Veerbhoomi Haryana/ "हरयाणा" शब्द का ऐतिहासिक अर्थ

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हरयाणा इतिहास ग्रन्थमाला का प्रथम मणि


वीरभूमि हरयाणा

(नाम और सीमा)


लेखक

श्री आचार्य भगवान् देव


_________________________________



"हरयाणा" शब्द का ऐतिहासिक अर्थ

१.
हरस्य यानम् - हरयाणम्, यानम् - निवास स्थानम् । यह प्रदेश हर (शिव) वा शिव के पुत्रों का निवास स्थान रहा है, इसलिये इसको 'हरयाण' कहते हैं ।
२.
"हरस्य यानानि - विमानानि गच्छन्ति यस्मिन् प्रदेशे सः हरयानः - हरयाणः" जिस प्रदेश में हर के विमान चलते हों वह प्रदेश हरयाणा कहलाता है ।
३.
महर्षि दयानन्द ने "उपदेश मञ्जरी" में लिखा है कि आर्य लोग विमानों में उड़ते थे और जहां जहां मनोहर स्थान देखते थे, वहां बस जाते थे । उनके शब्द निम्नलिखित हैं -
"आर्यावर्त में लोक संख्या बहुत हुई । उसे न्यून करना चाहिये । इसलिये आर्य लोग अपने साथ मूर्ख शूद्रादि अनार्य लोगों को लेकर विमान उड़ाते फिरते जहां कहीं सुन्दर प्रदेश देखा कि झट वहीं पर बस जाते" । (उपदेश मंजरी)

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४.
आदि सृष्टि में हमारे पूर्वज हिमालय पर्वत पर ही निवास करते थे, क्योंकि सृष्टि की रचना प्रारम्भ में संसार के सबसे ऊँचे स्थान हिमालय पर्वत के एक भाग जिसे त्रिविष्टप (तिब्बत) कहते हैं, हुई थी । इस त्रिविष्टप का नाम स्वर्ग आरम्भ से ही चला आया है । इसके राजा को इन्द्र की उपाधि दी गई । आदि सृष्टि से महाभारत पर्यन्त इस स्वर्गपुरी के राजा देवराज इन्द्र ही कहलाये और आर्यावर्त के देव-असुर संग्रामों में सदैव देवताओं के राजा इन्द्र की सहायता करते रहे । त्रिविष्टप से मिलता हुआ स्थान ही कैलाश पर्वत है, वहां पर शिवजी महाराज का राज्य था । इसलिये आज तक भी हिमालय की ऊँची चोटी का नाम गौरीशंकर है । गौरी, शिव जी महाराज की धर्मपत्‍नी जिसे पार्वती भी कहते हैं, का नाम है । इसी कारण हिमालय से निकलने वाली एक नदी का नाम भी गौरी है । हरद्वार तक जो हिमालय की शाखायें हैं, जिनमें से गंगा नदी बहकर नीचे मैदान में उतरती है, शिवालक की पहाड़ियाँ कहलाती हैं । शिवालक का अर्थ शिवजी

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की जटायें हैं, क्योंकि शिवजी के राज्य की जटायें (गण - प्रजाएं) जहाँ गंगा समतल भूमि में उतरती है, वहाँ तक फैल गईं थीं । इसलिए इस गंगाद्वार का नाम हरद्वार पड़ा और शिवजी की जटाओं में से गंगा के निकलने की कथा का यही ऐतिहासिक आशय है । शिवजी महाराज के राज्य की आरम्भ में सीमा इस पर्वतमाला तक ही थी जिसे शिवालक कहते हैं, जिनको पार करके गंगा के समतल भूमि में दर्शन होते हैं । पाठक गण कहीं यह न समझ बैठें कि शिवजी के हर, महादेव, शंकर आदि नामों की मेरी अपनी ही कल्पना है, अतः महाभारत में जो शिवजी के एक सहस्र नाम लिखे हैं, उनमें से कुछ नाम निम्न प्रकार हैं ।

गणकर्त्तागणपतिर्दिग्वासाः काम एव च ।

मन्त्रवित् परमोमन्त्रः सर्वः भावकरो हरः ॥

नन्दीश्‍वरश्‍च नन्द च नन्दिनो नन्दिवर्धनः ।

भग हारी निहन्ता च कालो ब्रह्मा पितामहाः ॥

(महा. अनुशासन पर्व अ. १७ श्‍लोक ४२, ७६)

बहुरूपं गणाध्यक्षं त्र्यक्षं पारिषद्-प्रियम् ॥

कुमारपितरं पिंगं गोवृषोत्तमवाहनम् ।

तनुवास समत्युग्रमुमाभूषण तत्परम् ॥

(महा. सौप्‍तिक पर्व अ. ७ श्‍लोक ८-९)


इन श्‍लोकों का भाव यही है कि महादेव नन्दीश्वर और हर इत्यादि सब शिव के ही

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नाम हैं । पाठकों की ज्ञान वृद्धयर्थ कुछ शिव के नामों के शब्दार्थ लिखता हूँ ।


शिवकल्याण करने वाला हितैषी । महादेव - महाविद्वान । हर - प्रजा के दुःख को हरने वाला । नन्दी - आनन्द देने वाला अथवा आनन्ददायक बैलों वाला । नन्दीश्वर - बैलों वा बैलों के चिन्ह युक्त ध्वजा (झण्डे) वाला । नन्दीवाहन - बैल के चिन्ह युक्त ध्वजा को ले जाने वाला वा अपनी सेना को बैलों के रथों द्वारा ले जाने वाला । नन्दीवर्धन - गौ और बैलों की वृद्धि करने वाला । वृष - धार्मिक बलवान् ।


