Kalas Bajwa

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Ancestry of Kalas Bajwa Jats

Kalas Bajwa (कलास बाजवा) (Kalas Bazwa) was a Suryavanshi Jat ruler of Pasrur (पसरूर) (Sialkot), who founded village Kalas (कलास) in his name and gave the name to Kalasman gotra. [1]

Kalas village is in Mukerian tahsil in Hoshiarpur district in Punjab, India.

Jat Gotra

Kalasman (कलसमान) is gotra of Jats found in Punjab and Pakistan, originated from Kalas Bajwa.

History

The ancestor who gives his name to this branch of the Bajwa Jats was one Kalas, whose history is shrouded in obscurity. He was the son of one Manga, whose grave, Manga ha Mari, is one of the sights of Pasrur and an object of veneration to the whole Bajwa tribe, both Hindus and Mahomedans. The initial rites of the marriage ceremony are celebrated on this spot by those Bajwas whose homes are not too far away to prevent a general family gathering.

Kalas himself seems to have left Pasrur and founded a village to which he gave his own name. This village is now known as Kalalwala, a corruption of the original, which has led to a misapprehension of the origin of this fine old family. Kalas had two sons. Amir Shah and Pati. The descendants of the latter, although they were the younger branch, were the first to bring themselves to the front in the constant struggles which preceded the firm establishment of the Khalsa in the Panjab.

[2]


Ram Sarup Joon[3] writes about Chiefs Of Kalas Bazwa: Chaudhary Manga was a famous leader of this dynasty. Both Sikh and Muslim descendants of Chaudhary Manga worship at his fortress. His son, Kalas, obtained a Jagir. Dewan Singh son of Jai Chand Jogi, in this dynasty adopted Sikhism and was an important leader of the Bhangian Misal. Sardar Hari Singh Dhillon adopted him as his Dharmputra. In 1816 AD the daughter of Sardar Jodh Singh was married to Ranjit Singh, son of Kharak Singh.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज - कलास वजवा

इस वंश का संस्थापक कलास वजवा जाट था। वह गंगा का पुत्र था, जिसकी समाधि पसरुर में एक दर्शनीय स्थान है और वजवा गोत्र के हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के लिए पूज्य है। समीपस्थ वजवा जाटों की अनेक सामाजिक रस्में इसी स्थान पर सम्पन्न होती हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि कलास ने स्वयं इस स्थान को छोड़कर एक दूसरा गांव बसाया था जो आजकल कलाल वाला नाम से विख्यात है। अमीशाह और पत्ती नामक दो पुत्र कलास के थे।

भंगी मिसल के सरदार हरीसिंह के कोई पुत्र न था, अतः आपने दीवानसिंह को गोद ले लिया था और सन् 1760 में उसको अपने राज्य का राजा बनाकर चल बसे। इनके बाद खालसा ने धनासिंह को इनका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हरीसिंह के साथ, धनासिंह ने भेरा के घेरे तथा गुजरात के आसपास के युद्धों में बड़ी वीरता प्रदर्शित करके ख्याति पाई। उनके छोटे भाई मानसिंह ने तो हरीसिंह की सेवा में जीवन व्यतीत कर दिया था। फलतः भंगी मिसल द्वारा स्यालकोट को मुसलमान और राजपूतों से छीन लेने के बाद अपनी अन्य रियासतों को बांटा तो उस समय कलालवाला, पनवाला, चूहरा और महाराज के स्थान धनासिंह के हिस्से में आए थे। इनकी मृत्यु के बाद, इनके पुत्र जोधसिंह को महाराज रणजीतसिंह ने उत्तराधिकारी बना दिया। उसमें अपने पिता के समान ही वीरता के गुण थे। कुछ दिन बाद रणजीतसिंह ने उस पर हमला कर दिया। वह तीन वर्ष तक लड़ता रहा। पर अंत में पराजय स्वीकार करने के लिए विवश हुआ। उसको 10,000 रुपये की जागीर दे दी गई। वह इतने अच्छे दरबारी साबित हुए कि रणजीतसिंह ने अपने पुत्र खड़गसिंह का विवाह इनकी पुत्री खेमकौर के साथ कर दिया। साहबसिंह ने इस संबंध को रोकने का प्रयास किया था, अतः दरबार में उसकी स्थिति कमजोर हो गई। इसी वर्ष जोधसिंह का देहान्त हो गया। उसकी विधवा का सिख-दरबार में इतना प्रभाव था कि उसके बल उसकी जायदाद और जागीर का मालिक सरदार चांदसिंह बनाया गया।

