Kumbha Ram Arya Kisanvarg Ke Shirshasth Neta

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

कुम्भाराम आर्य : किसान वर्ग के शीर्षस्थ नेता

' ज़मीन कींकी?'

' बावै बींकी।'

जागीरी ज़ुल्म के दौर में ऐसे सुदृढ़ स्वप्नद्रष्टा और फिर स्वाधीनता संग्राम के बाद सत्ता के गलियारे में अपनी धमक के बलबूते पर इस सँजोए सपने को प्राथमिकता के आधार पर साकार कर देने वाले राजस्थान के किसान वर्ग के मसीहा चौधरी कुम्भाराम आर्य अपने जमाने की असाधारण हस्ती थे। राजस्थान के निर्माण में उनका अहम योगदान रहा है।

स्वाधीनता से पूर्व राजस्थान में सदियों से राजशाही, सामंती और साम्राज्यवादी व्यवस्था का तिहरा गठजोड़ विद्यमान था। 'भू स्वामियों के एक श्रेणी तंत्र ने संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक ढांचे पर आधिपत्य स्थापित कर रखा था, जिसमें स्वायत्तशासी देशी रियासतों के राजाओं से लेकर बड़ी-बड़ी जागीरों के मालिक तक सम्मिलित थे।' जागीरदारों के प्रश्रय में पोषित अनेक छोटे बिचौलिए भी इस व्यवस्था के उच्चत्तर सोपानों पर प्रतिष्ठित थे।

सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर परिश्रमी किसान को धकेल रखा था। दुःसह आर्थिक कठिनाइयों को भुगतते किसान की खून- पसीने की कमाई राजाओं व सामंतों के ख़ज़ानों को समृद्ध कर रही थी। जो जागीदार थे, उनके पास कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यापक शक्तियां समाहित थीं लेकिन रियासत पर शासन राजा का था। जागीरदार अपनी प्रजा के वास्तविक ( de facto ) स्वामी और शासक थे और वे प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे। अपनी मनमर्जी से भूमि कर (लागबाग) बढ़ाते रहते थे और किसानों द्वारा खेती-बाड़ी के ज़रिए कमाई उनकी रोटी को उनसे छीनकर उन्हें अनाज के दाने-दाने के लिए मोहताज़ कर रखा था।

राजस्थानी के प्रख्यात कवि कन्हैयालाल सेठिया ने किसानों की दारूण दशा का चित्रण अपनी कविता में कुछ यों किया है:

कन्हैया लाल सेठिया » मींझर »

कुण जमीन रो धणी ?


हाड़ मांस चाम गाळ

खेत में पसेव सींच,

लू लपट ठंड मेह

सै सवै दांत भींच,

फाड़ चौक कर करै जोतणी’र बोवणी

बो जमीन रो धणी’क ओ जमीन रो धणी ?

मद पिवै उड़ै मजा

करै जुलम सैंकड़ी,

ठग बण्या ठाकरां

हिद हुई हैंकड़ी,

रात दिन रैत नैं लूंटणी’र खोसणी,

ओ जमीन रो धणी’क बो जमीन रो धणी ?

हळ जुप्यो जद बिक्या

फूस पान टापरो,

पेट काट बीज री

करी जुगाळ बापड़ो,

पड़ी छांट कया हरख रामजी भली सुणी,

ओ जमीन रो धणी’क बो जमीन रो धणी ?

खड़ी फसल करा कुड़क

भरै ब्याज बाणियूं,

बळद बेच ब्याज रै

ब्याज नै उधाणियूं,

राज सीर चोर कै के करै’र करसणी,

ओ जमीन रो धणी’क बो जमीन रो धणी ?

कुण जमीन रो धणी ?