वृषांक, वृषध्वज, वृषभध्वज, वृषवाहनः - बैल या सांड से युक्त ध्वजा वाला । उपग्रह - तेजस्वी, गिरीश - पर्वतीय देश का राजा । महेश्वर - सम्राट् । शंकर - कल्याण करने वाला । भीषण - दुष्टों को भय देने वाला । रुद्र - दुष्टों को रुलाने वाला । पञ्चानन - सिंह के समान पराक्रमी । स्मरहर - काम को जीतने वाला । गणपति, गणाध्यक्ष - गणों का स्वामी (राजा) । गणकर्त्ता - गणों की रचना करने वाला अर्थात् गणों का निर्माता, संस्थापक । पारिषद् प्रिय - गणराज्य का प्रेमी । जटी - जटा धारण करने वाला । गंगाधर,

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जाह्नवीभृत् - गंगा को धारण करने वाला वा लाने वाला ।


अमरकोष में भी शिव के नामों के विषय में एक श्‍लोक इसी प्रकार का लिखा है -

गंगाधरोऽन्धकरिपुः क्रतुध्वंसी वृषध्वजः ।

व्योमकेशो भवो भीमो स्थाणू रुद्र उमापतिः ॥

(अमरकोष वर्ग १ श्‍लोक ३४)


इस प्रकार महाभारतादि ग्रन्थों में शिव के एक सहस्र नाम दिये हैं । उनमें से कुछ नाम प्रमाण रूप में मैंने उदधृत कर दिये हैं और साथ ही कुछ नामों का अर्थ भी दे दिया है । पाठकों को शिव के प्रसिद्ध नाम - महादेव, हर, शंकर, नन्दीध्वज, वृषभध्वज, पारिषद्-प्रिय, गणकर्त्ता और गंगाधर आदि नामों को अवश्य स्मरण करना चाहिये, तभी शिव और हरयाणे का परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह भली-भांति समझ सकेंगे । जिस प्रकार उपकारी पशु गौ वा बैल के साथ शिवजी का विशेष प्रेम व सम्बन्ध उसके नन्दीवर्धन, नन्दीवाहन, वृषभध्वज आदि नामों से पूर्णतया और स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है, उसी प्रकार हरयाणे के केन्द्र वा राजधानी रोहतक को 'गवाढ्यम्' का विशेषण देकर महाभारत ने यह सिद्ध कर दिया

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है कि हरयाणा प्रदेश उस समय गायों से सर्वथा परिपूर्ण था । आज भी हरयाणा जाति (नसल) के बैल व गाय सारे भारत में प्रसिद्ध हैं । हरयाणा जाति की गाय, बैल सब प्रकार के गुणों के कारण सम्पूर्ण भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में ही सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । अपने बैल, गाय आदि पशुओं को सर्वोत्कृष्ट बनाने के लिए जो सेवा-सुश्रूषा उत्तम से उत्तम पुष्टिकारक भोजन देकर हरयाणे का किसान करता है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आती । यहाँ का किसान घी, दूध को भी हृदय खोलकर पशुओं को प्रसन्नता से देता है । इसी कारण हरयाणा प्रदेश से प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये के बैल, गाय आदि श्रेष्ठ पशु अन्य प्रदेशों के लोग क्रय करके (खरीद कर) ले जाते हैं । इन बातों से यही सिद्ध होता है कि हरयाणा वासियों ने अपने पूर्वज शिवजी महाराज से ही दायाद में गोमाता के प्रति यह प्रेम व श्रद्धा प्राप्‍त की है । अब भी इसी कारण "देशों में देश हरयाणा जहाँ दूध दही का खाना" यह लोकोक्ति सर्वत्र प्रसिद्ध है । किन्तु दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि अंग्रेजी शिक्षा के कुप्रभाव के कारण इस पवित्र हरयाणा के वासियों में भी गोमाता के प्रति प्रेम व श्रद्धा में


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न्यूनता अवश्य आई है । यह इस प्रान्त व देश के दौर्भाग्य की बात है ।


सम्पूर्ण हरयाणे में किसी मांसभक्षी मुसलमान व ईसाई को गाय नहीं बेची जाती थी । पंचायत की ओर से इस नियम का बड़ी कट्टरता से पालन किया जाता था । इस नियम को तोड़कर यदि कोई मांसाहारी को गाय दे देता तो ऐसे पापी व्यक्ति को पंचायत कठोर दण्ड देती थी, और उस गाय आदि पशु को उस कसाई से वापिस मंगवाती थी । अंग्रेजी राज्य में भी इसी प्रेम व श्रद्धा के कारण हरयाणे के ग्रामों वा नगरों में यहाँ के निवासियों ने गोहत्या के लिए कोई बूचड़खाना नहीं खोलने दिया । जब कभी गन्नौर, नांगलोई आदि स्थानों पर गोहत्या के निमित्त सरकार की ओर से कोई बूचड़खाना खोलने का प्रसंग आया तो यहाँ के गोभक्त लोगों ने डटकर उसका विरोध किया और गोमाता की रक्षा के लिये प्राणों की बलि चढ़ाने के लिये तैयार हो गये ।


हरयाणे के हरफूल आदि वीरों ने तो गोहत्यारे अनेक बूचड़ों को अपने इस गो-प्रेम व श्रद्धा के कारण ही गोली का निशाना बनाया और स्वयं भी इसी प्रेम के कारण फांसी के तख्ते पर झूल गये । हरयाणे

