Khar Dushan

From Jatland Wiki
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Khar-Dushan (खर-दूषण) were Rakshasas who lived in Dandakaranya Forest. In the Ramayana, Khara and Dushana are half-brothers of Ravana, who attack Rama and his brother Lakshmana after Lakshmana disfigures their sister Shurpanakha. Rama defeats them, along with their army, in the Dandaka forest. Their mother was the sister of Ravana's mother. They ruled Janasthana, a kingdom bordering Rama's kingdom.

Variants

Jat Gotras Namesake

History

Kharod is an ancient historical village in the Janjgir tahsil of the Janjgir-Champa District in Chhattisgarh. It gets name after Khar-Dushan characters mentioned in Ramayana.[2] It is site of Kharod stone Inscription of Ratnadeva II : Chedi year 933 (1181 AD).

Khar and Dooshan

Khar and Dooshan were cousins of Raavan . Khar was the son of the sister of Kekasi (Ravan’s mother). Khar was the King of Janasthana. He protected the northern kingdom of Lanka on the mainland, and his kingdom bordered the Kosala Kingdom, the kingdom of Ram. He was well-known for his superior skills in warfare. Khar and Dooshan lived in Janasthana with their sister Shoorpankha. Khar had two sons, Makarāksha and Vishālāksha.

During their exile in the forest, Rama, Sita and Lakshmana came to the Dandaka forest. The sages told them about the constant menace they faced from the rakshasa’s. Rama assured the ascetics that he would soon get rid of all rakshasa’s there. Then Rama began to live by the River Godavari, at Panchavati, in a simple rustic hut.

Immediately a brilliantly Sun-like chariot appeared there, with glittering horses. That chariot was enormous; like a huge mountain, with gold wheels, gem-studded shafts and was decorated with jeweled birds, flowers, trees, mountains etc. Inside were all kinds of weapons. Khar ascended that chariot and ordered his army to head towards the place where Rama lived. First the army headed there, and then Khar started behind them.

Khara, Dooshan comes on their chariots for battle against Ram and Lakshmana with their army Khar, Dooshan comes on their chariots for battle against Ram and lakshman with their army When Khar’s army started out, many bad omens appeared. First there rained down red water as if blood was falling from the clouds. His horses could not proceed. A vulture perched on the flagstaff of Khar’s chariot. Animals and birds started crying in the east. Vultures, jackals and eagles also started howling and crying.

Rahu also came to swallow the Sun untimely [It was not the day of Amavasya (new moon)] and the day darkened. Wind started blowing fiercely. Fishes hid away in their ponds. Lotus flowers withered. Meteors fell down from the heavens. Even the Prithvi shook. Khar’s voice changed and to whichever side he looked at, his eyes filled with tears.

But the foolish rakshasa refused to turn back and said “I do not believe in these bad omens, because mighty people do not bother with the weak. If I want, I can bring down the stars from the sky with my arrows. I can even kill Death. I cannot return without having killed Ram and Lakshman. My sister will be delighted to drink their blood after they have died. You know that I have not been defeated by anybody. When I can kill even Indra, then what are these two men to me?”


Hearing this, Khar’s army became very happy. Many Mahatmas also came to see this battle. Siddh, Chaaran, Good, Gandharva also came there. behind him: Shyengaamee, Prithugreev, Yagyashatru, Vihangam Durjaya, Karveeraaksh, Parush, Kaalkaarmuk, Hemmaalee, Mahaamaalee, Sarpaasya, and Rudhiraaksh. Mahaakpaal, Sthoolaaksh, Pramaathee, and Trishiraa, were in the vanguard, while Dooshan was following them. Khar and his army soon arrived at to Ram’s Ashram.

Then, a fierce battle was fought. First, Dooshan was killed by Ram and then Trishiraa. Khar got scared with the death of Dooshan and Trishiraa and was saddened on the destruction of such a large army. Still he proceeded towards Ram with his bow and arrows.

