Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Ashtam Parichhed

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

आठवां परिच्छेद

शासन प्रणाली

शासन प्रणाली

[पृ.134]:

भारतवर्ष वह देश है जिसने एक समय संसार में इतना ऊंचा दर्जा प्राप्त कर लिया था कि दूसरे देश उसे अपना गुरु मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं करते थे। राजनीति में भी उसने सर्वोपरि उन्नति की थी। यहां के जन समुदाय ने अनेक प्रकार के शासन तंत्र चलाए थे। ऐतरेय ब्राह्मण में इन शासन तंत्रों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं:-

"साम्राज्यं, भोज्यं, स्वराज्यं, वैराज्यं, पार्मेष्टियं,
महाराज्यं, आधिपत्य मयं, समन्तपर्यायीस्यात,
सार्वभौम: सार्वायुष अंतादा, परार्धात्
पृथिव्यै समुद्र पर्यनताया राडसि" (8.15)

अपने विषय पर आने से पहले हम इन शासन तंत्रों की परिभाषा भी कर देना चाहते हैं।

साम्राज्य

साम्राज्य उस हुकूमत को कहते हैं जो विभिन्न जातियों और देशों पर किसी एक जाति अथवा व्यक्ति द्वारा संचालित होती हो। इस तरह की हुकूमत में दो-तीन बड़े दोष हैं।

(1) इसमें शासक जाति के हित के लिए शासित जातियों का शोषण किया जाता है। शासित जातियों का सामाजिक मान भी शासक जाति के अपेक्षा हीन होता है।

(2) शासक और शासित जातियों में परस्परिक


[पृ.135]:

विश्वास की कमी होती है। अतः आंतरिक विद्रोह की संभावना स्वभावत: बनी रहती है।

(3) इस तरह से ऐसा शासन स्वभावत: अधिक खर्चीला होता है। क्योंकि आंतरिक कलह और बाहरी आक्रमण की आशंका से ऐसी हुकूमत को गुप्तचर और सेना विभाग पर बड़ा भारी खर्च करना पड़ता है।

भोज्य

भोज्य - उस हुकूमत को कहते हैं, जिसमें भूमि-कर में खाद्य पदार्थ लेने का नियम हो। राजपूताना, पंजाब और मालवा की शासक जातियों में यही प्रणाली चालू थी। ऐसी हुकूमत की प्रजा तो आनंद से रहती है बशर्ते कि राज का भूमि पर केवल उपज का कुछ अंश लेने के सिवा कोई स्वत्व ना हो। किंतु साम्राज्यवादी लोलुप समूह से रक्षा करने में ऐसे राज्यों को कठिनाई पड़ती है। कारण कि इनके पास रिज़र्व फोर्स यानी सुरक्षित सेना तो नाम मात्र को होती है। कुंतल,कौंतेय, अवनतिक और परिहार, परमार लोगों में यह प्रथा बहुत दिन तक चालू रही थी। इस तरह का राष्ट्र विशुद्ध जाति राष्ट्र होता है। विभिन्न जातियों और खयालातों के लोगों के मिश्रण से भोज-शासन पद्धति का चलना कठिन होता है।

स्वराज्य

स्वराज्य - अपने हित के लिए जो हुकूमत अपने ही द्वारा संचालित होती है उसे स्वराज्य कहते हैं। साम्राज्य के विरोध में जाति राज्य का ही प्रिय नाम स्वराज्य रखा गया जान पड़ता है।


[पृ.136]:

स्वराज्य तो पूर्ण विकसित संस्था थी। आरंभिक रूप तो स्वराज्य का पारिवारिक प्रथा से आरंभ होता है। परिवार से आगे ग्राम-संथा का जन्म हुआ। एक ही कुल के लोग अपनी अपनी बस्तियां पास ही पास बसाते थे। अतः एक कुल के जितने भी गांव होते थे वह एक कुलपति के शासन में चलते थे। संगठन की आवश्यकता ने उन्हें एक सूत्र में पिरोया और जाति राष्ट्र की स्थापना हो गई। जब साम्राज्यवादियों का जोर बढा तो जातिवादियों ने यही कह कर उनका विरोध किया कि हमारा राज्य स्वराज्य है। साम्राज्य में जाकर हम गुलाम हो जाएंगे।

