Golkunda
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Golkunda (गोलकुंडा) is a ruined fort of Southern India and capital of medieval Golconda Sultanate (c.1518–1687) in Hyderabad (India). It lies in Telangana. Golconda fort is undoubtedly one of most magnificent fortress complexes in India.
Variants
- Golkunda (गोलकुंडा) (आ.प्र.) (AS, p.303)
- Golgonda
- Golkunda
- Golkonda
- Golconda
- Golla konda ("shepherd's hill")
- Golkonda Fort
Location
Golconda Fort is located in the western part of Hyderabad city and is about 9 km from the Hussain Sagar Lake. The outer fort occupies an area of three square kilometers, which is 4.8 kilometers in length. [1]
History
Golconda was originally known as Mankal and built on a hilltop in the year 1143. The history of Golconda Fort goes back to early 13th century, when it was ruled by the Kakatiya’s followed by Qutub Shahi kings, who ruled the region in 16th and 17th century. The fortress rests on a granite hill 120 meters high while huge crenellated ramparts surround this structure. It was initially called Shepherd’s Hill, meaning Golla Konda in Telugu while according to legend, on this rocky hill a shepherd boy had come across an idol and the information was conveyed to the ruling Kakatiya king at that time. The king constructed a mud fort around this holy spot and after 200 years, Bahamani rulers took possession of the place. Later the Qutub Shahi kings converted this into massive granite fort extending 5km in circumference. The fort is considered a mute witness to historic events. [2]
The Golconda fort was first built by Kakatiya as part of their western defenses. It was built in 945 CE-970 CE[3] on the lines of the Kondapalli fort. The city and fortress are built on a granite hill that is 120 meters high and is surrounded by massive crenelated ramparts. The fort was rebuilt and strengthened by Pratapa Rudra of Kakatiya dynasty. [4]The fort was further strengthened by Musunuri Nayaks who overthrew the Tughlak army occupying Warangal. The fort was ceded by the Musunuri chief, Kapaya Nayaka to the Bahmanis as part of the treaty in 1364 AD.[5] The fort became the capital of a major province in the Sultanate and after its collapse the capital of the Qutb Shahi kings. The fort finally fell into ruins after a siege and its fall to Mughal emperor Aurangazeb in 1687 AD.
After the collapse of the Bahmani Sultanat, Golkonda rose to prominence as the seat of the Qutb Shahi dynasty around 1507. Over a period of 62 years the mud fort was expanded by the first three Qutb Shahi kings into a massive fort of granite, extending around 5 km in circumference. It remained the capital of the Qutb Shahi dynasty until 1590 when the capital was shifted to Hyderabad. The Qutb Shahis expanded the fort, whose 7 km outer wall enclosed the city. The state became a focal point for Shia Islam in India, for instance, in the 17th century, Bahraini clerics, Sheikh Ja`far bin Kamal al-Din and Sheikh Salih Al-Karzakani both emigrated to Golkonda.[6]
गोलकुंडा
विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...गोलकुंडा (तेलंगाना) (AS, p.303): गोलकुंडा एक क़िला व भग्नशेष नगर है। यह आंध्र प्रदेश का एक ऐतिहासिक नगर है। हैदराबाद से पांच मील पश्चिम की ओर बहमनी वंश के सुल्तानों की राजधानी गोलकुंडा के विस्तृत खंडहर स्थित हैं। गोलकुंडा का प्राचीन दुर्ग वारंगल के हिन्दू राजाओं ने बनवाया था। ये देवगिरी के यादव तथा वारंगल के ककातीय नरेशों के अधिकार में रहा था। इन राज्यवंशों के शासन के चिह्न तथा कई खंडित अभिलेख दुर्ग की दीवारों तथा द्वारों पर अंकित मिलते हैं।
[p.304]: 1364 ई. में वारंगल नरेश ने इस क़िले को बहमनी सुल्तान महमूद शाह के हवाले कर दिया था। इतिहासकार फ़रिश्ता लिखता है कि बहमनी वंश की अवनति के पश्चात् 1511 ई. में गोलकुंडा के प्रथम सुल्तान ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। किंतु क़िले के अन्दर स्थित जामा मस्जिद के एक फ़ारसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि, 1518 ई. में भी गोलकुंडा का संस्थापक कुली कुतुबशाह, महमूद शाह बहमनी का सामन्त और एक तुर्की अधिकारी था। उसने 1543 तक गोलकुंडा पर शासन किया। यह ऐतिहासिक शहर बहमनी साम्राज्य के 'तिलंग' या वर्तमान तेलंगाना प्रान्त की राजधानी था। गोलकुंडा के आख़िरी सुल्तान का दरबारी और सिपहसलार अब्दुर्रज्जाक लारी था। कुतुबशाह के बाद उसका पुत्र 'जमशेद' सिंहासन पर बैठा। जमशेद के बाद गोलकुंडा का शासक 'इब्राहिम' बना, जिसने विजयनगर से संघर्ष किया। 1580 ई. में इब्राहिम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र 'मुहम्मद कुली' (1580-1612 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह हैदराबाद नगर का संस्थापक और दक्कनी उर्दू में लिखित प्रथम काव्य संग्रह या ‘दीवान’ का लेखक था। गोलकुंडा का ही प्रसिद्ध अमीर 'मीरजुमला' मुग़लों से मिल गया था।
कुतुबशाही साम्राज्य की प्रारम्भिक राजधानी गोलकुंडा हीरों के विश्व प्रसिद्ध बाज़ार के रूप में प्रसिद्ध थी, जबकि मुसलीपत्तन कुतुबशाही साम्राज्य का विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह था। इस काल के प्रारम्भिक भवनों में सुल्तान कुतुबशाह द्वारा गोलकुंडा में निर्मित 'जामी मस्जिद' उल्लेखनीय है। हैदराबाद के संस्थापक 'मुहम्मद कुली' द्वारा हैदराबाद में निर्मित चारमीनार की गणना भव्य इमारतों में होती है। सुल्तान मुहम्मद कुली को आदि उर्दू काव्य का जन्मदाता माना जाता है। सुल्तान 'अब्दुल्ला' महान् कवि एवं कवियो का संरक्षक था। उसके द्वारा संरक्षित महानतम् कवि 'मलिक-उस-शोरा' था, जिसने तीन मसनवियो की रचना की। अयोग्य शासक के कारण, अंततः 1637 ई. में औरंगजेब ने गोलकुंडा को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया। बहमनी साम्राज्य से स्वतंत्र होने वाले राज्य क्रमश बरार, बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर हैं।
गोलकुंडा क़िला: गोलकुंडा का क़िला 400 फुट ऊंची कणाश्म (ग्रेनाइट) की पहाड़ी पर स्थित है। इसके तीन परकोटे हैं और इसका परिमाप सात मील के लगभग है। इस पर 87 बुर्ज बने हैं। दुर्ग के अन्दर क़ुतुबशाही बेगमों के भवन उल्लेखनीय है। इनमें तारामती, पेमामती, हयात बख्शी बेगम और भागमती (जो हैदराबाद या भागनगर के संस्थापक कुली क़ुतुब शाह की प्रेयसी थी) के महलों से अनेक मधुर आख्यायिकी का संबंध बताया जाता है। क़िले के अन्दर नौमहल्ला नामक अन्य इमारतें हैं। जिन्हें हैदराबाद के निजामों ने बनवाया था। इनकी मनोहारी बाटिकाएँ तथा सुन्दर जलाशय इनके सौंदर्य को द्विगुणित कर देते हैं। क़िले से तीन फलांग पर इब्राहिम बाग़ में सात क़ुतुबशाही सुल्तानों के मक़्बरे हैं। जिनके नाम हैं- कुली क़ुतुब, सुभान क़ुतुब, जमशेदकुली, इब्राहिम, मुहम्मद कुली क़ुतुब, मुहम्मद क़ुतुब, अब्दुल्ला क़ुतुबशाह.