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के वीर लोटण और रामस्वरूप खलीफा आदि ने भी अनेक बार दिल्ली आदि नगरों में सशस्त्र संघर्ष करके गोमाता की बूचड़ों से रक्षा की और अपने प्रेम व श्रद्धा के कारण गोमाता की प्राण-रक्षा के लिए अनेक कष्ट सहे ।


श्रद्धेय हुतात्मा स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के सत्प्रयत्‍नों से उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि अनेक राज्यों में गोहत्या निषेध का राजनियम (कानून) बना । उसी प्रकार पंजाब में भी पूज्य स्वामी जी महाराज का आदेश पाकर हरयाणे के नेता प्रो० शेरसिंह आदि आर्य वीरों ने पंजाब सरकार से भी वह गोहत्या निषेध का नियम (कानून) बनवाया और गोमाता के अनन्य भक्त जीवित शहीद स्व० लाला हरदेव सहायजी 'सांतरोद' निवासी (जि० हिसार) ने तो अपना सर्वस्व ही गोमाता की रक्षा के लिये ही बलिदान कर दिया था । यह भारत के सभी गो-प्रेमियों को विदित ही है ।


आदि सृष्टि में शिवजी महाराज से लेकर महाभारत काल में योगिराज श्रीकृष्ण जी पर्यन्त "पुष्ट्यै गोपालम्" वेद की इस आज्ञा का श्रद्धापूर्वक पालन होता रहा और क्या राजा, क्या प्रजा सभी व्यक्ति और समाज

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को पुष्ट बनाने के लिए गोमाता की निरन्तर रक्षा करते रहे । जब विदेशी मांसाहारी मुसलमान और ईसाइयों का राज्य हमारे इस पवित्र आर्यावर्त पर हुआ, उसी काल में हमारे दुर्भाग्य से गोजाति के गले पर कसाइयों की कटारी चलने लगी । उस समय भी हरयाणा वासियों ने गोमाता की रक्षा के लिये सब प्रकार का संघर्ष किया ।


ऐसे विपत्ति काल में महर्षि दयानन्द जी के इस आदेश को कि "गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है" हरयाणे के प्रसिद्ध आर्य वीर राव राजा युधिष्ठिर रामपुरा, रेवाड़ी निवासी ने शिरोधार्य किया और महर्षि दयानन्द जी महाराज के आदेशानुसार तथा उनके योग्य शिष्य स्वामी आत्मानन्द जी की सहायता से सर्वप्रथम रेवाड़ी में गोशाला की स्थापना की । महर्षि दयानन्द जी की शिक्षा से प्रभावित होकर ब्रह्मचारी जयराम जी ने बेरी भिवानी इत्यादि अनेक स्थानों में गोशालायें खुलवाईं । इस प्रकार अंग्रेजों के समय में महर्षि दयानन्द जी की कृपा से गोरक्षा आन्दोलन ने गोशालाओं के रूप में सर्वप्रथम अपना प्रकटीकरण किया । महर्षि दयानन्द जी ने इसी पवित्र

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कार्य के लिए "'गोकरुणानिधि"' पुस्तक गोरक्षा के महत्व पर लिखकर जनता की आँखें खोल दीं । महर्षि दयानन्द जी अंग्रेजी राज्य से गोवध निषेध का राजकीय नियम बनवाना चाहते थे । इसके लिये उन्होंने लाखों गणमान्य व्यक्तियों से प्रार्थना-पत्र पर हस्ताक्षर करवाये थे और वे इस हस्ताक्षरयुक्त प्रार्थना-पत्र को तत्कालीन राजेश्वरी महारानी विक्टोरिया के पास विलायत में भेजना चाहते थे, जिससे ऐसा राजनियम बनाया जाये कि इस ऋषियों की पवित्र भूमि भारत में गोवध का कलंक सर्वथा बन्द हो जाये । किन्तु देश का दौर्भाग्य था कि उसी समय एक पापी ने महर्षि दयानन्द को मारक विष दे दिया जिससे महर्षि का देहान्त हो गया और गोमाता की रक्षार्थ राजनियम नहीं बन सका । स्वराज्य प्राप्‍ति के पश्चात सब की आशा बंधी थी, कि हमारी स्वतन्त्र सरकार गोहत्या निषेध का राजनियम अवश्य बनायेगी । एतदर्थ गो-प्रेमी सज्जनों ने अनेक आन्दोलन भी किये जिनमें प्रमुख व्यक्ति श्रद्धेय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज तथा हरयाणे के निडर सुपूत लाला हरदेव सहाय जी थे । उन्होंने पूर्ण शक्ति लगाकर गोहत्याबन्दी का राजनियम बनवाने का यत्‍न किया


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और उन्हें इस कार्य में आंशिक सफलता भी मिली । कुछ प्रान्तीय सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में गोवध निरोध का राजनियम भी बना दिया, किन्तु केन्द्रीय सरकार ने सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिये गोहत्या निषेध का राजकीय नियम नहीं बनाया । ये दोनों महापुरुष भी भगवान के प्यारे हो गये । इनके परलोक गमन के पश्चात् अभी कोई महापुरुष इस पुण्य कार्य के लिए कार्यक्षेत्र में नहीं आया, जिससे गोहत्या निरोध का राजनियम बनकर गोमाती की रक्षा हो जाती । अभी प्रजा और राजा दोनों के सुदिन नहीं आये । उन्होंने महर्षि दयानन्द के इस कथन को कि गो आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा दोनों का नाश हो जाता है, समझा ही नहीं । महर्षि दयानन्द ने स्वयं विष-पान करके हमें अमरता का सन्देश दिया है । महर्षि की चेतावनी से हमारे देशवासी यदि चेत जायें तो समझो देश के सुदिन आ गये । और नहीं तो इस गोभक्त हरयाणा प्रान्त में ही अपने पूर्व पुरुष "हर" के समान जिसके नाम पर इस प्रदेश का नाम "हरयाणा" है, पुनः गोमाता के प्रति श्रद्धा व प्रेम की भावना जागृत हो और गोरक्षा के लिये यहां के निवासी प्राणों की बलि चढ़ाने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो किस माई


