Veerbhoomi Haryana/हरयाणे का क्षेत्र विस्तार

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हरयाणा इतिहास ग्रन्थमाला का प्रथम मणि


वीरभूमि हरयाणा

(नाम और सीमा)

लेखक

श्री आचार्य भगवान् देव


हरयाणे का क्षेत्र विस्तार

Map of Ancient Haryana


हरयाणा प्रदेश की सीमायें भिन्न-भिन्न राज्यों और भिन्न-भिन्न कालों में सदैव घटती-बढ़ती रहीं हैं । किसी प्राचीन इतिहास में इसकी सीमायें निर्धारित नहीं की गई हैं । मध्य युग में हरयाणा नामक देश का जो वर्णन मिलता है, उससे एक बात तो निश्चित रूप से जान पड़ती है कि स्वर्ग सन्निभ यह हरयाणा प्रदेश इन्द्रप्रस्थ अर्थात् दिल्ली नगरी को अपने परिधि में समेटे हुये रहा है । किन्तु दिल्ली के चारों ओर हरयाणे की परिधि किस समय में कितनी लम्बी-चौड़ी थी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । तोमर आदि से सम्बन्धित यह दिल्ली नगरी हरयाणा प्रदेश की राजधानी रही है, इससे सब परिचित हैं । वैसे दिल्ली को हरयाणे का केन्द्र माना जाता है । यह लोकोक्ति भी चली आती है कि "दिल्ली दीप हरयाणा" । इससे आधुनिक हरयाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनेक जिले हरयाणे के अन्तर्गत रहे हैं । प्राचीन कुरु तथा शूरसेन प्रदेश भी इसी में सम्मिलित थे ।


१.
डा० ग्रीयरसन दिल्ली के मोहल्लों की भाषा को बांगरू भाषा का नाम देकर इसको हरयाणे के अन्तर्गत सिद्ध करते हैं । "अखण्ड प्रकाश" पुस्तक में तथा जिला हिसार की सन् १८६३ ई० की 'बन्दोबस्त रिपोर्ट' में हरयाणे की पूर्वी और पश्चिमी सीमायें इस प्रकार लिखी हैं :


"परालम्ब (सम्भवतः हवेली पालम) जिसके पूर्व में है और कुसुम्भ ग्राम (पटियाला क्षेत्र का 'कोहन' ग्राम) जिसके पश्चिम में है वह विशाल भूभाग हरिबाणक-हरियाना है ।"

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-82



इसी बन्दोबस्त रिपोर्ट में हरयाणे की सीमायें इस प्रकार दी हैं


"पूर्व में झज्जरबहादुरगढ़ (जिला रोहतक) और पश्चिम में अगरोहा व भूना (हिसार), उत्तर में जीन्दसफीदों का क्षेत्र - जीन्द राज्य व कोहन का क्षेत्र, पटियाला राज्य और दक्षिण में दादरी प्रान्त" ।


हरयाणा प्रदेश की सीमाओं का यह निर्धारण सर्वथा मिथ्या और भ्रममूलक है । "हमारा राजस्थान" पुस्तक के लेखक श्री पृथ्वीसिंह मेहता हरयाणे की सीमा को सिरसा से पालम तक फैला मानते हैं । वह लिखते हैं कि - "सिरसा से पालम तक उत्तर-पूर्वी सीमा पर हरयाणे की बांगरू बोली है ।"


डा० ग्रीयरसन ने अपने 'भाषा सर्वे' में हरयाणवी बांगरू बोली का मानचित्र देते हुए गुड़गांव जिले के फरीदाबादबल्लभगढ़ स्थानों को भी इसमें सम्मिलित किया है । कुछ लोग वर्तमान जिला रोहतक, दादरी, भिवानी, हांसी, हिसार, सिरसा, अगरोहा, टोहाना, कैथल, करनाल, पानीपत और दिल्ली को भाषा के आधार पर हरयाणा के अन्तर्गत मानते हैं ।


बन्दोबस्त रिपोर्ट जिला हिसार में हरयाणे की लम्बाई बहादुरगढ़ से अगरोहा तक पूर्व पश्चिम

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६५ कोस अर्थात् १०४ मील, और चौड़ाई जीन्द से दादरी तक उत्तर दक्षिण ५७ मील दी हुई है । इस आधार से हरयाणे का क्षेत्रफल केवल पाँच हजार नौ सौ अट्ठाईस (५९२८) वर्ग मील बैठता है । किन्तु भाषा के रूप और शैली को आधार मानकर हरयाणे का भाषाई क्षेत्र स्थापित करें तो इसका क्षेत्रफल इससे कई गुना अधिक होगा । भाषा के विषय में तो सामान्य लोगों में यह धारणा है कि - 'बारह कोस (१८ मील) पर पानी और वाणी दोनों बदल जाते हैं ।' इस दृष्टि से तो हरयाणा ही क्या, कोई भी प्रान्त १२ कोस अर्थात् १८ मील से अधिक लम्बा-चौड़ा नहीं हो सकता । अतः भाषा की दृष्टि से किसी प्रान्त की सीमायें निर्धारित नहीं की जा सकतीं । जैसे आजकल संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) कितना विशाल है । इसमें अनेक भाषायें एवं बोलियां बोली जाती हैं । इसी प्रकार राजस्थान भी बड़ा विशाल प्रदेश है और उसमें भी अनेक प्रकार की भाषा व बोलियां बोली जाती हैं । इन प्रान्तों की नाईं हरयाणा प्रान्त भी बहुत विशाल रहा है ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-84



२.
हरयाणा प्रदेश की सीमायें शतद्रु से लेकर चम्बल की घाटी तक और गंगानगर से लेकर एटा, बरेली और देहरादून तक रहीं । सभी प्रान्तों की सीमायें शासन एवं काल-क्रम से घटती बढ़ती व परिवर्तित होती रहती हैं । जैसे सन् १८५७ से पूर्व दिल्ली प्रान्त बहुत विशाल प्रान्त था । आधुनिक हरयाणा प्रान्त तथा आगरा आदि उत्तर प्रदेश के अनेक जिले इसी में सम्मिलित थे । दिल्ली से चारों ओर डेढ़ सौ मील दूरी तक का क्षेत्र हरयाणे के अन्दर आ जाता था । पश्चिम दिशा में तो इस प्रदेश की सीमायें इससे भी अधिक दूर तक थीं ।