Khar used Naaleek (tubular), Narach (iron arrows) and Vikarni (crescent-edged arrows) named arrows at Ram. Ram shot six arrows – one at Khar’s head, two at his both arms and three crescent-like arrows at his chest. Then he shot 13 Narach (iron arrows) – one arrow at the yoke of chariot, four at his four horses and eight at his Sarathi’s head.

Then with three arrows Ram broke his chariot’s shaft, with two arrows the axle, and with 12 arrows Khar’s bow. Seeing himself without the chariot and charioteer, Khar came down with his Gada in the battle field. And he uprooted a Shaal tree from nearby and threw at Ram.Ram cut that tree with the shower of his arrows.


Then he shot a thousand arrows at Khar, Khar got wounded and bled. He ran again towards Ram. This time Ram shot an arrow (Paavak or Agni arrow) at his chest and he fell on the ground lifeless.

Khar was being cursed by Shiva, and he would be released from his curse by being killed by Ram, the son of Dasharath. In the Shesh Dharma of Mahabharata, in the discourse between Bhishma Pitamah and Yudhishthir, it is said ame Khar, Dooshan, and Trishiraa Rakshas, through the curse of Shiva. that Sage Yaagnavalkya had three sons – Chandrakaant, Mahaamedhaa and Vijaya.

The first one, Chandrakaant, is Khar. The disciples of the three Brahman scholars were fourteen in number, and they also became Brahm Rakshasas. They were sent to fight with Ram in the beginning. On listening to Shoorpankhaa, Khar came to know that Vishnu had incarnated in the form of Ram, and thus he wanted to get released from his curse by being killed by Ram and so he first sent his 14 Rakshas, who had been their 14 disciples, and later those three brothers also followed them, and thus got released from their curse.

Source - https://blog.sagarworld.com/itihaas/ramayan/khar-dooshan-demon-brothers/

खर और दूषण

खर-दूषण महाबलशाली राक्षस थे जो दण्डक वन में निवास करते थे। ये दोनों रावण के सौतेले भाई भी थे। महाकाव्य रामायण के अनुसार श्रीराम ने अपने वनवास काल के दौरान इन दोनों का सेना सहित वध किया था।

खर और दूषण राक्षसों के प्रमुख यूथपति थे जो दण्डक वन में रावण की ओर से शासन करते थे। परमपिता ब्रह्मा से हेति और प्रहेति नामक दो राक्षसों की उत्पत्ति हुई। ये दोनों ही राक्षसों के आदिपुरुष माने जाते हैं और इन्ही से राक्षस वंश चला। इसी वंश में आगे चल कर सुमाली, माली और माल्यवान नामक राक्षस हुए। सुमाली की पुत्री कैकसी ने विश्रवा से विवाह किया जिससे रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा का जन्म हुआ।

माली की दो और पुत्रियों राका और पुष्पोत्कटा ने भी महर्षि विश्रवा से विवाह करने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। तब विश्रवा मुनि को राका से खर और पुष्पोत्कटा से दूषण नामक बलशाली पुत्रों की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि अलग-अलग माता से इन दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ और ये सौतेले होते हुए भी जुड़वाँ भाई हुए। अपने अन्य भाइयों के समान खर और दूषण को भी उत्तम युद्ध शिक्षा मिली। जब रावण अपने दिग्विजय पर निकला तो ये दोनों भाई भी उसके साथ थे और राक्षसों और देवताओं के युद्ध में इन दोनों भाई ने अपनी वीरता का परिचय दिया। उस युद्ध में अंततः देवताओं की पराजय हुई और रावण का अधिकार स्वर्ग पर हो गया।

रावण की बहन शूर्पणखा ने अपनी जाति से बाहर जाकर एक वीर दैत्य विद्युत्जिह्व से विवाह कर लिया। इससे रावण अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने विद्युत्जिह्व पर आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच घोर द्वन्द हुआ और उस युद्ध में रावण के हाथों विद्युत्जिह्व की मृत्यु हो गयी। शूर्पणखा अपने पति की मृत्यु के बाद वही रहना चाहती थी किन्तु रावण ने उसे किसी प्रकार समझा बुझा कर अपने साथ ले गया।