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के लाल की शक्ति है जो इस पवित्र ऋषियों के देश आर्यावर्त में गोहत्या कर सके ।


पाठक ! आप भली-भांति समझ गये होंगे कि जिस प्रकार देवताओं के देव - देवाधिदेव विद्वानों के शिरोमणि श्री महादेव जी महाराज को गोमाता से इतना प्रेम था कि उन्होंने अपना ध्वजचिन्ह भी गोमाता के पुत्र नन्दी को ही बनाया, जिससे उनका नाम ही 'नन्दीध्वज' पड़ गया । अपनी सेना में भार वाहनार्थ रथ वा गाड़ियों को खींचने के लिए नन्दी वा बैल को ही वाहन के रूप में चुना ।


शारीरिक और आत्मिक बल के सञ्चार के लिये गोमाता के अमृत रूपी दुग्धपान के लिये घर में गोमाता का पालन करवाया । कृषि के लिये 'वृषभ' अर्थात् बैल वा नन्दी को उपयोग में लाकर देश को धन-धान्य से परिपूर्ण किया । इन प्रिय गुणों को अपनाने वाले इस प्रदेश के लोग अपने पूर्वज पर इतने मुग्ध हो गये कि प्रजा के सब प्रकार के दुखों का हरण करने वाले हमारे आदर्श पूर्वज हर महादेव थे, ऐसा मानने लगे । अतः शिवजी के इस प्रिय नाम 'हर' से यहां के निवासियों ने इतना प्रेम किया कि उनके नाम पर ही इस प्रदेश का नाम हरयाणा रख दिया ।

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५.
शिवजी का एक नाम गणकर्त्ता, गणपति और गणाध्यक्ष है । पारिषद् प्रिय भी शिवजी का ही एक नाम है । इन सब नामों से यही सिद्ध होता है कि इस सृष्टि में गणराज्य वा पञ्चायती राज्य के संस्थापक, जनक अथवा कर्त्ता-धर्त्ता शिवजी महाराज ही थे । उनको गणराज्य से इतना स्नेह था कि उनका नाम ही 'पारिषद् प्रिय' पड़ गया । उनके इस प्रेम के कारण ही उस समय में जनता ने उनको 'गणराज्य' का अध्यक्ष चुना, जिससे उनका नाम गणपति वा गणाध्यक्ष पड़ गया । इस गणराज्य की रक्षा के लिए उन्होंने सेनापति बनकर असुरों से युद्ध किया । प्रथम देव संग्राम के योद्धा सेनापति शिवजी महाराज ही थे । वे असुरों को हराकर गणराज्य के सच्चे कर्त्ता और धर्त्ता बने । प्रजा ने अपने इस गणाध्यक्ष को यथा गुण तथा नाम के अनुसार "गणपति, गणाध्यक्ष और गणकर्त्ता" आदि नाम देकर सदैव के लिए अमर कर दिया । इनके प्रिय नाम 'हर' को युद्ध का जयघोष बनाकर अर्थात् "हर हर महादेव" इस युद्ध-घोष को ऐसा प्रचलित किया कि सारी आर्य जाति आर्यावर्त देश का ही यह अमर युद्ध-घोष बन गया । जिस काल में या जिस किसी स्थान में इस

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आर्य-जाति के शस्त्रधारी सच्चे आर्यवीर पहुँचे और जहां कहीं कोई युद्ध हुआ, वहीं यह जीवन फूंकने वाला जयघोष '"हर हर महादेव"' सुनाई देने लगा ।


काश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक सर्वत्र ही इस घोष से सहस्रों वर्ष यह पवित्र आर्यावर्त गूंजता रहा है ।


६.
इतना ही नहीं, शिवजी महाराज ने इस गणराज्य के संरक्षण का कार्य अपने पुत्र कार्तिकेय को सबकी प्रार्थना पर देवताओं का सेनापति बनाकर और गणेश द्वारा प्रजा को अथवा सैनिकों को व्यूह रचना आदि सैनिक प्रशिक्षण दिलाकर अपने कर्त्तव्य की पूर्ति की और गणराज्य वा पञ्चायती राज्य की पद्धति को सदा के लिये अमर बना दिया । इस अपने प्रिय और आदर्श पुरुष शिवजी महाराज की शिक्षा को हरयाणे की प्रजा ने ऐसा क्रियात्मक रूप से अपनाया कि भारतवर्ष में सिकन्दर आदि यूनानियों, कुषाणों, हूणों, शकों, मुसलमानों तथा अंग्रेजों के अनेक राज्य आये और चले गये, अनेक प्रकार की उथल-पुथल हुई, किन्तु यहां की जनता में जो गणराज्य शिवजी महाराज के समय स्थापित हुआ था, वह अद्यावधि (आज तक) किसी न किसी रूप में चल ही रहा है ।

