Bhinya Ram Sihag

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लेखक:लक्ष्मण बुरड़क, IFS (R)
चौधरी भींया राम सिहाग

Bhinya Ram Sihag (14.9.1891-10.10.1954) was a social worker and reformer from Parbatsar city in Nagaur district of Rajasthan. He was instrumental in improving the educational and social status of the farmers of Rajasthan.

प्रारम्भिक जीवन

नोट - यह लेख मुख्यरूप से डॉ पेमाराम और डॉ विक्रमादित्य चौधरी की पुस्तक जाटों की गौरवगाथा, वर्ष 2004, पृष्ठ:129-136 पर प्रकाशित लेख पर आधारित है।

चौधरी भींया राम सिहाग का नाम मारवाड़ की दशा सुधारने वाले महानुभावों में अग्रणी है. आपका जन्म भादवा सुदी 11 विक्रम संवत 1948 तदनुसार 14 सितम्बर 1891 को नागौर जिले के परबतसर नामक शहर में हुआ था. आपके पिताजी का नाम चौधरी जेतारामजी सियाग और माता का नाम श्रीमती कंवरी देवी था. जब वे 18 वर्ष के थे तब इनका विवाह खोखर गाँव के चौधरी श्री पन्नाराम जी मून्डवाड़िया की पुत्री झम्कू से हो गया. साधारण पढ़ने-लिखने के बाद आप काम-धंधे की तलाश में जोधपुर चले गए और वहाँ हमीरसिंह मेड़तिया की सिफारिश पर जोधपुर मिलिट्री के सुमेर केमल कोर में साइकल सवार के पद पर 14 फरवरी 1918 को नियुक्त हुए. उस समय जोधपुर में काफी जाट अधिकारी थे, वहां आप उनके सम्पर्क में आए जिससे आपकी भावनाएँ उच्च कोटी की बनी और धीरे धीरे आपका मन समाज सेवा की और बढ़ा.

शिक्षा प्रचार

अक्टूबर 1925 में कार्तिक पूर्णिमा को अखिल भारतीय जाट महासभा का एक अधिवेसन पुष्कर में हुआ था उसमें मारवाड़ के जाटों में जाने वालों में चौधरी गुल्लारम जी, चौधरी मूलचंद जी सियाग, मास्टर धारासिंह, चौधरी रामदान जी, आदि के साथ आप भी पधारे थे. इन सभी ने पुष्कर में अन्य जाटों को देखा तो अपनी दशा सुधारने का हौसला लेकर वापिस लौटे. उनका विचार बना की मारवाड़ में जाटों के पिछड़ने का कारण केवल शिक्षा का आभाव है.

आजादी के पूर्व मारवाड़ में किसानों की हालत

जिस समय भींया राम सियाग का जन्म हुआ, उस समय मारवाड में किसानों की हालत बडी दयनीय थी। मारवाड़ का 83 प्रतिशत इलाका जागीरदारों के अधिकार में था इन जागीरदारों में छोटे-बडे सभी तरह के जागीदार थे। छोटे जागीरदार के पास एक गांव था तो बडे जागीरदार के पास बारह से पचास तक के गांवो के अधिकारी थें और उन्हें प्रशासन, राजस्व व न्यायिक सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे। ये जागीरदार किसानों से न केवल मनमाना लगान (पैदावार का आधा भग) वसूल करते थे बल्कि विभिन्न नामों से अनेक लागबाग[1] व बेगार भी वसूल करते थें किसानों का भूमि पर कोई अधिकार नहीं था और जागीरदार जब चाहे किसान को जोतने के लिए दे देता थां किसान अपने बच्चों के लिए खेतों से पूंख (कच्चे अनाज की बालियां) हेतु दो-चार सीटियां (बालियां) तक नहीं तोड सकता था। जबकि इसके विपरीत जागीरदार के घोडे उन खेतों में खुले चरते और खेती को उजाडते रहते थे और किसान उन्हें खेतों में से नहीं हटा सकते थे। इसके अलावा जागीरदार अपने हासिल (भूराजस्व) की वसूली व देखरेख के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी जो ‘कण्वारिया‘ कहलाता था, रखता था। यह कणवारिया फसल पकने के दिनों में किसानों की स्त्रियों को खतों से घर लौटते समय तलाशी लेता था या फिर किसानों के घरों की तलाशी लिया करता था कि कोई किसान खेत से सीटियां तोडकर तो नहीं लाया है। यदि नया अनाज घर पर मिल जाता था तो उसे शारीरिक और आर्थिक दण्ड दोनों दिया जाता था।

