Jat History Thakur Deshraj/Editorial
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सम्पादकीय वक्तव्य |
आर्यों के उद्गम-स्थान और बहिर्गमन की प्रक्रिया जिस प्रकार विवाद का विषय रही है, उसी प्रकार जाटों की उत्पत्ति, जाति की नीति, उत्कर्ष की प्रक्रिया और देश-विदेश के अनेक स्थानों पर उनका स्थानान्तरण भी विवाद का विषय रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि ईसा पूर्व तथा ईसा के बाद, हर युग में, जाटों ने महत्वपूर्ण इतिहास का सृजन किया है। अपने देश और समाज की रक्षा के लिए हजारों ने प्राण गंवाये हैं। हूणों से लेकर अहमदशाह अब्दाली तक के लंबे काल में, जाटों ने प्रत्येक आक्रमणकारी से युद्ध में मोर्चा लिया है और देश की भौगोलिक सीमा तथा सांस्कृतिक विरासत की रक्षा का प्रयास किया है। यहां तक कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को पैरों तले कुचलने वाले सिकंदर, महमूद गजनवी तथा अहमदशाह अब्दाली को पाठ पढ़ाने में भी जाटों ने कोई कमी नहीं छोड़ी। जब देश की अन्य शक्तियां मौन थीं, तब जाटों के हथियार मुखर थे। इतने पर भी, इतिहास में उनको समुचित स्थान नहीं मिल पाया।
इसका एक विशेष कारण है और वह है जाटों की पंचायत पद्धति अर्थात् लोकतंत्र शासन प्रणाली के साथ गहरी प्रतिबद्धता। इसकी रक्षा के लिए उनको अहिन्दू विदेशी आक्रान्ताओं से भी टकराना पड़ा था और देश के भीतर, समय-समय पर, एकतंत्र शासन-प्रणाली के पक्षधर सामंत तथा पुरोहित गठबन्धन से भी संघर्ष करना पड़ा। फलतः वे विधर्मी आक्रान्ताओं के भी शत्रु बनते रहे और स्वधर्मी किन्तु लोकतंत्र के विरोधी अपने भाइयों के भी। एक बात और भी है, जाटों ने युद्ध की भूमि में गौरवशाली इतिहास का निर्माण किया था, किन्तु वे कलम से अपना इतिहास लिखने की ओर से सदैव उपेक्षित रहे। यही कारण है कि इस्लाम के उपासक अरब तथा तुर्कों ने भी उनके इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा, उनके गौरव की उपेक्षा की और यहां तक कि उनको उनका उचित श्रेय भी नहीं दिया। लगभग यही स्थिति, हिन्दू-सम्राटों के सौजन्य से अथवा उनके संरक्षण में इतिहास लिखने वाले देशी-विदेशी इतिहासकारों की रही। कोई उनको अविश्वसनीय कहता रहा, कोई राहजन बताता रहा और किसी ने लुटेरे तथा डाकू बता दिया।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xvii
सबसे पहले सर यदुनाथ सरकार ने ‘फॉल ऑफ द मुगल एम्पायर’ तथा ‘औरंगजेब’ नामक अपनी पुस्तकों में, यथावश्यक आकस्मिक सन्दर्भों के माध्यम से, जाटों की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका की ओर संकेत किए थे। बाद में, उनके शिष्य डा० कालिका रंजन कानूनगो ने ‘द हिस्ट्री ऑफ जाट्स’ में इस कार्य को आगे बढ़ाया। लेकिन दोनों की कुछ सीमाएं थीं, अतः जाटों के इतिहस के साथ पूर्ण न्याय नहीं हो सका। इस कार्य को फादर वेंडिल कर सकता था, क्योंकि वह महाराज सूरजमल और जवाहरसिंह का समकालीन था, पर पश्चिम को श्रेय और पूर्व को हिकारत भरी नजर से देखने के कारण उसका वृतान्त पक्षपातपूर्ण रह गया। उसने जाट-इतिहास के जिज्ञासु अध्येता को पथभ्रष्ट अधिक किया। इन परिस्थितियों में, थोड़े से विकृत ऐतिहासिक तथ्यों के बल पर ठाकुर देशराज ने, जाट-इतिहास लिखने का बीड़ा उठाया था और अनेक चुनौतियों के साथ उसको पूरा भी किया।
