Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Niswarth Garib Sevi

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

द्धितीय खण्ड - सम्मत्ति एवं संस्मरण

27. निस्वार्थ गरीब सेवी

सरदारसिंह पुत्र श्री करणीराम, भोजासर

श्री करणीराम जी गरीबों की सहायता को हर समय तत्पर रहते थे। उनके पेशे में (वकालत) अनेक ऐसे अवसर आये जब उन्होंने बिना फीस लिए उनके मुकदमें लड़े। कई बार किसी गरीब से नाम मात्र की ही फीस लेते थे। यही कारण था कि उनके पास गरीब लोगों के केस सबसे अधिक थे। प्राप्त जानकारी के अनुसार 13 मई 1952 को जब वे शहीद हुए उस समय उनके पास लगभग 400 केस थे जिनमें अधिकतर बिना पारिश्रमिक के थे। कई बार तो मुवक्किलों को किराये के लिए पैसे भी अपनी जेब से देने पड़ते थे।

एक बार मुण्दानियाँ का एक माली जमीनके झगड़े (जो शायद किसी ठाकुर के अधिकार कर लेने पर हुआ) के लिए उनको वकील किया। फीस के फलस्वरूप तय हुआ कि जमीन वापिस मिलने पर 120 रूपये दे दिये जायेंगे। केस में वह माली जीत गया। वकील जी तब फीस के लिए कहा माली ने दूसरे दिन सुबह का वायदा किया। दूसरे दिन वह 100 रूपये लेकर झुंझुनू आया। वकील जी ने कहा कि यह तो 20 रूपये कम है। इस पर वह माली बोला कि महाराज ये 100 रूपये ही बड़ी मुश्किल से लड़की के गहने रखकर लाया हूँ।

यह सुनते ही गरीबों के मसीहे ने कहा की जैसी तुम्हारी लड़की हे वैसी ही मेरी लड़की है इस प्रकार से तुमको पैसे नहीं लाने चाहिये थे। और उन्होंने तत्काल (120 रु.) 100 रु. में 20 रु. अपनी तरफ से मिलाकर देकर कहा कि 100 रु.


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में गहना छुड़ा लेना तथा 20 रु. के लड़की को मेरी तरफ से कपड़े करवा देना। यह सुनकर उस माली के आँखों में आसूं उमड़ पड़े। इस प्रकार के उदाहरण हमें बिरले ही मिलेंगे। वकील का पेशा ही ऐसा होता है, उसमें गरीब व धनवान सभी आते हैं ऐसे कौन फीस छोड़ सकता है। आज तो वकील येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक रूपये ऐंठने में लगे रहते हैं।

उदयपुरवाटी के गरीब लोग जिनमें अधिकतर माली, गूजर थे, इनके पास भोमियों के सताये हुए आते थे और उनको न्याय दिलाने के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। उन गरीबों के पास पूरी फीस तो कहां होती थी। उनके मकान पर जो व्यक्ति रात को रुकते थे, उनको वे खाना भी खिलाते थे। रात को खाना खाते वक्त प्रतिदिन वे आवाज लगाते थे कि जो साथ खाना नहीं लाया है वह आकर जैसी भी घर पर रोटी उपलब्ध है, खा ले। उन्हीं गरीबों के लिए संघर्ष करते हुए युवावस्था में अपना खून भी बहा दिया। जब तक जीवित रहे, वे गरीबों के लिए कार्य करते रहे और मौत भी गरीबों के नाम ही रही।

समानता (छुआछूत से दूर):

राजस्थान के गाँधी श्री करणीराम जी सबको बराबर समझते थे। उनके यहाँ गरीब, धनवान, हरिजन, बालक सभी को प्यार मिलता था। छुआछूत से परहेज का सबसे बड़ा उदाहरण है, उनके यहां काम करने वाला रेखा हरिजन। रेखाराम उनके पास सारे काम करता था। यह जरूर था कि यदि कभी कोई ब्राह्मण या दूसरा स्वर्ण व्यक्ति उनके पास जाता था तो वे यह कह देते थे कि मेरे यहां तो यह हरिजन काम करता है, यदि आपको एतराज हो तो अलग व्यवस्था करवा दें। लेकिन यह उनका प्रताप ही समझिये कि वहां सब उसे स्वीकार करते थे।

