Bishnoi Samaj Aur Paryavaran Raksha

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

पर्यावरण रक्षा और बिश्नोई समाज

मुक्तिधाम मुकाम प्रवेश द्वार
बिश्नोई समाज की झलक

पर्यावरण रक्षा और बिश्नोई समाज

मरुभूमि पर जल, जंगल एवं जीव- जंतुओं के संवर्धन एवं उनके संरक्षण को कुछ मध्यकालीन संतों ने अपने उपदेशों में सर्वोपरि महत्व दिया। गुरु जाम्भोजी और सिद्ध जसनाथजी ने नए पंथ स्थापित कर पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने हेतु समाज का पथ-प्रदर्शन किया। उन्होंने जंगल और जीव-जंतुओं के संरक्षण संबंधी धर्म-सिद्धान्त प्रतिपादित किए। इसलिए इन्हें मरुप्रदेश में पर्यावरण आंदोलन का प्रणेता माना जा सकता है।

गुरु जाम्भोजी और सिद्ध जसनाथजी के समय पर्यावरण शब्द प्रचलन में नहीं था लेकिन वे दोनों पर्यावरण सरंक्षण के मामले में अपने जमाने से बहुत आगे थे। मरुभूमि के इन दूरदर्शी संतों ने पर्यावरण संरक्षण के महत्व को जानकर-समझकर आमजन की मायड़ भाषा में धर्मादेश जारी किए और मरू प्रदेश में पारिस्थितिकी संतुलन क़ायम करने में युगांतरकारी भूमिका निभाई।

रेतीली धरती पर बड़ी मुश्किल से पनपने और पलने वाले पेड़ो व जीव-जंतुओं को मानव द्वारा नुकसान पहुंचाने को बिश्नोई एवं जसनाथी सम्प्रदायों ने धर्म-विरोधी कृत्य क़रार दिया। शरीर की स्वच्छता के साथ- साथ मन-मष्तिष्क को भी वैचारिक रूप से प्रदूषण मुक्त रखने का आह्वान किया। पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ कर असंतुलन पैदा करना और सामाजिक स्तर पर विभेद या वैमनस्य पैदा करने के कृत्य को भी उन्होंने प्रदूषण की श्रेणी में माना। इसके अलावा इन पंथों ने तत्समय हिंदू व इस्लाम धर्मों में प्रचलित आडम्बरों तथा रूढ़ियों का खंडन कर आमजन को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाया एवं समाज के नैतिक स्तर को ऊपर उठाने हेतु कुछ रचनात्मक धर्म-नियम भी बनाए।

पर्यावरण संरक्षण एवं नैतिक मूल्यों के उत्थान हेतु बिश्नोई पंथ द्वारा दिए गए युगांतरकारी योगदान के बारे में विस्तृत अध्ययन करने के उपरांत ये आलेख तैयार किया है। पढ़िए और जानिए।

बिश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक गुरु जम्भेश्वर (लोक भाषा में जाम्भोजी 1451-1536 ई०) ने मध्यकालीन राजस्थान में पर्यावरण चेतना के एक प्रखर प्रवक्ता के रूप में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। प्रबल धारणा यह है कि उनके द्वारा प्रतिपादित 29 नियमों (बीस+नौ) अर्थात बीस और नौ /नोई के कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम 'बिश्नोई' पड़ा। बता दें कि पुराने जमाने में आमजन में गिणती की अधिकतम सीमा बीस तक ही प्रचलित थी। दो हाथ-दो पैरों की अंगुलियों की कुल संख्या 20 को गिणती की अधिकतम सीमा मानकर चलते थे। एक मान्यता ये भी है कि जाम्भोजी के आराध्य देव विष्णु से बना 'विष्णोई' (अर्थात विष्णु उपासक) शब्द कालातंर में परिवर्तित होकर 'विश्नोई या बिश्नोई' हो गया।

गुरु जम्भेश्वर का जन्म 1451 ईसवी में गांव पीपासर (जिला-नागौर) में पंवार गोत्र के लोहट जी के घर हुआ। माता का नाम हंसा बाई था। जाम्भोजी ने लगभग 27 वर्ष की उम्र तक गाय चराने का काम किया। इस दौरान मरुभूमि के देहाती परिदृश्य (pastoral landscape) से उनका रागात्मक लगाव हो गया। माना जाता है कि 16 साल की उम्र में उनकी मुलाकात एक सद्गुरु से हुई और उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा ली। माता- पिता की मृत्यु के बाद सन 1483 में घर-बार छोड़कर जाम्भोजी ने समराथल धोरा (तहसील-नोखा जिला-बीकानेर) को अपनी तपस्थली बना लिया।

बिश्नोई संप्रदाय का प्रवर्तन

विश्नोई संप्रदाय की स्थापना समराथल धोरे (तहसील-नोखा, जिला-बीकानेर) पर हुई और यही जाम्भोजी का प्रमुख कार्य स्थल रहा। सम्वत् 1542 (सन 1485) की कार्तिक बदी अष्टमी को जाम्भोजी ने समराथल के धोरे पर बड़े पैमाने पर एक यज्ञ का आयोजन किया। इसमें कई जातियों व वर्गों के भारी संख्या में लोग शामिल हुए। यज्ञ की शुरुआत से पहले गुरु जम्भेश्वर ने इसी धोरे पर स्नान किया। फिर हाथ में माला लेकर और मुख से हरि (विष्णु) नाम का जप करते हुए कलश-स्थापन कर पाहल (अभिमंत्रित जल/ consecrated water) तैयार किया। तदुपरांत गुरु जम्भेश्वर ने वहाँ उपस्थित अपने भक्तों को 29 नियमों (tenets) की दीक्षा एवं पाहल का आचमन करवाकर बिश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की।