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इस प्रदेश का पंचायती राज्य आज तक अपने निर्णय देता है । ग्रामवार और खापवार अब भी पंचायतें विद्यमान हैं । समय पड़ने पर ये पंचायतें अपना कार्य भी करती हैं । पंचायत के निर्णयों का जो मान वा आदर है, वह सरकारी निर्णयों वा राजनियमों का नहीं है । कभी-कभी सारे प्रदेश की बड़ी-बड़ी पंचायतें अपने सर्वखाप अधिवेशन करती हैं । जैसे अब भी सोरों, बेरी, जसाला, सिसाना और बड़ौत आदि स्थानों पर सर्वखाप पंचायत के बड़े-बड़े अधिवेशन हुये हैं । इन अधिवेशनों ने प्रस्ताव पास करके कुरीतियों के निवारण के लिए अनेक सुधार के कार्य किये जिनसे जनता को बड़ा भारी लाभ भी हुआ । ग्राम सोरों, जिला मुजफ्फरनगर में इस पंचायत के इतिहास को बताने वाले धड़ियों कागज गठड़ियों में बंधे रखे हैं । इस सामग्री से पंचायत के महत्वपूर्ण कार्य पर कुछ प्रकाश पड़ता है । इस पंचायत का कुछ इतिहास चौ. कबूलसिंह जी सोरों निवासी ने हमें प्रदान किया है जिसमें बहुत महत्वपूर्ण प्रामाणिक सामग्री विद्यमान है । उसके प्रकाशित होने पर लोगों की आँखें खुलेंगीं कि कैसे भयंकर आपत्तिकाल में इस सर्वखाप पंचायत ने किस प्रकार देश और धर्म की रक्षा का कार्य किया


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है । इस सामग्री में अकबर आदि मुगल बादशाहों के फरमान, उनकी अपनी निजी मोहर सहित तथा उनकी प्रतिलिपि ताम्रपत्रों पर विद्यमान है । इसी प्रकार मरहठा सेनापति शिवराव भाऊ के कई पत्र जो कि स्वयं भाऊ ने अपने हाथों से लिखे हैं और जिन पर उनकी मोहर तथा हस्ताक्षर भी हैं, पंचायत के नाम सहायता की प्रार्थना करते हुये लिखे हैं । ये पत्र भी हमारे "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय" में विद्यमान हैं । अवसर मिलने पर इनको भी प्रकाशित किया जायेगा । इन सब बातों से सिद्ध होता है शिवजी महाराज से लेकर आज तक इस प्रान्त में गणराज्य किसी न किसी रूप में चालू रहा ।


७.
इस प्रान्त का प्रत्येक निवासी स्वतन्त्रताप्रिय है । इसलिये स्वाभाविक रूप से गणराज्य वा पंचायती राज्य के प्रति इसकी श्रद्धा होती है । यह इनके पैतृक संस्कार हैं । प्रारम्भ में शिवजी महाराज ने गणराज्य की स्थापना की जैसा कि पाठक पहले पढ़ चुके हैं । आगे चलकर इस प्रकार के अनेक गणों की स्थापना हुई, जैसे यौधेय गण, मालव, आर्जुनायन, कुणिन्द, औदुम्बर, लच्छिवी और आग्रेय गण आदि । इन गणों में यौधेयगण बड़ा सुदृढ़

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और शक्तिशाली गण था । इस गण की स्थापना मनु की सतरहवीं पीढ़ी में राजा नृग के पुत्र "यौधेय" से हुई थी । जो गुप्‍त राज्य के प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्‍त विक्रमादित्य अर्थात् चन्द्रगुप्‍त द्वितीय के काल तक बहुत बड़ा विशाल गणराज्य रहा है ।


८.
शतद्रु से लेकर चम्बल की घाटी तक मरुभूमि गंगानगर से लेकर देहरादून, बरेली, मैनपुरी और एटा तक इस यौधेय गणराज्य की सीमायें थीं । महाभारत के समय 'मरुभूमि' और 'बहुधान्यक' इसके दो भाग थे । 'बहुधान्यक' राज्य की मुद्राओं पर शिव जी महाराज के नन्दी का चित्र है जिस पर ब्राह्मी लिपि एवं संस्कृत भाषा में "यौधेयानां बहुधान्यके" लिखा है । शिवजी के साथ इस प्रान्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिये इन्होंने गणराज्य प्रिय शिवजी महाराज के नन्दी का चित्र दिया है ।


९.
यौधेयों के जो अन्य प्रकार के सिक्के (मुद्रायें) मिलते हैं, उन सब पर एक ओर शिवजी महाराज नन्दी के साथ खड़े हैं । किसी-किसी मुद्रा पर केवल नन्दी भी है, किन्तु इस प्रकार की मुद्रायें बहुत न्यून संख्या में हैं । इन मुद्राओं पर दूसरी ओर यौधेयों के शस्त्र, त्रिशूल, वज्र, चक्र आदि मिलते हैं । इन

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मुद्राओं से भी शिवजी के साथ इस गणराज्य का श्रद्धामय सम्बन्ध प्रतीत होता है ।


