Bharatavarsha

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The geographic region of Bharatavarsha

Bhāratavarṣa (भारतवर्ष), lit. country of Bharata, was the name of India during Mahabharata period. In the epigraphic records of India the name Bharatavarsha (L-10: भरधवस पठानं मही जयनं) appears for the first time in Kharavela's Hathigumpha Inscription. This name however denoted to Northern India by that time. [1]

Variants

Origin of name

The name is derived from the ancient Hindu Puranas, which refer to the land that comprises India as and uses this term to distinguish it from other varṣas or continents.[2]

The Bhāratas were vedic tribe mentioned in the Rigveda, notably participating in the Battle of the Ten Kings.

The realm of Bharata is known as Bharātavarṣa in the Mahabhārata (the core portion of which is itself known as Bhārata) and later texts. According to the text, the term Bharata is from the king Bharata, who was the son of Dushyanta and Shakuntala and the term varsa means a division of the earth, or a continent. [3]

The term in Classical Sanskrit literature is taken to comprise the present day territories of Indian subcontinent. This corresponds to the approximate extent of the historical Mauryan Empire under Emperors Chandragupta Maurya and Emperor Ashoka (4th to 3rd centuries BC). Later, political entities unifying approximately the same region are the Mughal Empire (17th century), the Maratha Empire (18th century) and the British Raj (19th to 20th centuries).

Geography in Mahabharata

Bhisma Parva, Mahabharata/Book VI Chapter 10 describes geography and provinces of Bharatavarsha. It gives list of The Mountains, The Rivers, The Provinces and Other Kingdoms in the south. ...Dhritarashtra said,--Tell me truly (O Sanjaya) of this Varsha that is called after Bharata = Bharatavarsha

भारत = भारतवर्ष

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...भारत = भारतवर्ष (AS, p.664): पौराणिक भूगोल के अनुसार भारतवर्ष जंबूद्वीप का एक वर्ष या भाग है. इसका नाम दुष्यंत-शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर प्रसिद्ध हुआ है. किंतु विष्णु पुराण के अनुसार भरत को ऋषभदेव का पुत्र बताया गया है जिसे ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राजपाट सौंप दिया था-- 'ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते, भरताय यतः पित्रा दत्तं प्रातिष्ठता वनम्' (विष्णु 2,1,32). विष्णु पुराण 2,3,1 में भारतवर्ष की निम्न परिभाषा है--'उत्तरं यत् यमुद्रस्य हिमादे शचैव दक्षिणाम्, वर्षं तदू भारतं नाम भारतो यत्र सन्ततिः'.

अगले श्लोकों में इस देश का विस्तार 9 सहस्त्र योजन कहा गया है और इसमें सात कुल पर्वतों की स्थिति बताई गई है. भारतवर्ष के निम्न नौ खंड या भाग हैं-- 'इन्द्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वारूण और भारत'. (विष्णुपुराण 2,3,6-7)

विष्णु पुराण के रचयिता ने देश प्रेम की भावना से अभिभूत होकर कितने सुंदर शब्दों में भारत की गौरव गाथा लिखी है--'अत्र जन्मसहस्त्राणां सहस्त्र रपि सत्तम, कदाचिल्लभते जन्तुर्म्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात्'(23) 'गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागी, स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्'(24) (विष्णु पुराण 2,3,23-24) अर्थात हे महापुरुष, सहस्रों

[p.665]: जन्मों के पुण्य संचित होने पर ही जिवों का, संयोग से, इस महान देश में जन्म होता है. देवगण भी निरंतर यही गान करते हैं कि स्वर्गापवर्ग के मार्ग स्वरूप इस भारत में जन्म लेकर मनुष्य देवताओं से भी अधिक गौरवशाली और धन्य हो जाते हैं.

वास्तव में बौद्ध धर्म के अपकर्ष के पश्चात और प्राचीन हिंदू धर्म के पुनर्रुजीवन काल (गुप्त काल) में, भारत के भौगोलिक स्वरूप में दृढ़ आस्था तथा इसके पर्वतों, नदियों, नगरों वरन् देश के प्रत्येक भूमि-भाग के प्रति प्रेम एवं उनकी तीर्थ रूप में मान्यता-- ये पुनीत भावनाएं प्रत्येक भारतवासी के हृदय में प्रतिष्ठित हो गई थी. इन्हीं भावनाओं ने गुप्त काल में जो कालिदास, विष्णु पुराण और महाभारत (नवीन संस्करण) का युग था, एक नई चेतना एवं राष्ट्रीय संस्कृति को जन्म दिया जिसका मुख्य आधार राष्ट्र की भौतिक तथा भौगोलिक एकता के प्रति अगाध और अटूट प्रेम था. बौद्ध धर्म की अंतरराष्ट्रीयता ने राष्ट्रीय एकता के सूत्र विच्छिन्न कर दिए थे. उन्हें इस काल में देश के मनीषियों ने, जिनमें पुराणों तथा धर्म शास्त्रों के रचयिता प्रमुख थे, बड़े परिश्रम से फिर से संजोया और इनके सुदृढ़ बंधन से पूरे भारत की समाज तथा संस्कृति को बांधकर एक महान राष्ट्र की स्थापना की जिससे सैकड़ों वर्षो तक शत्रुओं से देश की रक्षा होती रही.