रावण ने शूर्पणखा को दण्डक वन प्रदान किया जहाँ वो स्वच्छंद विचरण करने लगी। दण्डक वन रावण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था क्यूंकि वहाँ अनेक ऋषि रहते थे जिसे रावण या तो मारना चाहता था अथवा वहां से भगाना चाहता था। इसीलिए उसने दण्डक वन और शूर्पणखा की सुरक्षा का दायित्व खर और दूषण के हाथों में सौंपा। रावण के राज्य में ये दोनों भाई उस दण्डक वन में रहने वाले ऋषियों पर अत्याचार करने लगे।

अधिकतर राक्षस नरभक्षी नहीं होते थे किन्तु खर और दूषण के बारे में कहा जाता है कि ये दोनों राक्षस मनुष्यों को खा जाते थे। इसी कारण दण्डक वन में दोनों का आतंक इतना बढ़ा कि ऋषियों ने उनके डर से वहाँ से पलायन करना आरम्भ कर दिया। इसके अतिरिक्त रावण ने खर और दूषण के नेतृत्व में लंका के 14000 वीर सुभटों की सेना दण्डक वन में रखी थी। उस कारण कोई राजा भी उनपर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था। इस प्रकार सब ओर से सुरक्षित और निःशंक हो वो दोनों नरभक्षी राक्षस अपनी बहन शूर्पणखा के साथ उस विशाल दण्डक वन पर राज करने लगे। खर और दूषण के विरोध का साहस कोई नहीं करता था और इसी कारण वे दोनों नरभक्षी भाई उन्मत्त होकर वहाँ रहने वाले ऋषि मुनियों पर अत्याचार करते थे।

उसी समय श्रीराम को भी वनवास प्राप्त हुआ और वे सीता और लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष के वनवास को गए। पहले उन्होंने पंचवटी में अपना आश्रम बनाया किन्तु जब उन्हें राक्षसों के उत्पात का पता चला तो वे पंचवटी से दण्डक वन चले गए और वही स्थाई रूप से रहने लगे। आज के महाराष्ट्र का नासिक शहर ही पुरातन काल में दण्डकारण्य कहलाता था। आरम्भ में उनका राक्षसों से कोई विरोध नहीं हुआ और वे निर्विघ्न रूप से वही दण्डकारण्य में निवास करने लगे। वहाँ रहते हुए उनके वनवास के १३ वर्ष समाप्त हो गए।

एक बार रावण की बहन शूर्पणखा भ्रमण करती हुई श्रीराम के आश्रम की ओर से गुजरी। वहाँ आश्रम और मनुष्यों को देख वो कौतूहलवश उनके आश्रम पर पहुँची। वहाँ जब उसने श्रीराम को देखा तो उनके रूप पर मोहित हो गयी और उनसे विवाह करने की प्रार्थना की। श्रीराम ने उसे टालते हुए लक्ष्मण के पास भेज दिया। रूप में अपने भाई के समान लक्ष्मण को देख कर उसने उनसे भी विवाह का प्रस्ताव रखा किन्तु लक्ष्मण ने भी उसे टालकर पुनः श्रीराम के पास भेज दिया।

इस प्रकार बड़ी देर तक इधर-उधर भटकने के बाद क्रोधित होकर वो राक्षसी माता सीता को खाने को लपकी। उनके प्राण संकट में देख कर लक्ष्मण ने तत्काल उसका प्रतिकार किया। वे चाहते तो शूर्पणखा का वध भी कर सकते थे किन्तु वे स्त्री थी इसीलिए उन्होंने ऐसा नहीं किया। किन्तु उसके दुःसाहस के दंड स्वरुप लक्ष्मण ने उसकी नाक काट डाली।

वहाँ से अपमानित होकर शूर्पणखा सीधे अपने भाइयों खर और दूषण के पास पहुँची और उन्हें अपना हाल कहा। ये सुनकर खर ने पहले 14 राक्षसों को श्रीराम के आश्रम में उनका वध करने को भेजा। वे राक्षस सीधे श्रीराम के आश्रम में पहुँचे किन्तु श्रीराम ने केवल एक ही बाण से उन 14 राक्षसों का सर धड़ से अलग कर दिया। ये देख कर शूर्पणखा पुनः भयभीत हो अपने भाइयों के पास पहुंची।

