको समभाग लेकर गोमूत्र के साथ रगड़कर लेप तैयार करें और वातरक्त पर लेप करने से कफ प्रधान वातरक्त नष्ट होता है ।
इसके साथ अमृतादि गूगल, महातिक्त घृत, अमृतादि घृत किसी खाने की औषध का सेवन करें तो बहुत अधिक लाभ होगा ।
वायुनाशक हलवा
आक की जड़ की छाल को महानारायण तैल में गुड़ आटा डालकर हलवा तैयार करके वायु के रोगों पर अथवा चोट लगने पर पीड़ा वाले स्थान पर गर्म-गर्म बांधें । चाहे कितनी ही पीड़ा हो, तुरन्त दूर होकर रोगी सुखपूर्वक सो जायेगा । वायु के किसी भी रोग के कारण अथवा आघात, चोट आदि लगने से रोगी बेहोश हो तो इसके बांधने से शीघ्र ही होश आ जायेगा और यदि दर्द (पीड़ा) के कारण रोगी चिल्ला रहा हो, रो रहा हो, इस हलवे को बांधने से सब कष्ट दूर होकर रोगी सो जायेगा और कुछ ही दिनों में पीड़ा सूजन तथा वायु के रोग नष्ट हो जायेंगे । पीड़ा दूर करने के लिए यह जादू के समान प्रभाव करने वाली रामबाण औषध है । यदि गुरुकुल झज्जर में तैयार होने वाले संजीवनी तैल में आक की जड़ की छाल का हलवा बनाया जाये तो इसके समान अनुपम अद्वितीय औषध वायु वा चोट की पीड़ा को दूर करने वाली और नहीं है । सैंकड़ों नहीं, हजारों बार की अनुभूत औषध है ।
पीड़ा पर अपूप
वायु रोगों की पीड़ा अथवा आघात (चोट) लगने पर जो पीड़ा वा कष्ट होता है उसको दूर करने के लिए आक की जड़ की छाल डालकर अपूप (पूड़े) नारायण तैल वा संजीवनी तैल में आटा गुड़ मिलाकर पूड़े बनाकर गर्म-गर्म बांधने से असह्य पीड़ा वा कष्ट दूर होकर रोगी चैन से सो जाता है । हड्डी टूटने पर बहुत पीड़ा होती है, किन्तु उपरिलिखित हलवा और पूड़े पीड़ा को जादू के समान दूर करते हैं । यह बार-बार की अनुभूत औषध है ।
वातरोग नाशक तैल
१. - आक के हरे पत्ते, अरण्ड के हरे पत्ते, थोहर के पत्ते, बकायन के पत्ते, सहेंजने के पत्ते, भांगरे के पत्ते और भांग के पत्ते सब समभाग लेकर इनका रस निकाल लें । रस के समान तोल का तिल का तैल भी कढ़ाई में साथ डालकर मन्द आंच पर कपायें, तैल शेष रहने पर उतारकर छान लेवें । वायु के रोगों पर मालिश करते समय थोड़ी काली मिर्च और पीपल का चूर्ण मिला लें । इस तैल की मालिश से अर्धांग, लकवा, गठिया, सन्धिवात आदि रोगों में खूब लाभ होता है ।
२. - आक के पत्ते - ७, भिलावे ७ नग इन दोनों वस्तुओं को तिल तैल में डालकर आग पर चढ़ायें, दोनों के अच्छी प्रकार जलने पर तैल को छानकर शीशी में रखें और धूप में बैठकर मालिश करने से सब वायु के रोग दूर होते हैं ।
३. - गूगल ६ माशे, मेंहदी ३ माशे, सनाय के पत्ते ३ माशे, कतीरा १ माशा - इन सबको आक के दूध में खूब घोटकर चने के समान गोली बनायें । मात्रा १ गोली प्रतिदिन गर्म जल के साथ खाने से गठिया, संधिवात, जोड़ों के दर्द, गृघ्रसी (रांघड़) दूसरी वात व्याधियां नष्ट होती हैं ।
