Vikram Singh
Vikram Singh (b.1842 - d.1898) (r.1874 - 8 August 1898) was Barar-Jat Raja of erstwhile Faridkot State.
History
Lepel H. Griffin[1] writes as under:
On the 11th March 1862, the right of adoption was granted him, with the annexed Sanad.* His son and heir is Bikrama Singh, born in January 1842, and married to the daughter of Raja Nahar Singh of Balabhgarh. The Raja himself has married four wives, Ind Kour, the daughter of Sham Singh Man of Munsab and mother of Bikrama Singh, the daughters of Basawa Singh of Raipur and Sirdar Gajja Singh of Lahore, and the widow of his brother Anokh Singh who died of cholera in 1845.
- * "Her Majesty being desirous that the Governments of the several Princes and Chiefs of India, who now govern their own territories, should be perpetuated, and that the representation and dignity of their houses should be continued, in fulfillment of this desire this Sunnud is given to you to convey to you the assurance, that on failure of natural heirs the British Government will recognise and confirm any adoption of a successor made by yourself or by any future Chief of your State that may be in accordance with Hindoo law and the customs of your race.
- "Be assured that nothing shall disturb the engagement thus made to you so long as your house is loyal to the Crown, and faithful to the conditions of the treaties, grants or engagements which record its obligations to the British Government."
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज
विक्रमसिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।
विक्रमसिंह
पिता के स्वर्गवास के बाद अपने राज के मालिक हुए। गद्दी नशीनी के समय बड़ी धूमधाम रही। सरकार के मिलिट्री व सिविल विभाग के बड़े-बड़े अफसरों के अलावा पटियाला के महाराज बहादुर श्री महेन्द्रसिंह जी भी फरीदकोट पधारे। अंग्रेज अतिथियों में कर्नल आरनेग पोलिटिकल एजेण्ट, कप्तान गिरे के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। गद्दी नशीनी के समय महाराज विक्रमसिंह की अवस्था 20 वर्ष की थी। आपको फारसी-उर्दू की शिक्षा मिली हुई थी। उन दिनों अंग्रेजी भाषा का
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-469
शनैः-शनैः प्रचार हो रहा था, इसलिए महाराज ने अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। राज का कार्य संभालते ही आपने सबसे पहले खजाने के हिसाबात की पड़ताल करनी चाही। क्योंकि बख्शी वीरसिंह जिसके कि चार्ज में खजाना था, महाराज को उस पर विश्वास कम था। खजाने और तोसाखाने की जांच के बाद बन्दोबस्त जमीन को दुरुस्त किया। अंग्रेजी ढंग पर मालगुजारी वसूल करने के कायदे बनाए। ऐसे लोगों को नौकर किया जो इलाका अंग्रेजी में काम कर चुके थे। अदालतों का ढ़ांचा भी अंग्रेजी ढंग पर बनाने की कोशिश की। दीवानी-फौजदारी की अदालतें बनाईं और अपील के नियम निर्धारित किए। अपराधों की जांच और अपराधियों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस-विभाग के लिए नियम बनाये। सैनिक विभाग भी नये ढंग का बनाया। शासन-संचालन के मामले में महाराज इतने चतुर थे मि पंजाब के लेफ्टीनेण्ट मि० सर हेनरी डेविस भी इनसे मदद लेते रहते थे।