इस बार खर और दूषण स्वयं अपनी समस्त सेना लेकर श्रीराम के आश्रम में पहुँचे। इतनी बड़ी सेना वहाँ आया देख कर लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा - "भैया! प्रतीत होता है कि आपका पराक्रम देख कर भी राक्षस चेत नहीं हुए हैं। आप आश्रम में रहकर भाभी की रक्षा करें, मैं अभी इनकी पूरी सेना को यमलोक भेज देता हूँ।" ये सुनकर श्रीराम ने कहा - "लक्ष्मण! तुम अवश्य इन सभी के अकेले ही पराजित कर सकते हो किन्तु जैसे मैंने पहले इन्हे दंड दिया था उसी प्रकार इस बार भी दूंगा। अतः तुम यहीं आश्रम में रहकर सीता की रक्षा करो। मैं इन सभी से निपटता हूँ।" ये कहकर माता सीता को लक्ष्मण की सुरक्षा में छोड़ कर श्रीराम अकेले ही उस विशाल सेना के सामने पहुँच गए।

जब राक्षसों ने श्रीराम को देखा तो एक साथ उनपर टूट पड़े किन्तु श्रीराम की शक्ति से वे कैसे पार पा सकते थे। केवल सवा प्रहार के युद्ध में श्रीराम ने अकेले ही उन 14000 राक्षसों का वध कर डाला। फिर दोनों भाइयों ने श्रीराम के साथ घोर युद्ध किया किन्तु पहले खर और फिर दूषण उनके हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इतनी विशाल सेना समेत अपने भाइयों का अंत देख कर शूर्पणखा वहाँ से भाग कर सीधे रावण के पास पहुँची।

आगे की कथा हमें पता है कि किस प्रकार रावण ने देवी सीता का हरण किया और फिर लंका युद्ध हुआ। खर का एक पुत्र भी था जिसका नाम मकराक्ष था। वो किसी प्रकार बच कर अपने तात रावण के शरण में पहुँच गया। लंका युद्ध में वो अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए रावण की सेना की ओर से लड़ा और श्रीराम को द्वन्द के लिए ललकारा। तब श्रीराम ने उससे उसका परिचय पूछा और उसका द्वन्द स्वीकार किया। अंततः श्रीराम के हांथों मृत्यु को प्राप्त हो खर का वो पुत्र भी मुक्त हो गया।

स्रोत: dharmsansar.com, धर्म-संसार, खर-दूषण ]

जनस्थान

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...जनस्थान (AS, p.355): पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नासिक (महाराष्ट्र) का ही प्राचीन नाम है। इसका नाम सतयुग में 'पद्मनगर', त्रेता में 'त्रिकंटक' और द्वापर में 'जनस्थान' था। अब कलियुग में इसका नाम 'नासिक' है। यह दंडकारण्य का ही एक भाग था। पुराणों के अनुसार नासिक का ही एक नाम जनस्थान बताया गया है- 'कृते तु पद्यंनगरंत्रेतायां तु त्रिकंटकम् द्वापरे च जनस्थानं कलौ नासिकमुख्यते'।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार जनस्थान में खरदूषण आदि राक्षसों का निवास स्थान था- 'नानाप्रहरणा: क्षिप्रमितोगच्छत सत्वरा:, जनस्थानं हतस्थानं भूतपूर्वखरालयम्। तत्रास्यतां जनस्थानेशून्ये निहतराक्षसे, पौरुषं बलमाश्रित्य त्रासमुत्सृज्य दूरत:'। रामचन्द्रजी ने, जैसा कि इस उद्धरण से सूचित होता है, इस प्रदेश के सभी राक्षसों का अंत कर दिया था।

