Ranabai ke Pad
Ranabai (रानाबाई) (1504-1570) was a Hindu Jat warrior girl and mystical poetess whose compositions are popular throughout Marwar region of Rajasthan, India. She is also known as 'Second Mira of Rajasthan". She was a disciple of sant Chatur Das also known as Khojiji. Ranabai composed many poems (padas) in Rajasthani Language. [1] Ranabai's poem is traditionally called a pada, a term used by the 14th century preachers for a small spiritual song. This is usually composed in simple rhythms and carries a refrain within itself. Her collection of songs is called the Padavali. The typicality of Indian love poetry of those days was used by Ranabai but as an instrument to express her deepest emotions felt for her Gurudev Khojiji and ishta-devata Gopinath. Her typical medium of singing was Rajasthani. Some of the padas by Ranabai are produced below.
(1)
बधावणा
राग - भूपाली
वारी वारी वारी वारी वारी वारी म्हारा परम गुरूजी ।
आज म्हारो जनम सफल भयो , मैं गुरुदेवजी न देख्या । टेक ।
भाग हमारा हे सखी, गुरुदेवजी पधारया ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, ने ये, म्हारा दूर निवारया ।।1।।
सोव्हन कलश सामेलसा ये, मोतीड़ा बधास्यां ।
पग मंद पधरावस्यां ये, मिल मंगल गास्यां ।।2।।
बंदन वार घलावस्यां ये, मोत्यां चौक पुरावस्यां ।
पर दिखानां परनाम स्यूं ये, चरनां शीश निवास्यां ।।3।।
ढोल्यो रतन जड़ावरो ये, रेशम गिदरो बिछावस्यां ।
सतगुरु ऊंचा बिराजसी ये, दूधा चरण पखास्यां ।।4।।
भोजन बहुत परकार का ये, कंचन थाल परोसां ।
सतगुरु जीमे आंगणे ये, पंखा बाय ढुलास्यां ।।5।।
चरण खोल चिरणामृत ये, सतगुरुजी का लेस्यां ।
तन मन री हेली बातड़ली ये, म्हारा गुरूजी ने कह्स्यां ।।6।।
आज सुफल म्हारा नेणज ये, गुरुदेवजी ने निरखूं ।
कान सुफल सुन बेणज ये, दूरी नहीं सरकूं ।।7।।
आज म्हारे आनंद बधावणा ये, बायां मन भाया ।
'राना' रे घरां बधावणा ये, गुरु खोजीजी आया ।।8।।
राग - मिश्र खमाज
रसना बाण पड़ी रटबा की ।
बिसरत नहीं घड़ी पल छिन-छिन, स्वांस स्वांस गाबा की ।।1।।
मनड़ो मरम धरम ओही जाण्यो, गुरु किरपा बल पा की ।।2।।
लख चौरासी जूण भटकती, मोह माया सूं थाकी ।।3।।
समरथ खोजी 'राना' पाया, जद यूँ काया झांकी ।।4।।
राग - पहाडी
म्हारो म्हारो करतांई जावै ।
मिनख जमारो ओ हे अमोलक, कोडी मोल फिंकावै ।।1।।
गरभ वास में कौल कियो तूं, जिणनै क्यों बिसरावै ।।2।।
पालनहार, करतार,विसंभर, तिरलोकी जस छावै ।।3।।
जिणने थां छिटकाय दियो जद, कुण थांने अपनावै ।।4।।
वाल्मकि सुक व्यास पुराणां, बेद भेद समझावै ।।5।।
कैं म्हारो तू थारो करतां, मिनख जमारो गमावै ।।6।।
'राना' सतगुरु खोजी सरणै, आवागमन मिटावै ।।7।।
राग-भूपाली