४. - आक की कलियां बिना खिली हुई, सोंठ, काली मिर्च और बांस की पत्ती समान भाग लेकर घोटकर चने के समान गोलियां बना लें और प्रातः सायं दो गोली गर्म पानी के साथ खाने से गठिया में बहुत ही लाभ होगा ।
५. - लेप - आक की जड़ को कांजी के साथ पीसकर लेप करने से हाथी पांव, अंडवृद्धि तथा अन्य वायु रोगों में बड़ा लाभ होता है ।
वायु रोगों में स्वेदन क्रिया
६. - एक गड्ढ़ा इतना गहरा खोदें कि मनुष्य जिसमें अच्छी प्रकार से बैठ सके । इस गड्ढ़े में जंगली उपले (अरणे) भरकर जला दें, जिससे उसकी दीवारें सब लाल हो जायें । फिर उसको साफ करके उसमें ताजे आक के पत्ते भर देवें । जब वे पत्ते गर्म होकर भाप निकलने लगे तो अर्धांग (फालिज) के रोगी को कम्बल वा पश्मीने की गर्म चद्दर उढ़ाकर गड्ढे के ऊपर बिठा दें । उसका मुख खुला रखें जिससे वह भाप से बचा रहे । इस क्रिया से खूब पसीने आकर रोगी पसीनों से भीग जायेगा । अच्छी प्रकार पसीने आने पर तौलिये से शरीर पोंछ लें । यह क्रिया मकान के अन्दर एकान्त स्थान पर होनी चाहिए और वैद्य को स्वयं अपने सम्मुख करनी चाहिये जिससे रोगी घबराये नहीं । दूसरे दिन रोगी को अरंडी की गिरी ६ माशे बादाम रोगन में भूनकर शहद के साथ खिलावें । उससे वमन तथा विरेचन (दस्त) होंगे । उसी प्रकार एक दो दिन छोड़कर रोगी को फिर भफारा देवें । इस प्रकार तीन बार भफारा देने से निराश रोगी भी ठीक हो जाता है । इस भफारे से शरीर पर छोटी-छोटी फुंसियां हो जाती हैं जो स्वयं चली जाती हैं । अथवा उन पर गाय का घी गर्म करके अथवा संजीवनी तैल लगावें । रोगी को ज्वर भी हो जाता है । इससे घबराना नहीं चाहिये । इन दिनों रोगी को गाय का दूध ही पिलावें । यह क्रिया असाध्य समझे जाने वाले अर्धांग आदि वायु रोगों को दूर करती है ।
विषम ज्वर (मलेरिया)
श्री बलवन्तसिंह जी आर्य पहलवान हरयाणे के प्रसिद्ध वैद्य हैं । ऋषि महात्मा के समान सारी आयु चिकित्सा द्वारा सेवा करने में लगा दी है । व्याकरण, आयुर्वेद आदि के अच्छे विद्वान् और अनुभवी वैद्य हैं । उनके अनुभूत योग नीचे लिख रहा हूं ।
१. - नौसार्दर, गोदन्ती, सुहागा, फिटकड़ी (भुनी हुई) सब एक-एक छटांक - सबको कूट-छानकर आक के दूध में भिगोकर सुखा लें और कपड़-छान कर आक के दूध में भिगोकर सुखा लें और कप्पड़-मिट्टी करके भस्म के समान फूंक लें । फिर मात्रा ३ रत्ती खांड में मिलाकर एक बार ही देवें । पसीना आकर ज्वर उतर जायेगा । ज्वर उतारने के लिए सर्वोत्तम औषध है तथा ज्वर को समूल नष्ट करती है ।
२. - फिटकड़ी भस्म, नौसादर, करञ्ज बीज गिरी, गेरू शुद्ध, बीज धतूरा, तुलसी के पत्ते, गोदन्ती भस्म, आक की जड़ की छाल सब एक-एक तोला, काली मिर्च छः माशे, नीम के पत्तों का रस अथवा घृतकुमारी के रस में खरल करके चने के समान गोली बनायें । ज्वर रोकने के लिए, ज्वर आने से दो घण्टे पूर्व जल के साथ देवें । यह बहुत ही उत्तम औषध है ।
