Govindaraja III

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Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.), Jaipur
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Govindaraja III (1053 ई.) or Govindadeva III was a ruler of Chauhan dynasty in Rajasthan. He was contemporary of Tejaji.

History

Durlabhraj was succeeded by his son Govindaraj III, known also as Gandu. During his reign the attack of Mahmud Ghaznavi had started and they were getting prominence. He suffered not much loss. Firishta records that Mahmud had to return to Ghazna by way of Sindh, because the route through Marwar lay blocked by large forces under the ruler of Ajmer. For Ajmer, of course, one should substitute Shakambhari, as there was no Ajmer in existence at that time. [1]

संत श्री कान्हाराम

पनेर के निकटवर्ती गाँव थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा स्थित सांभर के चौहान शासक गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के समय के शिलालेख, जो कि तेजाजी के समकालीन था

संत श्री कान्हाराम[2] ने लिखा है कि....[पृष्ठ-45]: जहा पहले बबेरा नामक गाँव था तथा महाभारत काल में बहबलपुर के नाम से पुकारा जाता था। अब यह रूपनगढ है।

तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है विक्रम संवत 1086 गोविंददेव


[पृष्ठ-46]: किशनगढ़ के स्थान पर पहले सेठोलाव नामक नगर बसा था। जिसके भग्नावशेष तथा सेठोलाव के भैरुजी एवं बहुत पुरानी बावड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है। सेठोलाव गणराज्य के शासक नुवाद गोत्री जाट हुआ करते थे। ऐसा संकेत राव-भाटों की पोथियों व परम्पराओं में मिलता है। अकबर के समय यहाँ के विगत शासक जाट वंशी राव दूधाजी थे। गून्दोलाव झीलहमीर तालाब का निर्माण करवाने वाले शासक का नाम गून्दलराव था। यह शब्द अपभ्रंस होकर गून्दोलाव हो गया। हम्मीर राव ने हमीरिया तालाब का निर्माण करवाया था। सेठोजी राव ने सेठोलाव नगर की स्थापना की थी।

तेजाजी का इतिहास

संत श्री कान्हाराम[3] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-84]: तेजाजी के जन्म के समय (1074 ई.) यहाँ मरुधरा में छोटे-छोटे गणराज्य आबाद थे। तेजाजी के पिता ताहड़ देव (थिरराज) खरनाल गणराज्य के गणपति थे। इसमें 24 गांवों का समूह था। तेजाजी का ससुराल पनेर भी एक गणराज्य था जिस पर झाँझर गोत्र के जाट राव रायमल मुहता का शासन था। मेहता या मुहता उनकी पदवी थी। उस समय पनेर काफी बड़ा नगर था, जो शहर पनेर नाम से विख्यात था। छोटे छोटे गणराज्यों के संघ ही प्रतिहारचौहान के दल थे जो उस समय के पराक्रमी राजा के नेतृत्व में ये दल बने थे।


[पृष्ठ-85]: पनैर, जाजोतारूपनगर गांवों के बीच की भूमि में दबे शहर पनेर के अवशेष आज भी खुदाई में मिलते हैं। आस पास ही कहीं महाभारत कालीन बहबलपुर भी था। पनेर से डेढ़ किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में रंगबाड़ी में लाछा गुजरी अपने पति परिवार के साथ रहती थी। लाछा के पास बड़ी संख्या में गौ धन था। समाज में लाछा की बड़ी मान्यता थी। लाछा का पति नंदू गुजर एक सीधा साधा इंसान था।

तेजाजी की सास बोदल दे पेमल का अन्यत्र पुनःविवाह करना चाहती थी, उसमें लाछा बड़ी रोड़ा थी। सतवंती पेमल अपनी माता को इस कुकर्त्य के लिए साफ मना कर चुकी थी।