इस प्रदेश के शूरवीर यौधेय शतद्रु (सतलुज नदी के दोनों काठों (तटों) पर बसते थे, जिनके भय से सिकन्दर को भी पीछे लौटना पड़ा था और भारत की आकांक्षा उसके मन में ही रह गई थी । जिसे वह हताश अवस्था में ही साथ लेकर मौत के मुँह में चला गया । बहावलपुर का जोहियावार प्रान्त भी इसी प्रदेश का अंग रहा है । राजस्थान के कितने ही भागों में भी यौधेयों का राज्य हो गया था, यह रुद्रदामन के शिलालेख से स्पष्ट सिद्ध है ।

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इस विषय में "हमारा राजस्थान" पुस्तक के लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार माननीय श्री पृथ्वीसिंह जी मेहता विद्यालंकार लिखते हैं –

"राजस्थान का उत्तर-पूर्वी प्रदेश - शेखावाटी मेवात प्राचीन यौधेय देश का एक भाग था । प्राचीन अनेक गणतन्त्री जनपदों और नगर गणों की राजधानियों के खंडहर उस प्रदेश में फैले हैं । कौटिल्य ने, जैसा कि ऊपर देख चुके हैं, इन गणों को वार्ताशस्‍त्रोपजीवी कहा है अर्थात् वहां के निवासी उस समय से वार्ता अर्थात् कृषि वाणिज्य व्यापार में और समय आने पर शस्‍त्र व्यापार में भी कुशल चले आते थे । गणतंत्रों के पतन और सामन्ततन्त्र के उदय के साथ उन गणों के मुखिया घरानों की गिनती तो राजन्यों, राजपूतों - ठाकुरों या कुलीन ब्राह्मणों में होने लगी और सर्वसाधारण गृहपति व्यापारी या महाजन वर्ग में तथा कृषक जनता - जाटों, गूजरों, मालियों आदि के रूप में पलट गई । राजस्थान की अग्रवाल (अमरोहा ग्राम विनिर्गत, अगरोहा गांव से निकले), खंडेलवाल (खंडिला ग्राम विनिर्गत, खंडेला गांव से निकले) रस्तोगी या रोहतगी (रोहीतक अर्थात् रोहतक से निकले), धूसर, धाकड़, धर्कट आदि-आदि अनेक व्यापारिक जातियों का मूल अभिजन इस प्रकार इसी प्रदेश में या उसके चौगिर्द पाया जाता है ।

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व्यापारियों के अतिरिक्त अनेक ऊँचे दर्जे के राजव्यवहारिक (मुत्सछी) और राजनेताओं (Statesman) को भी जन्म देने का श्रेय इस भूमि को है । महाराणा प्रताप के प्रसिद्ध स्वनामधन्य मन्त्री भामाशाह और ताराचन्द के पिता कावड़िया ओसवाल महता भारमल महाराणा सांगा के बुलाने पर रणथम्भौर के किलेदार के रूप में इसी प्रदेश (अलवर शहर) से उठकर चित्तौड़ गया था । शेरशाह के सहकारी और अकबर के प्रसिद्ध मुसाहब, वर्तमान जमीन की पैमाइश और बन्दोबस्त की प्रणाली के प्रवर्तक, राजा टोडरमल की जन्म-भूमि भी अलवर के पच्छिम में वैराट के आस-पास ही कहीं बतलाई जाती है । इसी प्रकार का मेवात का रहने वाला एक महापुरुष उस युग में हेमू नाम का एक धूसर बनिया था ।"(हमारा राजस्थान पृष्ट ९५, ९६)


इससे हरयाणा की सीमा तथा महत्ता पर पर्याप्‍त प्रकाश पड़ता है । शेखावाटी, अलवर, मेवात सब हरयाणे के भाग थे । इस वीर भूमि ने बहुत से महापुरुषों को जन्म दिया है ।


इसी विषय में हरयाणा क्षेत्र के नेता प्रसिद्ध विद्वान श्री जगदेव सिंह जी सिद्धान्ती, एम. पी. अपने


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लेख "आर्य समाज और जिला रोहतक" में निम्न प्रकार से लिखते हैं ।

"राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भारत राष्ट्र की सीमाओं की भाँति हरयाणा की सीमाओं में भी फेर-बदल होता रहा है । सामान्य रूप से हरयाणा की सीमा यह रही ।
उत्तर में - सतलुज नदी ।
पूर्व में - हिमालय की तराई से बरेली तक ।
दक्षिण में - चम्बल नदी की घाटियां ।
पश्चिम में - गंगानगर से ग्वालियर तक ।
सन् १८५७ तक यमुना नदी के दोनों ओर के प्रदेश हरयाणा में सम्मिलित थे, मेरठ, आगरा और रुहेलखण्ड कमिश्‍नरियां और देहली भी इसी में शामिल थे । अब भी देहली, गुड़गांव, रोहतक, करनाल, अम्बाला का एक बड़ा भाग, जीन्द, नरवाना, महेन्द्रगढ़, हिसार और फाजिल्का हरयाणा क्षेत्र में माने जाते हैं ।" (आर्य समाज और रोहतक) (डिस्ट्रिक्ट गजटयरार्थ)
३.
इधर लुधियाना के निकट का सुनेत (सौनेत्र) का उजड़ा हुआ प्राचीन दुर्ग भी यह साक्षी दे रहा है कि यौधेय पंजाब में भी बहुत दूर तक बढ़े हुये