पराधीन, प्रताड़ित, शोषित, दमित, दीन- हीन, अशिक्षा के अंधकार से घिरा, अंधविश्वास और रूढ़ियों के शिकंजे में जकड़ा, कुप्रथाओं और सामंतों के कुचक्रों में फंसा किसान वर्ग जागीरी ज़ुल्म की चक्की में पिसता नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर था। चौधरी कुंभाराम आर्य राजस्थान में स्वतंत्रता सेनानियों की श्रंखला के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। राजस्थान के किसानों को दमन, शोषण व उत्पीड़न के चक्रव्यूह से बाहर निकालने की मुहिम को परवान पर चढ़ाने और फिर उन्हें उनके द्वारा जोते जाने वाले खेतों पर खातेदारी का हक़ दिलाकर उनकी जिंदगी को रोशन करने का श्रेय चौधरी कुम्भाराम आर्य को जाता है। चौधरी कुम्भाराम आर्य एक सफल संगठनकर्ता, कुशल वक्ता, मौलिक चिंतक, निडर व निश्छल नेता, स्वाभिमानी राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक थे। राजनीति के क्षेत्र में वे एक जुझारू, अक्खड़, स्पष्टवादी, निडरता से दो- टूक बात कहने वाले नेता थे।

लोकप्रिय किसान नेता: प्रथम राजस्थान विधानसभा के कुल 160 सदस्यों के लिए जनवरी 1952 में हुए चुनाव में चौधरी कुंभाराम आर्य ने चूरू विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट पर अपना नामांकन दाख़िल किया। इसकी भी लंबी कहानी है। उनके विरोधियों ने उन पर सांप्रदायिक होने का बेबुनियाद आरोप लगाया। विवाद बढ़ने पर कांग्रेस आला कमान ने उनकी टिकट छीन ली। परन्तु तब तक नाम वापिस लेने की तारीख़ निकल चुकी थी। आला कमान ने कुम्भाराम जी को चुनाव में अपने लिए पर्चे छपवाने-बंटवाने, अन्य किसी भी प्रकार से प्रचार नहीं करने और चुनाव क्षेत्र में नहीं जाने के लिए पाबंद किया। चौधरी साहब ने नेहरू जी से इस बाबत वादा किया और उसको अक्षरशः निभाया। वे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़े रहे। वे एक बार भी अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं गए और न ही खुद के लिए वोट डालने की अपील मतदाताओं से की। बाबजूद इसके वे भारी मतों से विजय हुए। सामने वाले प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। सब परिस्थितियां उनके प्रतिकूल। मीडिया ने उनकी ख़ूब ख़िलाफ़त की। विरोधियों ने दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन किसान वर्ग उन्हें अपने तारणहार के रूप में स्वीकार करता था। मीडिया, सामंतों, धनपतियों व विरोधियों के गठजोड़ द्वारा चौधरी कुम्भाराम आर्य के ख़िलाफ़ रचे गए समस्त षड्यंत्रों का समुचित ज़बाब उनके क्षेत्र की जनता ने उनको भारी मतों से जीता कर दे दिया। उनकी लोकप्रियता का इससे ज़्यादा पुख़्ता प्रमाण और क्या हो सकता है? चुनाव परिणाम के बाद वे पूरे राजस्थान में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर एक चर्चित शख्सियत के रूप में उभरे। यह जीत उनकी लोकप्रियता को बख़ूबी प्रकट करती है। आज तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जिसने एक बार भी चुनाव क्षेत्र में पदार्पण किए बगैर या मतदाताओं से बिना कोई अपील या वादा किए चुनाव में जीत दर्ज़ की हो।

क्रांतिकारी भूमि सुधार के प्रणेता: प्रथम आम चुनाव से पूर्व ही राजस्थान सरकार ने "राजस्थान भूमि सुधार और जागीर पुनर्ग्रहण अधिनियम 1952" पास किया जो 18 फरवरी 1952 ई. को कानून बन गया। इस कानून के आधार पर बाद में जागीरदारों को मुआवजा देकर उनकी जागीरें जप्त कर ली गईं और किसान को भूमि का खातेदार बना दिया।

