Chaudhary Gulla Ram Benda: Marvad Ke Sabal Shiksha-senani

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

चौधरी गुल्लाराम बेंदा: मारवाड़ के सबल शिक्षा-सेनानी

प्रतिकूल परिस्थितियों और चुनौतियों से मुकाबला कर जीत की ज़िद के साथ आगे बढ़ने वाली शख्सियतें सही मायनों में दमदार और असरदार होती हैं। ऐसी हस्तियां अपने आसपास के माहौल में खास बदलाव लाने के लिए सार्थक पहल करती हैं। स्मरण करते हैं हम बीते ज़माने के उन शिक्षा-सेनानियों व समाज सुधारकों को जिनके तप और त्याग की बदौलत आज हम अपना कुछ वज़ूद क़ायम कर सके हैं।

खुदगर्ज़ी के दायरों को ध्वस्त कर, अपने -परायों का भेद मिटाकर आमजन के हित को सर्वोपरि स्थान देने वाले वो लोग कमाल के थे। गज़ब का हौसला और हिम्मत थी उनमें। कृषक क़ौम की बदहाली की कसक उनके दिल में थी। सोई हुई क़ौम को जगाया। उनकी दारुण दशा का असली कारण समझा और उनको उनकी ज़ुबान में समझाया भी। अंधेरे से उजाले की तरफ़ जाने वाला रास्ता दिखाया, उस पर समाज को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। अज्ञानता के अंधेरे में डूबी और शोषण की त्रिस्तरीय चक्की में पिसती किसान क़ौम की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। अशिक्षा, कुरीतियों व शोषण के दलदल में फंसे किसान वर्ग को बाहर निकालने की दिशा में सार्थक प्रयास किए। अंधेरे और आंधियों से डटकर मुकाबला किया। अंधेरे में वो उजाले की किरण थे। समाज के लिए रोशनी-घर ( Light house ) थे। संकट में सदैव मार्गदर्शक की भूमिका में मौजूद रहते थे।

मारवाड़ की त्रिमूर्ति

मारवाड़ के देहाती इलाक़े में पसरे अशिक्षा के अंधेरे को परास्त कर शिक्षा के ज़रिए चेतना जागृत करने एवं भावी पीढ़ियों के सुनहरे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में अतुलनीय योगदान देने वाली हस्तियों में तीन नाम प्रमुख हैं: जोधपुर के चौधरी गुल्लाराम बेंदा, बाड़मेर के चौ. रामदान डऊकिया और परबतसर ( नागौर ) के चौ. भींयाराम सियाग। औरों का जीवन संवारने को अपने जीवन का मिशन बनाने वाली इन महान विभूतियों के कर्म प्रधान जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस त्रिमूर्ति ( trio /त्रयी ) की सबल कड़ी चौ. गुल्लाराम बेंदा का संक्षिप्त जीवन- वृतांत प्रस्तुत है:

जन्म: 30 सितम्बर , 1883 जन्मस्थान: गांव- रतकुड़िया, तहसील - भोपालगढ़, जिला- जोधपुर ( राजस्थान ) प्राकृतिक प्रकोपों की मार सहते हुए खेती-किसानी व पशुपालन के ज़रिए रोजी- रोटी का जुगाड़ करने वाले एक अति सामान्य परिवार में श्रीमती लालीबाई की कोख़ से जन्म। पिता का नाम था चौ. गेनाराम बेन्दा। पूर्वज नागौर जिले के गाँव चुई से रतकुड़िया आए थे। देहान्त : 12 अक्टूबर 1968

मारवाड़ के देहाती इलाक़े में शिक्षा की ज्योति प्रज्ज्वलित कर किसानों की संतानों के लिए पढ़ाई-लिखाई की राह रोशन करने में चौधरी गुल्लाराम बेंदा की विशेष भूमिका रही है। ग्रामीण तबक़े को जाग्रत करने एवं शिक्षा के ज़रिए इसका उत्थान करने की दिशा में उनका योगदान मील का पत्थर साबित हुआ। इसीलिए उनका नाम समाज के गौरवशाली इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।