महाकवि कालिदास ने कई स्थलों पर जनस्थान का उल्लेख किया है- 'प्राप्य चाशुजनस्थानं खरादिभ्यस्तधाविधम्' (रघुवंश 12, 42.) 'पुराजनस्थानविमर्दशंकी संघाय लंकाधि पति: प्रतस्ये' (रघुवंश 6, 62.) 'अमीजनस्थानमपोढविध्नं मत्वा समारब्ध नवोटजानि' (रघुवंश 13, 22.) उपर्युक्त अंतिम उद्धरण से विदित होता है कि मुनियों ने जनस्थान से राक्षसों का भय दूर होने पर अपने परित्यक्त आश्रमों में पुन: नवीन कुटियाँ बना ली थीं।

भवभूति ने भी जनस्थान और पंचवटी का नासिक के निकट उल्लेख किया है- 'पश्चामि च जरस्थानं भूतपर्वखरालयम्, प्रत्यक्षानिव वृत्तान्तान्पूर्वाननुभवामिच' (उत्तररामचरित 2, 17) उपर्युक्त श्लोक में वाल्मीकि रामायण के उपर्युक्त उद्धरण की भाँति जनस्थान में खर राक्षस का घर कहा गया है। यह संभव है कि उपर्युक्त उद्धरणों में वर्णित जनस्थान की ठीक-ठीक स्थिति गोदावरी नदी के पर्वत से अवरोहण करने के स्थान (नासिक के निकट) पर पालवेराम के सन्निकट रही होगी। (दे. इंडियन एंटिक्वेरी जिल्द 2, पृ. 283) किंतु महाभारत, अनुशासनपर्व (अनुशासनपर्व 25, 29) में जनस्थान को चित्रकूट और मंदाकिनी के निकट बताया गया है- 'चित्रकूटजनस्थाने तथा मंदाकिनी जले, विगाह्म वै निराहारो राजलक्ष्म्या निषेव्यते'।

खरौद

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...खरौद (जिला जांजगीर-चाम्पा, छत्तीसगढ़) (AS, p.254) बिलासपुर से 42 मील दूर है. किंवदंती में इसे खर-दूषण का निवास बताया जाता है.[5]

खरौद परिचय

ग्राम खरौद भगवती चित्रोतपल्लामहानदी” के उत्तरी तट पर स्थित है। यह छत्तीसगढ़ मे जांजगीर-चाम्पा जिले मे दक्षिण भाग पर स्थित एक सुंदर और प्राचीनता के साथ गौरवमय इतिहास को समेटे बैठा है। इसके चारों ओर आज भी प्राचीन दुर्ग व खाइयों के अवशेष देखने को मिलते हैं। इसके पश्चिम दिशा मे भगवान लक्ष्मणेश्वर के डमरू का निनाद, पूर्व दिशा मे शीतला माता का आधिपत्य, उत्तर दिशा मे ‘रामसागर’ तथा ‘डघेरा’ (देवघरा) तालाब तथा शबरी देवी का कलात्मक मंदिर पर्यटकों को स्वागत द्वार है।


प्राचीनकाल से ही खरौद ग्राम लखेशर क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। यह क्षेत्र महकोसल जनपद के अंतर्गत था। महकोसल के उत्तर में कोसल का दूसरा नाम अवध था अवध से मित्रता करने के लिए यह प्रदेश महकोसल कहलाया। चौथी शताब्दी मे महकोसल का राज्य क्रमश: उत्तर दक्षिण मे महेंद्र तथा व्याघ्रराज नामक शासकों के अधीन था। इससे यह सिद्ध होता है की महकोसल का दक्षिण मार्ग अर्थात प्राचीन छत्तीसगढ़ के भूभाग कल्चुरियों के शासन मे आया था।