खरनालशहर पनेर गणराजयों की तरह अन्य वंशों के अलग-अलग गणराज्य थे। तेजाजी का ननिहाल त्योद भी एक गणराज्य था। जिसके गणपति तेजाजी के नानाजी दूल्हण सोढ़ी (ज्याणी) प्रतिष्ठित थे। ये सोढ़ी पहले पांचाल प्रदेश अंतर्गत अधिपति थे। ऐतिहासिक कारणों से ये जांगल प्रदेश के त्योद में आ बसे। सोढ़ी से ही ज्याणी गोत्र निकला है।

पनेर के निकटवर्ती गाँव थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा स्थित सांभर के चौहान शासक गोविंददेव तृतीय (1053 ई.) के समय के शिलालेख, जो कि तेजाजी के समकालीन था

इन सभी गणराजयों की केंद्रीय सत्ता गोविंददेव या गोविंदराज तृतीय चौहान की राजधानी सांभर में निहित थी। इसके प्रमाण इतिहास की पुस्तकों के साथ-साथ यहाँ पनेर- रूपनगर के क्षेत्र के गांवों में बीसियों की संख्या में शिलालेख के रूप में बिखरे पड़े हैं। थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, रूपनगढ, बाल्यास का टीबा, जूणदा आदि गांवों में एक ही प्रकार के पत्थर पर एक ही प्रकार की बनावट व लिखावट वाले बीसियों शिलालेख बिलकुल सुरक्षित स्थिति में है।


संत श्री कान्हाराम[4] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-86]: इन शिलालेख के पत्थरों की घिसावट के कारण इन पर लिखे अक्षर आसानी से नहीं पढे जाते हैं। ग्राम थल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दो शिलालेखों से एक की लिखावट का कुछ अंश साफ पढ़ा जा सका, जिस पर लिखा है – विक्रम संवत 1086 गोविंददेव

मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले

रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है।


[पृष्ठ-87]: रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था।

राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। पुरातत्व विभाग के सहयोग से आगे खोज की आवश्यकता है।

चौहान सम्राट

संत श्री कान्हाराम[5] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-76]: ईसा की दसवीं सदी में प्रतिहारों के कमजोर पड़ने पर प्राचीन क्षत्रिय नागवंश की चौहान शाखा शक्तिशाली बनकर उभरी। अहिच्छत्रपुर (नागौर) तथा शाकंभरी (सांभर) चौहनों के मुख्य स्थान थे। चौहनों ने 200 वर्ष तक अरबों, तुर्कों, गौरी, गजनवी को भारत में नहीं घुसने दिया।

चौहनों की ददरेवा (चुरू) शाखा के शासक जीवराज चौहान के पुत्र गोगा ने नवीं सदी के अंत में महमूद गजनवी की फौजों के छक्के छुड़ा दिये थे। गोगा का युद्ध कौशल देखकर महमूद गजनवी के मुंह से सहसा निकल पड़ा कि यह तो जाहरपीर (अचानक गायब और प्रकट होने वाला) है। महमूद गजनवी की फौजें समाप्त हुई और उसको उल्टे पैर लौटना पड़ा। दुर्भाग्यवश गोगा का बलिदान हो गया। गोगाजी के बलिदान दिवस भाद्रपद कृष्ण पक्ष की गोगा नवमी को भारत के घर-घर में लोकदेवता गोगाजी की पूजा की जाती है और गाँव-गाँव में मेले भरते हैं।


[पृष्ठ-77]: चौथी पाँचवीं शताब्दी के आस-पास अनंत गौचर (उत्तर पश्चिम राजस्थान, पंजाब, कश्मीर तक) में प्राचीन नागवंशी क्षत्रिय अनंतनाग का शासन था। इसी नागवंशी के वंशज चौहान कहलाए। अहिछत्रपुर (नागौर) इनकी राजधानी थी। आज जहां नागौर का किला है वहाँ इन्हीं नागों द्वारा सर्वप्रथम चौथी सदी में धूलकोट के रूप में दुर्ग का निर्माण किया गया था। इसका नाम रखा नागदुर्ग। नागदुर्ग ही बाद में अपभ्रंश होकर नागौर कहलाया।