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-88


थे । इस प्रान्त के अन्य प्राचीन उजड़-खेड़ों (दुर्गों) की भांति हमें इस सुनेत के खेड़े से भी पर्याप्‍त संख्या में यौधेयों की भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्रायें (सिक्के) और उनके ठप्पे (moulds) जिन्हें सामान्य भाषा में साँचा कहा जाता है, मिले हैं, जो कि "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय गुरुकुल झज्जर" में विद्यमान हैं । सुनेत में भी यौधेयों की एक बड़ी विशाल टकसाल थी । मुद्रा एवं उनके ठप्पों के अतिरिक्त हमें सुनेत से मिट्टी की मोहरें भी पर्याप्‍त संख्या में उपलब्ध हुई हैं, जिन पर ब्राह्मी अक्षरों में लेख हैं । इसके लिए उपर्युक्त सामग्री प्रत्यक्ष प्रमाण है कि यह क्षेत्र यौधेयों के अधिकार में पर्याप्‍त समय तक और बहुत पीछे तक रहा है । क्योंकि यहाँ से जो ठप्पे प्राप्‍त हुए हैं, उनमें यौधेयों की अन्तिम मुद्रा "यौधेय गणस्य जय" के ठप्पे पर्याप्‍त संख्या में प्राप्‍त हुये हैं ।


४.
इसी प्रकार सहारनपुर जिले से प्राप्‍त मुद्रायें, जो एक अंग्रेज पुरातत्त्वविद को खुदाई करवाने पर बेहट (वृहद्हट) में मिली हैं । बेहट सहारनपुर से २० मील आगे चकरोता राजमार्ग (रोड) पर स्थित है और पर्वत के अत्यन्त निकट है । यौधेयों की मुद्राओं

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का बेहट में मिलना स्पष्ट सिद्ध करता है कि यौधेयों का राज्य पूर्व में भी बहुत दूर तक फैला हुआ था । इतना ही नहीं, यौधेयों की मुद्रायें शतद्रु से लेकर चर्मणवती (चम्बल) की घाटी तक मिलती हैं ।

हरयाणा के हृदय सम्राट् हरयाणा केसरी युवक नेता प्रो. शेरसिंह एम. ए. अपने लेख "महा-दिल्ली (विशाल हरयाणा क्यों ?" में लिखते हैं "महाभारत काल में जब इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई, तब से सन् १८५८ तक दिल्ली के चारों ओर का क्षेत्र शासन की दृष्टि से एक रहा है । १८५८ में अंग्रेज ने इसे कई टुकड़ों में बांट दिया, कुछ क्षेत्र तो उन रियासतों को इनाम के रूप में दे दिये जिन्होंने १८५७ की स्वतन्त्रता की लड़ाई में देश के विरुद्ध अंग्रेज का साथ दिया, और यमुना के पश्चिम का बहुत सा भाग पंजाब के साथ जोड़ दिया । इस प्रदेश का नाम चाहे बदलता रहा हो, परन्तु इसका शासन एक रहा और दिल्ली उसकी राजधानी रही । सर्वखाप पंचायत का प्रायः ७०० वर्ष का हस्तलिखित इतिहास जो शोरों ग्राम जिला मुजफ्फरनगर के एक परिवार ने परम्परा से सुरक्षित रखा है, इस क्षेत्र की सीमायें दिल्ली के चारों ओर १५० मील तक बतलाता है । इसी क्षेत्र में बसने वाली सभी बिरादरियों के सम्मिलित पंचायती राज्य का विवरण उस इतिहास

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में मिलता है । जिसे हम आज यू. पी. कहते हैं, उसका निर्माण तो १८७७ में हुआ, जबकि उत्तर पश्चिमी प्रदेश (जिसे आज हम महादिल्ली वा विशाल हरयाणा कहते हैं) में से १८५८ में कुछ भाग निकाल कर पंजाब में तथा कुछ रियासतों में मिला दिये गये, और १८७७ में उस बचे हुये प्रदेश अवध को मिला दिया गया । १९०१ में इसका नाम अंग्रेजों ने संयुक्त प्रान्त (आगरा व अवध) रखा । तभी से अंग्रेजी में इसे United Province (U.P.) कहने लगे । यह स्पष्ट है कि हमारी मांग पंजाब अथवा यू. पी. को तोड़ने की नहीं अपितु जिन क्षेत्रों को अंग्रेज ने शासन की सुविधा के लिये तथा देश-भक्तों को सजा देने तथा देश-द्रोहियों को इनाम देने के लिये तोड़ दिया था, आज स्वराज्य प्राप्‍ति के पश्चात् उस सजा को समाप्‍त करके उन क्षेत्रों को जो हजारों वर्षों से इकट्ठे रहे हैं, जोड़ने मात्र की है । " (पत्रिका 'महादिल्ली - विशाल हरयाणा क्यों?' १ पृष्ठ, लेखक प्रो. शेरसिंह एम.ए., मन्त्री, विशाल हरयाणा परिषद्)

५.
-इसी प्रकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आगरा कमिश्‍नरी जिसमें मथुरा, अलीगढ़, आगरा, मैनपुरी और एटा जिले सम्मिलित हैं ।

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-91


मेरठ कमिश्‍नरी के देहरादून, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और बुलन्दशहर जिले हैं ।
रुहेलखण्ड, बरेली, बिजनौर, पीलीभीत, बदायूँ, मुरादाबाद, शाहजहांपुर और जिला रामपुर ।
अम्बाला कमिश्‍नरी के अन्तर्गत गुड़गांव, रोहतक, करनाल, हिसार, अम्बाला और रोपड़ (तहसीलों को छोड़कर), महेन्द्रगढ़ जिला, और जीन्द, नरवाना तथा संगरूर जिले की तहसीलें सम्मिलित हैं ।
राजस्थान के अलवर, भरतपुर, धौलपुर, झुन्झनूं और गंगानगर जिले सम्मिलित हैं ।
दिल्ली राज्य तो इस प्रान्त का हृदय ही है । इस प्रकार उपर्युक्त यह सब प्रदेश हरयाणे के अन्तर्गत आते हैं । इसमें कुछ थोड़ा बहुत मतभेद हो सकता है ।