यह ग्राम चित्रोत्पला-महानदी से एक मील दूर बसा हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि एक समय करवा ऋषि सिवाहा पर्वत में तपश्या कर रहे थे। उनके कमंडल मे गंगाजल था। गंगा जी ने ऋषि को तपश्या में तल्लीन देख कर विचार किया कि मैं अब पुरषोतम क्षेत्र की शरण लूंगी इसलिए गुप्त होकर वहां से चल पड़ी. वह मार्ग में क्रमशा राजिम के कुलेश्वर लिंग फिंगेश्वर के फिंगेश्वर्लिंग और सिरपुर के गंधेस्वर लिंग का पाद पर चालन करती हुई चित्रोतपला के समीपस्थ भगवान शिव के लखेशर लिंग के चरणों को धोने के लिए खरौद शिवरीनारायाण के पास आयी। ऋषि की उपेक्षा से क्रोधीभिभूत गंगा जगदीश मंदिर को समूल उखाड़ना चाहती थी, यह जानकर नारद जी ने आकर उससे कहा गंगे ! तुम अपनी धारा चौड़ी करो इससे ही विश्वकर्मा द्वारा निर्मित इस दृढ़ मंदिर को उखाड़ सकेगी। इससे गंगा ने अपनी प्रवाह चौड़ी कर लिया । तथा नारद जी वचन से उसे नहीं उखाड़ सकी आज भी उड़ीशा मे उस स्थान को कटक के पास अठारह नारा बीसा झोरी के नाम से पुकारते हैं।

एक किंबदंती यह भी है की रावण वध के पश्चात राम और लक्ष्मण के अयोध्या लौटने पर उन पर ब्रम्हहत्या का आरोप लगाया गया। ऋषियों ने कहा कि जिस प्रकार राम ने ब्रम्हहत्या के पूर्व ही रामेश्वर लिंग की स्थापना करके उससे मुक्ति पा ली, उस प्रकार लक्ष्मण ने नहीं किया। अतः तब तक उसकी ब्रम्हाहत्या दूर नहीं होगी जब तक वह शिवलिंग स्थापना नहीं करेगा। इसी समय राम ने अश्वमेघ यज्ञ करने का भी निश्चय किया किन्तु लक्ष्मण भाई की ब्रम्हाहत्या के कारण उसमे अवरोध पैदा हो रहा था। उससे चिंतित हो कर लक्ष्मण जी शिवाभिषेख के लिए समस्त तीर्थों का जल प्राप्त करने अयोध्या से प्रस्थान किए। घूमते समय उन्हे क्षयरोग हो गया तथा उनकी नासिक से रक्त प्रवाह होने लगा। ऐसा कहा जाता है कि उनके क्षयरोग का कारण मेघनाद के द्वारा चलाई गई शक्ति का प्रभाव था इससे लक्ष्मण जी को यहां शिव की तपश्या करनी पड़ी प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने लक्षलिंग के रूप मे उन्हे दर्शन देकर पार्थिव पूजन का आदेश दिया इससे लक्ष्मण जी की ब्रम्हहत्या और क्षयरोग दोनों दूर हो गये आज भी लक्ष्मणेश्वर दर्शन के संबंध मे क्षयरोग-निवारण लक्ष्मणेस्वर दर्शनम यह प्रसिद्ध है।

छत्तीसगढ़ के इतिहास में खरौद का स्थान विभिन्न दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस भूभाग में प्रामाणिक रूप से त्रिपुरी के हैहय वंशी राजाओं के शासन का उल्लेख शिलालेखों द्वारा पुष्ट होता है, हैहय वंशी ही बाद में कलचूरी वंश का संस्थापक है। इस वंश का प्रारम्भ स्व. राय बहादुर डॉ. हीरालाल के अनुसार प्राचीन ताम्रलेक आदि के आधार पर सन 580 ई॰ माना जाता है। मंदिर भारत की संस्कृति के बोलते हुए चित्र है। लक्ष्मणेस्वर खरौद ग्राम में पूर्वाभिमुख प्रधान देव मंदिर के रूप में वह स्थित है। इसके चतुर्दिक पाषाण निर्मित एक प्राचीर है। इसका निर्माण अल्पकालिक प्रतीत होता है। प्राचीर के अंतर्गत 74 हाथ लंबा तथा 32 हाथ चौड़ा एक पाषाण का चबूतरा है। तथा इसके चारों ओर और भी मंदिरो कें अच्छे अद्भुत चित्रण है।

संदर्भ: Chhattisgarh Darshan

External links

References