बाल्यकाल

गुल्लाराम जी का बाल्यकाल एक ग्वाले/ चरवाहे के रूप में गुजरा। पढ़ने की ललक तो बहुत थी पर हालात ने इस ललक को कुचल दिया। गाँव में कोई स्कूल नहीं था। वंचित वर्ग में जन्मा यह बालक औपचारिक शिक्षा हासिल करने से वंचित रहा। लेकिन हालातों से जूझते हुए इस बालक ने 'जहाँ चाह, वहाँ राह' इस कहावत को चरितार्थ करके दिखा दिया। पशुओं की चराई- निगरानी से जब भी फ़ुर्सत मिलती तब यह बालक गाँव में महाजनों व ब्राह्मणों के बालकों को पढ़ाने वाले गुरूजी के पास जाकर बैठ जाता। इस होनहार बालक ने थोड़े समय में वहाँ अक्षर ज्ञान और गिनती ( counting ), जोड़-बाकी सीख ली। उस ज़माने में यह सीख लेना हुनर में शुमार होता था। बड़ी पूछ होती थी ऐसे बालक की।

जैसा कि गाँवों में उस समय आम रिवाज़ था, उसका अनुसरण करते हुए गुल्लाराम जी को कमसिन उम्र में विवाह के बंधन में बांध दिया गया। अड़चने ख़ूब थीं पर पढ़-लिखकर जीवन में आगे बढ़ने की ललक दिल में हिलोरे ले रही थी। उम्र कम, सपना बड़ा।

गाँव से शहर का रुख

गांव-गुवाड़ और घर के दायरे से बाहर निकलकर दुनियादारी को देखने- समझने और ज़माने की जरूरत के हिसाब से हुनर सीख कर आगे बढ़ने का हौसला रखने वाले लोग ही जिंदगी में कुछ ख़ास सफलता हासिल कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि हौसले से लबरेज़ ऐसे ही लोगों ने समाज की प्रगति के पथ को प्रशस्त किया है।

उम्र के किसी भी पड़ाव पर ज़िंदगी की दशा और दिशा तय करने का फ़ैसला किया जा सकता है। गुल्लाराम जी के जीवन में एक तरफ़ जवानी दस्तक दे रही थी, दूसरी तरफ़ दिल में पढ़-लिखकर कोई नौकरी हासिल करने की हसरत जवां हो रही थी। गाँव मे रहकर खेती के पुश्तैनी कर्म में अपनी ज़िंदगी झोंक दूँ या शहर की तरफ रुख कर ज़िंदगी का रुख ही बदल दूँ। इस दुविधा में काफ़ी समय तक डूबे इस किशोरावस्था के लड़के ने आख़िर इस दुविधा से बाहर निकलने की ठान ली। ज़िंदगी निर्णायक मोड़ पर थी। संकल्प एक ही काफ़ी है ज़िंदगी को सँवारने के लिए। अपनी सोच-समझ से निर्णय ले लिया। प्रारंभिक पढ़ाई कर नौकरी करने की हसरत दिल में संजोए हुए सन 1900 में अपने रिश्तेदार श्री पोकरराम जी के साथ जोधपुर पहुँच कर ही दम लिया।

जोधपुर रेलवे स्टेशन के तत्समय के मैनेजर मिस्टर टॉड ने गुल्लाराम जी को गैंगमेन के काम पर लगा दिया। काम के बदले मासिक मेहनताना मिलता था सिर्फ़ पौने चार रुपये। पढ़ने-लिखने की धुन दिमाग़ में कुछ ऐसी सवार थी कि दिन में काम करते और रात को पढ़ते थे। दस महीने तक यह सिलसिला चलता रहा। फ़िर बीमारी की चपेट में आ जाने के कारण घर लौटना पड़ा और रेलवे का काम छुट गया।