अधिकतर यह वह समय था जब लोग चमारों से घृणा करते थे। कई व्यक्ति अस्पृश्यता का नारा जरूर लगाते थे, लेकिन उनके घर पर कोई नौकर हरिजन नहीं था, लेकिन यहां पर कथनी और करनी में अन्तर नहीं था, सब समान


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थे। हमारे गाँव घर पर भी उस समय ऊंच-नीच की भावना व्याप्त थी, लेकिन झुंझुनू में हम भी वैसे ही हो जाते अर्थात उसी हरिजन से खान-पान करवाना, कभी वे यहां गाँव (भोजासर) या ननिहाल (अजाड़ी कलां) जाते थे तो भी वह हरिजन सेवा हेतु साथ रहता था तथा घर पर कोई विरोध नहीं करता था।

सीधा एवं सयंमित जीवन :

वे रहन सहन में भी सादे एवं संयम से रहते थे। मोटा पहनना उनका शौक था। वे कहा करते थे कि मेरे पास तो दो कमीज एवं पायजामे हैं। अधिक का करना भी क्या है। एक को धोने पर दूसरा पहन लेते है। अधिक कपड़े रखने का उनको शौक ही नहीं था, माना समय से पूर्व ही परिपक़्व हो गए हो। खान-पान भी उनका सात्विक था। मांस एवं मदिरा का प्रयोग वर्जित था। हरी सब्जी एवं दूध पर अधिक ध्यान देते थे। कभी-कभी जब अपने घर (भोजासर) आते थे तो बाजरे की रोटी एवं कढ़ी की विशेष मांग किया करते थे।

गांव में मेहमान एवं आने जाने वाले लोगों के लिए ईंटों की तिबारी लगभग 40 हाथ की उन्होंने स्वयं ही बनवाई, क्योंकि उस समय उनके पास आने जाने वाले लोग अधिक रहते थे और गाँव में जगह की (मकान) समस्या थी। उनके द्वारा बनवायी गयी कच्ची तिबारी आज भी सुरक्षित है। उस वक्त अधिकतर लोग पक्की बैठक बनाते थे,लेकिन उनको दिखावा पसन्द नहीं था।

जब वे क्षय रोग से पीड़ित हुए तो बड़े धैर्य के साथ उन्होंने दवा-दारु की। यह रोग असाध्य माना जाता था, लेकिन अपने संयमित जीवन से उन्होंने इस रोग को दूर कर लिया और बिल्कुल निरोग हो गए। अपने ननिहाल में करीब 6 महीने तक खेत में झोंपड़ी बनाकर रहे तथा वहां प्राकृतिक इलाज से निरोग होने में प्रयत्न शील रहे जैसे घूमना, व्यायाम, मिट्टी लेप आदि। जब कोई उनसे मिलने खेत में जाता था तो वे हवा के रुख से विपरीत बैठने को कहते क्योंकि क्षय रोग संक्रामक है। इतना ध्यान केवल स्पष्टवादी एवं समझदार व्यक्ति ही रख सकता है।

उनका जीवन पीड़ित लोगों के लिए समर्पित था। चाहे किसी भी धर्म का


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हो या किसी भी जाति हो उसके लिए न्याय हेतु प्रयत्नशील रहे। सन 1947 में हिन्दू मुस्लिम दंगे के समय उनके गाँव में कुछ परिवार मुसलमानों के थे फिर गाँव वालों के डर से उन्होंने छोड़ने को सोच ली, लेकिन जाते वक्त उन्होंने सोचा कि श्री करणीराम जी से मिल लें। करणीराम जी ने उनको अभयदान दिया। गाँव वालों को समझा बूझा कर उन्होंने शान्त कर दिया, उन मुसलमानों के दो परिवार आज भी गाँव में चैन से रह रहे हैं तथा श्री करणीराम जी को दुआ देते हैं।

वे दिखावे और आडम्बरों से भी दूर थे। आज से लगभग 32 वर्ष पहले प्रथम लड़के के जन्म पर दशोठन करने का रिवाज था। सम्वत 2006 फागुन सुदी छठ को पांच महीने के बाद मेरा जन्म हुआ। जब उनके पास सूचना पहुंची तो सूचना देने वाले नाई को अच्छा नेक दिया, लेकिन दशोठन के लिए उस समय भी उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया।