जाम्भोजी से पाहल लेकर सर्वप्रथम बिश्नोई बनने वालों में पूल्होजी पंवार थे। विभिन्न जाति-धर्म के लोगों द्वारा पाहल लेकर बिश्नोई बनने की ये प्रक्रिया अष्टमी से लेकर कार्तिक अमावस (दीपावली) तक प्रतिदिन चलती रही और इस प्रकार बिश्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन हुआ। 

मारवाड़ रियासत के जनसंख्या अधीक्षक (सेंसस सुपरिटेंडेंट) मुंशी हरदयाल द्वारा बिश्नोई समाज पर लिखी क़िताब में उल्लेख है कि 'साल 1487 में इस इलाके में जब जबरदस्त सूखा पड़ा तो जम्भोजी ने वहां के लोगो की बड़ी सेवा की। उस वक्त बड़ी तादाद में जाट समुदाय के लोगों ने जम्भो जी से प्रेरित होकर बिश्नोई धर्म को अपना लिया।' मालूम हो कि अधिकांश बिश्नोई जाट जाति से बने हैं, जिन्हें बिश्नोई जाट भी कहा जाता है। ये सारा इलाका तत्समय जाट बाहुल्य था।

जांभोजी ने बिश्नोई पंथ का स्वरूप मानवतावादी (humanitarian in character) रखा। बिश्नोई सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए उनतीस नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक कहावत है:

“उणतीस धर्म की आंकड़ी, हृदय धरियो जोय। जाम्भोजी जी कृपा करी नाम विश्नोई होय ।”

निर्गुण भक्ति धारा का सम्प्रदाय : जाम्भोजी ने निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया। 'विष्णु स्मरण' और 'निष्काम कर्म' का संदेश दिया। विष्णु को निर्गुण निराकार ब्रह्म का समानार्थी शब्द माना। जाम्भोजी के 120 शब्द (अर्थात उपदेश/ प्रवचन) प्रचलन में हैं जो 'शब्दवाणी' के नाम से जाने जाते हैं। उनकी 'वाणी' में अद्वैतवाद (monoism ) स्पष्ट रूप से उजागर होता है।

मध्ययुगीन धर्म सुधारकों की कड़ी में गुरु जम्भेश्वर ने तत्समय हिंदू तथा इस्लाम धर्म में व्याप्त आडंबरों की आलोचना की। उनकी शिक्षाओं में अन्य धर्मों व सम्प्रदायों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने जैन धर्म से अहिंसा एवं दया का सिद्धान्त तथा इस्लाम धर्म से मुर्दों को गाड़ना तथा विवाह के समय मुहूर्त नहीं निकलवाना, फेरे नहीं लेना आदि परम्पराएँ ग्रहण की हैं। उनकी शिक्षाओं पर वैष्णव सम्प्रदाय, नानकपंथ आदि का भी स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। उन्होंने विभिन्न धर्मों व पंथों के सिद्धांतों का समन्वय कर बिश्नोई पंथ की नींव रखी। जाम्भोजी को विभिन्न धार्मिक परंपराओं और भारतीय लोक संस्कृति का संश्लेषक और रक्षक (synthesist and protector) माना जा सकता है।

जाम्भोजी ने अपने उपदेशों में विशेष तौर पर स्वच्छता, शुद्धता, पवित्रता, पर्यावरण संरक्षण और मानवीय मूल्यों पर बल दिया। इनके वचनों का सामूहिक नाम 'समुद्र वाणी' है। जिस स्थान पर जांभोजी उपदेश देते थे उसे साँथरी कहा जाता है। 'शब्दवाणी' की भाषा सरल राजस्थानी (unsophisticated Rajasthani ) है जो कि पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण लोगों के आसानी से समझ में आ सकती है। यह 'शब्दवाणी' श्रुति परंपरा ( oral tradition ) से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही। विल्हो जी ( 1532- 1616 ) ने पहली बार उन्हें लिपिबद्ध करवाया। बिश्नोई परंपरा के कई कवि हुए हैं, जिनमें प्रमुख नाम ये है: तेजोजी चारण, उदोजी नैण, मेहोजी गोदारा, विल्होजी, केसोजी आदि।

शिक्षाएं

जाम्भोजी ने मूर्ति पूजा, पशु-बलि, मांसाहार, मदिरापान, अतार्किक कर्मकांडों का जमकर विरोध किया। उनके द्वारा प्रतिपादित 29 नियमों में शारीरिक स्वच्छता, जीवन में आचरण की शुद्धता, जीव-जगत के प्रति दया भाव, उदारता और आत्म संतोष अपनाने पर जोर दिया गया है। अपने अनुयायियों को उन्होंने क्रूरता, चोरी-जारी, झूठ, लोभ-लालच, नशे से दूर रहने एवं किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली बुरी बात नहीं बोलने और झूठी बहसबाजी में नहीं पड़ने एवं काम- क्रोध आदि कुप्रवृत्तियों से बचने का उपदेश दिया। यह भी कहा कि बाधाओं के बावजूद आदमी को सद्कर्म की राह पर आगे बढ़ते चलना चाहिए।

बिश्नोई पंथ के 29 नियमों में से 8 नियम पशु-पक्षियों-वृक्षों एवं पर्यावरण की रक्षा से सम्बन्धित हैं। हर प्रकार की हिंसा से दूर रहना, पेड़ नहीं काटना, जीव- जंतुओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना, उनकी हत्या नहीं करना, सभी जीवो के जीवन की रक्षा करना आदि पर जोर दिया गया है।

स्वच्छता एवं शुद्धता संबंधी नियम:

सेरा करो स्नान (प्रातः काल नित्य स्नान करना)
‘सेरा उठै सुजीव छांण जल लीजियै,
दांतण कर करै सिनान जिवाणी जल कीजियै’’
(बत्तीस आखड़ी {वील्हाजी})।

सुबह जल्दी उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर, दांतुन कर, फिर छाणकर जल ग्रहण करके स्नान करना चाहिए।

