Hukam Singh Kasiniwal
Hukam Singh Kasiniwal (हुकमसिंह कासिनीवाल नगली), son of Ramdev Singh Kasiniwal from Nagli (नगली), Kishangarh Bas, Alwar, was a Social worker in Alwar, Rajasthan. [1]
जाट जन सेवक
ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है ....श्री हुक्मसिंहजी नगली - [पृ.89]: आप चौधरी रामदेवजी नगली के द्वितीय पुत्र हैं और अंडर ग्रेजुएट हैं। पहले आप अलवर राज्य के कॉपरेटिव डिपार्टमेंट में सब इंस्पेक्टर थे। आजाद बाप की संतान और आजादी की हवा में आजादी के साथ में चलने के कारण आप आजाद ख्याल के नौजवान हैं।
सिरोहड की जाट कॉन्फ्रेंस में हुकमसिंह कासिनीवाल नगली को देखने के बाद मैंने चौधरी नानकचंद जी से कहा था कि आपको अपना एक लेफ्टिनेंट चाहिए और मुझे यहां जिस नौजवान ने अपनी कार्यशीलता और एक अकथ परिश्रम ने आकर्षित किया है वह हुक्मसिंह है। आप इसे आगे बढ़ाइए पीछे एक दिन मैंने सुना कि हुक्मसिंह ने अपनी नौकरी पर सिर्फ कौमी सेवा के लिए लात मार दी।
नौकरी छोड़ने के बाद हुकमसिंह ने खादी उत्पादन का कार्य संभाला। वह अपने हाथ से कातना-बुनना जानते हैं। उनकी प्रकृति ने उन्हें जाती सेवा के साथ ही साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी डाला है। वह इस समय अलवर राज्य प्रजामंडल को भी सहयोग देते हैं।
इस वर्ष 5 तारीख को मेरी उनके साथ ज्यादा घनिष्ठता हो गई मैंने उन्हें जाति की समस्याओं को समझने में जागरूक पाया। वे किसान दृष्टिकोण से देहाती समस्याओं को सोचते हैं और मनन भी करते हैं। अलवर राज्य प्रजामंडल में जहां शहरी दिमागों का बाहुल्य है वहां मित्र राष्ट्रों के संगठन की भांति अमेरिका और ब्रिटेन के
[पृ.90]:गिरोह के साथ जिस प्रकार सिद्धांतों को लेकर रूस भी है उसी भांति शहरी राजनीतिक महत्वकांक्षा के मोह के साथ अपने उद्देश्यों को लेकर अलवर प्रजामंडल में हमारे हुक्मसिंह हैं।
उनका अपना रंग है और वह रंग पक्का है। दूसरा सहज ही जो भी उनके रंग के विरोध में हो उनपर रंग नहीं चढ़ा सकता है। यह मैंने 1946 की मुलाकात की बातचीत में देख लिया है। मैं यह कह सकता हूं कि अलवर के तमाम जाट कार्यकर्ताओं में वे वर्तमान घटनाओं और उनके द्वारा जाट कौम पर पड़ने वाले असर को ज्यादा ध्यान से देखते हैं। इसमें संदेह नहीं वे चौधरी नानकचंद जी के प्रति बहुत श्रद्धा और आदर रखते हैं।
जीवन परिचय
गैलरी
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Jat Jan Sewak,p.89
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Jat Jan Sewak,p.90
संदर्भ
- ↑ Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.89-90
- ↑ Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.89-90
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