सुखाड़िया मंत्रिमंडल में 13 नवंबर 1954 को शपथ ग्रहण करने पर चौधरी कुंभाराम आर्य को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इस अवधि में जागीरदारी प्रथा पुनर्ग्रहण संशोधन अधिनियम 1954 तथा राजस्थान टेनेंसी एक्ट 1955 पारित किए गए, जिसके परिणामस्वरुप जागीरदारी प्रथा राजस्थान में सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई और किसानों को अपने द्वारा जोते जाने वाले खेतों पर खातेदारी का अधिकार बिना कोई मुवावजा चुकाए/ निःशुल्क प्राप्त हो गया। इन कानूनों की गणना भारत के सर्वोत्तम प्रगतिशील भूमि सुधार कानूनों में की जाती है। ये वो क़ानून थे जिन्होंने सदियों से शोषित और उत्पीड़ित किसानों को जागीरदारों के चंगुल से मुक्त कराकर उन्हें भूमि का खातेदार बनाया। जमीन पर काश्तकारों के हक़ की बात चौधरी कुम्भाराम ने नपे तुले शब्दों मे यूँ कही:- ' ज़मीन कींकी? बावै बींकी।'

किसानों को जागीरदारी से मुक्ति दिलाने और काश्तकारों को खातेदारी का हक़ दिलाने के कारण देहात के बड़े-बुजुर्ग अब भी खातेदारी एक्ट को ' कुंभा एक्ट' के नाम से जानते हैं। कुम्भाराम और किसान पर्यायवाची शब्द बनकर उभरे। मालूम हो कि जागीर उन्मूलन के समय किसान को खातेदारी हक दिलाने के लिए अन्य राज्यों में किसानों से मुआवजा वसूल किया गया। केवल राजस्थान में बिना किसी मुआवजे के/ निःशुल्क किसानों को खातेदारी हक हासिल हुआ।

किसानों की आज़ादी के नींव के पत्थर:- सन 1952 में राजस्थान में आम चुनाव के बाद टीकाराम पालीवाल मुख्यमंत्री बने। जय नारायण व्यास पहला चुनाव हार चुके थे। वे 1953 मे उपचुनाव जीतने के बाद पालीवाल की जगह मुख्यमंत्री बने। जागीरदारी खत्म होने से राजस्व व्यवस्था डगमगाने लगी। नये नियम बने नहीं थे। लगान ही उस समय सरकारी आय का बड़ा स्रोत था। सवाल कई थे। लगान की वसूली कौन करे ? जमीन का बंटवारा किसानों मे कौन करे? ये बङी समस्या थी। इसका समाधान करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री व्यास जी की सरकार ने फ़ैसला लेने का विचार किया कि जमीन का मालिकाना हक वापस जमीदारों को सौंप दिया जावे और वे पहले की तरह व्यवस्था संभालें। लगान वसूली कर खजाने में जमा करवा दें। ये फैसला किसानों को वापस गुलामी की मोटी जंजीरों मे बांधना था। चौधरी कुम्भा राम आर्य व माणिक्य लाल वर्मा ने इस प्रस्तावित फ़ैसले का खुला विरोध किया।