पाणी, दूध और ईंधण का छानना: 'पाणी, वाणी, ईंधणी इतना लीजो छाण’…

स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल के महत्व को रेखांकित किया। पानी को हमेशा छानकर पीने का नियम इसलिए निर्धारित किया ताकि प्रदूषित पानी से फैलने वाली बीमारियों से बचा जा सके।

जल, दूध को छान करके पीने और जलावन (लकड़ी, उपले आदि ) को झाङकर जलाने की बात कही गई है। कारण यह है कि लकड़ी आदि ईंधन में छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े घुसे रहते हैं। बिना झाड़े इसे जलाने से अंदर घुसे जीव लकड़ी के साथ ही जल कर भस्म हो जाते हैं। ऐसा करना पाप का भागी बनना है। इसी प्रकार जल में भी छोटे-छोटे जल- जीव मौजूद रहते हैं। जल को छाने बैगर पीने से जीव हत्या के साथ- साथ अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी पैदा हो जायेंगी। इसलिए कहा गया है-

"पानी पी तू छान कर निर्मल बाणी बोल, 
इन दोनों का वेद में नहीं मोल कछु तोल" 

दूध को भी इसी प्रकार छान कर पीना चाहिए क्योंकि उसमें भी गाय-भैंस-बकरी के रोयें आदि अंदर गिर जाते हैं।

नैतिकता संबंधी नियम   शील: शील व्रत का पालन करने पर जोर दिया गया है। 'शील' शब्द के प्रसंगानुसार कई अर्थ हो सकते हैं। किन्तु यहां 29 नियमों में 'शील' शब्द का अर्थ मर्यादा पालन से है। आपसी संबंधों की मर्यादा का पालना करना व समाज में 'काण-क़ायदा (शिष्टाचार निभाना) रखना जरूरी है। ऐसा कर व्यक्ति पवित्र जीवन व्यतीत कर सकता है।

सन्तोष: जीवन में लालच के फेर में नहीं पड़कर आत्मसंतोष रखना चाहिए। इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। लोभ व्यक्ति को बुराई के रास्ते पर ले जाता है।

'शुचि प्यारो': शरीर की स्वच्छता तथा वैचारिक ( मनमस्तिष्क की ) शुद्धता को जीवन में महत्व दिया जाना चाहिए। शरीर की शुद्धि तो स्नानादि से होती है पर मन-मस्तिष्क की शुद्धि अच्छे विचारों को प्रश्रय देने से ही होती है। इसलिए 'शब्दवाणी' में भी कहा है-

‘तन मन धोइये संजम होइये हरख न खोइये।’’

इसका निहितार्थ ये भी है कि पवित्र प्रेम एक दूसरे के प्रति सदा बनाये रखें, क्योंकि आपसी प्रेमाभाव से ही दुनिया का सम्पूर्ण व्यवहार सुचारू रूप से चल पाता है।

बांणी - वाणी पर संयम रखने की आज्ञा दी गई है। बोलने से पहले शब्दों को दिमाग़ की छलनी से छानकर बोलना चाहिए। अर्थात् वही बोलें जो सच हो, प्रिय हो, हितकर हो। शब्दों से विष वमन करने से बचें। ऐसा कुछ नहीं बोलें जिससे दूसरों से वैमनस्यता बढ़े, लड़ाई-झगड़े की नौबत पैदा हो। इसलिए बोलने से पहले सोचें, शब्दों को तौलें, फिर बोलें। बोलने से पहले जुबान को दिमाग़ से जोड़ लेना जरूरी। इस प्रकार बेलगाम जबान से आपसी रिश्तों में पड़ने वाली दरारों से बचा जा सकता है। सांस्कृतिक प्रदूषण से भी बचाव करने का संकेत इस नियम में मिलता है

क्षमा और दया: 'क्षमा दया हृदय धरो, गुरू बतायो जाण' क्षमा भाव तथा प्राणियों के प्रति दया भाव जरूरी है। व्यक्ति में क्षमा भाव होगा तो वह दूसरों पर दया कर सकेगा। इसी तरह यदि उसमें दया भाव होगा तो वह क्षमा भी कर सकेगा। इसलिए क्षमा और दया दोनों को एक ही नियम के अंदर रखा गया है।

'चोरी निन्दा झूठ बरजियो, वाद न करणों कोय।' चोरी, निंदा, झूठ तथा व्यर्थ विवाद का त्याग करना, सहनशीलता बनाए रखना एवं काम, क्रोध, मोह एवं लोभ का नाश करने सम्बन्धी नैतिक नियम भी इन 29 नियमों में समाहित किए गए हैं।

पर्यावरण संरक्षण संबंधी नियम:

जाम्भोजी अपने एक 'शब्द' में कहते हैं:

“जीव दया पालणी, रूंख लीलो न घावें।”

अर्थात “जीव मात्र के लिए दया का भाव रखें, और हरा वृक्ष नहीं काटे”। हरा वृक्ष इसलिए नहीं काटना चाहिए क्योंकि हरा वृक्ष प्राणवान होता है। दिन-रात बढ़ता है तथा हवा- जल-भोजन आदि ग्रहण करता है। "जीव दया पालनी", यह नियम संसार के समस्त जीवों ( चल-अचल जैसे पेड़-पौधे ) के प्रति दया भाव बनाए रखने पर जोर देता है। अहिंसा के सिद्धांत के महत्व को स्वीकार करता है।

जीव दया: 'जीव दया पालणी' का नियम 'जीओ और जीने दो' के सिद्धांत से दस कदम आगे का है। बिश्नोई पंथ का यह नियम इस बात पर जोर देता है कि न आप स्वयं ही किसी को मारेंगे और न ही किसी जीव को मारने देंगे। इसीलिए यह नियम 'जिओ और जीने दो' के सिद्धांत से गुरूत्तर है।

हरे 'रूंख (वृक्ष ) की रक्षा

'रूंख लीला नहिं घावै।'

