Rao Jagbharath Ji
Rao Jagbharath (राव जगभरथ), founder of Narsinghpur in Madhya Pradesh, was of Khirwar clan Jat Sardar.
History
Narsinghpur has a large temple of Lord Narsingh known as Narsingh Avatar Temple . This temple was constructed by Jat Sardar in the 18th century, in which Idol of Lord Narsimha placed & worshiped & so in the name of Lord Narsimha. The village Gadariya Kheda where the temple was constructed became "Narsinghpur" after Lord Narsimha & later on it became the headquarter of the district. [1]
The Jat Sardar Rao Jagbharath Ji[2] founder of Narsinghpur was of Khirwar clan. These Jat Sardars were followers of god Narsingh. Here they constructed two temples of Narsingh avatar. Khirwar clan Jats came to this place from Brij and founded the city of Narsinghpur, where they ruled for a long period.[3]
खिरवार या खरे का इतिहास
कैप्टन दलीप सिंह अहलावत[4] लिखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण जी के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र बृज को, यादवों के आपस में लड़कर भयंकर विनाश होने पर, अर्जुन द्वारिका से लाया और उसे इन्द्रप्रस्थ की गद्दी पर बैठाया। इस यदुवंशी बृज के बड़े पुत्र खिर थे जिसके नाम पर इनकी परम्परा में खिरवार वंश प्रचलित हुआ। यह यदुवंशी जाट गोत्र है जो भाषाभेद से खरे भी कहा जाता है। महाराजा खिर का राज्य बृजमण्डल पर था अतः इस वंश के जाट आज भी बृज के अन्तर्गत आगरा जिले में ही रहते हैं। पथौली इस वंश की अच्छी रियासत रही। पंजाब में तरनतारन के समीप खण्डूशाह, सांगोकी, शेरों, उसभा, झाली, गोलावाड़ा, मानकपुरा इस वंश के प्राचीन आर्यों की बस्तियां हैं। मध्यप्रदेश में यह खिरवार शब्द खिनवाल नाम पर प्रसिद्ध हुआ। उधर इस वंश के जाटों ने हरदा होशंगाबाद में जाकर छत्रपति शिवाजी और उनकी परम्परा की युद्धों में सहायता की थी, जिसके कारण इनको भोंसला बहादुर की उपाधि से सत्कृत किया गया। राव जगभरथ ने नरसिंहपुर नामक नगरी को बसाया। इनकी परम्परा देर तक इस नगरी पर स्वतन्त्र शासन करती रही। इस खिरवार गोत्र के हिन्दू एवं सिक्ख जाटों ने समान प्रतिष्ठा प्राप्त की।
External links
References
- ↑ http://narsinghpur.nic.in/history.htm
- ↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter XI, p. 1024, कविराज योगेन्द्र शास्त्री:'जाट इतिहास' पृ. 288
- ↑ Jat Samaj, Agra : April 2000
- ↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter XI,p.1024
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