पर्मेष्टिम्

पर्मेष्टिम् - वह राज प्रणाली थी जो एक ही उद्देश्य से प्रेरित होकर अनेक जातियों के लोगों द्वारा संचालित होटी थी।

वैराज्य

वैराज्य - जहां सारी व्यवस्थाएं धर्म-पूर्वक चलती थी। किसी को भी शक्ति न देकर प्रजा स्वतः ही नियमपूर्वक चलती थी। ऐसे जन समूह को वैराज्य कहते थे। अर्थात जहां नियामक दल तो हो किंतु शासक दल न हो, वह वैराज्य कहलाता है।

वैसे वैराज्य तो राज्य का आदि रूप है। भिष्म ने वैराज्य का बखान इस प्रकार किया है:-

नैव राज्यम् न राज च न च दंडो न दांडिका:। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्वयं परस्परम्।


[पृ.137]: अर्थात - पूर्व काल में न राज्य था न राजा और न दण्ड और अपराधी। सर्व लोग धर्मपूर्वक एक दूसरे की रक्षा करते थे।

किंतु जैन ग्रंथों के पढ़ने से पता चलता है कि अराजक राज्य और वैराज्य में अंतर है। यदि ऐसी बात है तो वह राज्य का अर्थ महत्वशाली राजा वाला राज्य होगा।

यहां हम यह और बता देना चाहते हैं कि स्वराज्य हमेशा गणतंत्रात्मक हुआ करते थे। गणतंत्र का अर्थ है पंचायतीराज। साधारणतया गण के अर्थ समूह और गणना किया हुआ होते हैं। साम्राज्यवाद इन सभी तंत्रों का दुश्मन होता है। स्वराज्य, भोज्य और वैराज्य आदि किसी को भी उसमें स्थान नहीं है।

जाटों का शासन-विधान

अब हमें यह विचार करना है कि प्राचीन भारत के वे खानदान जो जाटों में शामिल हैं उन्होंने कौन-कौन सी हुकूमतों को चलाया था।

जाटों में पाए जाने वाले राठौर जिन्हें कि यूनानी लेखक प्लिनी ने ओरेटूरी लिखा है, रावी नदी के किनारे अराज राज्य को चलाने वाले समूह में से हैं। उनके यहां तो वास्तव में यह बात थी 'राम राजा राम प्रजा राम साहूकार है'। वे जिस बात को अपने लिए बुरा समझते थे उसे अपने साथियों के लिए भी बुरा समझते थे। आपस में सारे कार्य प्रेम और सहयोग से होते थे। न कोई उनके यहां अपराध करता था और न अपराध की बात सोचता था। उनके प्रत्येक हृदय में दूसरे के लिए सद्भावना थी। हर एक के दुख में हरेक काम आता था। कहा जाता है कि


[पृ.138]:इस समूह के शामलात में 10 हाथी और सैकड़ों रथ घोड़े थे। इनके गांव पर पड़ोस का कोई धावा न कर सके इसलिए प्रत्येक आदमी सैनिक बनना अपना कर्तव्य समझता था। 'ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज एंड अवध' में इनके बारे में लिखा है- "They were in the time of Justin known as Aratta, i.e., Arashtra or “people without a king.” अर्थात् - जस्टीन के समय में वे अरट्टा अर्थात् अराष्ट्र या राजा की प्रजा कहलाते थे।

कांभोज, कुंतीभोज और अवंती ये सब भौज्य पद्धति से शासन करते थे। भूमि में जो भी कुछ पैदा होता था उसका एक निश्चित अंश केंद्रीय सभा को देते थे। केंद्रीय सभा में परिवारों की ओर से कुलपति बैठते थे। यह सभा कुलक कहलाती थी। यह लोग राजस्व को कुआ बावड़ी खुदवाने, बाग लगाने और सेना रखने में खर्च करते थे। भोज लोगों की ही एक शाखा प्रमार कहलाने लगी थी। द्वारिका का जाति राष्ट्र भौज्य राज्य भी कहलाता था। कुछ लोग भौज्य के अर्थ संयुक्त शासन के भी करते हैं।

सात्वत लोग भी भौज्य तंत्रवादी थे।

पार्मेष्टि राज्य - हमारे मत से तो जाति राष्ट्र का ही बृहत रूप पार्मेष्टि राज्य है क्योंकि जाति राष्ट्र की रक्षा के लिए जब कई जातियां मिलकर एक लीग (संघ) बना लेती थी तो ऐसा राज्य पार्मेष्टि (परम+इष्ट का) साधन हो जाता था। वज्जि राज्य इसी प्रकार का राज्य तंत्र था। उसमें ज्ञातृ, लिच्छवि आदि