६.
इस बात से हरयाणे की सीमाओं पर भली-भांति प्रकाश पड़ता है कि जो मांग महादिल्ली वा विशाल हरयाणा के पुनर्गठन की अनेक नेता भिन्न-भिन्न समयों में करते रहे हैं । स्वर्गीय लाला देशबन्धु जी गुप्‍त, जो आर्यसमाज तथा कांग्रेस के गण्य-मान्य व्यक्ति थे । 'दिल्ली नगर निगम' द्वारा लाला जी की अजमेरी गेट के चौराहे पर मूर्ति (स्टेचु) की स्थापना सिद्ध करती है कि वह भारत के उच्च नेताओं में से

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-92


एक व्यक्ति थे । माननीय नेता श्री देशबन्धु जी गुप्‍त ने 'प्रेस कान्फ्रेंस' में इस विषय में अपने विचार प्रकट किये थे जो ९ दिसम्बर १९३२ के 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में छपे थे । उनके विचार निम्न हैं –
"भारतवर्ष के पूरे इतिहास में शिमले का जिला छोड़कर जो कि अम्बाला डिवीजन का क्षेत्र है, वह कभी भी पंजाब का अंग नहीं था । यह हर प्रकार से पंजाब से भिन्न है । पंजाब के बेढ़ंगे विकास के कारण इसे प्रान्त का दुमछल्ला बना दिया । यह सम्बन्ध अनमेल सिद्ध हुआ । भाषा, संस्कृति, इतिहास, परम्परा तथा रहने-सहने के ढंग में तथा जातीय रूप से इस खंड और शेष पंजाब के बीच बड़ा अन्तर रहा है । अतः यह प्रदेश प्रान्त के शेष अंगों से घुल-मिल न सका और कई प्रकार से इसे हानि उठानी पड़ी । दूर पड़ा हुआ प्रदेश होने के कारण प्रान्त की आबादी के अधिक उन्नत भाग इस प्रदेश को अपना ही स्वार्थ निकालने और लाभ उठाने के लिए प्रयोग करते रहे । सैनिकों और कृषकों की जितना महत्वपूर्ण भाग इस खण्ड के विकास के लिए प्रान्तीय सरकार को देना चाहिए था वह न दिया गया । इस प्रकार इस खण्ड

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की उन्नति पिछड़ गई । और फिर हरयाणा जो लगभग अम्बाला डिवीजन का प्रदेश है, वहां के लोगों का अधिक खिंचाव यमुना के इस पार रहने वाले लोगों की ओर है । उनके साथ गणतन्त्रीय, आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के बन्धनों के अतिरिक्त उनके औद्योगिक तथा कृषि व्यवसाय सम्बन्धी हित भी एक हैं । इन कारणों से, और यमुना पार अपने भाई बन्धुओं के साथ मिलाप करने के लिये, अम्बाला, आगरा, मेरठ, रुहेलखण्ड डिवीजनों तथा दिल्ली प्रान्त की पुनः बांट करने की मांग करते रहे हैं ।
"लगभग यही दशा उत्तर प्रदेश के आगरा, मेरठ और रुहेलखण्ड डिवीजनों की है । उनका दिल्ली के साथ सीधा सम्पर्क विच्छेद हुये बहुत थोड़ा सा ही समय बीता है । वरन् वह तो हिन्दुस्तान कहलाने वाले प्रान्त का ही, जिसकी राजधानी दिल्ली अथवा आगरा रही, अंग थे । प्रायः सभी बातों में इन डिवीजनों के लोग दिल्ली प्रान्त और अम्बाला डिवीजनों के लोगों से सम्बन्धित हैं ।
हिन्दुओं - जाटों, तगों, अहीरों, गूजरों, तालखारियों, पठानों, मुसलमानों, राजपूतों और रोहिलों की

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लगभग दो करोड़ की जनसंख्या जो कि एक शासन प्रबन्ध के आधीन थे और जिनकी भाषा और संस्कृति एक थी, परन्तु अब तीन सूबों में बिखर गये हैं । उनका पुनर्मिलन होने से उनकी एक सरकार होगी और उनका प्रदेश में सौराज्य होगा तथा वे दूसरे प्रदेशों की भिन्न-भिन्न बातों के प्रभाव से बचे रहेंगे, और इस प्रकार वे अपनी एक ही संस्कृति और एक सम्पन्न प्रदेश का पुनर्निर्माण कर सकेंगे ।"
७.
इससे पाठक गण भली भाँति समझ गये होंगे कि हरयाणा प्रान्त १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्य युद्ध तक बहुत बड़ा विशाल प्रान्त रहा है । जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार किया तो सन् १८५८ में इसको अनेक खंडों में विभाजित कर डाला । क्योंकि १८५७ की क्रान्ति में हरयाणे की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़-चढ़कर भाग लिया था और अपने संगठन से उनको दांतों चने चबाये थे । यह संगठन अंग्रेजों को फूटी आँख नहीं सुहाया और उन्होंने अपनी प्रसिद्ध नीति "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and Rule) के अनुसार इस देशभक्त हरयाणा प्रान्त के खंड-खंड करके इसे विभिन्न प्रान्तों में मिला दिया । इस संगठन को विनष्ट