हरे वृक्ष नहीं काटने की धार्मिक आज्ञा दी गई है। हरे वृक्ष हमें असंख्य जीवनदायिनी वस्तुयें प्रदान करते हैं। खुद धूप- गर्मी, लू, ठण्ड सहन करके जीवों को शीतलता एवं फल-फूलों की सौगात प्रदान करते हैं। पेड़ों को बेरहमी से काट डालने का सीधा सा मतलब आदमी का अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है।

हरे वृक्ष में भी जीव-जंतुओं की तरह प्राण होते हैं। तभी तो इनमें बढ़ोतरी होती रहती है और फलते-फूलते रहते हैं। पेड़- पौधों से हमें प्राणवायु ( ऑक्सिजन ) मिलती रहती है। जिंदा रहने के लिए ऑक्सिजन की हर पल जरूरत होती है। पेड़ हैं तो जीवन है। पेड़ों की सघनता बरसात को अपनी ओर खींचकर लाने में सहायक होती है। इसके अलावा पेड़-पौधे हमें फल, फूल व ईंधन और छाया आदि की सौगात मुफ़्त में देते रहते हैं। पशु-पक्षियों को आसरा देते हैं। वृक्षों को धरती पर जिंदा देव अगर कोई हैं तो वृक्ष हैं। इसलिए पेड़ों को काटना या उनको कोई क्षति पहुंचाना पाप है, धर्म विरोधी कृत्य है।

एक और शब्द में जाम्भो जी कहते हैं-

“बरजत मारे जीव, तहां मर जाइए।”

अर्थात “जीव हत्या रोकने के लिये समझाने-बुझाने के बाद भी कोई हत्यारा नहीं माने तो स्वयं आत्म बलिदान कर दो।”

पशु-अत्याचार पर रोकथाम: 'अमर रखावै थाट, बैल बधिया न करवौ' पशुओं के प्रति दया भाव को पुष्ट करने के लिए जाम्भोजी ने थाट अमर रखने और बैल को बधिया न करने का धर्म नियम बनाया। बकरों व मिण्डों ( नर भेड़) को कसाईयों को बेचने से मना किया। इनके लिए थाट( पशु शाला- protected forest ) बनाने का रास्ता सुझाया। उसमें ये अमर ही रहेंगे अर्थात इनको कोई नहीं मारेगा। स्वतः ही अपनी मृत्यु से मर जायेंगे। हालांकि थाट परम्परा वर्तमान में लगभग खत्म हो चुकी है। सुना है कि अब केवल रोटू गांव ( नागौर ) में ही इस परम्परा का आंशिक पालन हो रहा है।

बैल को बधिया (नपुसंक) बनाया जाता है तो वह दृश्य अति करुणामय तथा कष्टदायक होता है। बछड़े को असहनीय पीड़ा होती है। इसलिए बैल-बछड़ों को बधिया नहीं करने का यह नियम भी पशुओं के प्रति दया भाव को दर्शाता है। नशाखोरी से दूर रहने के नियम: 'अमल तमाखू भांग मांस, मद्य सूं दूर ही भागै।' बिश्नोई पंथ जे 29 नियमों में अमल, तम्बाकू, भांग, मद्य तथा मांस का त्याग करने की आज्ञा दी गई है।

दूरदर्शिता से सुसम्पन्न जांभोजी ने पर्यावरण संरक्षण को लोगों की दिनचर्या व उनके आचार-व्यवहार से जोड़ने हेतु उसे धर्म-नियम बना दिया। उन्होंने समझ लिया कि पारिस्थितिकी संतुलन का आधार पर्यावरण संरक्षण है।

जीवों पर दया करते हुए उनके पालन-पोषण करने एवं वन्य प्राणियों की सुरक्षा पर बल देने के नियम की बिश्नोई शुरू से ही पालन करते आए हैं। इसी का सुखद नतीजा है कि आज भी बिश्नोईयों के गाँवों में हिरण आदि वन्य जीव निर्भय से विचरण करते हुए देखे जा सकते हैं। बिश्नोई महिलाएं तो हिरण के बच्चों को दूध पिलाती हुई भी देखी जा सकती हैं। वन्यजीवों की शिकारियों से रक्षा और हरे पेड़ों की कटाई रोकने के लिए बिश्नोई द्वारा अपने प्राण उत्सर्ग करने के उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं।

जाम्भोजी की शिक्षाओं का बिश्नोईयों पर खासा प्रभाव पड़ा। वे मांस खाने और शराब पीने से परहेज़ करते हैं और अपनी ग्राम की सीमा में हिरण या अन्य किसी पशु का शिकार भी नहीं करने देते हैं। इसलिए इनके इलाकों में पर्यावरण संरक्षण को गति मिली है।

फ़िल्म अभिनेता सलमान खान ने 1-2 अक्टूबर, 1998 की दरमियानी रात कांकाणी गांव की सरहद पर दो काले हिरणों का शिकार किया था। इस प्रकरण में बिश्नोई समाज की सक्रियता के कारण सलमान खान को नाकों चने चबाने को मजबूर होना पड़ा। ◆ गुरु जाम्भोजी ने निर्गुण- निराकार "विसन" का जाप करने का उपदेश दिया था और उन्होंने "विसन" के अलावा किसी और देवता को मानने से इनकार किया था। ( शब्द नम्बर 5)

सर्वोच्च सत्ता, शक्ति जिसे संसार की परमसत्ता ( Absolute power ) कह सकते हैं, उसे जाम्भोजी ने "विसन" का नाम दिया। भगवान, अल्लाह आदि इसी परमसत्ता के नाम हैं। जाम्भोजी ने इस परम् सत्ता का निवास प्रकृति में बताया है। "हरि कनकेड़ी मंडप मेड़ी जहाँ हमारा वासा" "मोरे ध्यान वनस्पति वासो ओजु मंडल छायो"