उसी दौरान कांग्रेस का अधिवेशन जयपुर में होने वाला था, जिसमें पंडित नेहरू भी शिरकत करने वाले थे। व्यास जी की योजना इस अधिवेशन में नेहरू जी से इस फैसले पर सहमति लेने की थी। व्यास जी नहीं चाहते थे कि चौधरी कुम्भा राम आर्य इस मसले पर नेहरू जी से मिलकर विरोध प्रकट करें। नेहरूजी का बिजी शैड्यूल था। नेहरू जी से औपचारिक मुलाकात करने का आर्य जी को अलग से समय नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री नेहरू जब अधिवेशन को संबोधित कर बाहर निकलने लगे तब कुम्भाराम जी ने उनका रास्ता रोक कर तड़ाक से कहा, "आप हमें वापस गुलामी में क्यों धकेल रहे हैं? आप जमीन राजाओं को दे दीजिए। हमारा शोषण तो ताजिमदारों ने किया है ? उन्होंने किसानों का खून बहाया है। किसानों ने लाठी- गोली खाई है। जान दी है। इतना सुनते ही नेहरू सकते में आ गये। उन्होने पूछा,' समस्या क्या है ?' जब जागीरदार खत्म हो गये हैं तब शोषण कैसे करेंगे ? इस पर चौधरी साहब ने व्यास जी के फैसले का हवाला दिया। नेहरू ने पूरी बात ध्यान से सुनकर व्यास जी को बुलाकर कहा कि जमीन के नये नियम बनाओ। जमींदारी व्यवस्था वापस बहाल नहीं होनी चाहिए।' व्यास जी ने लगान वसूली का सिस्टम न होना कारण बताया तो नेहरू ने तुरंत कहा कि संपूर्ण सिस्टम नये तरीके से बनाना होगा। नये कानून बनाओ। व्यास जी को अपना निर्णय बदलना पड़ा। अगर उस समय कुंभाराम जी किसानों के हक़ में निडरता से आवाज़ बुलंद नहीं करते तो आज राजस्थान में किसानों की हालात बिहार आदि राज्यों के किसानों जैसी ही होती। जमीन के मालिक ताजिमदार होते। किसान पीढ़ी दर पीढ़ी खेत जोत रहे होते पर ऊँन खेतों के मालिक वे नहीं होते। ताजिमदार से कोई भी जमीन खरीदकर जोतने वाले किसानों को बेदखल कर देता जैसा कि कुछ राज्यों में हुआ और अब भी हो रहा है।

साल 1954 आते- आते कुम्भाराम आर्य जी राजस्व मंत्री बने और 1955 का Tenancy Act बना जिसमें व्यवस्था की गई कि जो किसान सं. 2012 (सन1955 ) में जिस खेत को जोत रहा है, वो उस खेत का मालिक होगा। बिना किसी जाति या धर्म के भेदभाव के किसान घर बैठै जमीन के मालिक हो गये। ऐसा अधिनियम लागू करने वाला राजस्थान पहला राज्य था। उस जमाने के हिसाब से यह एक क्रांतिकारी कदम था। राजस्थान में किसानों की पीढियाँ कुम्भाराम जी से उपकृत हुई हैं।

राजस्थान लैंड रिफोर्मस रिज्यमशन आफ ज़मींदारी एण्ड विस्वेदारी एक्ट 1952 मे बन गया था लेकिन जयनारायण व्यास ने उसे लागू नहीं किया ! व्यास जागीरदारी प्रथा को जारी रखकर राजा- महाराजाओं जागीरदारों को कांग्रेस मे लाना चाहते थे ! इसलिए व्यास को हटाकर सुखाडिया को मुख्य मंत्री बनाया और 1954 मे ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट लागू हुआ ! एक और विवाद था ! जागीर ज़ब्ती और किसान को अधिकार देने के मुआवज़ा कास्तकार से दिलाये जाने का भी मसला था ! व्यास जी जमीन मुवाजा भी किसानो से दिलाना चाहते थे जो किसानो के साथ अन्याय होता। कुम्भाराम जी इस पर अड़ गये कि किसान मुआवज़ा नहीं देगा ! मुआवज़े का मसला भी नेहरू जी से तय करवाया और जागीरदारों, राजाओं को जागीर ज़ब्ती का मुआवज़ा राज्य सरकार ने दिया ! 15 . 10. 1956 को राजस्थान टीनेसी एक्ट लागू हुआ और एक्ट के लागू होने के साथ ही एक्ट के प्रावधानों के प्रभाव से जो व्यक्ति भूमि का लगान देता था या लगान देने का क़रार था वह उस भूमि का खातेदार कास्तकार बन गया और उस भूमि से ज़मींदार के मालिकाना अधिकार समाप्तहो गये ! और भी अच्छी बात यह हुई कि कास्तकार को खातेदारी अधिकार पाने के लिए दरख्वास्त लगाने की ज़रूरत भी नहीं रखी ! तहसीलदार ने नामान्तकर द्वारा काश्तकार को खातेदार दर्ज कर दिया !