१०.
तीसरी मुद्रायें जो सबसे पीछे की मानी जाती हैं, उन पर ब्राह्मी अक्षरों में "यौधेयगणस्य जयः" लिखा है और शिवजी महाराज के पुत्र, कुमार कार्तिकेय का मयूर सहित चित्र है । इन्हीं कार्तिकेय के लिए महाभारत में '"कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकम्"' पाठ आया है । दयितं के स्थान पर भवनम् पाठ-भेद होने से रोहतक में ही कार्तिकेय का निवास-स्थान होना निश्चित है । मुद्रायें और महाभारत का यह लेख दोनों ही सिद्ध करते हैं कि गणराज्य प्रिय हरयाणा निवासियों के पूर्वज वीर यौधेय, शिव और उनके पुत्र कार्तिकेय को आदर्श रूप में मानकर उनके प्रति बहुत श्रद्धा और प्रेम रखते थे । अतः अपनी मुद्राओं पर इन्होंने शिव, नन्दी, कार्तिकेय और मयूर को अपना ध्वज चिह्न बनाया, जिससे इन शूरवीरों का नाम भी "मयूरक" ही पड़ गया । जैसा कि मैं पहले भी उद्धरण दे चुका हूँ ।

"तत्र युद्धं महच्चासीत् शूरैर्मत्तमयूरकैः"

अर्थात् नकुल का शूरवीर यौधेयों से, जिनको 'मयूरक' भी कहते हैं, घोर युद्ध हुआ । हरयाणा के अनेक नाम थे ।

वीरभूमि हरयाणा,पृष्ठान्त-62



उनमें जंगल भी था । बीकानेर के राजा को अभी तक 'जंगलधर' के नाम से कहा जाता था । यौधेयों को इसीलिये जांगलिक आदि नाम से कहा जाता था । इनको मयूरक भी मयूर का ध्वज चिह्न होने से कहा जाता था । जैसे -
जांगलिको मयूरकः ॥ (हर्षचरित)


अर्थात् जांगल हरयाणा का ध्वज चिह्न मयूर था । एक अन्य पुस्तक में कहा गया है कि -
यौधेयाः मयूर ध्वजा: ॥


अर्थात् यौधेयों का ध्वजचिह्न मयूर था । इससे यौधेयगण का मयूरक नाम भी इसीलिये पड़ा था । इन सब बातों से सिद्ध होता है कि हमारे पूर्वजों का शिव और उसके पुत्र कार्तिकेय आदि से अटूट सम्बन्ध था । इसलिये शिव के प्रिय नाम हर के अनुरूप ही इसका नामकरण हुआ । हर अर्थात् महादेव के रथ आदि यान का आवागमन रहा है और वायुयान आदि इस प्रदेश पर उड़ते रहे हैं । अतः उस गणकर्त्ता शिवजी महाराज के नाम से इस गण-प्रिय प्रान्त के निवासियों ने अपने प्रदेश का नाम "हरयाणा" रखा ।


बहुत से सज्जन मेरे इस मत से कि "शिवजी के वायुयान यहां पर उडते थे", से सहमत नहीं होंगे,

वीरभूमि हरयाणा,पृष्ठान्त-63



क्योंकि वे तो मानते ही नहीं कि प्राचीन काल में वायुयान भी थे । आजकल का इतिहासकार एक विचित्र भूलभुलैया में पड़ा हुआ है, और पड़े भी क्यों नहीं जब कि वह हमारे पूर्वजों को मूर्ख सिद्ध करने के लिए लिखे गये साहित्य और इतिहास को पढ़ता है । हमने अपने साहित्य की ओर तो दृष्टिपात करने का कष्ट भी नहीं किया और चालाक अंग्रेजों का अन्धानुकरण कर अपने पूर्वजों को मूर्ख और बुद्धू मान लिया । यदि हम अपने प्राचीन साहित्य को पढ़ें तो हमारी आँखें खुलेंगी और हमें पता चलेगा कि हमारे पूर्वज भी कुछ थे । मैंने यह वैसे ही नहीं लिख दिया कि शिवजी महाराज के वायुयान यहां उड़ते थे । प्राचीन काल में वायुयान या विमान-विद्या पर एक बहुत बड़ा ग्रन्थ था, जिसका नाम 'यन्त्र सर्वस्व' है । इस ग्रन्थ के प्रणेता महर्षि भारद्वाज हैं । इसका कुछ भाग अभी थोड़े दिन पहले मिला है । इसकी टीका अथवा भाष्य 'बृहद् विमान शास्त्र' के नाम से स्वामी ब्रह्ममुनि जी जी ने किया है और "सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा" ने प्रकाशित करवाया । इस ग्रन्थ के अध्ययन से भली-भांति विदित हो जाता है कि प्राचीन काल में विज्ञान एवं विमान विद्या का ज्ञान उच्च शिखर पर था ।


वीरभूमि हरयाणा,पृष्ठान्त-64



उक्त ग्रन्थ में कई ऐसे यन्त्रों का भी वर्णन है जिनको आज का वैज्ञानिक युग नहीं खोज पाया है । यदि हमारे इतिहासकार इस ग्रन्थ को एवं हमारे प्राचीन साहित्य को पढ़ें तो कोई कारण नहीं कि वे भ्रम दूर न हों जो अंग्रेजों ने हमें मूर्ख सिद्ध करने में उत्पन्न किये हैं ।


जिस महापुरुष ने आदि सृष्टि में गणराज्य की स्थापना तथा संरक्षण किया, ऐसे महापुरुष के नाम पर गणप्रिय प्रान्त के निवासियों ने अपने गणराज्य या प्रदेश का नाम ही हरयाणा रखा । हर की परम्परा (गणराज्य वा पञ्चायती राज) को चलाने वाले हरयाणे वाले अपने प्रदेश का नाम हरयाणा रक्खें तो सार्थक ही है ।