प्रेमावती व हयात बख्शी बेगमों के मक़्बरे भी इसी उद्यान के अन्दर हैं। इन मक़्बरों के आधार वर्गाकार हैं तथा इन पर गुंबदों की छतें हैं। चारों ओर वीथीकाएँ बनी हैं जिनके महाराब नुकीले हैं। ये वीथीकाएँ कई स्थानों पर दुमंजिली भी हैं। मक़्बरों के हिन्दू वास्तुकला के विशिष्ट चिह्न कमल पुष्प तथा पत्र और कलियाँ, शृंखलाएँ, प्रक्षिप्त छज्जे, स्वस्तिकाकार स्तंभशीर्ष आदि बने हुए हैं। गोलकुंडा दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार में यदि ज़ोर से करताल ध्वनि की जाए तो उसकी गूंज दुर्ग के सर्वोच्च भवन या कक्ष में पहुँचती है। एक प्रकार से यह ध्वनि आह्वान घंटी के समान थी। दुर्ग से डेढ़ मील पर तारामती की छतरी है। यह एक पहाड़ी पर स्थित है। देखने में यह वर्गाकार है और इसकी दो मंज़िले हैं। किंवदंती है कि तारामती, जो क़ुतुबशाही सुल्तानों की प्रेयसी तथा प्रसिद्ध नर्तकी थी, क़िले तथा छतरी के बीच बंधी हुई एक रस्सी पर चाँदनी में नृत्य करती थी। सड़क के दूसरी ओर प्रेमावती की छतरी है। यह भी क़ुतुबशाही नरेशों की प्रेमपात्री थी। हिमायत सागर सरोवर के पास ही प्रथम निज़ाम के पितामह चिनकिलिचख़ाँ का मक़्बरा है।
28 जनवरी, 1687 ई. को औरंगज़ेब ने गोलकुंडा के क़िले पर आक्रमण किया और तभी मुग़ल सेना के एक नायक के रूप में किलिच ख़ाँ ने भी इस
[p.305]: आक्रमण में भाग लिया था। युद्ध में इसका एक हाथ तोप के गोले से उड़ गया था जो मक़्बरे से आधा मील दूर क़िस्मतपुर में गड़ा हुआ है। इसी घाव से इसका कुछ दिन बाद निधन हो गया। कहा जाता है कि मरते वक़्त भी किलिच ख़ाँ जरा भी विचलित नहीं हुआ था और औरंगज़ेब के प्रधानमंत्री जमदातुल मुल्क असद ने, जो उससे मिलने आया था, उसे चुपचाप काफ़ी पीते देखा था। शिवाजी ने बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों को बहुत संत्रस्त किया था तथा उनके अनेक क़िलों को जीत लिया था। उनका आतंक बीजापुर और गोलकुंडा पर बहुत समय तक छाया रहा जिसका वर्णन हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भूषण ने किया है- बीजापुर गोलकुंडा आगरा दिल्ली कोट बाजे बाजे रोज़ दरवाज़े उधरत हैं। गोलकुंडा पहले हीरों के लिए विख्यात था। जिनमें से कोहिनूर हीरा सबसे मशहूर है।
Jat clans
Jat History
In south, it was a big challenge for Aurangzeb to win Golkunda Fort in Hyderabad. For this he was not getting ideas, finally he decided for Gurilla war. For this he needed people who could do it for him . He started a search for the people all over. Finally he founds Jats in and around Delhi , who could do this. He pleaded to them to fight for him , to which Jats agreed. An army of 700-800 Jats was formed. By showing amazing courage of bravery Jats conquered Golkunda Fort for him. After winning Golkunda Fort, Aurangzeb in happiness and for the security of fort gifted land to these Jats for settlement in and around Hyderabad. As the time passed , dynasties changed and land given to them decreased but the population increased. A time finally came , when the same Jats who won the Fort,their decedents became small farmer and labours.
Today there are around 40,000 Jats in Hyderabad from Ramdevguda to Nalagunda having history in their hearts but neither centre Govt nor state Govt has done anything for them . They are neither considered backward nor Telgu speaking people. As their colour changed with time so changed their gottars , but in genes they have Jats blood. [8]
Jats gotras in these Jat people of Andhra Pradesh are Gulia, Mathur, Khainwar, Nunwar, Jakodia, Byaare, Hatinzar, Durwasa etc.
Chauhan history
James Tod[9] writes that according to the Book of Kings of Govind Ram (the Hara bard), the Haras were descended from Anuraj, son of Bisaldeo ; but Mog-ji, the Khichi bard, makes Anuraj progenitor of the Khichis, and son of Manika Rae. We follow the Hara bard.
Anuraj had assigned to him in appanage the important frontier fortress of Asi (vulg, Hansi). His son Ishtpal, together with Aganraj, son of Ajairao, the founder of Khichpur Patan in Sind-Sagur, was preparing to seek his fortunes with Randhir Chohan prince of Gowalcoond : but both Asi and Golconda were almost simultaneously assailed by an army "from the wilds of Gujlibund."