सन्निपात
आक की जड़ की छाल, अनन्तमूल, चिरायता, बुरादा देवदारू, रासना, सम्भालू बीज, बच, अरनी की छाल, सुहाजना की छाल, पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक छाल, सोंठ, अतीश, भांगरा - ये सभी समान भाग लेकर यवकुट कर लें । दो तोला लेकर आधा सेर जल में क्वाथ करें । आधा पाव रहने पर उतार लेवें । सन्निपात रोगी को ३-३ घण्टे के पीछे पिलावें । यह क्वाथ सन्निपात के भयंकर उपद्रवों, प्रलाप, तन्द्रा, बेहोशी, जाड़ी भीचना, आंसू गिरना, पसीना अधिक आना, शरीर ठण्डा होना, धनुर्वात, श्वास, खांसी तथा प्रसूता के वायु रोगों में अत्यन्त प्रभावशाली है ।
विषम ज्वर पर मीठी कुनैन
खांड १० तोले, आक का दूध १ तोला, दोनों को खूब खरल करें और कुछ गोंद मिलाकर दो-दो रत्ती की गोली बनावें । गर्म जल के साथ देवें । यह चढ़े हुए ज्वर को उतार देती है और उतरे को रोक देती है । यह कुनैन से बढ़कर गुणकारी है । इसके प्रयोग में दूध अधिक देवें । कब्ज हो तो हल्का जुलाब ज्वर उतरने पर दे देवें ।
कफ ज्वर (निमोनिया)
१. लेप - आक के पत्तों का स्वरस निकालकर उसमें गेहूं का चूर्ण (आटा) भिगोकर रबड़ी सी बनाकर गर्म करके रोगी के शरीर पर लेप कर दें, उसी समय पीड़ा दूर हो जाती है । लेप को लगा ही रहने दें ।
२. बारहसींगा की श्रृंग भस्म आक के दूध की भावना देकर बनाई हुई मात्रा एक रत्ती से दो रत्ती तक मुनक्का में देवें अथवा अदरक वा पान का रस वा शहद के साथ दो तीन बार देने से निमोनिया (कफ ज्वर), पार्श्वशूलादि समूल नष्ट हो जाते हैं ।
नजला आधासीसी
१. सफेद चावल, नीलाथोथा, कपूर - तीनों दो-दो तोले, सोंठ १ तोला सबको बारीक पीसकर आक के दूध की भावना देकर सुखा लें । फिर इस चूर्ण को थोड़ा सा आग पर भूनकर पीस लें । इस चूर्ण को थोड़ी मात्रा में बादाम रोगन, गोघृत वा बकरी के दूध में मिलाकर नाक में टपकायें । आधाशीशी, सिर दर्द, पुराना नजला आदि रोग दूर होते हैं ।
२. अनार की छाल ४ तोले खूब महीन पीसकर आक के दूध में भिगोकर आटे के समान गूंधकर रोटी सी बना लें । मन्दी आंच पर पका लें । फिर इसे सुखाकर बारीक पीस लें । ३ माशे जटामासी, ३ माशे छरीला, डेढ़ माशा कायफल - इन सबका चूर्ण बनाकर रख लें । इस औषध के सूंघने से सख्त छींकें आकर नजला, जुकाम, मूर्छा, बेहोशी आदि रोग दूर होते हैं ।
अर्श (बवासीर)
१. - तीन बूंद आक के दूध को रूई पर डालकर उस पर थोड़ा कुटा हुआ यवक्षार बुरककर उसे बताशे में रखकर निगल जायें । इस प्रयोग से अर्श (बवासीर) बहुत शीघ्र नष्ट हो जाती है ।
