Veerbhoomi Haryana/शिवजी के पुत्र और हरयाणा

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हरयाणा इतिहास ग्रन्थमाला का प्रथम मणि


वीरभूमि हरयाणा

(नाम और सीमा)


लेखक

श्री आचार्य भगवान् देव


शिवजी के पुत्र और हरयाणा

१५ 
मैं पहले लिख चुका हूँ कि हरयाणावासियों का सम्बन्ध श्रद्धा और प्रेम केवल शिवजी महाराज के साथ ही नहीं अपितु उनके सारे परिवार के साथ है । महादेव पार्वती की सैंकड़ों कथायें आज तक इस प्रदेश में प्रचलित हैं । कार्तिकेय, गणेश और नन्दी की मूर्त्तियों की पूजा महादेव के समान ही यहाँ की जनता पौराणिक काल में करती रही है । महर्षि दयानन्द जी महाराज की कृपा से इस प्रदेश में वैदिक सिद्धान्तों का आर्यसमाज के द्वारा प्रचार हुआ, तो यह मूर्तिपूजा का पाखण्ड कुछ न्यून हुआ । इसमें यहाँ के निवासियों का तो कोई दोष था ही नहीं, जब पौराणिक सम्प्रदाय शैव और वैष्णवों ने बौद्ध जैनों का अनुकरण करके मूर्त्तिपूजा चलाई और साथ ही उन्होंने यह बुद्धिमत्ता की कि इन्हीं के पूर्वज क्षत्रिय राजा शिव, विष्णु, राम और कृष्ण आदि की मूर्त्तियां बनाकर उनकी पूजा के लिये मन्दिरों में स्थापना कर दी । महाभारत के पश्‍चात् वेद के सच्चे उपदेशकों के अभाव में अन्ध परम्परा चल रही थी अतः जनता मूर्ति-पूजा के इस पौराणिक जाल में फँस गई । स्वार्थी और मूर्ख ब्राह्मणों ने अपनी पेट पूजा के लिए इसे चालू रखा । ब्राह्मण स्वयं तो डूबे ही साथ ही सब क्षत्रियादि वर्णों को भी ले डूबे । यहाँ तक कि लोग अपने सच्चे इतिहास को भी भूल गये, सभी महापुरुषों को अवतार और देवता बना डाला जिससे उन सबका ऐतिहासिक महत्त्व लुप्‍त हो गया । फिर बहुत समय

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के पश्‍चात् महर्षि दयानन्द ऐसे क्रान्तिकारी महापुरुष हुये जिन्होंने सभी विषयों में भारत का ही नहीं, सारे विश्व का ही पथ-प्रदर्शन किया । इतिहास का सच्चा स्वरूप भी महर्षि ने ही समझाया । सर्वप्रथम ये ही ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महादेव अर्थात् शिवजी को ऐतिहासिक पुरुष भी सिद्ध किया । इसी प्रकार पार्वती, लक्ष्मी, सीता और रुक्मिणी को रानियां बताया । आज तक भी यह तथ्य आधुनिक ऐतिहासिकों की समझ में नहीं आया है । कोई-कोई विचारशील विद्वान तो इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं । शिव, विष्णु, कार्त्तिकेय, गणेश, राम और कृष्ण तथा पार्वती, लक्ष्मी सीता और रुक्मिणी ये सभी महापुरुष और देवियां भारतीय इतिहास के उज्जवल रत्‍न हुये हैं ।


१६ 
पाठकगण ! आप भली-भाँति स्मरण रखें कि महर्षि अग्निष्वात के पुत्र शिव जी महाराज जो सर्वथा योग्य विद्वान, सच्चे क्षत्रिय और गणराज्य के कर्त्ता-धर्त्ता थे, जनता की प्रार्थना पर लोकहित की दृष्टि कैलाश पर्वत पर सर्वप्रथम गणराज्य के प्रधान वा राजा बने, और शिवजी महाराज ने अपने वाहन वृष वा नन्दी से अंकित चिह्न वाले ध्वजा को

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हिमालय की चोटी कैलाश पर्वत पर फहराया । अपने जीवनकाल में ही पर्वत से उतरकर आधुनिक हरद्वार वाले स्थान से काशी तक अपने गणराज्य का विस्तार किया । यह नन्दीध्वज इनके राज्य में सर्वत्र फहराने लगा । इस शुभ कार्य में शिवजी महाराज के दोनों पुत्रों कार्त्तिकेय और गणेश ने भी सहयोग दिया । अतः यह स्वाभाविक ही बात है कि शिवजी महाराज के समान ही हरयाणा प्रान्त निवासी उनके पुत्र कार्त्तिकेय और गणेश के प्रति प्रेम और श्रद्धा की भावना रखें । इसी कारण मन्दिरों में शिव की मूर्ति के साथ गणेश, कार्त्तिकेय, नन्दी और पार्वती आदि सबकी मूर्त्तियां मिलती हैं । इतना ही नहीं, इन महापुरुषों के ध्वज अंकित चिह्न नन्दी और मयूर आदि की भी पूजा करने लगे ।