परन्तु कालांतर में कुछ ताकतों द्वारा विसन को विष्णु में परिवर्तित कर सारा विमर्श ही बदल दिया गया। जाम्भोजी की शब्दवाणी के अब 120 'शब्द' ही उपलब्ध हैं। बाकी के सबद पता नहीं किन परिस्थितियों में गायब हुए।

जाम्भोजी ने कहा था " उत्तम कुली का उत्तम न होयबा कारण किरिया सारू" अथार्त ऊंचे कुल में जन्म लेने से कोई अच्छा नही हो जाता बल्कि व्यक्ति अपने कर्म से महान बनता है।

अभिवादन का तरीका : बिश्नोई सम्प्रदाय में परस्पर मिलने पर अभिवादन के लिए ‘नवम प्रणाम’ तथा प्रतिवचन में 'विष्णु नै जांभौजी नै’ कहा जाता है। बड़े-बुज़ुर्गों का पैर छूकर आभिवादन किया जाता है।

समाधि-स्थल

The magnificent marble tomb of Jambhoji at Muktidham Mukam

विक्रम सम्वत् 1593 (1536 ईसवी) मिगसर बदी/ कृष्ण पक्ष की नवमीं को जाम्भोजी महाराज का तालवा गांव (तहसील नोखा, जिला-बीकानेर) में देहावसान हुआ। उन्हें तालवा गांव के निकट मुकाम में एकादशी के दिन समाधि दी गईं। ये गांव उनके भौतिक शरीर का अन्तिम पड़ाव होने से यह तीर्थस्थल 'मुकाम' के नाम से विख्यात है। मान्यता है कि यहां निष्काम भाव से सेवा करने वालों को मुक्ति मिलती है। इसीलिए इसका नाम 'मुक्तिधाम मुकाम' है।

मुक्तिधाम मुकाम नोखा से 15 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। ये धाम बिश्नोई समाज की श्रद्धा एवं आस्था का बड़ा केन्द्र है। यहां पर समाधि मन्दिर है जो कि गुरु जम्भेश्वर भगवान की समाधि पर निर्मित है। यहाँ प्रति वर्ष फाल्गुन की अमावस्या को बिश्नोईयों का कुंभ कहा जाने वाला मेला भरता है।

मुकाम में वर्ष में दो बार मेले भरते हैं। फाल्गुन की अमावस्या को भरने वाला मेला तो प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। आसोज की अमावस्या को भरने वाले मेले की शुरुआत संत वील्होजी ने सम्वत् 1648 में प्रारम्भ किया था। पिछले कुछ वर्षों से हर अमावस्या को बहुत बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ पहुंचते हैं। मुकाम में  पहुंचने वाले सभी जातरी (तीर्थयात्री) समाधि के दर्शन करते हैं और धोक लगाते हैं। इन मेलों के अवसर पर यहां बहुत बड़ा हवन होता है, जिसमेें कई मण (लगभग ढाई मण का एक क्विंटल) घी एवं खोपरे होमे जाते हैं। जातरी पक्षियों के लिए चुगा भी डालते रहते हैं। जाम्भोजी की समाधि पर बने मन्दिर को 'निज मन्दिर' भी कहते हैं। मुकाम में मेलो में आनें वाले जातरियों के व्यक्तिगत मकान भी हैं तथा समाज की भी अनेक धर्मशालाएं बनी हुई हैं। मेलों की समस्त व्यवस्था अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा एवं अखिल भारतीय गुरू जम्भेश्वर सेवक दल द्वारा की जााती है।

मोलीसर बड़ा (चूरू) में जाम्भोजी मंदिर: मेरे गृह जिले चूरू में बिश्नोई समाज के कहीं-कहीं पर इक्का-दुक्का घर ही हैं। चूरू से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित गांव मोलीसर बड़ा की जोहड़ी में जाम्भोजी की स्मृति में एक छोटा सा थान पुराने जमाने से बना हुआ था। बुजुर्ग कहते थे कि यहाँ कभी जाम्भोजी पधारे थे। जोहड़ी में वे कुछ दिन रुके थे। गांव में बसे सिहाग जाट इसकी देखभाल किया करते थे। उन्होंने ये जानकारी बिश्नोई समाज से साझा की। लगभग दस साल पहले बिश्नोई समाज के सौजन्य से यहाँ गुरू जम्भेश्वर के मंदिर का निर्माण हो चुका है।

खेजड़ली गांव में चिपको आंदोलन

अमृता देवी पेड़ों की रक्षा करते हुये

राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- ‘सर साटे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण’, यानी सिर कटवा कर भी वृक्षों की रक्षा हो सके, तो इसे फायदे का सौदा ही समझिए।

(If you can protect the trees even by getting your head cut, then consider it a win-win deal. )

जोधपुर के खेजड़ली गांव में संवत् 1787 (सन् 1730) की भादवा सुदी (भाद्रपद शुक्ल) दशमी को खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए प्रकृति-प्रेमी विश्नोई पंथ के 363 लोगों की कुर्बानी की मिसाल विश्व इतिहास में अनूठी है।

इस ‘चिपको आंदोलन’ में स्त्रियां हरावल में थीं। कालांतर में उत्तरांचल में सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा उत्प्रेरित वन रक्षा के ‘चिपको अभियान’ को साधारण गृहणियों ने ही परवान चढ़ाया था।

खेजड़ली के बलिदान की गाथा ये है: बात है संवत् 1787 (सन् 1730 माह सितंबर ) की। तिथि थी भादवा सुदी (भाद्रपद शुक्ल ) दशमी। उस दिन मंगलवार था।

खेजड़ी का पेड़

मरुस्थल के कल्पवृक्ष के रूप में खेजडी के पेड़ को ही माना जाता रहा है। मारवाड़ (जोधपुर) के तत्कालीन महाराजा अभयसिंह के पिता महाराजा अजीत सिंह के समय से बिश्नोई बहुल गांवों में हरे वृक्ष नहीं काटने तथा शिकार नहीं करने की राजाज्ञा थी। बावजूद इसके हाकिम मय दलबल “खेजड़ली” गांव में आ धमका।