२. - आधा पाव आक का दूध खरल में डालकर इतना रगड़ें कि वह खरल में चिपक जाए । दूसरे दिन इसी प्रकार आक का आधा पाव दूध उसी खरल में पहले चिपके हुए दूध पर डालकर इतना रगड़ें कि वह दूध भी उसमें चिपक जाये । इस प्रकार आठ दिन में १ सेर आक का दूध खरल में डाल रगड़कर सुखा लें । फिर इसको खुरचकर इसके दो भाग कर लें । मिट्टी के एक बड़े प्याले में नीचे इस आक के दूध का एक भाग बिछा देवें । उसके ऊपर एक तोला सुहागा रख दें और उसके ऊपर दूसरा भाग बिछा इस औषध के ऊपर मिट्टी का एक छोटा प्याला जिसके बीच में एक छिद्र हो, रख दें । तत्पश्चात् बड़े प्याले के ऊपर एक बड़ा प्याला रखकर कपड़मिट्टी कर दें । फिर इन प्यालों के सूख जाने पर चूल्हे पर चढ़ाकर दीपक के समान हल्की अग्नि जलायें । जब ऊपर का प्याला गर्म होने लगे, उस पर चार तह करके वस्त्र शीतल जल में भिगोकर रख देवें । चार प्रहर की आंच होने के पीछे उतार कर सावधानी से खोल लेवें । तीनों प्यालों में तीन प्रकार की औषध प्राप्त होगी । ऊपर वाले प्याले में इस का सत्त्व (जौहर) मिलेगा । बीच वीले प्याले में पीले रंग की सलाखें मिलेंगीं और तीसरे प्याले में औषध का बचा हुआ भाग मिलेगा । अनुभवी वैद्यों का कथन है कि नीचे के प्याले वाली औषध आमवात (गठिया) रोग के लिए एक रत्ती भस्म प्रतिदिन बताशे में रख कर देने से तीन ही दिन में गठिया रोग में बहुत लाभ करती है ।
शेष दो प्यालों की औषधियां बवासीर के रोगियों के लिए बहुत लाभदायक हैं । इनका सेवन इस प्रकार से करें । पहले बीच के प्याले की औषध की मात्रा १ रत्ती मक्खन में मिलाकर दो दिन तक खिलावें और खाने के लिए रोगी को केवल मिश्री मिलाकर गोदुग्ध ही देवें । दो दिन के पीछे रोगी के पेट में पीड़ा होगी, इससे घबरावें नहीं । तीसरे दिन रोगी को बहुत प्रातःकाल ही ऊपर के प्याले वाला सत्त्व (जौहर) मात्रा एक रत्ती मक्खन में मिलाकर खिलायें और रोगी को लिटा दें । एक प्रहर के पश्चात् कांच निकल मस्से गिर जायेंगे । उन्हें स्वच्छ (साफ) कपड़े से दूर कर देना चाहिये । फिर एक तोला फिटकड़ी का बारीक चूर्ण कपड़े पर रख कर कांच पर रख देना चाहिये और लंगोट बांध देना चाहिये । रोगी को मिश्री मिला गोदुग्ध पिलाकर दो घण्टे दोनों पैरों पर बिठा देवें, फिर कोई सुपच नर्म भोजन देवें । रोगी दो-चार दिन में ही इस प्रकार इस कष्टप्रद रोग से छुटकारा पा जाता है ।
पत्थरी
१. - आक के फूल को गाय के दूध में पीसकर तीस दिन प्रातःकाल प्रतिदिन लेने से जलन युक्त पत्थरी रोग नष्ट होता है ।
२. - छाया में सुखाये हुए आक के फूल, यवक्षार, कलमीशोरा और कुसुंभ बीज - इन सब औषधों को समान भाग लेकर हरी दूब (घास) के रस में खरल करें । इस का तीन माशा चूर्ण बकरी के दूध के साथ लेने से बस्ति और गुर्दे की पत्थरी तथा मूत्रावरोध (पेशाब की रुकावट) दूर होती है ।
पुंस्त्व शक्ति
१. - एक सेर गाय का घी कढ़ाई में डालकर उस में साफ किया हुआ एक आक का नया पत्ता डालकर जलाते जायें । जब सौ पत्ते जल जायें तो उस घी को छानकर बोतल में भर दें । इस घी में से २ तोला घी दूध वा रोटी के साथ सेवन करने से पुंस्त्व शक्ति बढ़ती है । यह घृत कफ के रोगों और कृमिरोगों का नाश करता है ।
