Battle Of Tilpat
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.) |
The Battle Of Tilpat was fought by Jats against Aurangzeb under the leadership of Gokul Singh at Tilpat in Faridabad district of Haryana in last week of 1669 against oppressive policies of Aurangzeb.
Introduction
The Jat peasants of Tilpat (Mathura) had the audacity to challenge the Imperial power under the leadership of Gokula. Jats were thus first to unsheath their swords and to wield these against the mighty Mughals.
Emperor Aurangzeb had to march himself on November 28, 1669 from Delhi to curb the Jat menace. The Mughals under Hasan Alikhan and Brahmdev Sisodia attacked Gokula Jat. Gokula and his uncle Uday Singh Jat with 20000 Jats, Ahirs and Gujars fought with superb courage and tenacity, the battle at Tilpat, but their grit and bravery had no answer to the Mughal artillery. After three days of grim fight Tilpat fell. Losses on both sides were very heavy. 4000 Mughal and 3000 Jat soldiers were killed.
Aurangzeb's policies
Ram Sarup Joon[1] writes that ....To implement his oppressive policy towards the Jats, Aurangzeb appointed the fanatic Chief Murshid Ali Khan as ruler of Mathura and Abdul Ghani Khan as Subedar of Agra. Abdul Ghani Khan concentrated on looting the Hindus and demolishing of temples. Murshid Ali started roaming the villages in quest of pretty women. With a Muslim patrol all disguised as Hindus, he went to a fair at Mathura, Spotting
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some beautiful Hindu girls, he carried them by force to the boats waiting on the banks of River Jamuna, raped them and then transported them to the Moghul Court at Delhi. When this act came to be known, the Jats Khaps of Agra got together A leader Gokal Singh unfurled his turban as an improvised banner and 20,000 Jats volunteered in the field of Tilpat situated 12 miles from Delhi near Okhla.
Gokala sent a messenger to Aurangzeb that Jats were ready for battle against the Moghul forces, which should be sent forth with for the final decision. Aurangzeb replied through the messenger that their stand against the royal army would be disastrous and they should return to their homes, their grievances would be redressed and due compensation paid. Jats were too hurt to care for the compensation. Gokal Singh sent the reply
- 'Lost reputation can not be compensated so easily'. Jats have had enough of your rule, therefore they have come for a decision. Come Forward'.
Aurangzeb ordered a huge army under the command of Chiefs Syed Hasan Ali and Jehan Khan with implicit instructions to crush the obstinate Jats. The king himself rode in the 'howdaha' of an elephant in personal command of heavy artillery. A bloody battle ensued, in which a large number of casualties occurred on both sides. The artillery fire scattered the Jats. Gokal Singh, was captured, taken to Agra and mercilessly hatched limb by limb. The Jats dispersed but continued raiding royal pargnas around Tilpat.
The death of Gokal Singh roused the spirit of the Jats, who pledged to continue their struggle. One leader after another came to the fore till the Moghul rule came to an end.
Gokula and Uday Singh hacked to death
Gokula and Uday Singh were imprisoned. Jat women committed Jauhar. Gokula offered pardon if he accepted Islam. To tease the Emperor, Gokula demanded his daughter in return. Gokula and Uday Singh were hacked to death piece by piece at Agra Kotwali on January 1, 1670.
तिलपत युद्ध दिसंबर 1669
दिसंबर 1669 के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से 20 मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया. जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया. सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा. कोई निर्णय नहीं हो सका. दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया. जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे. मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके. भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो. हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था. पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला. [2]
तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ. इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी. इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया. बादशाह आलमगीर की इज्जत बच गयी. जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे. उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी. तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा. भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया. [3]
गोकुलसिंह का वध
तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया. उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए. इन सबको आगरा लाया गया. औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकर, विराजमान था. सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया. औरंगजेब ने कहा -
- "जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो. बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?
अधिसंख्य जाटों ने कहा - "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना." [4]
अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर. गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा. कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी. परन्तु उस वीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था. उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को देखने लगा कि दूसरा वार करें. परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे. उन्हें ऐसे ही निर्देश थे. दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे. उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे. अनेकों ने आँखें बंद करली. अनेक रोते हुए भाग निकले. कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी. एक को दूसरे का होश नहीं था. वातावरण में एक ही ध्वनि थी- "हे राम!...हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर ! [5]
References
- ↑ History of the Jats/Chapter X,p. 153-154
- ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 41
- ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 41
- ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 48
- ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 49-50
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