[पृ.139]: कई क्षत्रिय जातियां शामिल थी। द्वारिका का जाति राष्ट्र भी पार्मेष्टि जाति राष्ट्र ही था क्योंकि उसमें यादवों के अनेक बड़े बड़े खानदान शामिल थे।

अब हम प्राचीन जाटों की ग्राम-शासन और राष्ट्र शासन की कुछ खास खास बातों पर प्रकाश डालना चाहते हैं। क्योंकि एक-एक राजवंश की शासन प्रणाली अलग-अलग वर्णन करें तो एक स्वतंत्र पोथा तैयार हो जाएगा।

जाटों की ग्राम रचना

ग्रामरचना - पुराने जाट अधिकांश रूप में दूर-दूर और छोटे-छोटे गांव बसाना पसंद करते थे। घनी आबादी में रहना उन्हें बहुत कम रुचता था। यह बात उनके सिपाहीपन को प्रकट करती है। यह गांव भी छोटी छोटी छावनी जैसे होते थे। गांव के चारों ओर या तो मिट्टी का परकोटा खींच लेते थे या कांटो की बाड़ लगा देते थे। प्रत्येक गांव में एक सम्मिलित बैठक (थाला, फर्स) होती थी जिसे कहीं-कहीं आजकल कचहरी भी कहते हैं। यह बैठकें जमीन से ऊंची होती थी। कमरों के सामने काफी खुला हुआ दालान होता था। जाति राष्ट्रों (गणतंत्रों) के समय में गांव के सारे झगड़े इसी पर तय होते थे। गांव से कुछ दूरी पर सम्मिलित तालाब खुदवाए जाते थे जो जोहड़ या सरोवर के नाम से मशहूर होते थे। गांव के ईर्ड-गिर्द पेड़ों का लगाना शोभा की वस्तु समझी जाती थी।

जाटों के दुर्ग

दुर्ग - दुर्ग वे अपने उन समस्त गांवों के केंद्र में बनाते थे जो अपनी जाति की आबादी से पूर्ण होते थे। एक वंश के


[पृ.140]: गांव एक ही प्रदेश में बसाते थे। उस समय उनके राज्य की सीमा अपनी जाति का आखिरी गांव होता था। आजकल की भांति यह न था कि एक ही जाति के आधे लोग (अ) के राज्य में और आधे (ब) के राज्य में विभक्त होते हैं। जाट लोग यथा समय अपने किले पहाड़ों पर, दलदलों, जल और रेतीली भूमि अथवा सघन वनों के बीच में बनाते थे। विष्णु शर्मा जो कि तक्षक जाटों के विश्वविद्यालय में काफी दिनों तक पढ़ा था, उसने जाटों के ढंग के किलों का अपने पंचतंत्र में भी वर्णन किया है। यह किले जलदुर्ग, वनदुर्ग, धान्वन दुर्ग और पार्वत्य दुर्ग कहलाते थे। नव (नौहवार) लोगों ने खुतन और मथुरा झीलों के अंदर जो दुर्ग बनाए थे उन्हें हम जलदुर्ग कह सकते हैं। चाणक्य ने ऐसे दुर्गों को ओदक दुर्ग कहा है। चारों ओर से जिसके मीलों तक रेत के टीब्बे होते थे ऐसे धान्वन दुर्ग कुसवान और जोहिया लोगों के जांगल प्रदेश में थे। पंजाब के मल्ल, शिव और तक्षक लोगों के दुर्ग घोर पर्वतों में थे। भरतपुर का दुर्ग बन दुर्ग है।

शासन-सभा

'भारत शासन पद्धति' के पढ़ने से पता चलता है कि जाति राष्ट्रों में तीन सभाएं होती थी। (1) विदथ (2) सभा और (3) समिति। विदथ यज्ञ संबंधी परामर्श के लिए बुलाई जाती थी। सभा में न्याय और नियम (कानून) संबंधी मामले तय होते थे। समिति राज्य संचालन के लिए