२. तिला मालिश के लिये - आक के दूध को १२ प्रहर तक गाय के घी में खरल करें और १ रत्ती घी तिला के रूप में प्रयोग करने से बालकपन की मूर्खता से हुई नपुंसकता दूर होगी ।
३. - गन्धक, हीराकसीस प्रत्येक छः तोले, फिटकड़ी और शिंगरफ तीन-तीन तोले लेकर चूर्ण कर लें और आक के डोडों में से काले बीज निकलवाकर उनका तैल निकलवा लें । यह तैल न्यून से न्यून १ पाव हो । पहले उस चूर्ण को गोघृत वा बादाम रोगन की १०० भावनायें देवें । फिर इस पाव भर आक के तैल में इस चूर्ण को खरल करके एक-दिल कर लें और आक की रूई की मोटी-मोटी बत्तियां बनाकर इस खरल की हुई औषध में तर कर देवें । फिर इन बत्तियों को लोहे की छड़ पर लटकाकर इनमें आग लगा दें और इनके नीचे चीनी मिट्टी का साफ पात्र रख दें । इन बत्तियों में से जो तैल टपके उसे इकट्ठा होने पर छानकर शीशी में रखें । मात्रा एक खस के दाने के समान । इस तैल को रोटी के गास में निगल लें । और रात्रि को एक खस के समान रोटी के गास में दायें जबड़े के नीचे रखें । इस प्रकार दस रात्रि तक प्रयोग करें । इस के दस रात्रि तक प्रयोग से बुढ़ापा नष्ट होकर जवानी आती है । पूर्ण शक्ति प्रदान करके युवा बनाता है ।
दाद खुजली पामा रोग
आक के पत्तों का रस ४ सेर, पीली सरसों का तैल आध सेर और हल्दी ५ तोला जल के साथ खूब बारीक पीस चटनी सी बनाकर इसकी लुगदी वा गोला बनाकर इसमें डाल देवें । मन्दाग्नि में पकायें । जब रस जलकर तैल मात्र शेष रह जाय तो उसे उतार कर छान लेवें । इस तैल में दस तोला मोम डालकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब मोम तैल में मिल जाये तो उतार लें । फिर इसमें गन्धक, भुना हुआ सुहागा, सफेद कत्था, रेवन्द चीनी, कमीला, काली मिर्च, राल, मुर्दा संग, नीलाथोथा भुना हुआ, भुनी हुई फिटकड़ी - ये सब ढ़ाई-ढ़ाई तोले बारीक पीस कपड़छान करके ऊपर वाले तैल में मिला देवें और इसमें ४ तोले पारे गन्धक की कजली भी मिला दें और शीशी में भर लें । दाद चर्मदल (चम्बल) के लिये अमोघ औषध है । भयंकर से भयंकर दाद भी इससे शीघ्र समूल नष्ट हो जाते हैं । निराश रोगियों की यह आशा और सहारा है । दाद के अतिरिक्त खाज व पामा रोगों को दूर करती है ।
रक्तविकार, नासूर, कोढ़ आदि
आक के पत्तों का रस ९६ तोले, गाय का घी ८ तोले, सरसों का तैल १६ तोले - इन तीनों वस्तुओं को मिलाकर कली वाले पात्र में अग्नि पर चढ़ा देवें और धीमी आंच जलावें । जब केवल घी और तैल शेष रह जाये तो उसे उतारकर छान लेवें । इसमें आक के सूखे पत्तों का कपड़छान चूर्ण ४ तोले, गन्धक पारे की रगड़ी हुई कजली १ तोला, सिन्दूर आधा तोला, हरताल आधा तोला, मैनसिल आधा तोला, हल्दी आधा तोला - इन सब वस्तुओं को कपड़छान करके ऊपर वाले तले घी में मिलाकर मरहम बनायें । इस मरहम के लगाने से पुराने घाव और नासूर जो किसी औषध से ठीक न होते हों, इससे ठीक हो जाते हैं ।
