Khanda State

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Khanda was a small State of Randhawa clan Jats in Punjab.

खन्दा

रन्धावा खानदान का संस्थापक बीकानेर राज्य का रहने वाला था। लगभग 700 वर्ष हुए होंगे कि इससे पंजाब के इतिहास में सात वंश उत्पन्न हुए, जिनके ये नाम हैं -

1. धर्मकोट, 2. धनियानली, 3. इमिचारी, 4. दोहा, 5. दोरंगा या तलवन्दी, 6. काठूनागल और 7. खन्दा

अन्तिम 5 वंशों का ही वर्णन यहां दिया जाएगा। इनमें खन्दा सबसे प्रसिद्ध था और काठूनागल, धर्मकोट और धनियानली उस समय बहुत ही कम प्रसिद्ध थे।

रन्धाना की पांचवीं पीढ़ी पर कजल हुए। ये पंजाब में आकर बटाला के नजदीक बस गए। इन्होंने गुरुदासपुर जिले के कीमती प्रदेश पर अधिकार कर लिया, जिसमें कि नौशेरा, जफरवाल, खन्दा, शाहपुर और पड़ौसी गांव भी शामिल थे। रन्धाना खानदान की दूसरी शाखायें भी इसी समय में प्रसिद्धि को प्राप्त हुईं। खन्दा वाला खानदान कन्हैया मिसल में सम्मिलित था और सरदार जयसिंह कन्हैया की मृत्यु तक जो कि सन् 1793 में मरे, उन्होंने अपनी रियासत पर पूर्ण अधिकार रखा, जिसकी कि आमद लगभग दो लाख रुपया थी। किन्तु जयसिंह की विधवा रानी सदाकौर ने जो कि बड़ी योग्य थीं, इस खानदान के आपसी मनोमालिन्य से लाभ उठाकर नौशेरा को और हयातनगर कलां को ले लिया और इससे आगे चलकर सरदार प्रेमसिंह के समय में महाराज रणजीतसिंह ने सारी रियासत पर अधिकार कर लिया। इस खानदान के लिए 6000) रुपये की निकासी के केवल 10 ही गांव रहने दिए। प्रेमसिंह के पिता पंजाबसिंह ने लोधसिंह मजीठिया की पुत्री से विवाह किया था, जिनके पुत्र सरदार देशासिंह का महाराज रणजीतसिंह के साथ बड़ा रौब-रौब था। उन्होंने प्रेमसिंह को अपने दस सवारों के साथ अपने अधिकार में रक्खा। युवक सरदार ने महाराज रणजीतसिंह की फौज के साथ बहुत से धावों में सेवायें की थीं, जिनमें मुल्तान और पेशावर के धावे भी सम्मिलित हैं। सन 1824 की दूसरी नवम्बर को यह नदी में बह गये, जबकि यह महाराज की फौज के साथ सिन्ध नदी को पार कर रहे थे, जब वह बरसात के पानी के कारण अधिक चढ़ी हुई थी। जागीर इनके चारों बेटों में इन्हीं शर्तों पर छोड़ दी गई।

सन् 1836 में सरदार जयमलसिंह अपने भाई जवाहरसिंह के साथ महाराज रणजीतसिंह की सेवा में आ गये। इन्हें रामगढ़िया ब्रिगेड का कमाण्डर सरदार लेहनासिंह ने, इनके श्वसुर फतेसिंह चाहल की जगह पर, जो कि कुछ अरसा हुआ मर चुके थे, नियुक्त कर दिए। दोनों भाई लेहनासिंह के साथ पेशावर गये, जबकि इसने अफगानों से बदला लेने के लिए धावा किया था। क्योंकि सन् 1837 में जमरूद स्थान पर उन्होंने परास्त दे दी थी। जवाहरसिंह ने लेहनासिंह के साथ रियासत मण्डी के पहाड़ी प्रदेश में सेवा की। खन्दा सरदार पंजाब के शामिल किए


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-537


जाने तक मजीठिया सरदारों के जागीरदार रहे। जसवन्तसिंह सन् 1844 में मर गए।

सरदार जवाहरसिंह और हीरासिंह एक मां के पुत्र थे, और सरदार जयमलसिंह तथा जसवन्तसिंह दूसरी मां के थे। किन्तु इन सौतले भाइयों में पूर्णतः हार्दिक प्रेम था। सरदार लेहनासिंह ने उनके जागीर पर झगड़ा करने पर जागीर को निम्न प्रकार से बांट दिया -

जयमल के खन्दा, खन्दी, सुजानपुर, भदीपुर, शाहपुर, माली समरार और हरसियान का आधा भाग, जफरवाल और बन्दीवाल जिनकी आमद 4000) थी, दो हजार रुपया नकद भत्ता के मंजूर किए गए तथा उन्हें छः सवार तैयार रखना मंजूर किया गया।