जिस समय पंजाब को सरकार ने मद्रास की भांति अहाता बनाने की तैयारी की, उस समय रुपये की आवश्यकता पड़ने पर महाराज फरीदकोट ने सभी रियासतों से ज्यादा कर्जा अंग्रेज सरकार को बिना ब्याज के दिया। अर्थात् जहां कश्मीर ने सरकार को तीन लाख कर्ज दिया था, महाराज फरीदकोट ने छः लाख दिया था। अफगानिस्तान पर सन् 1878 ई० में जब अंग्रेज सरकार ने चढ़ाई की तो फौज, रिसाले और तोपों से महाराज ने सहायता दी। इन बातों से पता चलता है कि महाराज ने थोड़े ही समय में राज्य की आर्थिक व सैनिक दोनों शक्तियां ठीक कर ली थीं।
अंग्रेजी सरकार ने इस सहायता से प्रसन्न होकर पहली जनवरी सन् 1879 ई० को गवर्नर-जनरल की ओर से महाराज फरीदकोट और उनके जां-नशीनों को “फरजन्द सआदत निशान हजरत कैसरे हिन्द” का अलकाव प्रदान किया, जिसे महाराज ने एक बड़े दरबार में स्वीकार किया। महाराज की जो फौज अफगानिस्तान गई थी उसकी सच्चाई, नेकचलनी, बहादुरी और सैनिकता की सभी अंग्रेज अफसरों ने महाराज को चिट्ठियां लिख कर खुशी जाहिर की थी। महाराज अंग्रेजों की सहायता करने से कभी नहीं चूके। काहिरा की लड़ाई के समय तथा चीन के झगड़े के समय उन्होंने सरकार को सब तरह की मदद देने की इच्छा प्रकट की थी। अफगानिस्तान में मारे गए सैनिकों के परिवार की सहायता के लिए जब सरकार ने फण्ड खोला तो महाराज ने दिल खोलकर रुपये से सहायता की। इन सहायताओं से अंग्रेज सरकार महाराज फरीदकोट की काहिल हो चुकी थी। यहां तक कि सन् 1878 ई० में प्रिन्स ऑफ वेल्स सप्तम एडवर्ड पंजाब में पधारे और पंजाबी राजाओं से मुलाकात की तो फरीदकोट के टीका साहब कुंवर बलवीरसिंह को अपनी गोद में बिठा लिया और बड़ा प्रेम प्रकट किया। साथ ही यह भी इच्छा
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-470
प्रकट की कि हम युवराज फरीदकोट की सवारी देखना चाहते हैं। लेकिन महारानी साहिबा के बीमार हो जाने के कारण महाराज व युवराज फरीदकोट लौट आए और प्रिन्स ऑफ वेल्स के साथ अधिक दिन रहने का संयोग प्राप्त न रहा।
महाराज ने मुल्की व राजनैतिक उन्नतियों के सिवा धार्मिक तथा कौमी कामों में भी खूब दिलचस्पी ली थी। सिख-धर्म के मुख्य ग्रंथ - ग्रन्थ-साहब की सरल और संक्षिप्त टीका कराई, और टीका कराने में जो खर्च हुआ, कुल अपनी ओर से किया। टीका कराने में 20 वर्ष तक ज्ञानी लोग काम करते रहे थे और एक लाख रुपया खर्च हुआ था। फिर टीका के छपाने का कार्य आरम्भ किया, जो महाराज बलवीरसिंह के समय में जाकर खतम हुआ। दूसरे, महाराज ने अमृतसर के गुरुद्वारे के ऊपर बिजली का प्रबन्ध कराया था, उस समय इस काम में अब से कई गुना खर्च होता था। प्रजा के अन्य मजहबी लोगों के अमन-अमान का भी महाराज खूब ध्यान रखते थे। एक समय मुसलमानों के दो सम्प्रदायों में मजहबी झगड़ा चला। महाराज ने दोनों फिरकों के विद्वानों को बुलाकर सत्य बात जानने के लिए मुवाहिसा कराया। लेकिन मुवाहिसे से कोई बात तय नहीं हुई, इसलिए फिर अपने ही विचारों के माफिक उनके झगड़ों का निबटारा कर दिया।
