Kalidasa

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Author: Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

Kālidāsa (Sanskrit: कालिदासः) was a Classical Sanskrit writer, widely regarded as the greatest poet and dramatist in the Sanskrit language. His plays and poetry are primarily based on the Puranas.

Period

Much about his life is unknown, only what can be inferred from his poetry and plays. His life and time cannot be dated with precision, but most likely falls within the 5th century AD.

Scholars have speculated that Kalidasa may have lived near the Himalayas, in the vicinity of Ujjain, and in Kalinga. This hypothesis is based on Kalidasa's detailed description of the Himalayas in his epic Kumārasambhava (कुमारसंभव:) , the display of his love for Ujjain in Meghadūta (मेघदूत), and his highly eulogistic descriptions of Kalingan emperor Hemāngada in Raghuvaṃśa (रघुवंशम्) (sixth sarga).

The most popular theory is that Kalidasa flourished during the reign of Chandragupta II, and therefore lived around 4th-5th century CE. Several Western scholars have supported this theory.

महाकवि कालिदास

भारत में संस्कृत के महान कवियों में से एक महाकवि कालिदास को माना जाता है। कालिदास के जन्म के समय के विषय में विश्वसनीय जानकारी नहीं मिलती है। विद्वानों के मत के अनुसार चौथी अथवा पाँचवीं शताब्दी के मध्य में इनका जन्म हुआ था। अनुमान है कि 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईस्वी के मध्य में कालिदास का जन्मे होंगे। इन्होंने नाट्य, महाकाव्य तथा गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अद्भुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। जिस कृति के कारण कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, वह है उनका नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम’ जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक विक्रमोर्वशीय तथा मालविकाग्निमित्रम भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसंभवम्’ पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं।

व्यक्तिगत जीवन

महाकवि कलिदास ने अपनी कविताओं में सामान्यत: अलंकृत और शास्त्रीय संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया। ये अपनी अलंकार युक्त सुन्दर सरल और मधुर भाषा के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनका ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएँ अतुलनीय। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। ये पाटलीपुत्र में चंद्रगुप्त के महल में वास करते थे। किवदन्तियों के अनुसार कालिदास अत्यन्त सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके व्यक्तित्व ने राजकुमारी विद्योत्तमा को उनके प्रति आकर्षित किया। लेकिन वह मूर्ख थे, यह जानते ही विद्योत्तमा ने इन्हें अस्वीकृत कर दिया।

इसके पश्चात कालिदास ने देवी काली की पूजा की और उनके आशीर्वाद से ये अत्यंत बुद्धिमान और ज्ञानी हो गये। इसके पश्चात ये चन्द्रगुप्त के नौ रत्नों में सम्मिलित हुए।

महत्वपूर्ण कृतियां

अभिज्ञानशकुंतलम् : कालिदास की सबसे सुन्दर और प्रसिद्ध रचना के रूप में अभिज्ञानशकुंतलम को जाना जाता है। कालिदास की दूसरी रचना अभिज्ञानशाकुंतलम् है। कथावस्तु में राजा दुष्यन्त की कहानी है जो आश्रम में रहने वाली एक कन्या शकुन्तला से प्रेम करने लगते हैं। शकुन्तला मेनका और विश्वामित्र की बेटी हैं। विश्वामित्र की अनुपस्थिति में दुष्यन्त शकुन्तला से गन्धर्व विवाह कर निशानी के रूप में अपनी अँगूठी देकर अपने राज्य लौट जाते हैं। विश्वामित्र के वापस लौटने पर शकुंतला राजा दुष्यन्त के पास जाती हैं, तब ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण शकुन्तला की अँगूठी खो जाती है और दुष्यन्त उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। शकुन्तला तिरस्कृत होकर कण्व ऋषि के आश्रम में चली जाती हैं। विस्तृत घटनाक्रम में एक दिन जब वह अँगूठी राजा को मिलती है तब ऋषि का श्राप टूटता है। राजा को शकुन्तला की याद आती है, वे उसको ढूँढते हैं और अपनी भूल के लिए क्षमा माँगते हैं।

कालिदास ने दो और महाकाव्य कुमारसंभवम् एवं रघुवंशम् की रचना की। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है।

सीताबेंगरा गुहाश्रय

रामगढ़ शैलाश्रय के अंतर्गत सीताबेंगरा गुहाश्रय के अन्दर लिपिबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर इस नाट्यशाला का निर्माण लगभग दूसरी-तीसरी शताब्दी ई. पू. होने की बात इतिहासकारों एवं पुरात्त्वविदों ने समवेत स्वर में स्वीकार की है। सीताबेंगरा गुफ़ा का गौरव इसलिए भी अधिक है, क्योंकि कालिदास की विख्यात रचना 'मेघदूत' ने यहीं आकार लिया था। यह विश्वास किया जाता है कि यहाँ वनवास काल में भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के साथ पहुंचे थे। सरगुजा बोली में 'भेंगरा' का अर्थ कमरा होता है। गुफ़ा के प्रवेश द्वार के समीप खम्बे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिह्न अंकित हैं। कहते हैं कि ये चरण चिह्न महाकवि कालिदास के समय भी थे। कालीदास की रचना 'मेघदूत' में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं (अप्सराओं) की उपस्थिति तथा उसके रघुपतिपदों से अंकित होने का उल्लेख भी मिलता है। [1]