बता दें कि सन् 1730 में, तत्कालीन मारवाड़ राज्य पर जोधपुर महाराजा अभयसिंह (1702-1749) का शासन था। मेहरानगढ़ दुर्ग में मरम्मत और निर्माण कार्य के लिए चूने के भट्टो के लिए ईंधन की आवश्यकता थी। बिश्नोई बहुल गांवों और ढाणियों में खेजड़ी के संरक्षित सघन बीहड़/ वन पर लालची नज़रें टिकी हुई थीं। राजशाही के हुक्म पर जलाऊ लकड़ियों की आपूर्ति की व्यवस्था करने के लिए मारवाड़ रियासत के एक हाकिम गिरधारीदास भण्डारी ने कुछ मातहतों को साथ लिया और जोधपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली में हरे -भरे खेजड़ी के वृक्षों की कटाई करवाने के लिए कूच कर दिया।

खेती-किसानी की रुत थी। इसलिए गांव के लगभग सभी पुरुष खेतों में गए हुए थे। पर्यावरण संरक्षण को धर्म का अंग मानने वाले बिश्नोई पंथ की अनुयायी अमृतादेवी व उसकी तीन बेटियों को अचानक आस-पास के पेड़ों पर कुल्हाड़ियों की चोट की आवाज सुनाई दी। वे घटनास्थल पर दौड़ कर गईं। वहाँ देखा कि हाथों में कुल्हाड़ी लिए कुछ लोगों का समूह खेजड़ी के पेड़ काटने का जतन कर रहे हैं। एक तरफ वहीं पर पेड़ो की कटाई का हुक्म दे रहे हाकिम घुड़सवार गिरधारीदास को गांव के कुछ बड़े-बुजुर्ग समझाने-मनाने का प्रयास कर रहे थे कि वे पेड़ों की कटाई कतई नहीं करें। पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। बस इतना कह रहा था कि ये “राजा” की आज्ञा है। हरे-भरे वृक्षों पर कुल्हाड़ी के बेरहम प्रहार से अमृता देवी व्यथित हो उठी। वह तो हरे रुंखों (पेड़ों) को अपने परिवार का हिस्सा मानती रही थी। अब वीरांगना बन चुकी अमृता देवी ने हाकिम गिरधारीदास को ललकारते हुए कहा- “मेरे जीवित रहते, एक भी खेजड़ी नहीं कटेगी” और आगे बढ़ कर सामने कट रहे खेजड़ी के पेड़ के तने से लिपट गई और कहा कि-

"वाम लिया दाग लगे टुकड़ों देवो न दान
सिर साटे रूंख रहे तो भी सस्तो जांण”

अर्थात् यदि सर कट जाए और पेड़ बच जाए तो यह सस्ता सौदा है।

ये देखकर सब हतप्रभ रह गए। पेड़ काटने वाले चाकर अलग हट गये। इस पर हाकिम गिरधारीदास ने चिल्ला कर आदेश दिया कि “राजा की आज्ञा का उल्लंघन स्वीकार नहीं है।”

अमृता देवी गुरु जाम्भोजी द्वारा दिए गए धर्मादेश की रक्षा के लिए पेड़ से लिपट गई। कुल्हाड़ियों के प्रहार से उसका क्षत-विक्षत शरीर जमीन पर गिर पड़ा। अमृता देवी ने आत्म बलिदान दे दिया। वीरांगना अमृतादेवी का अनुसरण करते हुए उसकी तीनों पुत्रियां- आषु, रतनी, और भागू - उसी खेजड़ी वृक्ष के लिपट गईं और कुल्हाड़ी के प्रहार से उनके शीश भी धड़ से अलग कर दिए गए।

खेजड़ली गाँव में शहीद स्तंभ

आस-पास के गांवों में आमृतादेवी के आत्म बलिदान का समाचार तुरंत फैल गया। खेजड़ली सहित बिश्नोईयों के 84 गांवों में हलकारा भेजा गया। सैंकड़ों लोग तत्काल एकत्रित हो गए। उन्होंने हरे वृक्षों की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर करने की शपथ ली।

जब सब कुछ अनसुना कर बर्बरतापूर्वक पेड़ों को काटा जाने लगा तो समाज के बुजुर्गों ने तय किया कि प्रत्येक पेड़ के काटने से पहले एक बलिदान दे कर विरोध जारी रखेंगे।

पुरुषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया था और बाद में विरतो बणियाल, चावोजी, ऊदोजी, कान्होजी, किसनोजी, दयाराम आदि पुरुषों और दामी, चामी आदि स्त्रियों ने प्राणोत्सर्ग किया।

इस घटना का वर्णन करते हुए कवि गोकुजी ने खेजड़ली की साखी में लिखा है-

‘ऊदो सार समाही आयो, सिर सौंपा रुंखा सट्टै
सिर सौंपा अर नहीं कंपा, मरण सूं मत को डरो।’

बलिदान का सिलसिला बिना रुके चलता रहा। एक व्यक्ति के कटने पर तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता। कुल मिलाकर बिश्नोई समाज के तीन सौ तिरसठ लोगों ने पेड़ों की रक्षा करने के प्रयास में अपने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। उल्लेखनीय है कि इनमें 111 महिलाएं थीं।

भारी पैमाने पर हुए इस आत्मोत्सर्ग को देखकर आखिरकार गिरधारीदास सकते में आ गया। पेड़ कटवाने का काम रोककर दलबल सहित जोधपुर दरबार लौटकर महाराजा को खेजड़ली गांव में घटी इस घटना की जानकारी दी।

घटना की गंभीरता को समझते हुए महाराजा अभयसिंह स्वयं खेजड़जी गाँव आये। व्यथित बिश्नोई समाज ने सामूहिक रूप से जोधपुर राज्य त्यागने की अनुमति मांगी। महाराजा ने हाकिम को दण्डित करने तथा नरसंहार के लिए संवेदना प्रकट की और बिश्नोई समाज की धर्म- श्रद्धा के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए ताम्र-पत्र प्रदान किया। ताम्र-पत्र में आदेश दिया गया है कि –