देश में सब तरह का अमन था। अंग्रेजों के कानूनी राज्य ने जहां विद्रोही लोगों को दबाया था, वहां रईसों के घरेलू झगड़ों को भी अपने रौब से सदा के लिए मिटा दिया था। जहां आए दिन भगवती लपलपाया करती थी, वहां अब बिल्कुल सन्नाटा था। इस समय को शान्ति का समय कहा जाता है। शान्ति के समय लोग अपनी माली हालत सुधारने, व्यापार बढ़ाने की धुनि में लगते हैं। राजा-रईस भी यही करते हैं। खजाने में रुपया तो था ही, महाराज ने भी फरीदकोट शहर को नए सिरे से बसाने की नींव डाली। पहले महाजन लोग गढ़ के भीतर रहते थे, अब गढ़ केवल राजमहल बनाने के लिए सुरक्षित रखा गया। गढ़ के बाहर शहर आबाद किया गया। नए ढ़ंग के बाजार, हाट, गली, कूचे और मकान बने। इस तरह फरीदकोट पहले से अधिक रौनक का शहर हो गया। बाग-बगीचे और कोठियों ने जहां उसकी शोभा को बढ़ाया, मन्दिर, स्कूल और शफाखानों ने उसे ख्याति दी। महाराज ने मुसाफिरों के आराम के लिए शहर में धर्मशाला और सराय भी बनाईं। नए ढ़ंग के शहर में मंडी के बनवाने से व्यापारिक उन्नति हुई। शहर के चारों ओर सड़कें बनवाईं। इनके अलावा जो सड़क फिरोजपुर राज्य की सीमा तक आती थी, उसे कोटकपूरा तक महाराज ने पूरा कर दिया, जिससे यात्रियों को बड़ी सुविधा हो गई।
इन्हीं महाराज के समय में राज्य में होकर रेल निकली जो सरकार अंग्रेजी की है। वह कोट कपूरा, भटिंडा, सिरसा और हिसार से होती हुई रेवाड़ी जंक्शन
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-471
से देहली और बम्बई को चली गई है। रेलवे के सिवा राज्य में नहर का प्रबन्ध महाराज के आगे हो गया जिससे बहुत से भू-भाग की सिंचाई हो जाती थी।
महाराज के तीन औलाद हुईं - दो पुत्र और एक पुत्री। संवत् 1926 में भादों बदी अष्टमी को राजकुमार बलवीरसिंहजी का जन्म हुआ और संवत् 1942 फागुन में रियासत मनी (अम्बाला जिले में है) के राजा भगवानसिंहजी की की सुपुत्री के साथ राजकुमार साहब की शादी हुई।
पौष संवत् 1933 ई० में राजकुमारी पैदा हुई जिनकी शादी 1955 विक्रमी में मुरसान (अलीगढ) के राजकुमार के साथ हुई। सावन सं० 1936 विक्रमी में कुंवर गजेन्द्रसिंहजी पैदा हुए जिनकी शादी संवत् 1951 में बूडिया (अम्बाला) में हुई। ये शादियां महाराज ने बड़ी धूमधाम के साथ कीं, बड़ा ही धन खर्च किया। राजा प्रजा दोनों ने इन शादियों में भारी खुशियां मनाईं। महाराज ने सदावर्त भी कायम किये। थानेसर में तथा फरीदकोट में गरीब और अभ्यागत लोगों को बना हुआ भोजन देने का प्रबन्ध हुआ जो बहुत दिन तक बराबर चला जा रहा।
महाराज के समय में सभी बातें अच्छी हुईं, प्रजा और सरदार सभी महाराज से खुश रहे। किन्त खेद इतना है कि युवराज साहब और महाराज में किन्हीं कारणों से अनबन हो गई। वह अनबन यहां तक बढ़ी कि अंग्रेजी पोलीटिकल डिपार्टमेंट तक यह बात पहुंच गई और महाराज के अन्तिम काल तक अनबन न मिटी। ऐसे योग्य महाराज का सन् 1898 ई० के अगस्त महीने में स्वर्गवास हो गया। उस समय युवराज साहब पहाड़ पर थे, तार देकर उनको राजधानी में बुलाया गया। स्वर्गवासी महाराज का शोक राज्य और राज्य के बाहर सब जगह मनाया गया।
References
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