Kapura Singh

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Genealogy of the Fridkot rulers

Kapura Singh (कपूरसिंह) (born 1628 - died 1708) (r.1643-1708) was Barar-Jat Raja of erstwhile Faridkot State.

History

Lepel H. Griffin[1] writes that in the days of Bhallan the Burars held Kot Kapura, Faridkot, Mari, Mudki and Muktsar, and he was appointed by the Dehli Government Chaudhri or headman of the tribe. On his death, without male issue, Kapura, the son of his brother Lala, succeeded him as Chaudhri. Kapura was born in 1628 and succeeded his uncle in 1643. He was a brave and able man and consolidated the Burar possessions, winning many victories over his neighbours the Bhattis and others.


* Balan tore the turban in Akbar's Darbar.
[Page-602]

The Founding of Kot Kapura

He founded Sirianwala, now in ruins, but abandoned it for a new residence Kot Kapura, named after himself and which he is reported to have founded at the suggestion of Bhai Bhagtu a famous Hindu ascetic. This town was peopled by traders and others from Kot Isa Khan, and the reputation which Kapura enjoyed for justice and benevolence induced many emigrants to settle in the new town which soon became a place of considerable importance.

His relations with the Imperial Government - Kapura was a malguzar or tributary of Dehli Empire, and appears to have served it With some fidelity, for when Guru Govind Singh visited him in 1704, and begged for his assistance against the Muhammadans, Kapura refused to help him, possibly believing, with many others at that time, that the cause of the new faith was altogether hopeless.*

His enemy Isa Khan

Isa Khan, the owner of the fort and village of that name, was Kapura's great rival and enemy, and watched his growing importance with the utmost jealousy. The two Chiefs had constant quarrels resulting in much bloodshed, but Isa Khan, finding that he was unable to conquer Kapura by force, determined to subdue him by gentler means, and concluded


* There is however in the Granth of Govind, Hlkayat I : Bet 59: the following Persian couplet.
Na zarra daren rah khatra tarast
Hamah Kaum-i-Burar hukm-i-marast,
the meaning of which is - There is not the slightest danger for thee on this road for the whole Burar race is under my command.
It is very doubtful whether this couplet is not of later origin, and an interpolation into the text of the Graath Sahib. It is quite certain that, in 1704, when the Granth of Govind Singh was written the Burars had not generally embraced Sikhism.
[Page-603]

with him an agreement of perpetual friendship. Then, inviting him to his house, he feasted him, in chivalrous fashion, and assassinated him at the close of the banquet.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

कपूरसिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

कपूरसिंह - भुल्लनसिंह के छोटे भाई के एक लड़का था, जिसकी उम्र उस समय केवल 6 या 7 वर्ष की थी, नाम उसका कपूरसिंह था। यह छोटा रईस अपने बाप-दादों की जागीर की क्या रक्षा कर सकता था? पारिवारिक जनों ने भी इस बात के साथ कोई सहानुभूति का व्यवहार न किया। जिसके मन में जहां आया इलाके में लूटमार करके गुजारा करने लगा। शाही टैक्स का जो देना होता था, वह भी शेष रहने लगा। पटियाला वाले भी इलाके में हाथ मारने लगे। इस बच्चे का कोई अपना न था, किन्तु उसकी ताई और मां उसका बड़ी सावधानी से लालन-पालन कर रही थीं। मवेशी और नौकर काफी रख छोड़े थे, इनके सहारे खान-पान चलता था। जब बच्चा नौजवान हुआ तो जंगल में शिकार खेलने लगा। सैनिक बनने के सारे साधन उसे प्राप्त थे। साधु-सन्तों की भी खूब सेवा करते थे। एक समय गुरु हरराय पंजगराई में पधारे। अन्य लोगों ने भी उनका सत्कार करना चाहा, पर वह सरदार कपूरसिंह के घर पर ही ठहरे और कपूरसिंह की महमानदारी से बहुत खुश हुए तथा दुआ भी दी।

कई वर्षों का जब शाही टैक्स न चुका, तो सूबेदारों ने उन लोगों पर तकाजे किये। जगह-जगह सरदार बनने की कौशिश कर रहे थे तो उन्हें होश हुआ और उन्होंने यही उचित समझा कि “हमारा सरदार तो कपूर है, वही सरदारी कर को चुकायेगा, वही किसानों से वसूल करेगा।” पहली बार जब कपूरसिंह के पास शाही टैक्स के चुकाने का आया तो उन्होंने नाबालिगी के कारण बताकर मुहलत ले ली। दूसरी बार तकाजा आने पर शाही मदद से उन्होंने चौधरायत संभाल