फिर से शहर की ओर प्रस्थान

गुल्लाराम जी ने गाँव में कुछ समय रुक कर स्वास्थ्य लाभ किया। काम करने के लिए चंगा होते ही कमाई का ज़रिया ढूंढने की आश में पैदल चलकर माउंट आबू पहुँच गए। वहाँ पर कुछ दिनों तक श्रमिकों को पानी पिलाने का काम किया। खाली समय में हिन्दी, गुजराती व अंग्रेज़ी बोलने का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त किया। गुल्लाराम जी को एक दिन अंग्रेज़ी के कामचलाऊ वाक्य बोलता देखकर आबू हाई स्कूल के प्रिंसिपल वी. एच. स्केल्टन बेहद अचंभित हुए। उन्होंने 1 अक्टूबर 1901 को गुल्लाराम जी को अपनी दुग्ध डेयरी के काम में लगा दिया। उनकी कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी तथा मेहनत से प्रभावित होकर उनको कुछ समय बाद डेयरी का मैनेजर बना दिया। 7 अप्रेल 1904 तक गुल्लाराम जी ने डेयरी का काम बख़ूबी संभाला।

किसी भेदभाव के मसले पर खिन्न होकर एक दिन गुल्लाराम जी वहाँ से डेयरी की नौकरी छोड़कर वापिस जोधपुर आ गए और यहाँ पर रेलवे के इन्जीनियरिंग विभाग में मेट ( Mate = सहायक ) की नौकरी जॉइन कर ली। वक़्त बीता और मि. स्केल्टन को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने गुल्लाराम जी को वापिस आबू बुला लिया और 1909 में उन्हें पुनः डेयरी के मैनेजर का दायित्व सौंप दिया। सन 1912 में मि. स्केल्टन अपने देश इंग्लैंड चले गए। इसलिए डेयरी भी बंद कर दी। पर आबू से जाते समय मि. स्केल्टन ने जोधपुर सरकार में सार्वजनिक निर्माण विभाग में इंजीनियर के पद पर तैनात अपने बेटे के पास गुल्लाराम जी को भेज दिया। गुल्लाराम जी को यहाँ सार्वजनिक निर्माण विभाग में नक्शा बनाने और भूमि का सर्वे करने का काम सौंपा गया। उनके काम की कुशलता से ख़ुश होकर उन्हें 1 मार्च 1914 को ओवरसियर बना दिया गया तथा आबू, जस्वन्तपुरा, सांचौर, भीनमाल आदि के भवनों की देख- रेख का जिम्मा सौंप दिया गया। गुल्लाराम जी आबू मुख्यालय पर सन 1924 तक तैनात रहे। इसके बाद स्थानांतरण पिचयाक बाँध पर कर दिया। बेडा ठाकुर पृथ्वी सिंह की मांग पर गुल्लाराम जी को 1 जनवरी 1925 को बेडा ठिकाने का मुख्य कामदार बना दिया। सन 1926 में जोधपुर रियासती सरकार ने नीलगिरी उटकमंड ( मद्रास प्रान्त ) में एक विशाल भवन ख़रीदा जिसकी देख-रेख के लिए गुल्लाराम जी को 7 मार्च 1927 को उसका प्रबंधक नियुक्त किया गया। 1948 ई. तक गुल्लाराम जी वहीं सेवारत रहे और वहीं से सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त होकर मारवाड़ इलाके की पूर्णकालिक सेवा में जुट गए।

सुदृढ़ शिक्षा-सेनानी

चौधरी गुल्लाराम ने मारवाड़ के किसानों की दारुण दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। मारवाड़ में शिक्षा-जागृति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित करने के लिए आवश्यक सलाह-मशविरे वास्ते वे चौधरी मूलचंद सियाग नागौर के साथ 27 मार्च 1921 को संगरिया जाट स्कूल के वार्षिक जलसे में शामिल होने पहुंचे। इस जलसे का सभापतित्व करने रोहतक से पधारे सर छोटूरामजी से मारवाड़ की ये इन दोनों हस्तियों ने अलग से मुलाकात की। मक़सद था मारवाड़ के किसानों की समस्या के समाधान और उनकी जागृति तथा उत्थान के लिए परामर्श करना। सर छोटूराम ने सलाह दी कि वे मारवाड़ में राजनैतिक और सामाजिक उत्थान से पहले किसानों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अपनी प्राथमिकता बनायें और शासन -सत्ता के विरोध में अपनी शक्ति व समय का अपव्यय न करें। इस सलाह को शिरोधार्य करते हुए यह तय किया गया कि मारवाड़ के किसानों को शिक्षित करने की दिशा में सार्थक पहल हर हाल में करनी ही है।