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करने के उद्देश्य से ही उन्होंने इस प्रान्त को खण्डों में विभाजित करके अन्य प्रान्तों में मिला दिया ।
यह बटवारा (पृथकीकरण) हरयाणा प्रान्त के लोगों को जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह वा क्रान्ति की थी, के फलस्वरूप दण्ड देने के लिये किया गया था । क्योंकि हरयाणे की जनता अनेक कारणों से और अनेक प्रकार के पारस्परिक सम्बन्धों से परस्पर एकता की जंजीर में गुथी हुई थी । पृथक्-पृथक् करने का अभिप्राय हरयाणे की जनता के साहस और राज्य के प्रति विरोध की भावना को कुचलना था । जो स्वतन्त्रता का प्रेम सहस्रों पीढ़ियों से यहाँ की जनता की रगों में ठाठें मार रहा था, ऐसा किये बिना अंगरेजों को उसकी समाप्‍ति सम्भव नहीं दिखाई दे रही थी । इस स्वातन्त्र्य प्रेम को समाप्‍त किये बिना अंग्रेज निश्‍चिन्त होकर यहाँ शान्ति से राज्य नहीं कर सकते थे । इसी कारण जो प्रान्त सहस्रों वर्षों से, जो प्रान्त रक्त अर्थात् रिश्ते नाते के सम्बन्ध से भाषा, भोजन, वेशभूषा, भाव, ऐतिहासिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में संगठन की माला में सब प्रकार से गुथा हुआ था, अंग्रेजों ने १८५७ की क्रान्ति का बदला लेने के लिए इस प्रान्त को

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अनेक खण्डों में विभाजित करके इस संगठन की सुदृढ़ माला के मनकों को बखेरने का प्रयत्‍न किया । हरयाणा निवासियों की भावनाओं और गणराज्य प्रेम के आदर्श को समाप्‍त करना ही उनका उद्देश्य था ।
अंग्रेजों ने यह सब कुछ किया, किन्तु यहाँ के निवासियों में पञ्चायती राज्य अपने सभी ग्रामों में आन्तरिक प्रबन्ध के लिये चलता ही रहा । जो गणराज्य प्रेम इनको अपने पूर्वज महादेव आदि से मिला था, वह आज सैंकड़ों वर्षों की विदेशी दासता के पश्चात् भी हरयाणा वासियों में ज्यों का त्यों विद्यमान है । भले ही प्रांत खंडों में विभाजित हो गया, सरकार ने नकली सीमायें भी निर्धारित कर दीं, किन्तु यहां के स्वाधीनता प्रेमी वीरों के हृदय नहीं जीते जा सके । यहां के लोग सदैव पुनर्मिलन के लिये प्रयास करते रहे । इसलिये कभी महादेहली - वृहत्तर दिल्ली, "विशाल हरयाणा" आदि की माँग समय पड़ने पर जनता करती रही । जैसा कि मैं स्वर्गीय लाला देशबन्धु गुप्‍त के शब्दों में पाठकों की सेवा में निवेदन कर चुका हूँ ।
८.
अंग्रेजों ने इस प्रान्त को किस प्रकार खण्ड-खण्ड करके विभाजित किया, यह पाठकों के ज्ञानार्थ

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-97



उल्लेखनीय है । सन् १८५८ ई० से पूर्व उत्तर प्रदेश के आधुनिक मेरठ तथा आगरा डिवीजनों का प्रदेश, पंजाब के अम्बाला डिवीजन अर्थात् सतलुज नदी तक का प्रदेश उत्तर-सीमाप्रान्त में था । इसमें अलीगढ़, मथुरा, आगरा, मैनपुरी और एटा ये आगरा कमिश्नरी के जिले । रोहतक, हिसार, गुड़गांवा, करनाल और अम्बाला (शिमला जिला, रोपड़ और खरड़ तहसील छोड़कर), महेन्द्रगढ़ जिला, जींद और नरवाना, ये सब उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त कहलाता था ।
कोटपुतली जो आजकल राजस्थान में है, वह भी इसी के अन्तर्गत थी । दिल्ली नगर इन दोनों को मिलाकर केन्द्र में राजधानी के रूप में था । उस समय उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त वाला प्रदेश ही हरयाणा कहलाता था । १८५८ में जब इसका विभाजन किया गया तब आजकल जो अम्बाला डिवीजन का प्रदेश कहलाता है, उसे उत्तर प्रदेश के आगरा तथा मेरठ डिवीजनों से अलग करके केन्द्रीय तथा उत्तर पश्चिमी पंजाब के साथ मिला दिया गया । यह बँटवारा इसलिए नहीं किया गया कि अम्बाला

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-98


डिवीजन के लोगों की भाषा, रीति-रिवाज, आहार विहार तथा परम्परायें सतलुज पर के लोगों से मिलती हैं, किन्तु जिन भाइयों के साथ उपर्युक्त बातें मिलती थीं, हरयाणे के लोगों को दण्ड देने के लिए उनको आपस में पृथक् कर दिया गया । यह सब कुछ होने पर भी बंटवारे के पश्चात् पञ्जाब में अम्बाला डिवीजन के लोगों ने अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश व दिल्ली के भाईयों के साथ पूर्ववत् घनिष्ठ सम्बन्ध को बनाये रखा । इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के लोगों ने भी अधिक समीपवर्ती सम्बन्ध दिल्ली तथा अम्बाला डिवीजन के लोगों के साथ रक्खा । अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश से अलग ही बनाये रक्खा । लगभग एक शताब्दी भर अम्बाला डिवीजन और केन्द्रीय पंजाब के संयुक्त शासन के आधीन और इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के पश्चिमी पूर्वी जिलों के एक ही शासन के आधीन रहने पर भी इन प्रान्तों के एक खण्ड के लोगों के साथ सांस्कृतिक रूप से घुल मिलकर एक नहीं हो सके । इस बात का इससे प्रबल और क्या प्रमाण हो सकता है कि आज भी जालन्धर डिवीजन के लोग गुड़गांवा और रोहतक आदि जिलों के लोगों को पञ्जाबी न कह