जवाहरसिंह के लिए जफरवाल, मलियान और आधा हरसियान जिसकी कि निकासी 2600) थी तथा 1200) नकद भत्ता मंजूर हुए तथा चार सवार तैयार रखना मंजूर किया गया। लेकिन जैसे ही लेहनासिंह दूसरी बार बनारस जाने वाले थे कि जायदाद के अधिकार पर इन भाइयों के अन्दर फिर झगड़ा हो गया। यह झगड़ा खन्दा और शाहपुर के अधिकारों के ऊपर था, जो इनके पुरुषों के गांव थे। लेहनासिंह ने इसके लिए एक पंचायत नियुक्त कर दी, जिसने यह फैसला किया कि सरदार जयमलसिंह खन्दा, शाहपुर के प्रधान अधिकारी जाने जायें और सरदार जवाहरसिंह नौशेरा और झटूपटू के प्रधान अधिकारी माने जायें। लेकिन अन्तिम दो गांवों के प्रधानों ने जो कि रन्धावा वंश के थे, इस अधिकार का प्रतिवाद किया और सन् 1854 में सैटिलमेण्ट कोर्ट से इनके पक्ष में निर्णय किया गया। तब जवाहरसिंह ने आधा खन्दा और शाहपुर के लिए दावा पेश किया, किन्तु सैटिलमेण्ट आफिसर ने इनके विरुद्ध निर्णय दिया।

सरदार जवाहरसिंह ने कभी भी अंग्रेज सरकार की सेवा नहीं की। सन् 1850 ई० में ये बनारस जाकर सरदार लेहनासिंह से मिले, लेकिन शीघ्र ही पंजाब को वापस आ गए। सन् 1840 ई० में सरदार जयमलसिंह, सरदार लेहनासिंह मजीठिया के मातहत नाइब अदालती (डिप्टी जज) मुकर्रिर किये गये। जब सन् 1848 का गदर हुआ तो ये मजबूत बने रहे और अंग्रेज-सरकार का पक्ष लिया। इन्होंने मंधा के बारियों के दबाने में पूरा हिस्सा लिया। उनके घर इन्होंने जब्त कर लिए और अपनी राजभक्ति, बुद्धिमानी और साहस के द्वारा अधिकारियों से खूब प्रतिष्ठा पाई। पंजाब के किला लेने के बाद ये बटाला के तहसीलदार नियुक्त हुए और मुल्क में नये शासन का खूब ही प्रचार किया। यद्यपि वे अंग्रेजी कानूनों से परिचित न थे तो भी उन्होंने अपने कार्य को ऐसी योग्यता के साथ लिया कि वे महकमा ठगी के अतिरिक्त सहायक कमिश्नर बना दिए गए। कर्नल स्लीमन, मैजर मैकेन्ड्र और मि० ब्रैरेटन ने इनकी सेवाओं की खूब प्रशंसा की है। वे ठगों के गिरफ्तार करने में देदाव से खबरें इकट्ठा करने के लिए नियुक्त हुए थे और उनको


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-538


खन्दा राजवंशावली

सजा देते थे और इसके पश्चात् वे जेल का चार्ज लेने और दस्तकारी स्कूल के अधिकारी नियुक्त होने के योग्य समझे गये। इन्होंने सन् 1860 में अतिरिक्त सहायक कमिश्नर के पद से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1857 ई० में इन्होंने बहुत ही अच्छी सेवा की और उसके उपलक्ष में राजभक्ति के स्वरूप 1000) रुपये की खिलअत मिली। कई वर्षों तक आनरेरी मजिस्ट्रेट रहने के पश्चात् ये सन् 1870 में मृत्यु को प्राप्त हो गये। इनकी 2200) रुपये सालाना की जागीर इनके पुत्र कृपालसिंह के अधिकार में रही। इसका इन्हें चौथाई नजराना देना पड़ता था। कृपालसिंह भी बटाला में मजिस्ट्रेट थे। ये सन् 1872 में मर गये और जागीर जब्त कर ली गई। उनकी विधवा स्त्री के जो कि सरदार गोपालसिंह मनोकी वाले की पुत्री थीं, से महेन्द्रसिंह नाम का एक पुत्र था। इस वंश के लिए दरबार की ओर से न तो कोई जागीर ही है और न कोई स्थान ही इनके लिए दरबार में है।

लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

  • दयानतराय
  • दयानतराय का बेटा लछीराम।
  • लछीराम के तीन बेटे थे - माजासिंह, गजसिंह, तेजसिंह।
  • गजसिंह के पुत्र हुए पंजाबसिंह और पंजाबसिंह के पुत्र थे सरदार प्रेमसिंह।
  • सरदार प्रेमसिंह के चार पुत्र थे - जवाहरसिंह, हीरासिंह, सरदार जयमलसिंह और जसवंतसिंह।
  • सरदार जयमलसिंह के एक पुत्र कृपालसिंह हुआ। कृपालसिंह के कोई सन्तान न थी, सो उन्होंने अमरीकसिंह को गोद ले लिया।
  • अमरीकसिंह के एक पुत्र रनजीतसिंह हुआ।

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