इस सिलसिले में समुचित कार्ययोजना पर विचार करने के लिए चौधरी गुल्लारामजी ने सर छोटूरामजी को 1921 की गर्मी के महीनों में अपने गाँव रतकुड़िया आमंत्रित किया। ये वो वक़्त होता है जब किसान खेतों के काम से मुक्त रहते हैं। एक बड़ा जुलूस गाँव में निकाला गया। सभा में सर छोटूराम ने शिक्षा तथा संगठन के महत्व पर भाषण दिया। इस तरह माहौल निर्मित कर चौधरी गुल्लारामजी ने 1 जुलाई 1921 को गाँव के पास उम्मेद स्टेशन पर एक पाठशाला स्थापित कर मास्टर नैनसिंह को बच्चों को पढाने का जिम्मा सौंपा। 1924 तक यह पाठशाला संचालित रही जिसका समस्त व्यय चौ. गुल्लाराम ने वहन किया। परन्तु लोगों का असहयोगात्मक रुख रहने के कारण इस स्कूल का पर्याप्त फायदा लोग नहीं उठा सके और यह पाठशाला बंद हो गयी।

चौधरी गुल्लाराम ने हार नहीं मानी। अक्टूबर 1925 में कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर में अखिल भारतीय जाट महासभा का जो अधिवेशेन आयोजित हुआ,उसमें मारवाड़ से चौधरी गुल्लाराम, चौधरी मूलचंद सियाग, मास्टर धारासिंह, चौधरी रामदान, चौधरी भींया राम सिहाग आदि शिरकत करने पहुंचे। भरतपुर के तत्कालीन महाराजा श्री किशनसिंह की अध्यक्षता में आयोजित इस अधिवेशन में देश के हर कोने से आए जाटों की तुलना में मारवाड़ के जाटों की बदहाली को स्वीकारते हुए उन्होंने यह माना कि मारवाड़ में जाटों की दयनीय हालत व पिछड़ेपन का मूल कारण वहाँ शिक्षा का अभाव है।

"जाट बोर्डिंग हाउस, जोधपुर" की स्थापना

अशिक्षा के अंधेरे में डूबे मारवाड़ के देहातवासियों की संतानों के जीवन को शिक्षा की लौ से रोशन करने की कार्ययोजना की क्रियान्विति हेतु चौधरी गुल्लारामजी के रातानाडा स्थित मकान पर चौधरी मूलचंद सिहाग नागौर, चौधरी भिंयारामजी सिहाग परबतसर, चौधरी गंगारामजी खिलेरी नागौर, बाबू दूधारामजी और मास्टर धारासिंह की एक मीटिंग हुई। इसी सिलसिले 2 मार्च 1927 को जाट समाज के 70 मौजिज़ लोगों की एक बैठक श्री राधाकिसन मिर्धा की अध्यक्षता में हुई। इस बैठक में चौधरी गुल्लारामजी ने जाटों की उन्नति का मूलमंत्र दिया कि - "पढ़ो और पढ़ाओ"। एक जाट संस्था खोलने के लिए धनराशि इकट्ठा करने की अपील भी इसी बैठक में की गयी। यह तय किया गया कि बच्चों को निजी स्कूल खोल कर उनमें भेजने के बजाय कस्बों में स्थित सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए। कस्बों में पढ़ने आने वाले बच्चों के आवास की समस्या से निपटने के लिए हर क़स्बे में होस्टल खोले जावें। इस योजना की शुरुआत करते हुए चौधरी गुल्लारामजी ने अपना रातानाडा स्थित मकान एक वर्ष के लिए छात्रावास हेतु देने, बिजली, पानी, रसोइए का एक वर्ष का खर्च वहन करने की घोषणा की। इस तरह 4 अप्रेल 1927 को चौधरी गुल्लारामजी के मकान में "जाट बोर्डिंग हाउस, जोधपुर" की स्थापना हुई। बाद में श्री बलदेव राम मिर्धा ने 1929 ईस्वी में जोधपुर के नागौरी दरवाजे के अंदर महंत सूरतराम महाराज का एक विशाल भवन दस हजार रुपये में खरीद लिया और छात्रावास इस भवन में स्थानांतरित कर दिया गया।