उसी समय उनकी धर्म पत्नी (मेरी माताजी बड़ी) ने जब दशोठन के लिए जोर दिया तो कहा कि मुझे तुम यह समझती हो कि खुशी नहीं हुई है लेकिन मैं दिखावे के विरुद्ध हूँ। जब यह बच्चा दो वर्ष का हो जायेगा तो अपन ही इसे पुत्रवत पालन पोषण करेंगे। वे तो उस समय तक नहीं रहे लेकिन मैं तीन वर्ष का होते ही बड़ी माता जी के पास रहा और पूर्ण शिक्षा उनके सरंक्षण में ही पूर्ण की। इसी प्रकार अपनी बहिन की शादी में भात लेकर गये, लेकिन रुपयों का दिखावा नहीं किया। जीवनपर्यन्त आडंबरो से दूर रहे।

उनकी निडरता भी सराहनीय थी जब भौमिये उनको मारने आ रहे थे, तो गूजर की लड़की ने चेतावनी दे दी फिर भी उठकर भागे नहीं। सीना तान कर उन्होंने अत्याचार का विरोध किया और भरी जवानी में हमें बिलखते छोड़ गये।

वे अधिक संचय के भी विरुद्ध थे। उनके छोटे भाई जब उनके पास जाते थे तो अक्सर पूछते थे कि घर पर दूध है, खाने को अनाज है, पैसे उधार तो नहीं है। उन सबका जवाब मिलने पर कहते तो फिर चाहिये भी क्या, बस मौज है। आदमी को अधिक लालसा नहीं रखनी चाहिये।


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एक बार उनके अनुज में किसी व्यक्ति से उधार लेकर किसी दूसरे व्यक्ति को दिला दिया। उसने समय पर पैसे अदा नहीं किए। वायदे के अनुसार उनके अनुज को तकरार मिलने लगा। हारकर उनको झुञ्झुनु पैसे लाने जाना पड़ा। करणीराम जी ने अपने अनुज को पैसे तो दे दिए लेकिन चेतावनी भी दी कि भविष्य में ऐसे झंझट में मत पड़ना। यदि घर पर जरूरत हो तो निसंकोच आ जाना लेकिन किसी से लेकर दूसरे को उधार देना, परेशानी मोल लेना ही है। व्यक्ति को दूसरों की सहायता स्वयं के पास होने पर ही करनी चाहिए। उनके अनुज ने इस बात को उसी दिन से गांठ बांध ली।

इस प्रकार उनका जीवन अनुकरणीय रहा। अपने जीवन काल में निस्वार्थ भाव से गरीबों की सेवा करते रहे और गरीबपरवर इस स्वार्थी संसार से गरीबों के हितार्थ ही कूच कर गये।

श्री करणीराम जी ने अपने जीवन को पूर्णरूपेण गरीब लोगों को न्याय दिलाने के पक्ष लगाने का दृढ़ निश्चय कर, राजनैतिक क्षेत्र में अपने आपको समर्पित किया। उदयपुरवाटी (पेंतीसा) में तत्कालीन समय में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ने वाला कोई उम्मीदवार तैयार नहीं हुआ, ऐसा समझा जाता था कि कोई भी व्यक्ति को कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में उस क्षेत्र में चुनाव लड़ना मौत को निमंत्रण देना है, परन्तु वे लौह कृषक वर्ग को मुक्ति दिलाने की हठ (लगन) घर की हुई थी, ऐसी सूरत में उन्होंने उस क्षेत्र में चुनाव लड़ने का बीड़ा उठाया तथा राम राज्य परिषद के उम्मीदवार ठा. देवी सिंह से हर खाई।

श्री करणीराम जी पराजय से निराश नहीं हुए बल्कि अधिक साहस प्राप्त किया।

जब उनके परिणाम की घोषणा हुई तो झुंझुनू विद्यार्थी भवन के विद्यार्थी जो उनकी जीत का आलिंगन करने बाहर खड़े थे हार के बाद भी उन्हें मिठाई बांटी और यह कहा कि हारे नहीं जीतें है, मुझे उस क्षेत्र में पीड़ित लोगों को रोशनी देने व उनके ऊपर ढाये जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष करना है। उन्होंने इस बात


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को सार्थक भी किया। छठे हिस्से का हक़ किसानों को दिलाने की न्याय संगत बात का पक्ष लेते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।

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"स्वाभिमान एक सात्विक सुगन्धित कमल पुष्प है, जिसके चारों और सद्गुणों के भ्र्मर सदैव गूंजती रहते हैं। ".... अज्ञात


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