बिश्नोई समाज के गांवों में, कोई भी हरा वृ़क्ष नहीं काटेगा तथा शिकार नहीं करेगा।

खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा के लिए सामूहिक स्वैच्छिक प्राणोत्सर्ग का विश्व भर में यह अनूठा और अद्वितीय उदाहरण है। खेजड़ली के इन वीरों की स्मृति में यहां हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को मेला लगता है।

खेजड़ली के अप्रतिम बलिदान से पूर्व भी राजस्थान की मरुभूमि के अनेक स्त्री-पुरुषों ने वनों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया, 1604 ई. में जोधपुर के रेवासड़ी गांव में कई स्त्रियों ने आत्म बलिदान किया था।

नयनाभिराम नज़ारा

दिसंबर 2010 से मई 2012 तक मैं राजकीय एम.एल.बी. कॉलेज, नोखा (बीकानेर) में प्रिंसिपल पद पर पदस्थापित था। समराथल धोरे के मनोरम दृश्य के बारे में इधर-उधर से सुना। देखने की उत्कंठा जगी। नोखा से दूरी मात्र 15 किलोमीटर। साथ में भ्रमण करने के कुछ प्रस्तावों को अनसुना किया। धोरों की धरा को अकेले में निहारने की लालसा थी। साल 2011 में अगस्त माह के अंतिम सप्ताह में छुट्टी के दिन नोखा से सुजानगढ़ जाने वाली बस में सवार होकर जाम्भो जी के समाधि स्थल मुक्तिधाम मुकाम जा पहुंचा। अवलोकन करने के बाद वहाँ से लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थित जाम्भोजी की तपोभूमि समराथल धोरे की ओर पैदल ही रुख किया।

समराथल के संरक्षित बीहड़/ वन में हर तरफ घनी हरियाली देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। मरुस्थल में जड़ जमाने वाले पेड़ों की ख़ूब भरमार थी। हरिणों की डार स्वछंद रूप में किलोल करती हुई। नृत्य रत मयूरों को देखकर रोमांचित महसूस करने लगा। तीतर अठखेलियाँ करते हुए दिखाई दिए। गौरैया चिड़ियाएं समूहों में इधर- उधर स्वछन्दता से फुदकती दिखाई दीं। उनकी चहचाहट मन को प्रफुल्लित करने वाली थी। पक्षियों का कर्ण प्रिय कलरव सुनाई दे रहा था। सड़क के पास कई गौशालाएं। गायों के चारे के भंडारण की समुचित व्यवस्था। सड़क किनारे पर स्थित विशाल छप्पर चारे से भरे हुए। झुंडों में इधर उधर चरती हुई गायें। कहीं पर घने दरख़्तों की छांव तले बैठी गायें। हर तरफ नज़र नवाज़ नज़ारे।

पशु-पक्षियों के पीने के पानी की जगह-जगह व्यवस्था की हुई। पक्षियों को चुगा डालने के समुचित दूरी पर बने हुए चबूतरे। पर्यावरण संरक्षण निमित्त हर प्रयास।

समराथल धोरे पर स्थित मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर चहुं ओर का नज़ारा नज़रे पसार कर देखता रहा। हर तरफ नज़र नवाज़ नज़ारे। हरियाली अपने पूरे सबाब में थी। धरती अपना हरा आँचल लहरा रही थी। धोरे और उनकी तलहटी। सब कुछ मनोरम। दूर- दूर तक खेत चित्ताकर्षक हरी चादर ओढ़े हुए मन मोह रहे थे। लंबे-चौड़े व ख़ूब ऊंचे समराथल धोरे की तलहटी में बना "नाडिया" मानसूनी वर्षा की मेहरबानी से लबालब भरा हुआ था। उसके चारों तरफ पक्षियों का जमघट लगा था।

समराथल के धोरे से मनोरम दृश्य को निहारती हुई ये आँखे निहाल हो गईं। आंखों को सुकून से भर देने वाला नज़ारा । मन को आह्लादित करने वाला दृश्य। अकेले घूमने और प्रकृति के मनोरम दृश्य को निहारने का मज़ा ही कुछ और है।

सावन का महीना था। सब कुछ हरियाली से आच्छादित। प्रकृति का अनुतोष हर ओर बिखरा हुआ। धोरे पर स्थित मंदिर की सीढ़ियों से नीचे गहरी तलहटी व खेतों में लहलहाती फसलों के मनभावन नज़ारे का ये नज़रें घण्टों रसपान करती रहीं। वहां पर काफी देर अकेला बैठकर सावण सुरंगों बीकानेर' कहावत को चरितार्थ होते देख रहा था।

फसल-कटाई (harvesting ) के महीने नवम्बर की मेरी एक एक शाम फिर समराथल धोरे के नाम रही। सांझ के समय ढलते सूरज की रश्मियां तरु शिखा पर विराजित होकर अद्भुत नजारा पेश कर रहीं थीं। वहाँ अकेला बैठकर देर तक लोहित गगन और खेतों में कटी फसल के डंठलों को डूबते सूरज की लालिमा से सराबोर होने का नज़ारा निहारता रहा। अंग्रेज़ी की कविता To Autumn में फसल कटाई के बाद खेतों में शाम के दृश्य की छायावादी कवि कीट्स द्वारा अपनी कलम से खींची गई तस्वीर से रूबरू हो रहा था। खेतों का लावण्य अलग रूप में नज़रों के सामने था। अथाह सुकून भरी अनुभूति !!