[पृ.141]: नियुक्त कार्यकारिणी का काम देती थी। सभा-भवन को संथागार कहते थे। इन संथागारों में घड़ियाल (घंटे) टंगे रहते थे। किसी प्रस्ताव पर राय लेने के लोगों के हाथों में शलाकायें पकड़ा दी जाती थी। 'हां' और 'ना' के लिए उनके रंग निश्चित होते थे। जैसे आजकल रेल वालों के पास लाल और हरे रंग की झंडियां होती हैं। कोरम बहु संख्यक उपस्थिति में पूरा समझा जाता था। वैसे राष्ट्र की और से तो सभाओं के लिए होली, दशहरा और बसंत पंचमी दिन निश्चित हैं। किंतु बीच में भी सभा किसी विशेष कारण अथवा सदस्यों की इच्छा जाहिर करने से बुलाई जा सकटी थी। इस प्रकार की सभा बुलाते समय पत्रवाहक भेजे जाते थे और उन पत्रों में सभा बुलाने का कारण बता दिया जाता था। सभा में कोई भी सभासद हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट करता था। सभा उस समय तक बर्खास्त नहीं होती थी जब तक कि जुड़े हुए प्रश्न का निपटारा न हो जाता था।

चूंकि जाति राष्ट्रों में ग्राम के आंतरिक मामलात में स्वतंत्रता थी अतः केंद्रीय सभा उन्हीं मामलात पर विचार करती थी जिनका कि असर सारे राज्य पर पड़ने वाला होता है। अथवा ग्राम सभा जिन प्रश्नों को केंद्रीय सभा में भेजी थी उनका भी निपटारा केंद्रीयसभा में ही होता था। ऐसे प्रश्न भी गांव सभाएं तय नहीं कर सकती थी जो दो गांवों के अलग-अलग स्वार्थ के कारण खड़े होते थे।


[पृ.142]: ग्राम सभा में प्राय 5 आदमी होते थे। न्याय कर्ता आमतौर से चौधरी कहा जाता था। कहीं-कहीं राष्ट्र को दिए जाने वाले कर को भी यही वसूल करता था। हर गांव में एक भंडारी होता था। इसके पास अन्न जमा रहता था जो भूमिकर में प्राप्त होता था। अथवा ग्राम के आम फायदे के लिए इकट्ठा किया जाता था। प्रबंध संबंधी मामले पटेल की देखरेख में थे। तीसरा नगरपाल होता था जो गांव के जन धन की रक्षा का जिम्मेदार होता था। पांचवा आदमी प्रमुख होता था। इससे प्रजातंत्र राज्यों में गणेश भी कहते थे। आमतौर पर सारे गण (राष्ट्र) के अधिपति को गणेश कहते थे।

ग्राम पंचायतें गांव की सफाई, स्वास्थ्य, शिक्षा और श्री वृद्धि के कार्यों को करती थी। सर्व प्रकार के उत्सव, समारोह, नए कार्य ग्राम सभा की बिना सहमति लिए नहीं कर सकते थे। कभी-कभी ग्राम सभाओं का रूप बड़ा भी होता था। प्रत्येक बड़े परिवार का प्रमुख जनसभा का मेंबर समझा जाता था। ऐसे मेंबरों को कहीं-कहीं थामे (स्तंभ) के नाम से पुकारते थे।

इन ग्राम संस्थाओं के बने हुए कुछ नियम तो अब तक चले आ रहे हैं। घरों, मंदिरों, पेड़ों की छाया, सरोवर के किनारे कोई और पेशाब नहीं कर सकते थे। यह नियम प्राचीन ग्राम सभाओं के ही बनाए हुए हैं।


[पृ.143]: विरासत का अधिकार ग्राम सभा ही देती थी। किसी कुलपति के मरने पर गाँव के पाँच आकार उसके वास्तविक उत्तराधिकारी के सिर पर पगड़ी बांध जाते थे। पगड़ी के बंधते ही उसे वे कुल अधिकार प्राप्त हो जाते थे जो मरने वाले को थे।

ब्याह-शादी और कारज-मौसर का बजट गांव सभा के अधिकारी ही बनाते थे। किसी को मनमानी करने का अधिकार नहीं था। लड़कियों की शादी गांव के अथवा राष्ट्र के प्रमुख के आगे होती थी। उसे साक्षी रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उस समय उसे ऊंचा आसन विवाह मंडप में ही दिया जाता था। यही गणेश पूजन था।