नासूर, कंठमाला, बवासीर आदि
पीपल, हल्दी, शंख की भस्म, सज्जी क्षार, कौंच के बीज, सैंधा लवण, निर्गुण्डी के पत्ते, चनगोटी के बीज, केशर, आसवों का कचरा, मूली, नीलाथोथा, नागकेशर, मुर्गे की बींठ, धतूरे के बीज और अजवायन - इन सब वस्तुओं को समभाग लेकर कपड़छान कर लें और एक भावना गाय के दूध की देकर सुरक्षित रखें । इसके लेप करने से सर्वप्रकार के पुराने जख्म, नासूर, कंठमाला, बवासीर और न फटने वाली गांठें भी ठीक हो जाती हैं ।
कुष्ठ रोग
आक की जड़ की छाल ४ सेर एक मिट्टी के बर्तन में डाल दें और एक पाव भर गेहूं की पोटली श्वेत वस्त्र में बांधकर इस में डाल दें और उस पात्र को तिहाई जल से भर देवें । इस पात्र का मुख कपरोटी से बंद करके २१ दिन तक घोड़े की लीद में गाड़ देवें । फिर निकाल लें । यदि कुछ जल शेष हो तो आग पर रखकर जला लें और गेहूं की पोटली को निकाल कर इनको रगड़ कर ६१ तोलियां बनायें । एक-एक गोली प्रतिदिन जल से खा लें और केवल गेहूं की रोटी और घी खायें, नमक भी छोड़ देवें तो कुष्ट रोग में लाभ होगा ।
अपस्मार (मिरगी)
अपस्मार वा मिरगी के रोग में रोगी को दौरा पड़ने पर शिर में चक्कर सा आता है । आंखें टेढी कर लेता है, वह अचेत होकर भूमि पर गिरकर हाथ-पांव मारने लगता है । मुख में झाग आ जाते हैं । कई बार तो रोगी की जिह्वा (जीभ) भी कट जाती है । कुछ समय के पश्चात् स्वयं चेतना (होश) में आ जाता है । इसके रोगी की मस्तिष्क की शक्ति नष्ट हो जाती है ।
१. - आक की जड़ का छिलका, बकरी वा गाय के दूध में पीसकर नाक में टपकाने से मिरगी का दौरा दूर हो जाता है ।
पथ्य - पञ्चगव्य घृत, महाचेतस घृत, ब्राह्मी घृत आदि में से किसी एक का सेवन करायें, मृगी रोग समूल नष्ट होगा ।
२. - आठ-दस साल पुराना गोघृत एक तोला गर्म करके और इसमें ६ माशे मिश्री मिलाकर पिलाने से उन्माद तथा मृगी का रोग दूर होता है ।
३. - यदि मृगी का रोग पुरुष को हो तो पुरुष के सिर की खोपड़ी की हड्डी श्मशान से लाकर खूब बारीक पीसकर इस में से १ रत्ती से दो रत्ती तक गाय की मलाई वा मक्खन में प्रतिदिन प्रयोग करायें । मृगी का रोग निश्चय से समूल नष्ट हो जायेगा । रोगी को यह औषध बतानी नहीं चाहिये, वह घृणा के कारण खायेगा नहीं । यदि मृगी का रोग स्त्री को हो तो उसे स्त्री की खोपड़ी की हड्डी देनी चाहिये । यदि इस औषध के प्रयोग से भी रोग न जाये तो कृमि रोग समझकर वैद्य को चिकित्सा नहीं करनी चाहिये ।
४. - काली गाय के गोमूत्र की कुछ बूंदें रोगी के नाक में डालें । यह इस रोग की उत्तम औषध है ।
५. - अश्वगन्धारिष्ट, अश्वगन्धादि चूर्ण - इनका प्रयोग भी मृगी रोग को भगा देता है ।
आक के अतिरिक्त कुछ औषध मृगी के रोगी के लिए इसीलिए लिख दी कि इस दुःखदायी रोग से रोगी को छुटकारा मिल जाए ।