कुंभाराम जी की बदौलत राजस्थान के किसानों को जीने का आधार प्राप्त हुआ। एक जगह टिककर खेत अपने खेतों में खेतीबाड़ी करने का उनका संजोया सपना साकार हुआ। किसानों के लिए तो ये उनकी स्वतंत्रता की नींव है। अगर काश्तकारों को लाभ न दिया जाता तो आजादी का उन के लिए कोई मतलब नही था। किसानों की हद से ज़्यादा पैरवी करना कुम्भाराम जी व उनके साथियों के लिए भारी भी पडा। 1957 के विधानसभा चुनाव में चुनाव मे कुम्भाराम जी आर्य और सरदार हरलाल सिंह जी को टिकिट नहीं दी गई ।

भूमि सुधारों में चौधरी कुम्भाराम आर्य की प्रमुख भूमिका रही है, चाहे टिनेंसी एक्ट हो, चाहे कॉलोनाइजेशन एक्ट या उनके अंतर्गत बने रूल्स, इन सभी की ड्राफ्टिंग में चौधरी साहब के किसान हितैषी विचारों का समावेश था।

राजस्थान लैंड रिफॉर्म्स , एबोलिशन एण्ड रिजम्पसन ऑफ जागीरदारी एक्ट 1952 और राजस्थान टीनेन्सी एक्ट 1955 वस्तुतः चौधरी कुम्भाराम आर्य के दिशा- निर्देश और सुपरविजन मे तैयार कर क्रियान्वित किए गए। इन अधिनियमों की कुछ मूलभूत विशेषताएँ ये थीं:

◆ जो काश्तकार दिनांक 15 अक्टूबर 1955 को जिस भूमि का लगान देता था या उसने लगान देने का क़रार कर रखा था, वह काश्तकार उस भूमि का खातेदार काश्तकार हो गया। खातेदार काश्तकार तकनीकी रूप से भूमि का मालिक तो नहीं होता लेकिन खातेदारी भूमि मे उसके अधिकार क़रीब- क़रीब मालिक के समान ही हैं।

◆ यह अधिनियम लागू होते ही किसान वर्ग की क़िस्मत करवट लेने में सफ़ल हो गई। सदियों की जड़ता समाप्त हो चली। काश्तकार रात को सोया तब उसके द्वारा काश्त की जा रही भूमि का मालिक राजा, जागीरदार या खालसा की रियासती सरकार थी। किसान वर्ग के पास भूमि सम्बन्धी कोई हक़ नहीं थे। अधिनियम लागू होते ही काश्तकार जब सुबह जगा तो उसे पता चला कि अब ज़मीन की मालिक राजस्थान सरकार हो गई है तथा काश्तकार खुद खातेदार बन गया है। जमीन पर खातेदारी का हक़ किसान का हो जाना, यह किसान वर्ग के जीवन में आमूल- चूल परिवर्तन था। साइलेंट रेवोल्यूशन थी यह।

◆ खातेदारी अधिकार प्राप्ति के लिए काश्तकारों को किसी रक़म या मुआवज़े का भुगतान नहीं करना पड़ा। नेतृत्व और ब्यूरोक्रेसी का यह मानना था कि बिना मूल्य/ शुक्ल के काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व सौंपना संभव नहीं होगा क्योंकि जागीरदारों को मुआवजा देना था। किंतु कुम्भाराम जी इस बात पर डटे रहे कि किसान को जमीन पर हक़ निःशुल्क मिलना चाहिए क्योंकि वह वर्षों से उस जमीन पर काबिज है। कुम्भाराम जी की जिद्द के कारण आख़िर फ़ैसला किसान वर्ग के हित में हुआ। जागीरदारों को उनकी जागीर ज़ब्ती और मालिकाना हक समाप्ति का मुवावजा राज्य सरकार द्वारा भुगतान किया गया । जिन जागीरदारों के पास जोत के लिए भूमि नहीं रही, उन्हें सरकार ने सरकारी भूमि मे से भूमि उन्हें आंवटित की ।