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-99


कर हिन्दुस्तानी कहते हैं । हरयाणे के लोग केवल इसी सीमा तक पञ्जाबी कहलाते हैं । क्योंकि इनके जन्म स्थान जिन जिलों में हैं उन जिलों को पंजाब के राज्य में शासन के लिए बलपूर्वक जोड़ दिया गया है । वैसे इनकी वेश-भूषा, भाषा, भोजन, ऐतिहासिक परम्परायें जालन्धर डिवीजन के भाईयों से सर्वथा नहीं मिलतीं ।
९.
इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के निवासी भी पूर्वी जिलों में जहां की भाषा 'पूर्वी' कहाती है, और जहाँ के लोगों का रहने-सहने का ढ़ंग, आहार-विहार इत्यादि इन से सर्वथा भिन्न है, घर जैसा वातावरण नहीं पाते । सर्वथा पृथकता दिखाई देती है । अंग्रेज सदा ऐसी चालें चलते रहे । कभी बंग-भंग करके बंगाल को दो टुकड़ों में बांट डाला, कभी हरयाणे के खंड-खंड कर डाले । उन्हें भारत के वीरों का संगठन सुहाता नहीं था । वे सदैव ऐसे ही खेल खेलते रहते थे । १९१२ में उन्होंने दिल्ली जिले को भंग कर दिया, और इसकी सोनीपत तहसील को रोहतक जिले में मिला दिया । इसी भाँति 'बल्लभगढ़' तहसील में से ढ़ाई सौ वर्ग मील का क्षेत्रफल गुड़गावां जिले में मिला दिया । इस प्रकार जो बल्लभगढ़ और

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-100


दिल्ली की तहसीलों का शेष भाग रह गया, उसको मिलाकर दिल्ली प्रान्त की रचना कर डाली । यह तोड़ फोड़ का कार्य उनके हाथ में शासन सत्ता होने के नाते वाम हस्त (बायें हाथ) का खेल था । जिस प्रकार रोहतक वा झज्जर के दादरी हिस्से को १८५८ में जींद के राजा को दे डाला । कनीना भाग को नाभा के राज्य को दे दिया और नारनौल तथा महेन्द्रगढ़ पटियाला के सिक्ख राजा को सौंप दिया । नाहड़ के चौबीस ग्राम दुजाना के नवाब को और 'शिवराण-गोत्र' के ५२ ग्राम लुहारू के नवाब को सौंपे रखे । इस प्रकार 'कोटपुतली' और 'कांटिबावल' खेतड़ी आदि नरेशों को दे डाला । जिन राजाओं ने १८५७ की क्रांति में अंगरेजों की सहायता की थी उसी के फलस्वरूप हरयाणे के खण्ड-खण्ड करके उनको पुरस्कार रूप में सौंप दिये । १८५८ से १९४७ तक अंग्रेज अपने इसी प्रकार के खेल खेलते रहे । किन्तु हरयाणे के ग्रामीण क्षेत्रों की भावनाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं आया । अम्बाला डिवीजन के ग्रामीण लोगों ने तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों के भाईयों ने परस्पर रिश्ते नाते, रीति रिवाज, पञ्चायती तथा सांस्कृतिक घनिष्ठ सम्बन्ध तथा एकता पूर्ववत् बनाये रक्खी, जिसको समय पड़ने पर यहाँ के निवासी

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-101


किसी न किसी रूप में प्रकट करते ही रहे । जैसे १९१२ में दिल्ली का अलग प्रान्त बनाया गया तो उस समय भूतपूर्व विधान सभा में दिल्ली का कोई प्रतिनिधि नहीं रहा । सन् १९१९ में इन्हें केन्द्रीय सभा में स्थान देकर सन्तुष्ट करने का प्रयत्‍न किया गया । किन्तु यहाँ के निवासियों को कैसे सन्तोष मिलता । कांग्रेस ने आत्म-निर्णय आदर्श सामने रखते हुए मुजफ्फरनगर, मेरठ, मथुरा और दिल्ली को मिलाकर अलग काँग्रेस प्रदेश बनाने की आज्ञा दे दी ।
१०.
सन् १९२६ में दिल्ली की सीमाओं का विस्तार करने के लिए 'मुस्लिम लीग' ने भी एक सुझाव प्रस्तुत किया । वह यह था कि - "आगरा, मेरठ और अम्बाला डिवीजन को मिलाकर दिल्ली की सीमाओं का विस्तार किया जाये" । सन् १९२८ में सब राजनीतिक दलों के सम्मेलन में दिल्ली प्रदेश के विस्तार की मांग दोहराई गई । उन्हीं दिनों दिल्ली के अंग्रेज चीफ कमिश्‍नर सर ज. प. थामसन को अभिनन्दन पत्र देते हुये भी यही मांग की गई थी । इस प्रकार सन् १९२८ से १९३३ के मध्य इस मांग को पुनः पुनः

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दोहराया गया । दूसरी गोलमेज कान्फ्रेंस में भी इस मांग को रक्खा गया, जो निम्न प्रकार से थी –
"ऐतिहासिक नाते से अम्बाला डिवीजन हिन्दुस्तान का एक भाग है । पंजाब प्रान्त में इसका मिलाया जाना ब्रिटिश राज्य की एक घटना थी । इस खंड की भाषा हिन्दी है न कि पंजाबी । यहाँ के लोग सांस्कृतिक व अन्य बातों में उत्तर प्रदेश के समीपवर्ती मेरठ तथा आगरा डिवीजन के अधिक निकट हैं...।"
उपर्युक्त बातों से स्पष्टतया प्रकट है कि हरयाणे के पूर्वी और पश्चिमी दोनों भाग जब से पृथक किये गये हैं, तभी से पुनर्मिलन के लिए प्रयत्‍नशील रहे हैं । कभी अम्बाला कमिश्‍नरी के सर छोटूराम तथा पं० ठाकुरदास भार्गव आदि पंजाब से अलग होने की भावना व्यक्त करते रहे । इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों के लोग अपने प्रदेश के पूर्वी भाग वालों से पृथक होने की समय-समय पर इच्छा प्रकट करते थे । हमारी राष्ट्रीय सरकार ने जब 'राज्य पुनर्गठन आयोग' की स्थापना की, उसके समक्ष इस प्रकार की मांग के अनेक स्मरण-पत्र दिल्ली राज्य सरकार की ओर से, अम्बाला डिवीजन अथवा हरयाणा प्रान्त के निवासियों की ओर से दिये गये । पश्चिमी उत्तर प्रदेश