Randhir performed the sakha ; and only a single female, his daughter, named Surabhi, survived, and she fled for protection towards Asi, then attacked by the same furious invader. Anuraj prepared to fly ; but his son, Ishtpal, determined not to wait the attack, but seek the foe. A battle ensued, when the invader was slain, and Ishtpal, grievously wounded, pursued him till he fell, near the spot where Surabhi was awaiting death under the shade of a pipal : for " hopes of life were extinct, and fear and hunger had reduced her to a skeleton." In the moment of despair, however, the ashtwa (peepul) tree under which she took shelter was severed, and
[p.420]: Asapurna, the guardian goddess of her race, appeared before her. To her, Soorahbae related how her father and twelve brothers had fallen in defending Golconda against ' the demon of Gujlibund'. The goddess told her to be of good cheer, for that a Chohan of her own race had slain him, and was then at hand ; and led her to where Ishtpal lay senseless from his wounds. By her aid he recovered, and possessed himself of that ancient heir-loom of the Chohans, the famed fortress of Asir. The story goes, his limbs, which lay dissevered, were collected by Surabhi, and the goddess sprinkling them with " the water of life" he arose. Hence the name Hara, which his descendants bore, from har or ' Bones,' she collected : but more likely from having lost (Hara) Asi.
Ishtpal, the founder of the Haras, obtained Asir in S. 1081 (or A.D. 1025) ; and as Mahmud of Ghazni's last destructive visit to India, by Multan through the desert to Ajmer, was in A.H. 417, or A.D. 1022, we have every right to conclude that his father Anuraj lost his life and Asi to the king of Ghazni. The Hara chronicle says S. 981, but by some strange, yet uniform errors all the tribes of the Chohans antedate their chronicles by a hundred years. Thus Bisaldeo's taking possession of Anhalpur Patun is "nine hundred, fifty " thirty and six" (S. 986), instead of S. 1086. But it even pervades Chund, the poet of Pirthvi Raj, whose birth is made 1115, instead of S. 1215 : and here in all probability, the error commenced, by the ignorance (willful we cannot imagine) of some rhymer.
At the same time that Ajmer was sacked, and the country laid waste by this conqueror, whom the Hindu bard might well style " the demon from Gujlibund or 'The elephant wilds.' They assert that Ghazni is properly Gujni, founded by the Yadus : and in a curious specimen of Hindu geography (presented by me to the Royal Asiatic Society), all the tract about the glaciers of the Ganges is termed Gujlibun, or Gujlibu, the 'Elephant Forest' There is a " Gujingurh mentioned by Abulfazil in the region of Bijore, inhabited by the Sooltans, Jadoon, and Eusofzye tribes.
The Mahomedan historians give us no hint even of any portion of Mahmood's army penetrating into the peninsula, though that grasping ambition, which considered the shores of Saurashtra but an intermediate step from Ghazni to the conquest of Ceylon and Pegu, [10] may have pushed an army during his long halt at Anhalwarra, and have driven Randhir from Golconda. But it is idle to speculate upon such slender materials ; let them suffice to illustrate one new fact,namely, that these kingdoms of the south as well as the north were held by Rajput sovereigns, whose offspring, blending with the original population, produced that mixed race of Mahrattas, inheriting with the names, the warlike propensities of their ancestors, but who assume the name of their abodes as titles, as the Nimalkars, the Phalkias, the Patankars, instead of their tribes of Jadon, Tuar, Puar, &c., &c.
Ishtpal had a son called Chand-karan ; his son, Lok Pal, had Hamir and Gambhir, names well known in the wars of Pirthi Raj. The brothers were enrolled amongst his one hundred and eight great vassals, from
[p.421]: which we may infer that, though Asir was not considered absolutely as a fief, its fief paid homage to Ajmer, as the principal seat of the Chohans.
External links
See also
References
- ↑ Golconda Fort, Heritage in Hyderabad
- ↑ Golconda Fort, Heritage in Hyderabad
- ↑ Prasad G (1988). History of the Andhras up to 1565. P. G. Publishers, Guntur.
- ↑ Saqi Mustaid Khan, Ma'asir-i-Alamgiri, Translated by Jadunath sarkar, Royal Asiatic Society of Bengal, Calcutta; 1947, p. 183
- ↑ History of the Andhras by Durga Prasad, P.G. Publishers, Guntur, 1988, p. 172
- ↑ Juan Cole, Sacred Space and Holy War, IB Tauris, 2007, p44.
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.303-305
- ↑ Hawa Singh Sangwan: Asli Lutere Kaun, 2009, p. 82-83
- ↑ James Tod: Annals and Antiquities of Rajasthan, Volume II, Annals of Haravati, p.419-421
- ↑ See Ferishta, life of Mahmood