ये आलेख मैंने डूंगर कॉलेज, बीकानेर में मेरे सहपाठी रह चुके और जीवन के पहले बिश्नोई मित्र बुद्धाराम डेलू (से. नि. वरिष्ठ आर. ए. एस. अधिकारी ) के सम्मान में लिखा है। https://www.facebook.com/hrisran.isran फ़ेसबुक पर पोस्ट किए गए इस आलेख पर ...टिप्पणियां प्राप्त हुईं। श्री एस. के. चलका की जिज्ञासापूर्ण टिप्पणी और उस पर मेरा जवाब पेश कर रहा हूँ। श्री चलका साहब की टिप्पणी ये थी: "सर, आपने बहुत अच्छी जानकारी दी उसके लिये आपका साधुवाद। मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं, मसलन 1. 99.9% बिश्नोई पंथ जाट व खाती समुदाय ने धारण किया। ऐसा क्यों, यदि नया पंथ अच्छा था तो फिर दूसरे समुदाय के लोगों ने भी धारण करना था, क्या वजह रही की ऐसा नहीं हुआ? 2. नये पंथ ने समाज मे फैली बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया, यह सराहनीय कदम था, लेकिन सवाल फिर उठता है कि जब 99.9% जाट व खाती समुदाय ने नया पंथ अपनाया, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ की सामाजिक बुराई इन्हीं दो समुदाय मे थी और बाकी मे नहीं? 3. अमल व अन्य प्रवृतियों में सुधार किया गया, अच्छा कदम, परंतु आज भी हम धरात्तल पर पाते हैं कि जाम्भोजी महाराज के प्रभाव वाले क्षेत्र में अमल का सेवन व मृत्युभोज का प्रचलन आज भी है, तो क्या इसका मतलब यह समझा जाये की शिक्षा का असर नही हुआ? 4. मूर्ति पूजा का कंसेप्ट तो बहुत बाद का है, लगभग सन 1900 के बाद का और 1960 तक तो बहुत कम मंदिर थे,तो फिर कौनसी मूर्ति पूजा का विरोध था और क्यों? 5. क्या इस बात की संभावना से इनकार किया जा सकता है की नये पंथ की शुरुआत स्थानीय स्थापित जाट संघ की शक्ति को कमजोर करने के लिए किया गया हो? 6. एक तथ्य यह भी कहता है की दक्षिण भारत से जैन समुदाय का पलायन हुआ था उत्तर भारत की तरफ और वर्तमान गुजरात व राजस्थान का पहाड़ी इलाके में 14 वीं सदी मे आगमन हुआ था, वहां पर उनका आधार बनने के बाद धार्मिक, व्यापारिक व राजनैतिक गतिविधियां शुरू हुई और उसी कडी में संघ का पहला विभाजन किया गया और दूसरा विभाजन सिख धर्म के उदय के साथ हुआ?🙏"


इस पर मेरा जवाब ये था: चलका साहब, सुसंगत एवं विचारोत्तेजक टिप्पणी के लिए आपका आभार! आपने अकाट्य सवाल उठाए हैं, जो कि आपके गहन पठन-मनन के परिचायक हैं। 1. निर्विवादित ऐतिहासिक तथ्य है कि बिश्नोई पंथ अपनाने वालों में अधिकांशतः खेतिहर जाट थे। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे कि आसपास के इलाके का जाट बाहुल्य होना, जाम्भोजी के उपदेशों का जनसाधारण की मायड़ भाषा में होना, साल 1487 में इलाके में पड़े सूखे के समय ग्रामीणों की सहायता करना, उन्हें मानसिक संबल देना आदि-आदि। मेरा ये मानना है कि प्रकृति की समझ रखने वाली जाट जाति की मूल प्रवृत्ति जटिलता को त्यागकर सरलता को आत्मसात करने की रही है। जबकि धन की आवक से घिरने पर और आधा पढ़ा व्यक्ति सरलता से जटिलताओं की ओर गमन कर अपना रुतबा जमाने की कोशिश करता है। सरलता और सहजता पसंद कौम को पर्यावरण संरक्षण के उपदेश ख़ूब रास आएं होंगे और उन्होंने इन्हें आत्मसात कर लिया।

2. धार्मिक-सामाजिक बुराइयाँ तो सब में ही थीं पर मौका मिलने पर उनसे पिंड छुड़ाने की हिम्मत कम में हो होती है। रूढ़िवादी समाज रूढ़ियों की जड़ों से अलग होने से गुरेज़ करता है। जाट प्रगतिशील कौम रही है। एक बार बात मन में बैठ जाती है तो नएपन को अपनाने में झिझक नहीं करती।

3. हर धर्म/पंथ के इतिहास पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि कालांतर में जिन बुराइयों को त्यागकर पुरखों ने जो पंथ अपनाया था ,उसमें वो बुराइयां फिर अपना सिर उठाने लगती हैं। कोई गली निकाल ली जाती है। जैन धर्म में अपरिग्रह का सिद्धांत है। पर इस धर्म के मतावलंबियों की संग्रह की प्रवृत्ति जगजाहिर है।

4. मूर्तियां चाहे गाँवों में स्थापित नहीं रही हों पर हिन्दू/ सनातन धर्म साकार ईश्वर और तथाकथित 36 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा को प्रोमोट करने वाला रहा है। इस देश में मूर्ती पूजा को प्रोमोट और प्रोटेक्ट करनी वाली ताकतें हर दौर में प्रभुत्वशाली रही हैं। सरलता की राह को प्रशस्त करते हुए इस नए पंथ में निर्गुण निराकार ब्रह्म और एकेश्वरवाद पर जोर जोर दिया। 5. सहमत। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है। धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-व्यापारिक दांव-पेंच हर ज़माने में खेले जाते रहे हैं। 6. दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर जैन समाज का पलायन और फिर उत्तर भारत में नए पंथों के ज़रिए जड़े जमाने की कवायद की ओर आपने जो इशारा किया है, वह तर्कसंगत लगता है। दमदार और सारपूर्ण टिप्पणी के लिए पुनः आभार!

✍️✍️ प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 28 अप्रैल 2020

संदर्भ


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