ऐ तो जाबाला ऐ बाई थारा, मन में निरख निरधार ।
कुण थारा साथी कुण थारा बैरी, कुण थारा गोती नाती ।।1।।
कुण थारा भाई बाप ये मायड़, किस्या जनम की जाती ।
सुरतां सूरत पिछाणी नाही, भाभी भरम में गेली ।।2।।
कुण रोवे कुण हँसे बावळी, कुण किण रो भरतार ।
गया सू आवणा का है नांही, रया सू जावाण हार ।।3।।
दस दरवाजा इण पिंजरा के, पलक पंखेरू जैले ।
चेतन नौबत बजे जठा तक, अंत पछै कुण बौलै ।।4।।
हर सूं हेत चेत मन करलै, मिनख जमारो आयो ।
गुरु खोजी 'राना' रंग रीझी, भरम भूत बिसरायो ।।5।।
राग-भूपाली
करसण होरयो रे बीरा, भूल्यो जग जंजाळ ।
काया खेत में रे बीरा, पाप पुण्य री नाळ ।।टेक।।
खाद खुटे नहीं रे बीरा, बीज तणी पैछाण ।
जोड़ सागै बणी रे बीरा, हलधर जोय निनाण ।।1।।
भावणी बीजणी रे बीरा, पाणी पाल परमाण ।
रूंखड़ी रोपणी रे बीरा, धरणीधर री छांण ।।2।।
गाज गरजै घणी रे बीरा, बरसै कठेक जाय ।
साख सूखै नहीं रे बीरा, जल जमना रो पाय ।।3।।
चतुर खोजी मिल्या रे पाकी, साख सराई लोग ।
जतन 'राना' करे रे बीरा, स्याम अरोगे भोग ।।4।।
राग-झिन्झोटी
चूंदड़ मैली न होय म्हारी बाया, चूंदड़ मैली न होय ।
नौ दस मास रही आ ऊंडी, अब सिणगार करण लागी ।
चूंदड़ चिमक चतुर साजन री, निजरया में गौरी आगी ।।1।।
कर मनुहार बुलाई पिवजी, चूंदड़ घणी सराई ए ।
मन की बात करी हित चित सूं, हिवडे घणी लगाई ए ।।2।।
जुग जुग चूंदड़ करे झिलामिल, जतन रतन अनमोल ए ।
'राना' सतगुरु खोजी सरणै, निरभै निसदिन बोला ए ।।3।।
राग-खमाज
जह हरि-भक्त चरण पधरावै ।
तीरथ एक कहा कहिये, तहां भुवन चतुर्दश धावै ।।टेक।।
भृगुजी क्रोध विवश जायो तज, हरि के लात लगावै ।
प्रभु की प्रभुताई का बरणो, जाकै चरण पुजावै ।।1।।
चतरो बिप्र साथ संगत रहे, बीरा बैर करावै ।
पितृ फूल दे जबरन ताको, हर पेड़ी पठवावै ।।2।।
जहाँ तिरथन को गुरु पुष्कर, सतगुरु धून रमावै
डेरा की धणयाप करता, छत्री मद चकरावै ।।3।।
कथा कीर्तन भंग पड़ता, काम्बल आग बंधावै ।
गठड़ी बंधी देखकर जोड्या, अब तो सकलां नावै ।।4।।
भगवत भक्त निराली लीला, पार कोई न पावै
'राना' सतगुरु तीरथ खोजी, अमरापुर चली आवै ।।5।।
राग-तिलक कामोद
कोई दिन साथनियाँ संग रमती ।
रमती रमती हीजे रहती, चिरम्या ज्यूं ही गमती ।।टेक।।
म्हारो राम संदेशो भेज्यो, सतगुरु नूत बुलाया ।
हरजी सत सनेह सूं पोखी, नहीं तो काया गमती ।।1।।
मानव पास उदार में राखी, बाबल लाड लडाया ।
जनम जनम रो वर संवरियो, मिनख धार क्यों टलती ।।2।।
काची काया मन मनसौबा, रमती मोह संग माया ।
काहन कुंवर ही मोही 'राना', परम्परा सूं चलती ।।3।।
Author लेखक: Laxman Burdak लक्ष्मण बुरड़क
सन्दर्भ
- ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 40-41
- डॉ पेमाराम एवं डॉ विक्रमादित्य, जाटों की गौरवगाथा , राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2004
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