लगान के अलावा जागीरदारों ने किसान का शोषण करने के लिए अनेक प्रकार की लागें (अन्य घर) लगा रखी थी जो विभिन्न नामों से वसूल की जाती थी, जैसे मलबा लाग, धुंआ लाग आदि-आदि इसके अलावा बैठ-बेगार का बोझ तो किसानों पर जागीरदार की आरे से इतना भारी था कि किसान उसके दबाव से सदैव ही छोडकर जागीरदार की बेगार करने के लिए जाना पडता था। स्वयं किसान को ही नहीं, उनकी स्त्रियों को भी बेगार देनी पडती थी। उनको जागीरदारों के घर के लिए आटा पीसना पडता था। उनके मकानों को लीपना-पोतना पडता था और भी घर के अन्य कार्य जब चाहे तब करने पडते थे। उनका इंकार करने का अधिकार नहीं था और न ही उनमे इतना साहस ही था। इनती सेवा करने पर भी उनको अपमानित किया जाता था। स्त्रियां सोने-चांदी के आभूषण नहीं पहन सकती थी। जागीरदार के गढ के समाने से वे जूते पहनकर नहीं निकल सकती थी। उन्हें अपने जूते उतारकर हाथों में लेने पडते थे। किसान घोडों पर नहीं बैठ सकते थे। उन्हे जागीरदार के सामने खाट पर बैठने का अधिकार नहीं था। वे हथियार लेकर नहीं चल सकते थें किसान के घर में पक्की चीज खुरल एव घट्टी दो ही होती थी। पक्का माकन बना ही नहीं सकते थे। पक्के मकान तो सिर्फ जागीरदार के कोट या महल ही थे। गांव की शोषित आबादी कच्चे मकानों या झोंपडयों में ही रहती थी। किसानों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। जागीरदार लोग उन्हें परम्परागत धंधे करने पर ही बाध्य करते थे। कुल मिलाकर किसान की आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत दयनीय थी । जी जान से परिश्रम करने के बाद भी किसान दरिद्र ही बना रहता था क्योंकि उसकी कमाई का अधिकांश भाग जागीरदार और उसके कर्मचारियों के घरों में चला जाता था। ऐसी स्थिती में चौधरी भींया राम सिहाग ने मारवाड के किसानों की दशा सुधारने का बीडा उठाया।

जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर की स्थापना

आपके प्रयास से 4 अप्रेल 1927 को चौधरी गुल्लारामजी के मकान में "जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर" की स्थापना की । आप इसके उपमंत्री चुने गए. आपने शुरू से ही इस संस्था के लिए बड़ा परिश्रम किया. इसकी सहयते के लिए आपने एक दिन में 45-45 मील की यात्रा साईकिल पर कच्चे रास्तों से संस्था के स्थापित होते समय की. शुरू में संस्था की सहायता के लिए धन उगाकर लाने वालों में आपका ही दूसरा स्थान था. आप जीवन पयंत इस संस्था की सहायता के लिए जुटे रहे.