ठाकुर साहब को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि वह कनिंघम आदि पाश्चात्य इतिहासकारों तथा उनके आधार पर भारतीय इतिहास लेखकों की इस भ्रान्ति का निवारण करते हैं कि जाट शकों की संतान हैं और वे भारत में बाहर से आए थे (देखें पृ० 174)। इसी प्रकार कैस्पीयन सागर के पास मिलने वाले ढ़े या ढ़ाये जाटों की व्युत्पत्ति का निर्णय पाश्चात्य इतिहासकार नहीं कर पाए, लेकिन ठाकुर साहब ने, उनको यौधेयों की संतति बताकर समस्या का समाधान कर दिया (देखें पृ० 179)। गौरीशंकर हीराशंकर ओझा राजस्थान के प्रख्यात इतिहासकार थे, लेकिन राजस्थान के जाटों की उत्पत्ति और विस्तार के विषय में वह भी गलती कर गए हैं। वह राजस्थान की भूमि पर मिलने वाली गौर जाति को ‘गौड़ क्षत्रिय’ बताते हैं, जबकि ठाकुर साहब उसको जाट-वंश मानते हैं (देखें पृ० 589)।
ठा० देशराज को भारत की भूमि पर होने वाले एकतंत्रात्मक शासन-प्रणाली के प्रबल पक्षधर रूढ़िवादी पुरोहिती समाज और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोगों के संघर्षों के मूल में निहित ऐतिहासिकता तथा मिथकीय अन्तर को भी समझने का श्रेय प्राप्त है। भारत के गणराज्यों की समाप्ति के विषय में दिए गए तर्कों से भी आप असहमत हैं और इस बिन्दु पर आपने सी० वी० वैद्य जैसे प्रख्यात इतिहासकार के विपरीत मत दिया है और उनका मत तर्क-सम्मत एवं अधिक ग्राह्य है। आपने यह माना है कि पुरोहिती समाज और राजा के गठबंधन के परिणामस्वरूप उभरी ताकत के सामने गणराज्यों को विवश होना पड़ा था।
आर्यों का मूल स्थान कहां था, उनका स्थानान्तरण तथा विस्तार किन कारणों से और कहां हुआ, भारत-आगमन के पूर्व उनकी स्थिति क्या थी, भारत में आकर वह सिन्ध से लेकर गंगा-यमुना के क्षेत्र तक कैसे फैले, जाट शब्द की व्युत्पत्ति क्या है, आर्यों के साथ उनका संबंध किस प्रकार का रहा था, भारत से बाहर वे किस
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xviii
प्रकार और कहां-कहां गए, वहां किन लोगों के साथ उनके संघर्ष हुए, किन परिस्थितियों में वे पुनः भारत की ओर लौटे और यहां आने वाले आक्रमणकारियों से भारत की भौगोलिक सीमा तथा सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में कितना योग दिया, भारत की राजनैतिक स्वाधीनता में उनका कितना योग है, उनके विभिन्न गोत्र कौन-कौन से हैं और उनका अपना इतिहास क्या है? इन प्रश्नों के तर्क-सम्मत विश्वसनीय उत्तर देने का श्रेय भी ठाकुर साहब को प्राप्त है। ठाकुर साहब ने इस देश के सामंतों तथा राजे-महाराजों, उनके चाटुकार पुरोहितों, उनको परमात्मा का प्रतिनिधि बताने वाले तथाकथित धार्मिकों, भारत की मूल संस्कृति के विनाश पर तुले मुगलों और देश को अर्थ, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में पर, निर्भर बनाने वाले नृशंस अंग्रेजों की भूमिका का सम्यक् मूल्यांकन किया है। यही नहीं, अन्य जातियों के राज्यों की तुलना में जाट-राज्यों में वर्तमान भूमि-विषयक नीति तथा प्रबंध की प्रशंसा की है (देखें पृ० 644) और घटनाओं तथा नीतियों का विश्लेषण करते समय आपका दृष्टिकोण लोकवादी रहा है। निष्कर्ष यह है कि आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व, अच्छा इतिहास लिखने का गौरव उनको प्राप्त है।