उच्छेट

विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...उच्छेट (AS, p.87) मधुबनी से 15 मील दूर एक छोटा-सा क़स्बा है। स्थानीय लोककथा के अनुसार महाकवि कालिदास को सरस्वती का वरदान इसी स्थान पर प्राप्त हुआ था तथा वे कवि बनने से पूर्व इसी ग्राम के निकट रहते थे। दुर्गा का एक प्राचीन मंदिर जिसे कालिदास की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है, उच्छेट में वह मन्दिर आज भी है।

पारस

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...पारस (AS, p.549) ईरान या फारस का प्राचीन भारतीय नाम है. पारस निवासियों को संस्कृत [p.550]: साहित्य में पारसीक कहा गया है. रघुवंश 4,60 और अनुवर्ती श्लोकों में कालिदास ने पारसीकों और रघु के युद्ध और रघु की उन पर विजय का चित्रात्मक वर्णन किया है, 'भल्लापवर्जितैस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीं। तस्तार सरघाव्याप्तैः स क्षौद्रपटलैरिव (4.63) आदि. इसमें पारसीकों के श्मश्रुल शिरों का वर्णन है जिस पर टीका लिखते हुए चरित्रवर्धन ने कहा है--'पाश्चात्या: श्मश्रूणि स्थापियित्वा केशान्वपन्तीति तद्देशाचारोक्ति:'अर्थात ये पाश्चात्य लोग सिर के बालों का मुंडन करके दाढ़ीमूछ रखते हैं. यह प्राचीन ईरानियों का रिवाज था जिसे हूणों ने भी अपना लिया था.

कालिदास को भारत से पारस देश को जाने के लिए स्थलमार्ग तथा जलमार्ग दोनों का ही पता था--'पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना । इन्द्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्त्वज्ञानेन संयमी' (4.60)

पारसीक स्त्रियों को कालिदास ने यवनी कहा है--'यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न सः । बालातपं इवाब्जानां अकालजलदोदयः (4.61)

यवन प्राचीन भारत में सभी पाश्चात्य विदेशियों के लिए प्रयुक्त होता था यद्यपि आद्यत: यह आयोनिया (Ionia) के ग्रीकों की संज्ञा थी. कालिदास ने 'संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्यैरश्वसाधनैः । शार्ङ्गकूजितविज्ञेयप्रतियोधे रजस्यभूथ् (4.62) में पारसीकों को पाश्चात्य भी कहा है. इस पद्य की टीका करते हुए टीकाकार, सुमिति विजय ने पारसीकों को 'सिंधुतट वसिनो मलेच्छराजान्' कहा है जो ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि रघु. 4,60 में (देखें ऊपर) रघु का, पारसीकों की विजय के लिए स्थलवर्त्म से जाना लिखा है जिससे निश्चित है कि इनके देश में जाने के लिए समुद्रमार्ग भी था. पारसीकों को को कालिदास ने 4,62 (देखें ऊपर) में अश्वसाधन अथवा अश्वसेना से संपन्न बताया है.

मुद्राराक्षस 1,20 में 'मेधाक्ष: पंचमो-अश्मिन् पृथुतुरगबलपारसीकाधिराज:' लिखकर, विशाखदत्त ने पारसियों के सुदृढ़ अश्वबल की ओर संकेत किया है. कालिदास ने प्राचीन ईरान के प्रसिद्ध अंगूरों के उद्यानों का भी उल्लेख किया है--'विनयन्ते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमं । आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलयभूमिषु (4.65).

विष्णु पुराण 2,3,17 में पारसीकों का उल्लेख इस प्रकार है-- 'मद्रारामास्तथाम्बाष्ठा:, पारसीका दयास्तथा'.

ईरान और भारत के संबंध अति प्राचीन हैं. ईरान के सम्राट दारा ने छठी सदी ईसा पूर्व में पश्चिमी पंजाब पर आक्रमण करके कुछ समय के लिए वहां से कर वसूल किया था. उसके नक्शे-रुस्तम तथा बहिस्तां से प्राप्त अभिलेखों में पंजाब को दारा के साम्राज्य का सबसे धनी प्रदेश बताया गया है. संभव है गुप्त काल के राष्ट्रीय कवि कालिदास ने इसी प्राचीन कटु ऐतिहासिक स्मृति के निराकरण के लिए रघु को पारसीकों पर

[p.551] विजय का वर्णन किया है. वैसे भी यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गुप्त सम्राट महाराज समुद्रगुप्त को पारस तथा भारत के पश्चिमोत्तर अन्य प्रदेशों से संबद्ध कई राजा और सामंत कर देते थे तथा उन्होंने समुद्रगुप्त से वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए थे. आठवीं सदी ई. के प्राकृत ग्रंथ गौडवहो (गौडवध) नामक काव्य में कान्यकुब्ज नरेश यशोवर्मन की पारसीकों पर विजय का उल्लेख है.

External Links

References