जोधपुर स्थित इस छात्रावास का काम सन 1930 तक ठीक ढंग से जम गया और जोधपुर सरकार से अनुदान मिलना भी प्रारम्भ हो गया। इसके बाद विभिन्न जगहों पर छात्रावासों के निर्माण के सिलसिले को आगे बढ़ाया गया। चौ. मूलचंद के प्रयासों से 21 अगस्त 1930 को नागौर छात्रावास स्थापित किया गया। चौ. गुल्लाराम जी ने गणमान्य किसानों के सहयोग से एक के बाद एक कई कस्बों में छात्रावास खुलवाए। बाडमेर में सन 1934 में चौधरी रामदान डऊकिया की मदद से छात्रावास की आधारशिला रखी गई।

सन 1935 में चौधरी पूसराम पूलोता, डांगावास के महाराम कमेडिया, प्रभुजी घटेला, तथा बिरधा राम जी मेहरिया के सहयोग से मेड़ता में छात्रावास की स्थापना की गई। इसके बाद चौधरी बलदेव राम मिर्धा, बाबू गुल्लाराम जी, चौधरी मूलचंद नागौर की प्रेरणा व सहयोग से अन्य स्थानों पर एक के बाद एक किसान छात्रावास खोले गए। सूबेदार पन्नारामजी ढ़ीन्गसरा व किसनाराम जी रोज छोटी खाटू के सहयोग से डीडवाना में, ईश्वर रामजी महाराजपुरा के सहयोग से मारोठ में, भींयाराम जी सिहाग के सहयोग से परबतसर में, हेतरामजी के सहयोग से खींवसर में छात्रावास स्थापित हुए। इन छात्रावासों के अलावा पीपाड़, कुचेरा, लाडनूं, रोल, जायल, अलाय, बिलाड़ा, रतकुडि़या आदि स्थानों पर भी छात्रावास खोले गए।

इस प्रकार मारवाड़ के शिक्षा सेनानियों जिनमें चौधरी बल्देवराम मिर्धा, चौधरी गुल्लाराम, चौधरी मूलचंद, चौधरी भींयाराम, चौधरी रामदान बाडमेर आदि प्रमुख थे, ने मारवाड़ में छात्रावासों की एक श्रंखला स्थापित कर दी तथा इनके सुचारू संचालन हेतु एक शीर्ष संस्था "किसान शिक्षण संस्थान जोधपुर" स्थापित कर जोधपुर सरकार से मान्यता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। छात्रावासों के संचालन हेतु आर्थिक सहायता सुलभ होने से शिक्षा प्रचार के मामले में मारवाड़ के किसानों ने एक अनुकरणीय मिसाल क़ायम की।

कुरीतियाँ निवारण अभियान

मारवाड़ के देहाती बालकों की शिक्षा की सहूलियत वास्ते विभिन्न कस्बों में छात्रावास स्थापित करने के बाद मौजिज़ किसान नेताओं ने समाज सुधार की दिशा में भी कदम बढ़ाए। जोधपुर राज्य के किसानों के हितों की रक्षा हेतु 22 अगस्त 1938 को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेले के अवसर पर "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" नामक संस्था की स्थापना की। चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने, चौधरी गुल्लाराम रतकुड़िया इसके अध्यक्ष और चौ. भींयाराम सिहाग कोषाध्यक्ष चुने गए।

इस सभा का प्रमुख उद्देश्य किसानों में प्रचलित कुरीतियाँ यथा बाल- विवाह, कुमेल विवाह, मृत्युभोज ( मौसर ), दहेज प्रथा, लड़ाई -झगड़े, मुकदमेबाजी, नशाखोरी, विवाह में गंदे गीत गाना आदि कुरीतियों को मिटाना और जागीरदारों के अत्याचारों से किसानों की रक्षा करना था। जगह-जगह सम्मेलन आयोजित कर किसानों में जागृति पैदा करने व कुप्रथाओं को त्यागने के प्रस्ताव पारित किए गए। छात्रावासों के चंदे पेटे जाट समाज के प्रति हल/ घर को इकाई मानते हुए एक रूपया तथा विवाह के अवसर पर तीन से ग्यारह रुपये तक की राशि लिया जाना तय किया गया।