सन् 1848 में चांदसिंह और उसका बड़ा भाई गुरुदत्तसिंह बड़े हो गए, अतः कलालवाला के किले में रहने लगे। अंग्रेजी फौज ने उन पर हमला किया, उनको हरा दिया, किला उड़ा दिया गया, गांव को नष्ट कर दिया। यह सत्य है कि रानी खेमखौर ने उनको बगावत के लिए उभारा था, पर अंग्रेजों ने रानी को 2400 रुपये के पेंशन दे दी। वह मृत्यु पर्यन्त सन् 1886 तक पेंशन पाती रही। गुरुदत्तसिंह और चांदसिंह को कुछ नहीं मिला। पंजाब के अंग्रेजी राज्य में मिला लेने पर गुरुदत्तसिंह चल बसे। धनसिंह की बची-खुची रियासत की देखभाल चन्दासिंह करता रहा। सन् 1867 में वह स्वर्ग सिधार गया और उसका इकलौता


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-548


पुत्र भगवानसिंह इस कुटुम्ब का प्रधान बन गया। वह हमेशा एक ग्रामीण की तरह रहता। मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व वह आनरेरी मजिस्ट्रेट बना दिया गया था। उसने अपनी बेटी महताबकौर का विवाह अटारी वाले सरदार तेजसिंह के साथ कर दिया था। वह अपने पति के साथ देश-निकाले में गई थी और बरेली में रहने लगी। दूर के भतीजे हीरासिंह तथा हाकिमसिंह उसके साथी बन गए थे।

भगवानसिंह का पुत्र सरदार रघुवीरसिंह अपने वंश का प्रधान हुआ। सन् 1898 में उसका देहान्त हो गया, तब उसका बेटा रनवीरसिंह कुटुम्ब का प्रधान बना। इस कुटुम्ब के एक व्यक्ति सन्तसिंह ने फौजी नौकरी की थी। सन् 1898 में वह स्वर्ग चला गया।

इस वंश का वंशवृक्ष इस प्रकार है -

  • कलास। इनके दो पुत्र थे - 1. अमीशाह, 2. पत्ती।
  • पत्ती के चार पीढ़ी बाद सुजान और राजा।
  • सुजान का दलची और दलची के मानसिंह तथा गुरुदत्तसिंह।
  • राजा के दीवानसिंह तथा कुंवरसिंह,
  • इसकी पांचवीं पीढ़ी में चरतसिंह तथा धनासिंह।
  • इनके महताबसिंह, जोधसिंह तथा निधानसिंह तीन पुत्र थे।
  • महताबसिंह की तीन पीढ़ी चलीं। जोधसिंह की बेटी खेमकौर थी और निधानसिंह के एक पुत्र था। *चरतसिंह के दो पुत्र थे। एक भागासिंह, दो भामरसिंह।
  • भामरसिंह के चार पुत्र हुए - 1. गुरुदत्तसिंह, 2. चांदसिंह 3. अरूरसिंह और 4. धनासिंह। *चांदसिंह के सरदार भगवानसिंह, इनके स० रघुवीरसिंह, इनके रनवीरसिंह।
  • अरूरसिंह की दो पीढ़ी चलीं। धनासिंह के हाकिमसिंह तथा सन्तसिंह दो पुत्र थे।
  • पहले का पुत्र करतारसिंह था और दूसरे का हरनामसिंह।


References


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