१७ 
शिवजी के पुत्र देवताओं के सेनापति कुमार कार्त्तिकेय को जब गणराज्य की सेवा का कार्य सौंपा गया तो उसने सर्वप्रथम जहाँ आज हरद्वार बसा हुआ है इसके निकट ही 'मयूरपुर' नाम का एक दुर्ग बनाया और नगर बसाया, जिसे आजकल अज्ञानवश 'मायापुर' भी कहते हैं । क्योंकि इनके ध्वज का चिह्न मयूर था, अतः उस नगर व दुर्ग का नाम भी मयूरपुर

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ही रखा गया । कार्तिकेय का ध्वज चिह्न मयूर = शिखि = मोर था । जैसे (क) कार्त्तिकेयः = शिखिवाहनः (अमरकोष) (ख) कार्त्तिकेयः = मयूरकेतुः (संस्कृत शब्दार्थ - कौस्तुभ कोष) (ग) कार्त्तिकेयः = कृकवाकुध्वजः । (त्रिकाण्डशेष कोष), (घ) कार्त्तिकेयो मयूरकेतुः धर्मात्मा भूतेशः । (महाभारत वनपर्व २३२ अध्याय)।


इन उपर्युक्त प्रमाणों से सुप्रसिद्ध है कि कार्त्तिकेय का ध्वजचिह्न 'मयूर' (मोर) था । इन प्रमाणों से एक भाव और भी सुस्पष्ट है कि वाहन, केतु और ध्वज एक ही अर्थ को बतलाते हैं । संस्कृत में शिखि, मयूर और कृकवाकु से 'मोर' का ग्रहण होता है ।


जिस समय आर्य जाति के सर्वोच्च नेताओं शिव, ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णु आदि ने अपनी देवसेना का सेनानी (सेनापति) कार्त्तिकेय को चुना, तब सभी नेताओं ने कार्त्तिकेय को अपनी-अपनी भेंट दी । उसी समय सुपर्ण (गरुड़) (जो देवों में महायोद्धा था) ने कार्त्तिकेय को मोर चिह्न दिया । जैसे सुपर्णोऽस्य ददौ मयूरं चित्रबर्हिणम् । महाभारत अनुशासन पर्व ८६ अध्याय । गरुडो दयितं पुत्रं मयूरं चित्र बर्हिणम् ॥ महाभारत शल्य पर्व ४६ अध्याय । अर्थात्


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गरुड़ ने अपने पुत्रतुल्य मयूर पक्षी को कार्त्तिकेय को दिया । इसीलिये उसने मयूर को अपना ध्वजचिह्न बनाया ।


गरुड़ को भी सर्प (नाग) विनाशक कहा है और मोर भी सर्प नाश करने वाला है । अतः गरुड़ को मोर अपने पुत्रतुल्य था । इसीलिये अपनी सर्वप्रिय भेंट रंग-बिरंगे पंखों वाले पक्षी की भेंट कार्तिकेय को दी । मोर के पंख (बीच का चान्द भाग) अत्यन्त सर्प विनाशक पदार्थ है । आज भी हरयाणा में सर्प काटने पर मोर का चन्दा बांधा जाता है ।


इस प्रकार इस महापुरुष ने रोहितक (रोहतक) आदि बड़े-बड़े अनेक नगर इस प्रान्त में बसाये । यहां के वासियों ने भी अपने इस महापुरुष को इतना सम्मान दिया कि यहां के यौधेयों ने अपने इस आदर्श पुरुष कार्तिकेय के ध्वज-चिह्न मयूर के नाम पर ही अपना नाम मयूरक रख लिया जो कि इन यौधेयों का पर्यायवाची ही बन गया । यौधेयों की सन्तान हरयाणा-वासियों ने अपने गणराज्य का पक्षी मयूर को मानकर सदैव इसकी रक्षा की । मुसलमानों और अंग्रेजों की पराधीनता के समय भी हरयाणा के वीरों ने कभी


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मयूर (मोर) को नहीं मारने दिया । आजकल भी उस परम्परा को इन वीरों ने पूर्ववत् चालू रखा है ।