प्रायः देखा जाता है कि कोई कृति कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो, उसमें कहीं-न-कहीं कोई अभाव रह ही जाता है। ठा० देशराज की यह कृति इसका अपवाद नहीं है। उदाहरण के लिए आप यदा-कदा बहुवचन के लिए एकवचन शब्द-रूप का और एकवचन के लिए बहुवचन की प्रयोग किया करते थे, यथा - ‘ये’ के लिए ‘यह’ और ‘वह’ के लिए ‘वे’ शब्द का प्रयोग करते हैं। मैंने इस प्रकार के प्रयोगों को सुधार दिया है। इसी तरह, आप ‘उपर्युक्त’ के लिए ‘उपरोक्त’, ‘मुकाबला’ के लिए ‘मुकाबिला’, अनेक के लिए ‘अनेकों’ और जवाहरात के लिए ‘जवाहिरात’ आदि शब्दों का प्रयोग करते थे। अंग्रेजों के नाम के सामने ‘साहब’ लगाते थे। ऐसे प्रयोग को शुद्ध कर दिया गया है। कहीं-कहीं विवरणों के अनावश्यक विस्तार में भी कांट-छांट कर दी गई है और यह सब इस प्रकार किया गया है कि मूल पुस्तक में कोई विकृति न आए। दो परिशिष्टों को भी छोड़ दिया गया है।
सन् 1959 में, ग्राम बावली, जिला मेरठ के मेरे एक छात्र श्री हरयालसिंह पुत्र श्री जिलेसिंह और प्रपौत्र श्री पृथ्वीसिंह ने ‘जाट-इतिहास’ की फटी हुई प्रति मुझे लाकर, इन शब्दों के साथ दी - ‘प्रोफेसर साहब ! हमारे घर पड़ी-पड़ी इस किताब के कई पन्ने उड़ गए हैं, और कुछ और उड़ जायेंगे। अतः अब आप इसे सम्भालें, आप इसका सदुपयोग कर सकेंगे’। उसी क्षण से, इसके संशोधित संस्करण प्रकाशित करने की योजना दिमाग में आई। ठा० देशराज जी से भी इस विषय में बातें हुईं। वह स्वयं संशोधन कर रहे थे, पर आकस्मिक स्वर्गवास के कारण नहीं कर पाए। अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा के अध्यक्ष डा० भगवानसिंह ने महासभा की ओर से, इसके द्वितीय संस्करण निकालने की योजना बनाई थी और इसी सन्दर्भ में, मेरी
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xix
तथा उनकी ‘जघीना’ भरतपुर की यात्रा भी हुई। ठा० देशराज के दो पुत्रों (ज्येष्ठ सर्वश्री शेरसिंह और कनिष्ठ श्री सुगनसिंह) ने हमें संशोधित संस्करण निकालने के लिए ठाकुर साहब द्वारा लिखित, दो रजिस्टर विशेष रूप से आमंत्रित देशराज जी के साथियों तथा आस-पास के सैंकड़ों भाइयों के बीच में दिए ।
महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा-संस्था, सी-4, जनकपुरी, नई दिल्ली के सौजन्य से संशोधित संस्करण आपके हाथों में है। इसमें जो कुछ अच्छाई है, वह ठाकुर देशराज जी की देन है और जो कुल अभाव रह गए हैं, वे मेरी अपनी सीमाएं हैं। मुझे विश्वास है कि विद्वान् पाठक मेरी अल्पज्ञता पर ध्यान न देकर पुस्तक का स्वागत करेंगे।
- गुरु नानक जयन्ती
- 10 नवम्बर, 1992
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xx
नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.
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