1. 'आइना वराड़-वंश'। जिल्द 3, पेज 96, 97, 98


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-444


ली। शाही टैक्स चुकाने के बाद, जहां-तहां रहने को गढ़ियां बनवाईं।1 कुछ दिनों के बाद कोट ईसांखां के हाकिमों की तथा सूबेदार की सिफारिशों के होने के कारण बादशाह ने इनको कुछ इलाके की चौधरायत की सनद दे दी और खिलअत भी दे दी।

इस वक्त की सल्तनत ने जो चौधरायत का मंसब मुकर्रर कर रक्खा था, वह अपने शाही टैक्स वसूल करने में आसानी का एक जरिया था। वरना अपने इलाकों में शाही अख्त्यार वाले हाकिम थे, उनकी हुकूमत के अन्दरूनी मामलातों में दखल नहीं देते थे। सल्तनत उनके अधिकार में जो इलाके स्वीकार करती थी, उनकी बाबत कोई टैक्स मुकर्रर कर दिया जाता था, जिसका नियत समय में सरकारी खजाने में दाखिल होना जरूरी था। ये हिस्सेदारी शाहजहां के अहद से हुई थी। इसके पहले की सल्तनत लड़ाई के समय में मदद लेती थीं।

जब कपूरसिंह को इधर-उधर के झंझटों से फुरसत हुई तो उन्होंने अपनी राजधानी बनाने की फिक्र की। भाई भगत की सलाह से कोट कपूरा को आबाद किया और आसपास के मुकामातों से लोगों को बुला करके बसाया। धर्मकोट, कसूर, पटियाला, लाहौर, जगराम से हर एक पेशे के कारीगरों को वहां बुलाकर आबाद किया। कोट कपूरा में बहुत जल्द रौनिक बढ़ गई। इर्द-गिर्द जो कौमें थीं, कपूरसिंह ने उनसे मेल-जोल बढ़ाया और अपनी रिआया के साथ में नेकी का वर्ताव करने लगे। इन दिनों में वहां गुरु गोविन्दसिंह पधारे। सरदार कपूरसिंह ने उनकी खूब खातिर की। गुरु गोविन्दसिंह उन दिनों औरंगजेब के साथ छेड़-छाड़ में लगे थे। उन्होंने कोटकपूरा को अपने सिक्खों की रक्षा के लिए मांगा। कपूरसिंह ने यह कह कर मना कर दिया कि मेरा अहद सल्तनत के साथ हो चुका है, इसलिए मैं आपको नहीं दे सकता हूं। इस पर गुरु साहब ने कपूरसिंह को समझाया कि जिन लोगों की मदद करते हो, उन्हीं के हाथों से मारे जाओगे।

कपूरसिंह की ईसाखां द्वारा धोखे से हत्या - कपूरसिंह को घोड़े लड़ाने का बड़ा शौक था। घड़ियाला के स्थान पर उन्होंने घोड़ों की छावनी बनाई थी। ईसाखां का हाकिम घोड़ों की बढ़ती को देखकर कपूरसिंह से भीतर ही भीतर जलने लगा। फिर वह जलन यहां तक बढ़ती गई कि जिस समय मुगल सल्तनत की अवनति के दिन आये - औरंगजेब इस मुल्क से चल बसा - उस समय ईसाखां और कपूरसिंह के सम्बन्ध कतई टूट गए। आखिरकार कपूरसिंह के मारने के लिए ईसाखां ने एक जाल रचा। यह समझता था कि कपूरसिंह साधुओं पर अन्ध-भक्ति


1. घघर नाम की कौम के सरदारों ने अत्याचारी भट्टियों के मुकाबले पर मिटने से पहले अपनी समस्त सम्पत्ति कपूरसिंह के यहां अमानत में रख दी थी, जो कि घघरों के भट्टियों द्वारा नाश होने पर कपूरसिंह के जन-हितकारी कामों में खर्च आई। “आइना वराड़ वंश”, पे० 117-118-119-120।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-445


रखता है, इसलिए उसने कुरहान नाम के फकीर को दावत देने के लिए भेजा। फकीर ने विश्वास दिलाया कि आपके साथ किसी प्रकार का छल-कपट न होगा। कपूरसिंह फकीर के दम-दिलासों में आकर कोट ईसाखां में आ गया। वहां उनकी बड़ी आवभगत की गई। कई दिन की मेहमानदारी के बाद ईसाखां ने इन्द्रिया नामक मौजे में मुलाकात के बहाने बुलवा कर जब कि वह और डूड दो ही जीव थे, पकड़वा कर बबूल के पेड़ पर लटकवा दिये और दूसरे दिन फांसी से उतरवा कर संस्कार कर दिया।

यह दुःखदाई समाचार जब कोटकपुर में पहुंचा तो सरदार के खानदान में भारी अशान्ति छा गई। इनके तीन लड़के -

(1) शेखासिंह (2) मेखासिंह और (3) सेनासिंह बदला लेने पर उतारू हो गए।

References


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