ठाकुर हुकम सिंह व भोला सिंह, उपदेशक हीरा सिंह पहाड़सर, पं. दत्तुराम भादरा, चौधरी गणपतराम, चौधरी जीवन राम चौधरी चंदूलाल, चौधरी मोहरसिंह आदि भजनोपदेशकों के कार्यक्रम आयोजित करवाकर मारवाड़ के किसानों को कुरीतियों से होने वाले नुकसानों के प्रति जागरूक किया गया।

मारवाड़ किसान सभा की स्थापना

शिक्षा- पथ पर किसान-पुत्रों की प्रगति देखकर मारवाड़ के जागीरदार बौखला गए। उन्होंने किसानों का शोषण और बढ़ा दिया तथा उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर हमले भी तेज कर दिए। इसका संगठित प्रतिरोध करने एवं किसानों के हक़ों की रक्षा के लिए किसान नेताओं ने किसानों का एक राजनैतिक संगठन बनाने पर विचार किया। श्री बलदेवराम मिर्धा ने 27 जून 1941 को सुमेर स्कूल, जोधपुर में मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई। सभा में विभिन्न परगनों से हजारों किसान उपस्थित हुए और इस सभा में किसान-हितों की आवाज़ बुलंद करने के लिए "मारवाड़ किसान सभा" नामक राजनैतिक संगठन बनाने की घोषणा की गई। श्री मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा श्री बालकिशन को सभा का मंत्री नियुक्त किया गया। ( मारवाड किसान सभा का विधान, प्राक्कथन, पृष्ठ 1 ) श्री बलदेव राम मिर्धा इसके प्रमुख आयोजक थे। इतिहासकार प्रो. पेमाराम के मतानुसार उस समय 'मारवाड़ लोक परिषद' का जोधपुर के किसानों पर बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने की नीयत से जोधपुर सरकार ने भी इस सभा की स्थापना में प्रोत्साहन दिया था।

श्री बलदेव राम मिर्धा व चौ. गुल्लाराम ने किसानों को लड़ाई झगड़े, खून- खराबे से दूर रहकर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ वार्ता के ज़रिए सुलह करने एवं शांति- व्यवस्था बनाए रखने की सलाह दी। किसानों को सीधे जागीरदारों से टकराने से बचने की सलाह दी। वे जोधपुर सरकार के हस्तक्षेप से ही किसानों को न्याय दिलाने और उनकी तकलीफों के संबंध में अनेक बुलेटिन जारी कर जोधपुर महाराजा से इनकी जांच कराने तथा जागीरी इलाकों में तत्काल भूमि बंदोबस्त शुरू कराने की मांग की। इस पर जोधपुर सरकार ने लाग-बागों की जांच कराने के लिए कमेटियां बनाई।

मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन 25- 26 अप्रेल 1943 को सर छोटूराम की अध्यक्षता में जोधपुर में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में जोधपुर के महाराजा भी उपस्थित हुए। यह अधिवेशन मारवाड़ के किसान- जागृति के इतिहास में अपनी ख़ास अहमियत रखता है। इस अधिवेशन में किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्त शु्रू करवाने की घोषणा की। मारवाड़ के जागीरदारों ने इस घोषणा का कड़ा विरोध किया।