११.
शिवजी महाराज का एक नाम रुद्र है । जो दुष्टों को दण्ड देने में समर्थ होता है, उसे रुद्र अर्थात् क्षत्रिय कहते हैं । अन्याय का प्रतिरोध करना सच्चे क्षत्रिय का कर्त्तव्य है । हरयाणा-वासियों में क्षात्र-धर्म आज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है । यहां के लोग युद्धप्रिय हैं । "एक रोहतकी सौ कौतकी" इनकी युद्धप्रियता का प्रमाण है । अनेक महायुद्ध हुए जिनमें इनकी वीरता जगत्प्रसिद्ध है ।

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हैदराबाद आर्य सत्याग्रह, पंजाब हिन्दी सत्याग्रह आदि अनेक अवसरों पर इन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को नाकों चने चबाये हैं । यह इन पर शिवजी के ही रुद्र रूप की छाप है । इस प्रान्त में जन्म चाहे किसी जाति में लिया हो, किन्तु क्षात्र धर्म का गुण प्रायः सभी में किसी न किसी अंश में पाया जाता है । 'कण्टक देश कठोर नर" के अनुसार यहां का मनुष्य कठोर प्रकृति का अर्थात् युद्ध-प्रिय क्षत्रिय प्रकृति का है ।


शिवजी का रौद्र रूप अर्थात् दुष्टों को दण्ड देना, अन्याय का प्रतिरोध करना और श्रेष्ठों की रक्षा करना यह शिवजी महाराज के सच्चे क्षत्रियों के गुण यहां के निवासियों में आज तक प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान हैं । इसलिये शिवजी महाराज के प्रति इनकी श्रद्धा होना और उनके नाम पर अपने प्रदेश का नाम हरयाणा रखना स्वाभाविक ही है ।


१२.
पौराणिक काल में लगभग आज से तीन हजार वर्ष पूर्व जब जैन और बौद्धों को देखकर आर्य जाति में मूर्तिपूजा प्रचलित हुई, तब उस समय के पौराणिक ब्राह्मणों को भय हुआ कि कहीं उनके यजमान सब जैन वा बौद्ध न बन जायें तो ब्राह्मण उनको

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भयभीत करने के लिये निम्न प्रकार के श्‍लोकों की रचना करने लगे -

न वदेद्यावनीं भाषां प्राणै कण्ठगतैरपि ।

हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् ॥


चाहे कितना भी दुःख प्राप्‍त हो और मृत्यु का समय भी क्यों न आ जावे तो भी यावनी अर्थात् म्लेच्छ भाषा मुख से न बोलनी चाहिए और उन्मत्त हाथी मारने को क्यों न दौड़ा आता हो, तो भी जैन मन्दिर में प्रवेश कर बचने की अपेक्षा हाथी के सामने जाकर मर जाना अच्छा है ।


इस प्रकार के श्‍लोकों की रचना का उद्देश्य केवल एकमात्र यही था कि उस समय आर्य लोग जैन, बौद्ध बनने से बच जावें । जब इतने मात्र से भी कार्य चलता दिखाई न दिया तो पौराणिक ब्राह्मणों ने १८ (अठारह) पुराणों की रचना की और जैन तीर्थङ्करों के समान विष्णु के अवतार की रचना कर डाली । शिव, राम, कृष्ण आदि राजाओं को देवता व अवतार मानकर उनकी मूर्त्तियां बनाईं और मूर्त्तियां मन्दिरों में स्थापित करके उनकी पूजा करवाने लगे । इसी प्रकार कहीं शिव की मूर्त्ति, उनकी रानी पार्वती और उनके पुत्र गणेशकार्त्तिकेय की मूर्त्ति तथा


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उनके वाहन नन्दी, मूषक और मयूर आदि की भी पूजा होने लगी । इनके अतिरिक्त विष्णु, लक्ष्मी, ब्रह्मा, राम और सीता तथा कृष्ण और रुक्मिणी, आदि राजाओं व रानियों को विष्णु का अवतार बनाकर पूजने लगे । पौराणिकों के शैव और वैष्णव दो प्रसिद्ध सम्प्रदाय बन गये, इनकी शाख-प्रशाखाएँ तो अनेक थीं । प्रत्येक अपने-अपने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए प्रचार वा पुष्टि में लग गया । शैव सम्प्रदाय ने अपना शिव पुराण बना डाला और वैष्णवों ने विष्णु-पुराण की रचना कर डाली । इसी प्रकार सभी पुराण व अवतारों की रचना हुई तथा मूर्त्ति पूजा की जड़ जम गई । हरयाणा के लोग पहले ही शिव के भक्त थे । वे उनको अपना एक ऐतिहासिक आदर्श पुरुष मानते थे । अतः यहां के पौराणिकों के लिये यहां के लोगों से शिवजी की पूजा करवाना सहज और सरल कार्य था । अतः उन्होंने शिवजी महाराज की मूर्ति बनाकर शिवालयों में स्थापित कर दी और अपनी उदर पूर्ति के लिए पूजा करवाने लगे । इसी कारण सारे हरयाणा प्रान्त में शिवालय ही आपको दिखाई देंगे । विष्णु का मन्दिर आपको खोज करने से भी सम्भव है