551 ई. के आस-पास वासुदेव नाग यहाँ का शासक था। इस वंश का उदीयमान शासक सातवीं शताब्दी में नरदेव हुआ। यह नागवंशी शासक मूलतः शिव भक्त थे। आठवीं शताब्दी में ये चौहान कहलाए। नरदेव के बाद विग्रहराज द्वितीय ने 997 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारी सुबुक्तगीन को को धूल चटाई। बाद में दुर्लभराज तृतीय उसके बाद विग्रहराज तृतीय तथा बाद में पृथ्वीराज प्रथम हुये। इन्हीं शासकों को चौहान जत्थे का नेतृत्व मिला। इस समय ये प्रतिहरों के सहायक थे। 738 ई. में इनहोने प्रतिहरों के साथ मिलकर राजस्थान की लड़ाई लड़ी थी।

नागदुर्ग के पुनः नव-निर्माण का श्री गणेश गोविन्दराज या गोविन्ददेव तृतीय के समय (1053 ई. ) अक्षय तृतीय को किया गया। गोविंद देव तृतीय के समय अरबों–तुर्कों द्वारा दखल देने के कारण चौहनों ने अपनी राजधानी अहिछत्रपुर से हटकर शाकंभरी (सांभर) को बनाया। बाद में और भी अधिक सुरक्षित स्थान अजमेर को अजमेर (अजयपाल) ने 1123 ई. में अपनी राजधानी बनाया। यह नगर नाग पहाड़ की पहाड़ियों के बीच बसाया था। एक काफी ऊंची पहाड़ी पर “अजमेर दुर्ग” का निर्माण करवाया था। अब यह दुर्ग “तारागढ़” के नाम से प्रसिद्ध है।

अजमेर से डिवेर के के बीच के पहाड़ी क्षेत्र में प्राचीन मेर जाति का मूल स्थान रहा है। यह मेरवाड़ा कहलाता था। अब यह अजमेर – मेरवाड़ा कहलाता है। अजयपाल ने अपने नाम अजय शब्द के साथ मेर जाति से मेर लेकर अजय+मेर = अजमेर रखा। अजमेर का नाम अजयमेरु से बना होने की बात मनगढ़ंत है। अजयपाल ने मुसलमानों से नागौर पुनः छीन लिया था। बाद में अपने पुत्र अर्नोराज (1133-1153 ई.) को शासन सौंप कर सन्यासी बन गए। अजयपाल बाबा के नाम से आज भी मूर्ति पुष्कर घाटी में स्थापित है। अरनौराज ने पुष्कर को लूटने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराने के उपलक्ष में आना-सागर झील का निर्माण करवाया।


[पृष्ठ-78]: विग्रहराज चतुर्थ (बिसलदेव) (1153-1164 ई) इस वंश का अत्यंत पराक्रमी शासक हुआ। दिल्ली के लौह स्तम्भ पर लेख है कि उन्होने म्लेच्छों को भगाकर भारत भूमि को पुनः आर्यभूमि बनाया था। बीसलदेव ने बीसलपुर झील और सरस्वती कथंभरण संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया जिसे बाद में मुस्लिम शासकों ने तोड़कर ढाई दिन का झौंपड़ा बना दिया। इनके स्तंभों पर आज भी संस्कृत श्लोक उत्कीर्ण हैं। जगदेव, पृथ्वीराज द्वितीय, सोमेश्वर चौहानों के अगले शासक हुये। सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज तृतीय (1176-1192 ई) ही पृथ्वीराज चौहान के नाम से विख्यात हुआ। यह अजमेर के साथ दिल्ली का भी शासक बना।

External links

References

  1. "Early Chauhan Dynasties" by Dasharatha Sharma, p.39
  2. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp. 45-46
  3. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.84-85
  4. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.86-87
  5. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.76-78