जैन ग्रंथ जंबूद्वीप-प्रज्ञप्ति में भारतवर्ष को जंबूद्वीप के अंतर्गत चक्रवर्ती सम्राट का रराज्य बताया गया है और विंध्याचल (वैताढ्य) पर्वत द्वारा इसको आर्यवर्त और दक्षिणात्य दो विभागों में विभक्त माना गया है.

भारत का परिचय

पं. जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि, ‘संस्कृति का अर्थ मनुष्य का आन्तरिक विकास और उसकी नैतिक उन्नति है, पारम्परिक सदव्यवहार है और एक-दूसरे को समझने की शक्ति है।’ वस्तुत: संस्कृति से आशय मानव की मानसिक, नैतिक, भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं कलात्मक जीवन की समस्त उपलब्धियों की समग्रता से है।

भारत का नामकरण: भारतवर्ष का नामकरण के विषय में ऐसा कहा जाता है कि दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा है। कुछ विद्वानों का मत है कि ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था, और उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। ईरानियों ने इस देश को हिन्दुस्तान कहकर सम्बोधित किया है और यूनानियों ने इसे इण्डिया कहा है। प्राचीन साहित्य में भारतवर्ष को ‘भारतभूमि’ की संज्ञा दी गई है। इसे जम्बूद्वीप का एक भाग माना गया है। भारत को ‘चतु: संस्थान संस्थितम्’ कहा गया है।

हिन्दू शब्द भी महान् सिन्धु नदी से निकला है। सिन्धु प्रदेश प्राचीनतम सभ्यता का विकास स्थल रह चुका है।

प्राचीन उल्लेख: भारत के प्राचीन साहित्य में भारत को पाँच भागों में बाँटे होने का उल्लेख मिलता है। सिन्धु और गंगा के मध्य में मध्य प्रदेश था। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार यह भू-भाग सरस्वती नदी से प्रयाग, काशी तक और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार राजमहल तक फैला हुआ था। इसी क्षेत्र का पश्चिमी भाग 'ब्रह्मऋषि देश' कहलाता है। पतंजलि ने इस समस्त भू-भाग को 'आर्यावर्त' कहा है। स्मृतिग्रन्थों में आर्यावर्त हिमालय और विन्ध्य पर्वत के बीच बताया गया है। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार 'मध्यदेश' के उत्तर में ‘उत्तरापथ’ (उदीच्य), पश्चिम में ‘अपरान्त’ (प्रतीच्य), दक्षिण में ‘दक्षिणापथ’ (दक्खिन) और पूरब में ‘प्राच्यदेश’ (प्राची) थे।

भारतवर्ष के नौ भेद ‘मत्स्य पुराण’ में इस प्रकार से बताये गये हैं - इन्द्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वारूण और सागर।

व्यापार और संस्कृति के प्रसार से भारत के लोग जहाँ पर भी गए, वहाँ वह लोग उसे भारत ही समझने लगे। परन्तु वह सब भारत का हिस्सा नहीं था। भौगोलिक दृष्टिकोण से कश्मीर से लंका की सीमा तक और कश्मीर से असम तक ही भारत का सही भू-भाग था, जिसका प्रमाण हमें अपने ग्रन्थों से मिलता है।

शंकराचार्य ने अपने चार पीठों को बदरी - केदार, द्वारिका, पुरी और श्रृंगेरी (मैसूर) में स्थापित किया था।

भारतीयता: प्रान्तीय तथा स्थानीय विशेषताओं के बावजूद स्थापत्यकला, चित्रकला, संगीत, रंगमंच आदि में भारतीयता की झलक मिलती है। साहित्य, कला और चिन्तन के क्षेत्र में भी विचित्र साम्य देखने को मिलता है। संस्कृत को भारतीय एकता का सबसे बड़ा प्रमाण माना जा सकता है। भारत की सांस्कृतिक सम्पत्ति इसी भाषा में संरक्षित है। सुदूर दक्षिण में तमिलदेश या तमिलकम् था। आधुनिक इस देश का नाम भारत है।

वृहत्तर भारत: आधुनिक अनुसंधानों ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि प्राचीनकाल के भारतवासी केवल अपने देश की भौगोलिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं थे, वरन् उन्हें विदेशों का भी ज्ञान था, जहाँ पर उन्होंने अपने व्यापारिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना की थी। यह भी सिद्ध हो चुका है कि समस्त एशिया को सभ्य बनाने का मुख्य श्रेय भारत व चीन को जाता है। वृहत्तर भारत के अन्तर्गत यह समस्त भू-भाग आता है। जहाँ पर भी भारतीय पहुँचे और उन्होंने अपने उपनिवेशों की स्थापना की तथा वहाँ से सांस्कृतिक व व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये। वृहत्तर भारत से तात्पर्य भारत से बाहर उस विस्तृत भूखण्ड से है, जहाँ पर भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ तथा जिसमें भारतीयों ने अपने उपनिवेशों की स्थापना की।

संदर्भ: भारतकोश-भारत

External links

References

  1. Sadananda Agrawal: Śrī Khāravela, Published by Sri Digambar Jain Samaj, Cuttack, 2000,p.47
  2. Pargiter, F. F. (1922), Ancient Indian Historical Tradition, Delhi: Motilal Banarsidass, p. 131
  3. "Was the Ramayana actually set in and around today's Afghanistan?"
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.664-665