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कहीं न मिल सके । जब कोई विवाह आदि संस्कार होता है तब भी यहां विघ्न निवारक शिव के पुत्र गणेश की पूजा की जाती है । सभी शिवालयों में शिव की पिण्डी, पार्वती, गणेश, नन्दी और कहीं-कहीं कार्तिकेय की भी मूर्ति मिलती है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है, कि यहां के लोग अपने पूर्वज, गणराज्य के संस्थापक शिवजी महाराज के प्रति अतीव प्रेम वा अटूट श्रद्धा रखते आये हैं । इस प्रेम वा अन्ध-विश्वास का लाभ उठाकर यहां के पौराणिक पुरोहितों ने अपने यजमानों से शिव और उनके परिवार की ही पूजा करवा डाली । इस प्रदेश में पाये जाने वाले पौराणिक उपासना मन्दिर सब शिवालय ही हैं, जो सिद्ध करते हैं कि हरयाणा-वासियों का शिव के साथ प्राचीन काल से ही घनिष्ट सम्बन्ध चला आता है । और यह सम्बंध शिव के साथ जितना गम्भीरतम है, उतना राम कृष्णादि किसी पूर्वज के साथ दिखाई नहीं देता ।


१३.
पौराणिक अन्धकार युग में अपने इस गणराज्य के संस्थापक को अज्ञान-वश अपना उपास्य देव मानकर इसकी मूर्ति बनाकर पूजा प्रारम्भ कर दी । अपनी मुद्राओं (सिक्कों) पर भी इनकी मूर्त्ति मुद्रित की । इससे अधिक और क्या प्रमाण और युक्तियां हो

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सकती हैं जो स्पष्टतया सिद्ध करती हैं कि शिवजी के इस हर नाम के कारण ही इस प्रदेश का नाम 'हरयाणा' पड़ा है । इस प्रदेश में जो नाम शिवजी के प्रेम की परम्परा के कारण रक्खे जाते हैं वे भी इसी बात को सिद्ध करते हैं । शिवजी के प्रसिद्ध नाम हर के अनुकरण में रखे गये कुछ परिचित नामों की तालिका नीचे दी जाती है ।

'हर' पर रखे जाने वाले नाम
१ हरनारायण ८ हरमल्ल १५ हरसिंह
२ हरदत्त ९ हरजस १६ हरदयाल
३ हरदेव १० हरबख्श १७ हरप्रसाद
४ हरपाल ११ हरलाल १८ हरधन
५ हरफूल १२ हरकेश १९ हरेतसिंह
६ हरकिशन १३ हरभजन २० हरगोविन्द
७ हरचन्द १४ हरकेराम २१ हरनाम


शिवजी महाराज के शिव नाम के अनुसार रखे गए नामों की तालिका -
'शिव' पर रखे जाने वाले नाम
१ शिवजी ८ शिवचन्द्र १५ शिवभानु
२ शिवलाल ९ शिवहरे १६ शिब्बनलाल
३ शिवप्रसाद १० शिवबख्श १७ शिवकृष्ण
४ शिवदत्त ११ शिवशंकर १८ शिवदेव
५ शिवपाल १२ शिवनारायण १९ शिवकुमार
६ शिवदयाल १३ शिवकर्ण २० शिवनाथ
७ शिवराम १४ शिवसिंह

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शिवजी के शंकर नाम पर रखे हुये नाम -
'शंकर' पर रखे जाने वाले नाम
१ शंकर ५ शंकरदेव ८ शंकरनाथ
२ शंकरसिंह ६ शंकरदयाल ९ मूलशंकर
३ शंकरलाल ७ शंकरानन्द १० रविशंकर
४ शंकरदत्त


शिव के रुद्र नाम पर रखे गये नाम -
'रुद्र' पर रखे जाने वाले नाम
१ रुद्र ३ रुद्रसिंह ५ रुद्रपाल
२ रुद्रदेव ४ रुद्रदत्त


शिव के महादेव नाम पर रखे गये नाम - १ महादेव, महादेवसिंह, महादेवप्रसाद आदि ।
हरयाणे के लोगों को शिव के पुत्र गणेश तथा गणराज्य से कितना प्रेम है यह प्रत्यक्ष रूप से यहां व्यक्तियों के निम्न प्रकार के रखे गये नामों से स्पष्‍ट प्रकट होता है -
'गणेश' पर रखे जाने वाले नाम
१ गणपत ४ गणेश ७ गणेशकुमार
२ गणपति ५ गणेशी ८ गणेशदत्त
३ गणपाल ६ गणपतराय ९ गणेशशंकर


१४.
जिस प्रकार शिव तथा उनके पारिवारिक जनों के साथ हरयाणा-वासियों का सम्बन्ध है उसी

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प्रकार शिव के राज्य में से निकलने वाली नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती भी इनके प्रेम और श्रद्धा की पात्र सदा से रही हैं । अतः पौराणिक काल से जो तीर्थ स्थान इन नदियों के तटों पर हरद्वार, गढ़मुक्‍तेश्‍वर, प्रयाग आदि बने हुये हैं, उन पर लगने वाले वार्षिक तथा कुम्भी और अर्धकुम्भी आदि मेलों पर यहां के निवासी सदैव श्रद्धापूर्वक स्नानार्थ जाते रहे हैं । इसी प्रकार इन नदियों पर व्यक्तियों के नाम भी इस प्रान्त में रखे जाते हैं जैसे गंगाराम, गंगादास, गंगाप्रसाद, गंगामल, गंगादत्त । जमुनासिंह, जमुनाराम, जमुनाप्रसाद आदि ।


इसी प्रकार देवियों के नाम भी शिवदेवी, हरदेवी, गंगादेवी, जमुनादेवी इत्यादि भी इसी प्रेम को प्रकट करते हैं । इसी कारण इस परम्परागत प्रेम के वशीभूत होकर जिस प्रकार लोग अपने नाम रखते हैं, उसी प्रकार अपने प्रान्त का नाम भी '"हरयाणा"' रखा है ।

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