◆ किसान वर्ग के लिए यह कमाल का एक्ट था। खातेदारी अधिकारों के लिए काश्तकारों को कुछ नहीं करना पड़ा। खातेदारी अधिकार कानून के प्रभाव से ही प्राप्त हो गये तथा पटवारी, तहसीलदार ने कानून को प्रभाव देने के लिए इन्तक़ाल द्वारा काश्तकार को रिकार्ड मे खातेदार दर्ज कर लिया।

किसान वर्ग के हितों के प्रबल समर्थक चौधरी साहब ने किसानों को खातेदारी का हक बिना मुआवजा के दिलाने के अलावा, खेतों के वृक्षों पर किसान को अधिकार दिलाने, सत्ता का विकेंद्रीकरण कर पंचायतों को अधिक अधिकार देने तथा सहकारी संस्थाओं को सुदृढ़ करने आदि जनहितकारी कई प्रमुख कार्य संपादित करवाए। राजस्थान में किसान वर्ग की दशा और दिशा में जो कुछ बेहतरी दिखाई दे रही है, उसका श्रेय चौधरी कुम्भाराम आर्य की कर्मठता की बदौलत किसान को खातेदारी का हक़ मिलने को दिया जाना न्यायोचित होगा।

वक़्त बीतने के साथ सीलिंग कानून, पंचायती राज कानून, सहकारिता, प्रशासनिक कार्य क्षमता आदि बातों पर मुख्यमंत्री सुखाड़िया के साथ आर्य जी के गंभीर मतभेद पैदा हो गए। अंततः चौधरी कुंभाराम आर्य ने फरवरी 1956 में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके साथ ही उनके संघर्षमय जुझारू जीवन के एक अध्याय का पटाक्षेप हो गया और एक नए संघर्ष की शुरुआत हो गई।

कांग्रेस छोड़ने के बाद चौधरी कुंभाराम ने राजस्थान में जनता पार्टी का गठन किया और उसके संस्थापक अध्यक्ष बने। फरवरी 1967 में हुए चौथे आम चुनावों में किसी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। घटनाक्रम ने करवट ली। तत्कालीन राज्यपाल संपूर्णानंद ने कांग्रेस को अन्य दलों से बड़ा दल मानकर विधायक दल के नेता श्री मोहनलाल सुखाड़िया को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। विरोध ख़ूब हुआ। बाद में कुंभाराम जी ने जनता पार्टी को भारतीय क्रांति दल में समाहित कर दिया। वे दूसरी बार 1968 में भारतीय क्रांति दल की ओर से राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और 1974 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। सन 1980 में सीकर लोकसभा क्षेत्र से सातवीं लोकसभा के लिए लोकदल प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए।

चौधरी कुम्भाराम आर्य ने लंबी राजनीतिक यात्रा में अनेक पड़ाव किये, हर पड़ाव पर साज़िश का शिकार हुए, उनके राजनीतिक जीवन की राह कंटकाकीर्ण रही। विभिन्न पार्टियों में अपने प्रखर व्यक्तित्व की छाप छोड़ी। साहस की मशाल जलाकर जिंदगी भर अंधेरे से जूझते रहे। कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, कभी हिम्मत नहीं हारी। उठापटक, द्वंद्व, संघर्ष का यह दौर मृत्यु तक चलता रहा। बाल्यकाल में गरीबी और अभावों से जूझना पड़ा, जवानी संकटों से लड़ते गुजरी, प्रौढ़ावस्था में राजनीति के घात-प्रतिघात के झँझावत को दिलेरी से सहा, जीवन की संध्या में एक दार्शनिक की स्थितप्रज्ञता को आत्मसात कर उतार- चढ़ाव को बिना किसी शिकायत के स्वीकार किया।