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विधान सभा के सदस्यों की भारी संख्या ने तथा इसी प्रकार इन्हीं प्रदेशों की संख्या ने अपने पुनर्मिलन की भावनाओं को प्रकट करते हुये 'राज्य पुनर्गठन आयोग' के समक्ष "महादिल्ली" और "विशाल हरयाणा" प्रान्त बनाने के पक्ष में स्मरण पत्र प्रस्तुत किया । एक स्मरण पत्र दिल्ली राज्य सरकार की ओर से महादिल्ली के पक्ष में 'राज्य पुनर्गठन आयोग' के सम्मुख उपस्थित किया गया । जिस समिति ने यह स्मरण-पत्र उपस्थित किया उसके अध्यक्ष श्री नूरुद्दीन अहमद एम. एल. ए. थे । चार अन्य सदस्य श्री गजराज सिंह एम. एल. ए. गुड़गावां, मीर मुशताक अहमद एम. एल. ए. दिल्ली, युद्धवीर सिंह एम. एल. ए. दिल्ली, व श्री बलजीत सिंह एम. एल. ए. दिल्ली थे । इस स्मरण पत्र में कुछ विशेष बातें ऐसी हैं जो हरयाणा प्रान्त की सीमा आदि पर विशेष प्रकाश डालती हैं । उसमें से कुछ आवश्यक उद्धरण पाठकों के लाभार्थ लिखता हूँ । इस भावी प्रान्त में कौन-कौन से प्रदेश सम्मिलित हों, इस विषय में इस समिति की निम्नलिखित धारणा थी –
"पंजाब के जिलों को सम्मिलित करते समय यह स्पष्ट है कि शिमला जिला इस राज्य का भाग नहीं

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हो सकता । इस प्रकार जिला हिसार के भी कुछ भाग बाहर ही रहेंगे । शेष अम्बाला कमिश्‍नरी के भाग भौगोलिक तथा सांस्कृतिक रूप से एक भाषा हिन्दी भाषी दिल्ली और उत्तर प्रदेश से मिलते हैं । इसलिये वे इस नये प्रस्तावित राज्य में मिलाये जायें ।"
पेप्सु का महेन्द्रगढ़ जिला सब प्रकार से दिल्ली और अम्बाले जैसा है इसलिये इस राज्य में सम्मिलित किया जाये । इसी प्रकार संगरूर जिले के नरवाणा और जींद और राजस्थान के अलवर और भरतपुर जिले इसी प्रस्तावित राज्य में मिलाये जायें । इस प्रकार नये राज्य की सीमायें निम्न क्षेत्रों में बढ़ाई जायें ।

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  • (६) दिल्ली राज्य - इस प्रकार राज्य का कुल क्षेत्र ५३४७२ वर्ग मील होगा और १९५१ की जनगणना के अनुसार इसकी जनसंख्या २९१५३६०४ होगी ।"


इसकी विशेषतायें इस प्रकार लिखी हैं -

"यहाँ की जनता की भाषा पश्चिमी हिन्दी होगी । यह राज्य प्रशासनिक दृष्टिकोण से न तो उत्तर प्रदेश के समान बहुत बड़ा ही होगा और न इतना छोटा कि इसमें आर्थिक संकट बना रहे । राज्य के विकास के लिए पर्याप्‍त सामग्री हो जायेगी । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग जिनकी उन्नति में प्रदेश के पूर्वी लोग बाधक हैं, उन्हें आगे उन्नति करने का अवसर मिलेगा । उनके विकास पर न्यून ध्यान दिया जाता है, यह भी उनका कष्ट मिट जायेगा । उनका कहना है कि वे राजस्व का भाग ३८ प्रतिशत देते हैं किन्तु उनके विकास पर थोड़ा व्यय किया जाता है । उनको इसका उचित बदला नहीं मिलता । उत्तर प्रदेश की विशालता उसकी उन्नति और समुचित विकास में बाधक है, उत्तर प्रदेश सरकार लखनऊ में स्थित

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है और हाईकोर्ट प्रयाग में है । ये दोनों स्थान मेरठ आदि पश्चिमी जिलों से बहुत दूर पड़ते हैं, इसलिये आने जाने में असुविधा और व्यय पर्याप्‍त होता है । भावी राज्य की दिल्ली राजधानी होने से ये असुविधायें सब दूर हो जायेंगी ।
दिल्ली प्रदेश छोटा है किन्तु व्यापार और उद्योग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । यह इस राज्य में सम्मिलित होने वाले क्षेत्रों के मध्य में है । उनके यहां से निकट व्यापारिक सम्बन्ध भी हैं । इस प्रान्त की राजधानी दिल्ली होने पर उससे न केवल सांस्कृतिक सम्बन्ध ही होगा अपितु आर्थिक संबन्ध भी दृढ़ होंगे । अन्तर्जातीय व्यापार की बाधायें भी सब दूर होंगी ।
दिल्ली का सीधा सम्बन्ध रेल और बड़ी सड़कों से है, अतः यातायात की सुविधा तथा औद्यौगिक दृष्टि से यह प्रान्त बहुत उन्नति कर सकेगा । उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले खाद्य में आत्म-निर्भर हैं । इसलिए खाद्य के विषय में कोई चिन्ता न रहेगी, अतः क्षेत्र खाद्य में आत्म-निर्भर होगा ।
जनसंख्या के आधार पर इस नव-प्रस्तावित राज्य का राजस्व लगभग ३० (तीस) करोड़ रुपये

