Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Ek Nyaypriy Neta
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984चौधरी श्री गणपत हनुमानपुरा
भाई करणीराम बाल्यकाल से ही न्याय प्रिय थे, वे बचपन में अन्य बालकों की तरह चंचल प्रकृति के नहीं थे। किन्तु शान्त और गंभीर थे और ज्यों ज्यों वे बड़े हुये थे गुण धीरे-धीरे उनमें और विकसित होने लगे।
जाति, धर्म और अन्य तरह के भेदभावों से वे ऊपर थे। उनका सारा काम एक ग्रामीण करता था जो जाति से चमार था। उन दिनों छुआछूत का बोलबाला था दकियानूसी विचारों के लोग उनकी इस बात को पसन्द नहीं करते थे।
हनुमानपुरा सरदार हरलाल सिंह जी का गाँव था वहां दूलड़ जाटों की बड़ी बस्ती थी। गाँव के कृषकों ने आन्दोलन को आगे बढ़ाने में पूरी मदद दी थी जहा कहीं जागीरदारों के मुकाबले में कृषक शक्ति कमजोर पड़ती इस गाँव के लोग मदद करने पहुंच जाते थे। सरदार जी ने इस छोटे से गाँव को क्रांति का केन्द्र बिन्दु बना दिया था।
हनुमानपुरा के पास ही बीरम का बास है जिससे इसकी सीमा मिलती है। अक्सर सीमा संबन्धी विवाद हो जाता था जिसे प्रेमपूर्वक सलटाया जाता. कुछ भूमि इस प्रकार की दोनों गाँवों के बीच में थी जिस पर दोनों समान रूप से दावा कर रहे थे।
आगे चलकर प्रेमपूर्वक दूसरा समाधान निकल आया और हनुमानपुरा वालों ने इस भूमि को बीरम के बास वालों को सौंप दी। कुछ दिनों बाद दोनों गाँवों
में किसी बात को लेकर तनाव बढ़ गया। इस स्थिति में अपना अधिकार होते हुए भी उदारतापूर्वक दी गयी अपनी भूमि को हनुमानपुरा वाले वापस मांगने लगे।
बीरम के बास वालों ने इसका प्रतिवाद किया। वे पहले की तरह भूमि को अपना बता रहे थे। निदान यह तय हुआ कि इसका सलटारा पंच फैसले से कर दिया जावे। बीरम के बास वालों ने श्री विद्याधर जी कुल्हरि वकील को अपना पंच नियुक्त किया। उधर हनुमानपुरा वालों ने अपना पंच श्री करणीराम को चुना। श्री करणीराम का हनुमानपुरा वालों से पूरा सोहार्द और प्रेम था। इसी कारण उनको इस ग्राम का प्रतिनिधि बनाया गया था।
दोनों पंच एक स्थान पर मिले और समस्या पर विचार किया। बीरम के बास वालों के प्रतिनिधि ने अपने अधिकार की बात कहीं, जिसका जवाब श्री करणीराम ने दिया। वस्तुतः यह भूमि को स्वेच्छा से हनुमानपुरा वाले दे चुके हैं और दुबारा लेने का अब कोई औचित्य नहीं है, तो श्री करणीराम सोच में पड़ गये।
उन्होंने कुछ देर विचार किया और फिर बोले "ठीक है, मैं हनुमानपुरा वालों के प्रतिनिधि के रूप में यह भूमि बीरम के बास को देता हूँ। इस पर उनका अधिकार मानता हूँ, पंचायत समाप्त हो गई। दोनों प्रतिनिधि अपने-अपने गाँव लौट गये।
हनुमानपुरा लौटकर श्री करणीराम ने लोगों को बताया कि वह भूमि बीरम के बास वालों को दे आया हूँ। लोग उत्सुकता से फैसले का इन्तजार कर रहे थे। जब यह सुना तो सन्न रह गये। श्री करणीराम ने उन्हें समझाया कि दूसरे का प्रेम प्राप्त करने के लिए त्याग करना पड़ता है, अब हमारे और बीरम के बास वालों के बीच कोई तनाव नहीं है।
सारे गाँव वालों ने उनकी बात मानी और सहर्ष उनके निर्णय को स्वीकार किया। इस प्रकार श्री करणीराम जी ने अपनी न्यायप्रियता के कारण पारस्परिक मतभेद का अन्त कर दिया।
सारे जीवन भर वे इसी भावना को लेकर चलते रहे। जब कभी त्याग और बलिदान के अवसर आये, वे सबसे आगे रहे। इन्हीं गुणों का परिणाम था कि वे बराबर जनप्रिय होते गये, जहां कहीं भी वे जाते, लोग उनकी बात को मान लेते क्योंकि वे जानते थे, कि श्री करणीराम उनके भले के लिए ही यह बात कह रहे हैं।
"निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है, और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य होता है।"
स्वामी रामतीर्थ