६. - आक के ताजे फूल और काली मिर्च समभाग लेकर पीसकर ढ़ाई-ढ़ाई रत्ती की गोलियां बनायें और दिन में एक-एक गोली ३-४ बार देवें । मृगी, श्वास, बाइन्टे, रुधिर विकार और स्नायु-रोग (रक्तचापादि) नष्ट हो जाते हैं ।
७. - जब चार घड़ी दिन शेष रहे, तब मृगी के रोगी के तलवों पर दूध लगाकर काली मिर्च का बारीक चूर्ण उस पर भुरभुरा दें । फिर पांव के तलवे पर आक का पत्ता बांधकर जुराब वा जूता पहन लें । चालीस दिन तक बिना पैर धोये इस प्रकार करने से मृगी रोग का नाश हो जाता है । कुछ अनुभवी चिकित्सकों का यह कथन है ।
सर्प विष की चिकित्सा
१. - आक की जड़ का छिलका १ तोला ठंडाई के समान जल में घोटकर पिलाने से सर्प विष उतर जाता है ।
२. - आक की कोंपल तीन चबाकर खाने से सर्प विष दूर हो जाता है ।
३. - शंख, अफीम, नीलाथोथा, कालपी, सफेद फिटकड़ी, शुद्ध कुचला, नौसादर, हुक्के का मैल - इन सब औषधों को समभाग लेकर चूर्ण कर लें । फिर इस चूर्ण को तीन भावनायें आक के दूध की देकर छाया में सुखाकर बारीक पीसकर शीशी में सुरक्षित रखें ।
सर्प के काटे स्थान पर थोड़ा सा चीरा लगाकर एक रत्ती औषध उस पर रगड़ दें । यदि विष बढ़ चुका हो तो एक-दो रत्ती औषध जल में घोलकर पिलायें जिससे वमन होकर विष निकल जायेगा । यदि रोगी बेहोश हो तो थोड़ी सी औषध किसी पोली (खोखली) नली द्वारा रोगी के नाक में फूंकें । उससे छींक आकर होश आ जायेगा । विषैले सर्प के काटने पर लाभ होगा ।
४. - आक की जड़ और बाड़ी (कपास) की जड़ दोनों साथ साथ समान भाग लेकर पीस लें और थोड़ा जल मिलाकर पिलायें । इससे सर्प विष में लाभ होता है ।
५. - सर्प जिस स्थान पर काटे उस स्थान पर पछने लगाकर आक का दूध टपकाते रहें, जब तक विष रहेगा, आक का दूध साथ साथ सूखता रहेगा । जब दूध सूखना बंद हो जाए तो समझ लो विष समाप्त हो गया और दूध टपकाना बंद कर दें ।
६. - गुरुकुल झज्जर की बनी सर्पदंशामृत औषध सदैव अपने पास रखें । सांप के काटने पर उसका प्रयोग रोगी पर करें । अचूक औषध है । हजारों रोगियों पर वह आजमाई हुई है । उसमें नाकुली (अमृता बूटी) जिसे महाराष्ट्र में नाय कहते हैं, पड़ती है जो स्थावर और जंगम सभी विषों की रामबाण औषध है ।
बिच्छू विष पर
१. - बिच्छू के विष पर पहले गूगल की धूनी देकर फिर आक के पत्तों को पीस कर लेप करने से पीड़ा और विष दूर होते हैं ।
२. - बिच्छू का डंक निकाल देना चाहिये, फिर उस पर आक का दूध मसलना चाहिये । इसके मसलने तथा लेप करने से लाभ होगा । यदि बिच्छू का डंक न निकले तो भी आक के लगाने से बिच्छू विष उतरकर पीड़ा दूर होती है । उस अवस्था में आक का दूध कई बार शीघ्र-शीघ्र लगाना पड़ता है ।
३. - अर्क क्षार - जहां बिच्छू ने काटा हो, उस स्थान पर थोड़ा नमक और थोड़ा पानी मिलाकर मलने से लाभ होता है । यदि नमक और पारा आक के क्षार के साथ मिलाकर डंक स्थान पर मर्दन करें तो पीड़ा तुरन्त शान्त होगी ।