1930 तक जब जोधपुर के छात्रावास का काम ठीक ढंग से जम गया और जोधपुर सरकार से अनुदान मिलने लग गया तब चौधरी मूलचंद जी, बल्देवराम जी मिर्धा, भींया राम सियाग, गंगाराम जी खिलेरी, धारासिंह एवं अन्य स्थानिय लोगों के सहयोग से बकता सागर तालाब पर 21 अगस्त 1930 को नए छात्रावास की नींव नागौर में डाली ।

मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा की स्थापना

सन् 1937 में चटालिया गांव के जागीरदार ने जाटों की 8 ढाणियों पर हमला कर लूटा और अमानुषिक व्यवहार किया । चौधरी साहब को इससे बड़ी पीड़ा हुई और उन्होंने तय किया कि जाटों की रक्षा तथा उनकी आवाज बुलंद करने के लिए एक प्रभावशाली संगठन आवश्यक है । अतः जोधपुर राज्य के किसानों के हित के लिए 22 अगस्त 1938 को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेले के अवसर पर "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" नामक संस्था की स्थापना की । चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने, गुल्लाराम जी रतकुडिया इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए और भींया राम सिहाग कोषाध्यक्ष चुने गए । इस सभा का उद्देश्य जहाँ किसानों में फ़ैली कुरीतियों को मिटाना था, वहीं जागीरदारों के अत्याचारों से किसानों की रक्षा करना भी था.

मारवाड़ किसान सभा की स्थापना

किसानों की प्रगती को देखकर मारवाड़ के जागीरदार बोखला गए । उन्होंने किसानों का शोषण बढ़ा दिया और उनके हमले भी तेज हो गए । जाट नेता अब यह सोचने को मजबूर हुए की उनका एक राजनैतिक संगठन होना चाहिए । सब किसान नेता 22 जून 1941 को जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर में इकट्ठे हुए जिसमें तय किया गया कि 27 जून 1941 को सुमेर स्कूल जोधपुर में मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई जाए और उसमें एक संगठन बनाया जाए । तदानुसार उस दिनांक को मारवाड़ किसान सभा की स्थापना की घोषणा की गयी और मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा बालकिशन को मंत्री नियुक्त किया गया.

मारवाड़ किशान सभा का प्रथम अधिवेशन 27-28 जून 1941 को जोधपुर में आयोजित किया गया । मारवाड़ किसान सभा ने अनेक बुलेटिन जारी कर अत्याधिक लगान तथा लागबाग समाप्त करने की मांग की । मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन 25-26 अप्रेल 1943 को सर छोटू राम की अध्यक्षता में जोधपुर में आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में जोधपर के महाराजा भी उपस्थित हुए । वास्तव में यह सम्मेलन मारवाड़ के किसान जागृति के इतिहास में एक एतिहासिक घटना थी । इस अधिवेशन में किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्त शु्रू करवाने की घोषणा की । मारवाड़ किसान सभा जाटों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी ।

जब मारवाड़ में किसान सभा जागीरों में भूमि बंदोबस्त शुरू कराने में सफल हुई और परबतसर परगने में सेटलमेंट शुरू हो गया तो भींया राम सिहाग ने ईसके लाभों का गाँवों में जाकर प्रचार किया तथा सेटलमेंट की जानकारी किसानों को देकर सही रिकार्ड तैयार करवाने तथा किसानों को पट्टे वितरित कराने में पूरा सहयोग देकर किसानों की बड़ी सेवा की. पुराने किसान गाँवों में आज भी इनका खूब गुणगान करते हैं.

वीर तेजाजी जाट बोर्डिंग हाउस परबतसर के संस्थापक

चौधरी भींया राम सिहाग इस समय महकमा ख़ास में साइकल सवार के पद पर थे. आपकी नौकरी का समय अब पूरा होने के नजदीक था. आपने नौकरी छोड़ने से पहले ही रात-दिन कठोर परिश्रम करके अपने गाँव परबतसर में किसानों के बच्चों को पढाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए एक नई संस्था 'श्री वीर तेजाजी जाट बोर्डिंग हाउस परबतसर' की स्थापना 5 मई 1945 में की. शुरू में बच्चों को आपने अपने घर में रखा और बाद में चन्दा करके 1 मई 1946 को व्यास धनराजजी पन्नालालजी शंकरलालजी का एक मकान 8500 रूपये में खरीद कर छात्रावास को उसमें स्थानांतरित कर दिया. आप 14 सितम्बर 1946 को 55 वर्ष पूरे होने पर सेवानिवृत होने वाले थे और जोधपुर सरकार आपकी सेवाओं से खुश होकर एक वर्ष की सेवा-वृधी देना चाहती थी, परन्तु आपने स्वीकार नहीं की और 30 सितम्बर 1946 को सेवानिवृत हुए.