आज तो सौभाग्य और हर्ष की बात है कि हमारी भारतीय सरकार ने भी मयूर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करके इसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया है । हरयाणे के वीर यौधेयों का मयूर सारे भारतीय गणतन्त्र का राष्ट्रीय पक्षी होकर अमर हो गया है । यौधेयों के इस मयूर से उनकी सन्तान का तो इतना स्नेह रहा है कि इस प्रदेश का एक नाम महाभारत के समय "मयूरभूमि" ही था । जैसा कि महाभारत सभापर्व में "मयूरभूमिं च बहुधान्यकं" लिखा है । हरयाणे या यौधेय प्रान्त की सीमा को बताने वाला मयूर पक्षी ही था । अर्थात् जहां मोर नहीं मारा जाता था, वही यौधेय भूमि हरयाणा थी । इस मयूर के प्रेम में इस प्रदेश के निवासियों ने अपने अनेक ग्रामों और नगरों के नाम भी रखे जैसे - मोरखेड़ी, मोरवाला, मोरुवा, मोरवाना (नरवाना), मोरस्थल (मोरथल) इत्यादि । "यौधेयों का मयूर" नामक पुस्तक में इस पर और अधिक विस्तार से लिखा जायेगा ।


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एक बार सरदार पटेल पं० इन्द्र जी विद्यावाचस्पति के साथ इस ओर हरयाणा प्रान्त में पधारे थे । जब वे देहली प्रदेश के 'अलीपुर' ग्राम के निकट से सड़क पर जा रहे थे, वहां मोरों को देखकर कहने लगे -


"मोरवी में भी मोर इसी प्रकार निर्भय होकर विचरते हैं ।" फिर थोड़ी देर रुक कर सरदार पटेल बोले - "स्वामी दयानन्द ने मोरवी में जन्म लिया था । जिस प्रदेश में भारत की जागृति के पिता ने जन्म लिया था, उसके सुन्दर स्थानों में इससे भी अधिक दरिद्रता (गरीबी) पाई जाती है । ऐसा सुन्दर देश और ऐसी भयंकर दरिद्रता यह हमारी दासता का ही परिणाम है ।" "इन शब्दों को कहते समय सरदार का गला भर आया था और आँखों से पानी झलक रहा था । मैंने सरदार के उन गीले नेत्रों में से झलकते हुये एक भावुक और अत्यन्त कोमल हृदय को प्रत्यक्ष रूप में देख लिया ।" यह उद्धरण पं० इन्द्र जी की लिखी "मैं जिनका ऋणी हूँ" पुस्तक का है ।

इस घटना से पाठक सरदार पटेल की महत्ता को समझ ही गये । साथ-साथ यह भी भली-भांति ज्ञात हो गया कि हरयाणे के सभी भागों में मोर


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निश्चिन्तता से विचरते हैं । इस क्षत्रियों के प्रदेश में कोई मोर को मार नहीं सकता । इस प्रकार शिव पुत्र कार्त्तिकेय तथा उनके ध्वज-चिह्न मयूर से हरयाणा-वासियों को अत्यन्त प्रेम है ।


इसी प्रकार सैनिक प्रशिक्षण देने वाले महादेव के द्वितीय पुत्र गणेश को भी विध्न निवारक देवता मानकर पौराणिक काल में यहां के लोग सभी शुभ अवसरों पर उसकी पूजा करते रहे हैं । ये सब बातें इसके लिये प्रमाण हैं कि शिवजी महाराज के साथ जो सम्बन्ध, प्रेम वा श्रद्धा हरयाणा वासियों की है, वह इतनी मात्रा में विष्णु, राम, कृष्णादि किसी के भी प्रति नहीं है । इससे यही सिद्ध होता है कि इस ऐतिहासिक महापुरुष शिवजी महाराज के कारण ही इस प्रदेश का नाम हरयाणा है । हरयाणा वासियों की अपने पूर्वज गणराज्य के आदि संस्थापक के प्रति जो श्रद्धा और प्रेम था, उसी ने विवश कर दिया कि अपने इस पूर्वज को सदा आदर्श रूप में मानते हुये इस प्रिय नाम हर पर ही अपने प्रान्त का नाम हरयाणा रखें । इसलिये युक्तियों और प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि वैदिक संज्ञा हरयाणा इस प्रदेश के लिये सार्थक सिद्ध होती है और शिवजी महाराज के

वीरभूमि हरयाणा,पृष्ठान्त-80



नाम 'हर' के कारण ऐतिहासिक नाम हरयाणा होने से इस पर और चार चांद लग जाते हैं । इसलिये सब प्रकार से 'हरयाणा' ही इस प्रदेश का नाम युक्ति-संगत है और वैदिक संज्ञा 'हरयाणा' पर हर (शिवजी) के कारण ऐतिहासिक मोहर लग गई है ।


विनायकः कर्मविघ्नसिद्धयर्थं विनियोजितः

गणानामाधिपत्य च रुद्रेण ब्रह्मणा च

- याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय २७१ श्‍लोक


अर्था‍त् गणेश को उसके पिता महादेव और भारतीय प्रथम संविधान के निर्माता ब्रह्मा ने गणों = खापों का अधिपति = विनायक = गणेश को नियुक्त किया, जिसका कार्य जनता में होने वाले आन्तरिक विघ्नों का नाश करना था ।

वीरभूमि हरयाणा,पृष्ठान्त-81




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