पागल कुत्ते के काटने पर
आक की जड़ की छाल ३ तोले, धतूरे के पत्तों का चूर्ण ४ माशे और मिश्री ३ तोले - सबको जल के साथ घोटकर एक-एक रत्ती की गोली बना लें । रोगी को पहले अरंडी के तैल का जुलाब देवें । पांच वर्ष की आयु तक एक-एक गोली, १० वर्ष की आयु वालों को दो-दो गोली और १५ वर्ष से अधिक आयु के रोगी को तीन-तीन गोली प्रातः-सायं दोनों समय खिला देवें और ऊपर से एक दो मुट्ठी भुने हुए चने खिला दें जिससे उल्टी न होकर औषध पच जाये । औषध लेने के तीन घण्टे पीछे जल और भोजन लेना चाहिये । इस प्रकार इस औषध को ४० दिन सेवन करायें । आठवें दिन बीच-बीच में अरंडी के तैल की जुलाब देते रहें । भोजन में गेहूं चणे की रोटी और घी का सेवन करायें । इससे जिन को पागल कुत्ते वा गीदड़ ने काटा हो तो पागलपन (हड़काव) होने का भय नहीं रहता । यदि इन गोलियों के सेवन करने पर भी किसी को हड़काव (पागलपन) हो जाये तो आक के पत्तों का रस १ तोला, धतूरे का रस डेढ़ माशा, तिल का तैल ढ़ाई तोले मिलाकर पिला दें । दूसरे-तीसरे दिन इस से आधी खुराक पिलानी चाहिये । इस से उत्पन्न हुई व्याधि दूर हो जायेगी ।
अन्य रोगों पर
यह औषध इसके अतिरिक्त अनुर्वात, ताण, कफ, खांसी, श्वास, हिचकी, उपदंश, आतशिक, त्वचारोग, कोढ़, नहारवा रोगों को भी उचित अनुपात से सेवन करने पर अच्छा लाभ करती है ।
आंख का फोला
विचित्र प्रयोग - जिस रोगी को आंख में फोला हो, वह जिस आंख में फोला हो उस से दूसरी ओर कुक्षि (कोख) में अंगूठे से आक का दूध प्रातःकाल लगाकर मलें । जैसे बाईं आंख में फोला हो तो दाईं कोख में पेट पर अंगूठे जितने स्थान पर अर्क दूध लगाकर खूब मलना चाहिये । एक सप्ताह के पीछे फिर उसी प्रकार पुनः उसी स्थान पर आक का दूध प्रातःकाल लगकर लेप करके मलें । जैसे रविवार को दूध लगाया है तो अगले रविवार को फिर लगायें । यदि पहली बार लगाने से कुछ दिन पीछे फोले वाली आंख लाल हो जाये तो समझो औषध का प्रभाव हो गया, फोला अवश्य कटेगा । फिर एक रविवार छोड़कर आक का दूध लगायें । इस प्रकार तीन-चार बार अर्क दुग्ध कोख में लगाना चाहिये । यह अवश्य ध्यानपूर्वक करें कि यदि दांई आंख में फोला हो तो बाईं कोख पर और बाईं आंख में फोला हो तो दाईं कोख पर आक का दूध लगाकर मलें । बीच-बीच में एक सप्ताह की अपेक्षा १५ दिन में लगायें । फोला अवश्य कट जायेगा । श्री माननीय रत्नसिंह जी गाजियाबाद के भ्राता इस चिकित्सा को बहुत वर्षों से करते आ रहे हैं । बहुत से रोगियों को लाभ हुआ है । वे रविवार को ही प्रातःकाल आक का दूध लगाते हैं । बहुत रोगी उनके पास लाभ उठा चुके हैं ।
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
सन्दर्भ
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