जागीरदारों ने जगह- जगह सभाएं कर उनमें भूमि बंदोबस्त का एकजुट होकर विरोध करने हेतु सेटलमेंट के कर्मचारियों के साथ सहयोग न करने का निश्चय किया। इतना ही नहीं उन्होंने भूमि नापने की सर्वे झंडियों को अनेक गावों से हटा दिया। जोधपुर सरकार ने इस पर जागीरदारों को कड़ी चेतावनी दी तथा बोरावड व खींवसर ठाकुर के ख़िलाफ़ कार्यवाही की। परिणामस्वरुप सेटलमेंट कार्य का विरोध तो बंद हो गया, परन्तु जागीरदारों ने अब किसानों को आतंकित करना शुरू कर दिया। जगह- जगह किसानों पर जानलेवा हमले किए गए। लाटा न लाटना, पशुओं को नीलाम करना, नई-नई लागें लगाना, झूठे मुकदमों में फंसाना, खेती करने से रोकना, चोरियाँ करवाना आदि आम बातें हो गईं। किसानों द्वारा विरोध करने पर जागीरदार अपने गुंडों व एजेंटों से उनके घरों व खेतों को जला देते। कई किसानों के अंगभंग व हत्याओं जैसे काण्ड भी कारित किए गए। ऐसे कांडों में 13 मार्च 1947 को कारित किया गया डाबाड़ा कांड प्रमुख है। इसमें 6 किसान मारे गए और बड़ी संख्या में घायल हुए। इसके बाद तो जागीरदारों के सरंक्षण में कुख्यात डाकुओं की गोलियों से अनेक किसान शहीद हुए, जिसमें 31 अक्टूबर 1951 को दीवाली के अगले दिन रामरमी के दिन मलार-भूण्डाणा में 16 निर्दोष किसानों को दिन -दहाड़े गोलियों से भूनने तथा पचास से अधिक किसानों को घायल करने की घटना विशेष उल्लेखनीय है। सामंतवाद के खुले बर्बर रूप में प्रकट होने के कारण जोधपुर राज्य के किसानों को सबसे ज़्यादा कुर्बानी देनी पड़ी।

उस उत्तेजनापूर्ण माहौल में चौधरी बलदेव राम मिर्धा और चौधरी गुल्लारम ने किसानों को जागीरदारों से सीधे टकराने से रोका और समझदारी के साथ शान्ति से काम लेने की अपील की। इसका नतीजा था कि मारवाड़ के किसान उतेजना के बावजूद शांत बने रहे और व्यर्थ के खून-खराबे से बच सके। देखा जाए तो मारवाड़ के किसानों के दिलों में चौ. बलदेव राम मिर्धा और चौ. गुल्लाराम का ख़ास स्थान है।

शिक्षित परिवार

चौधरी गुल्लाराम ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए अपने पुत्रों को समुचित शिक्षा दिलाई। नतीज़तन उनके पुत्रों में श्री रामनारायण चौधरी व श्री हरीसिंह राजस्थान सरकार में सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर पद से सेवानिवृत्त हुए जबकि चौधरी गोवर्धनसिंह को राजस्थान में जाट जाति का पहला आई ए एस आफिसर बनने का गौरव प्राप्त हुआ।

शिक्षा संबंधी विचार

चौ. गुल्लाराम द्वारा किसानों की जागृति एवं उत्थान के लिए संपादित विभिन्न कार्यों के आधार पर ही उन्हें 'किसानों का पैग़म्बर' माना जाता था। उनका मानना था कि जीवन में शिक्षा का सर्वोपरि महत्व है। 25 जनवरी 1949 के 'लोकसुधार जोधपुर, किसान- अंक' में चौधरी गुल्लाराम ने अपने शिक्षा संबंधी विचार इन शब्दों में व्यक्त किए थे -- 1. विद्या जैसे धन को पाकर मनुष्य सदा सुखी रहता है और संसार में मान पाता है। 2. अगर संसार में मान चाहते हो और गरीबी से बचना चाहते हो तो विद्या पढ़ो। 3. बिना पढ़ा मनुष्य ही संसार में सबसे ज्यादा दुःखी है। 4 . चोर, डाकू व राज विद्या- रूपी धन को नहीं छीन सकते।