पशुओं के चराने के लिए सम्मिलित चारागाह छोड़े जाते थे। खेती गांव भर की सम्मिलित ही रहती थी। अलग करने वालों को ग्राम सभा के प्रमुख से आज्ञा लेनी पड़ती थी। गांव शामलात हथीयारों का एक संग्रहालय भी प्रत्येक गांव में रहता था। समृद्ध नागरिकों को घोड़े रखना लाजमी था। गांव के संस्थागार के सहन में एक बड़ा नक्कारा और शंख तथा कुछ साधारण व्यायाम संबंधी हथियार भी रखे रहते थे।

लड़ाई के लिए केंद्रीय शासन के लिए जरूरत पड़ती तो गांव में से गोल के गोल सैनिक मिल सकते थे। मल्ल लोगों का तो प्रत्येक नागरिक सैनिक था।


[पृ.144]: त्योहार के समय पर प्रत्येक गांव में शक्ति का प्रदर्शन होता था। दशहरे पर घोड़े और तलवार की पूजा अर्थात प्रदर्शन होता था। श्रावणी पूर्णिमा पर लंबी कुदाई और कुश्तियों का प्रदर्शन होता था। बसंत पर स्वास्थ्य और बल की परख होती थी। होली पर शारीरिक शक्ति की जांच के लिए कुश्तियाँ कराई जाती थी। अक्षय तीज पर नकली लड़ाई को अपने गोफनों, खांडों और तीर कमान से होती थी।* नाग और तक्षक जाट अक्षय तीज के बजाय नाग पंचमी को इस नकली युद्ध का प्रदर्शन करते थे। यही कारण था कि बिना भेद के कोई गणराज्य नष्ट नहीं हो सकता था। कुल राष्ट्र के राष्ट्रपति का चुनाव नियत अवधि के लिए होता था। कभी-कभी तो अच्छा राष्ट्रपति मिल जाने पर उसे आजन्म बना रहने देते थे। ऐसे राजा को सभा में खड़े होकर अच्छा शासक साबित करने के लिए प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी। अनेक जाति राष्ट्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी भी राज का पद चला जाता था।

ये गणराज्य अथवा जाति राष्ट्र पूर्ण स्मृद्धिशाली होते थे। भूखे और दरिद्रता तो खोजने को नहीं मिलते थे। यही कारण है कि अपराध भी बहुत ही कम उनके राज्य में होते थे।


*ब्रज के जाटों में बालक आक के डोडों से अब यह लड़ाई लड़कर पुरानी रस्म को पूरा करते हैं।

गणराज्य नष्ट क्यों हो गए?

[पृ.145]: अच्छे अच्छे-अच्छे सैनिक योद्धा रखते हुए भी यह गणराज्य नष्ट क्यों हो गए? इसका यही एक जवाब है कि यह छोटे बहुत होते थे। यौधेय, यादव आदि के जो बड़े-बड़े संघ थे वे काफी समय तक साम्राज्यवादियों के मुकाबले डटे रहे।*

अब हम उन जाट साम्राज्यों का थोड़ा सा उल्लेख करेंगे जो जाति राष्ट्रों के नष्ट होने पर जाट लोगों ने कायम किए थे। ऐसे लोगों में दिल्ली में हम सबसे पहले राजा महावल का नाम पाते हैं। दूसरे महाराज कनिष्क, शिवि जाटों की कुषाण शासक थे जिन्होंने मथुरा से लेकर काबुल कंधार और कश्मीर तक अपना राज्य कर लिया था। अशोक और चंद्रगुप्त को अभी हम प्रमाणों की कमी से इस गिनती में नहीं लेते। हालांकि वह जाटों से कोई भिन्न शायद ही रहे हों। महाराज हर्ष, यशोधर्मा, रणजीत सिंह, महाराज सूर्यमल जी और सरदार आला सिंह ऐसे ही वीरों में थे जिन्होंने साम्राज्य के जमाने में वैसे ही प्रवृति से अपने विशाल राज्य कायम किए।

एक बात विशेष उल्लेखनीय है यद्यपि भरतपुर, धौलपुर, पटियाला प्रभृति राज्य साम्राज्यवादी भावना से प्रेरित होकर कायम हुए हैं फिर भी इन में प्रजा को जाति राष्ट्रों के जैसे ही अधिकार दिए हुए थे।


* गणराज्यों का अंत भी काशी प्रसाद जायसवाल के शब्दों में पांचवी शताब्दी के अंत में हो चुका था।


आठवां परिच्छेद समाप्त

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