चौधरी कुंभाराम आर्य के निराले कथन : चौधरी कुम्भाराम आमजन को अपनी बात आमजन की शब्दावली का इस्तेमाल कर प्रभावी ढंग से समझा देते थे। उनके कुछ लोकप्रिय कथन ये हैं:-

◆ शोषण वह अमरबेल है जो एक बार किसी पेड़ के चिपकने के बाद उस पेड़ को बढ़ने नहीं देती। हिंदुस्तान में किसान व मजदूर दोनों सदियों से शोषित हैं। मेहनत व उत्पादन वे करते हैं पर उसका फल अमीर हड़प लेते हैं। शोषकों का चक्रव्यू तभी टूटेगा जब किसान वर्ग संगठित होकर शासक वर्ग को अपनी शक्ति रूपी लाठी से हांकेगा। सरकारें अमीर वर्ग की हितसाधक होती हैं जबकि किसान को मात्र घोषणाओं के द्वारा खुश करती रहती हैं।

◆ कानून इंसान से बड़ा नहीं है। बदलते जमाने की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कानून में संशोधन एवं बदलाव जरूरी है। उलझी हुई समस्या को सुलझाने में कुम्भाराम जी माहिर थे। किसी पार्थी के काम विशेष के बारे में अधिकारी जब उनसे कहते थे कि यह कार्य नियमानुसार नहीं है तब चौधरी जी फाइल पर लिख देते थे कि नियम बदल दिया जावे और प्रार्थी का काम कर दिया जावे।

◆ राज्य व्यवस्था तो गन्ने के डण्ठल के समान है, जो संगठन शक्ति के दांत वालों के लिए तो रस भरा है परंतु बिना दांत वालों असंगठितों के लिए तो बांस की लाठी के समान है।

◆ जागृत एवं संगठित जनशक्ति का राजव्यवस्था/ सरकार पर जब दबाव एवं प्रभाव बराबर बना रहता है, तभी सरकार जनहित में जन कल्याणकारी ढंग से संचालित रहती है।

◆ मानव जितना प्रकृति से दूर रहेगा उतना ही दुखी रहेगा। अतः प्रकृति के समीप रहकर स्वतंत्र चिंतन करना जरूरी है।

राजस्थान के निर्माण और विकास में चौधरी साहब का योगदान अतुलनीय है। कुम्भाराम जी ठेठ देहाती परिवेश से उठकर राष्ट्रीय राजनीति के स्तर तक अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने वाले कुछ गिने- चुने नेताओं में शामिल थे। डॉ लोहिया ने अपनी एक पुस्तक में चौधरी कुंभाराम की प्रशंसा करते हुए उन्हें 'धरती पुत्र' की संज्ञा दी थी। सादा जीवन और उच्च विचार के वे मूर्तिमान रूप थे। दीर्घकाल तक चौधरी कुंभाराम जी के निकट संपर्क में रहे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने चौधरी साहब को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था "स्वर्गीय आर्य राज्य के स्वतंत्रता सेनानी एवं अग्रणी किसान नेता और जुझारू जनप्रतिनिधि थे, जिन्होंने सभी वर्गों , विशेषकर किसानों, के हितों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। समाज, प्रदेश एवं देश की समस्याओं के समाधान के प्रति उनका मौलिक एवं प्रखर चिंतन था। वे सदैव जन आकांक्षाओं से जुड़े रहे। सामान्य जीवन में धरातल से जुड़े लोगों तक उनकी गहरी पैठ होने के कारण उनकी सूझबूझ एवं बुद्धिमता अपूर्व थी। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी निरंतर अध्ययनशील रहना उनकी प्रकृति में शामिल था"

संदर्भ


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