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होगा । वर्तमान उत्तर प्रदेश की जनसंख्या लगभग ६ करोड़ है । इस प्रकार कुल राजस्व ५२ करोड़ रुपये है । इस प्रकार नये राज्य का राजस्व उत्तर प्रदेश की तुलना में ठीक ही उतरता है । इस प्रान्त की आर्थिक स्थिति दृढ़ होने से प्रशासन सफल रहेगा । इस नये राज्य के लिये सचिवालय तथा अन्य कार्यों के लिए नवीन भवनों पर कुछ व्यय करने की आवश्यकता न होगी । इस राज्य के पास आगरा, अलीगढ़ और दिल्ली तीन विश्वविद्यालय होंगे । इसलिए इस राज्य पर अधिक भारी व्यय नहीं होगा ।"
११.
इस प्रकार इस नये प्रान्त व नवीन राज्य के निर्माण से सारे देश को लाभ पहुँचेगा । क्योंकि यौधेयों की सन्तान जो आज भी युद्ध-प्रिय और शूरवीर है, का क्षेत्रफल एक हो जायेगा, जो पहले भी एक था और अब जो विभिन्न तीन चार राज्यों में विभक्त है । इस प्रकार यह हरयाणा प्रान्त पश्चिमी आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए एक अद्वितीय, महत्वपूर्ण, सुदृढ़ सुरक्षा केन्द्र होगा । जैसा कि इसका प्राचीन इतिहास साक्षी है ।
१२.
जो भी अनेक प्रसिद्ध युद्ध भारत में हुये वे अधिकतर हरयाणा के युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्रपानीपत

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में लड़े गए । जब कोई आक्रमणकारी लाहौर से दिल्ली की ओर चल पड़ा तो मार्ग में निश्चिन्त होकर अम्बाले तक बिना किसी प्रतिरोध के चला आता था । उसके साथ घोर संग्राम करने वाले हरयाणे के शूरवीर ही होते थे, जो किसी भी आक्रमणकारी को बिना युद्ध किये आगे बढ़ने का मार्ग नहीं देते थे । क्योंकि उनके पूर्वज यौधेय "आयुधजीवी" थे । फिर ऐसे सच्चे क्षत्रियों की सन्तान हरयाणा निवासी शूरवीर क्यों न हों ?
१३.
पाठक गण ! उपर्युक्त लेख से समझ गये होंगे कि १८५७ की क्रान्ति से पूर्व हरयाणा प्रान्त की सीमाएं बहुत दूर-दूर तक थीं । यह एक बड़ा सुसंगठित वीरों का प्रान्त था । अंगरेज सरकार ने इस प्रान्त के वीरों की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने के लिये ही हरयाणा प्रान्त को खण्ड-खण्ड कर दिया था । अब स्वराज्य प्राप्‍ति के पीछे इस प्रान्त के निवासी यही आशा करते थे कि इनका बहुत दिनों से विचारा हुआ स्वप्‍न साकार होगा । अपनी सरकार जो दण्ड अंग्रेजों ने दिया था उसको बिल्कुल हटा कर इस प्रान्त के वीरों को, जिनके पूर्वजों ने १८५७ की क्रान्ति में स्वतन्त्रता देवी पर जो बलि चढ़ाई थी

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उसका योग्य पुरस्कार देगी और यहाँ के जन-मन में छाई निराशा को आशा में बदलेगी । किन्तु हुआ इसके बिल्कुल विपरीत, पूर्व की अपेक्षा अभी यहां के निवासियों के साथ हमारी काँग्रेस सरकार का बहुत उपेक्षा का व्यवहार है । "महादिल्ली" एवं "विशाल हरयाणा" की मांग के लिये जो स्मरण-पत्र हरयाणा निवासियों ने दिये थे, काँग्रेस सरकार ने वे रद्दी की टोकरी में डाल दिये ।

आदरणीय आयोग के सदस्यों के सन्मुख जब इस प्रान्त के पुनर्गठन की मांग उपस्थित की तो आयोग के एक आध सदस्य ने सहानुभूति पूर्वक इस सन् १८५७ ई० के पहले इस एकता के पक्ष में अपनी सम्मति भी प्रकट की, किन्तु तत्कालीन गृहमन्त्री श्री गोविन्द वल्लभ पन्त का पन्थ ही स्वार्थमय था । "स्वार्थी दोषं न पश्यति" के अनुसार इस उचित मांग को भी कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता ने ग्रीवा हिलाकर ठुकरा दिया और देश तथा इस प्रान्त के लिए जो अत्यन्त हितकारी कार्य था वह अनिश्चित काल के लिए खटाई में डाल दिया गया । परमात्मा इस प्रांत वासियों को शक्ति और उत्साह प्रदान करे जिससे ये अपनी इस समुचित मांग को पूर्ण कराने के लिये वीरता पूर्ण


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संघर्ष करने के लिये शीघ्र ही कटिबद्ध हों । तभी यह कार्य पूर्ण हो सकेगा । निर्बलों की प्रार्थना कौन सुनता है । जब हमारे देखते-देखते पं० जवाहरलाल नेहरू के अनेक बार निषेध करने पर भी आंध्र, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र और नागालैंड आदि प्रांतों का अलग निर्माण हो सकता है, तो जो प्रांत सहस्रों वर्षों से एक संस्कृति का उपासक और प्राणों की बलि देकर सदैव इस वृद्ध भारत की रक्षा करता रहा है, वह पृथक् खण्डों में विभाजित हुआ पुनर्मिलन के तड़पता रहे ? और यहां के वीरों को अंग्रेजों का दिया हुआ दण्ड स्वराज्य मिलने पर भी भुगतना पड़े यह किसी के लिये भी शोभा और हित की बात नहीं । अभी भी इस राष्ट्र के कर्णधार शान्त चित्त होकर इस प्रांत की उचित मांग पर विचार करेंगे तो समस्या के सुलझने में कोई विलम्ब न होगा, और इस प्रांत के वीरों को अपनी सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । परमात्मा वह शुभ दिन शीघ्र लाये कि इस प्रांत के दो करोड़ से भी अधिक नर-नारियों की यह शुभ मनःकामना पूरी हो ।


हरयाणे की सीमाओं पर पर्याप्‍त प्रकाश पड़ चुका है, इसके प्राचीन नाम तथा स्थान के विषय में भी कुछ लिखना आवश्यक है । सो संक्षेप में यहां लिखा जाता है ।


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