जाट जन सेवक

रियासती भारत के जाट जन सेवक (1949) पुस्तक में ठाकुर देशराज द्वारा चौधरी भीयाराम सिहाग का विवरण पृष्ठ 177-179 पर प्रकाशित किया गया है । ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है .... चौधरी भीयाराम जी सिहाग - [पृ.177]: जहां तक मारवाड़ की सुधारक संस्थाओं का संबंध है आरंभ से ही चौधरी भीयाराम जी का उनके साथ घनिष्ठ


[पृ.178]: संबंध रहा है। मारवाड़ में सबसे पहले विद्या संस्था अर्थात जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर के जारी करने का विचार जिन लोगों के दिलों में उत्पन्न हुआ उनमें इन चौधरी साहब का नाम अग्र भाग लेने वालों ने पहला नहीं तो दूसरा अवश्य है और जब से इस सज्जन ने जाति सुधारक संस्था में भाग लेने का काम शुरू किया है तब से अब तक निरंतर बड़े उत्साह के साथ इन कामों में जुटे चले आ रहे हैं।

यद्यपि इनहोने एक साधारण जाट परिवार में जन्म लिया किंतु इन्होंने दान देने रहन-सहन खान-पान और जाती सेवा अधिकारियों के अपने आप को उच्च कोटि के सज्जनों में गिनती कराई। इन्होने हमेशा भले और बड़े आदमैयों की संगत की।

इनका जन्म परबतसर नगर में हुआ। कुछ समय तक साधारण लोगों के पास नौकरी की परंतु 25 वर्ष की आयु में राज की नौकरी कर ली। नौकरी करते हुए उन्होंने अनेक भूले-भटके लोगों को राजकीय कामों में सहायता दी। कम खर्च और उद्योगी होने के कारण उन्होंने अपने पास धन भी काफी इकट्ठा कर लिया। शुरू से ही बोर्डिंग हाउस के मंत्री या उपमंत्री रहते चले आए हैं। नौकरी छोड़ने से पहले जिन्होंने अपने गांव परवतसर मैं एक नई संस्था जाट बोर्डिंग हाउस के नाम से जारी कर दी है। उस इलाके के उद्योगी अथवा अगुआ लोगों को साथ लेकर उस संस्था को चलाने में जुटे हुए हैं। और नौकरी, जाति सेवा तथा विद्या प्रचार में संलग्न रहना उन्होंने आजकल अपना ध्येय बना लिया है। यह अधिक पढ़े-लिखे नहीं है परंतु अच्छे अनुभवी हैं। अच्छे विचार के धनी और सच्चे कर्मवीर हैं।


[पृ 179]: ईश्वर ऐसे सज्जन मारवाड़ में और पैदा कर जिससे जाट जाति का कल्याण हो। इनकी कोई संतान नहीं है केवल पति पत्नी प्रेम पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करते हैं।


स्वर्गवास

समाज व किसानों की सेवा करते हुए 10 अक्टूबर 1954 में आपका स्वर्गवास हो गया.

संदर्भ

  1. लागबाग के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के कर सम्मिलित हैं. किसान की पैदावार का आधा भाग लगान के रूप में लिया जाता था. लगान के अलावा किसान पर अन्य लागें भी लगा रखी थी जैसे मलबा लाग, धुआं लाग, आंगा लाग, कांसा लाग, नाता लाग, हल लाग आदि
  2. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.177-179



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