रतकुड़िया स्कूल की स्थापना

1948 में नौकरी से मुक्त होने के बाद चौधरी गुल्लाराम शिक्षा के प्रचार- प्रसार के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो गए। इसके साथ ही उन्होंने राजनीति में भी पदार्पण किया। 1956 में अपने गाँव रतकुड़िया के निर्विरोध सरपंच चुने गए। गाँव में एक शिक्षा संस्था स्थापित कर 1957 में इस संस्था को उच्च प्राथमिक, 1960 में माध्यमिक व 1962 में इसे उच्च माध्यमिक विद्यालय में क्रमोन्नत करवा कर ग्रामीण विद्यार्थियों को शिक्षा का सुनहरा अवसर सुलभ करवाया। स्कूल के लिए विशाल भवन बनवाने के अलावा उन्होंने इस संस्था में विशाल छात्रावास व अध्यापकों के लिए उन्नीस निःशुल्क आवास- गृहों का निर्माण करवाया। जिंदगी की अंतिम घड़ी तक इस संस्था की उन्नति हेतु समर्पित भाव से कठिन परिश्रम किया। इस स्कूल का उस समय पूरे राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में एक विशिष्ठ स्थान था और यह विज्ञान-शिक्षण के उन्नत शिक्षा केन्द्रों में इसकी गिनती होने लगी। दूर-दूर के ग्रामीण इलाकों से विद्यार्थी यहाँ विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने हेतु दाखिला लेने लगे।

चौ. गुल्लाराम सन 1965 में भोपालगढ़ पंचायत समिति के प्रधान निर्वाचित हुए। राजनीतिक पदों पर रहते हुए भी उनकी रुचि शिक्षा की ज्योति को परवान चढ़ाने एवं समाज सुधार के अभियानों को गति प्रदान करने की रही।

महान शिक्षा प्रेमी, किसानों के हितैषी और साहसी समाज सुधारक चौधरी गुल्लाराम जी स्वर्गवास के बाद उनके परिवार ने रतकुड़िया स्थित इस संस्था को राजस्थान सरकार को सौंप दिया। इस पर सरकार द्वारा इस विद्यालय का नाम "चौधरी गुल्लाराम राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय रतकुड़िया" रख दिया गया।

चौधरी गुल्लाराम ने अशिक्षा के अंधेरे से घिरे मारवाड़ के देहाती इलाके में शिक्षा की ज्योति प्रज्वलित कर किसान क़ौम पर बहुत बड़ा उपकार किया। शिक्षा का दामन थामकर मारवाड़ के किसानों ने जो प्रगति की है, उसमें सरल ,सौम्य, दूरदर्शी चौधरी गुल्लाराम जी का बहुत बड़ा योगदान है। तभी तो कहा गया है -

"रतकुड़िया कुण जानतो, साधारण सो गाँव ।
गुल्लाराम परकट कियो, मारवाड़ में नांव ।।
धन्य धन्य तुम धन्य हो, चौधरी गुल्लाराम ।
रतकुड़िया निर्मित कियो, विद्यालय शुभ धाम।।"

(चौधरी गुल्लाराम जी स्मृति ग्रँथ, पृष्ठ 90)

यह भी देखें

संदर्भ

1. पं. लक्ष्मीनारायण बुद्धिसागर मिश्र शास्त्री: चौधरी गुल्लाराम जी स्मृति ग्रंथ, 1968 ईस्वी 2. ठाकुर देशराज: रियासती भारत के जाट जनसेवक, 1949 3. ठाकुर देशराज: मारवाड़ का जाट इतिहास ,1954 4. प्रो. पेमाराम एवं डॉ. विक्रमादित्य: जाटों की गौरव गाथा, 2008 5. डॉ. पेमाराम: एग्रेरियन मूवमेंट इन राजस्थान; शेखावाटी किसान आंदोलन का इतिहास 6. डॉ पेमाराम: मारवाड़ में किसान जागृति के कर्णधार जाट, राष्ट्रीय सेमिनार "लाइफ एंड हिस्ट्री ऑफ जाटस्", में पत्र वाचन, दिल्ली 1998 7. जोधपुरी एडमिनिस्ट्रेशन रिकॉर्ड, फाइल नं. सी 76, भाग 3, 194, रा. रा. अ. बीकानेर 8. रिपोर्ट श्री जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर शुरू से 30 जून 1936 ईस्वी तक 9.रिपोर्ट श्री मारवाड़ जाट कृषक सुधार सभा, फरवरी 1942 ई. 10. श्री मारवाड़ जाट कृषक सुधार सभा, त्रिवार्षिक रिपोर्ट

✍️✍️ Prof. H. R. Isran Retired Principal, College Education, Raj.


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