Buddhacharita
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Buddhacharita (बुद्धचरित) is an epic poem in the Sanskrit mahakavya style on the life of Gautama Buddha. It was composed by Ashvaghosha in the early second century CE.[1] We get some useful information from this epic about many historical places during Buddha's life time.
Variants
- Buddhacharita (बुद्धचरित) (AS, p.4), (AS, p.41), (AS, p.64), (AS, p.79), (AS,p.101), (AS, p.226), (AS, p.244),(AS, p.266), (AS, p.281), (AS, p.313), (AS, p.393), (AS, p.492), (AS, p.510), (AS, p.525), (AS, p.541),(AS, p.548), (AS, p.555), (AS, p.566), (AS, p.608), (AS, p.678), (AS, p.728), (AS, p.791), (AS, p.819), (AS, p.833), (AS, p.896), (AS, p.1025)
- Buddhacharita = Acts of the Buddha
- Buddhacaritam/Buddhacharitam (बुद्धचरितम्)
- Buddhacaritra/Buddhacharitra (बुद्धचरित्र)
History
In 420 AD, Dharmakshema [2] made a Chinese translation, and in the 7th or 8th century, a Tibetan version was made which "appears to be much closer to the original Sanskrit than the Chinese".[3]
In Aitihasik Sthanawali
Buddhacharita (बुद्धचरित) is mentioned in Aitihasik Sthanavali in following pages: (AS, p.4), (AS, p.42), (AS, p.64), (AS, p.79), (AS,p.101), (AS, p.226), (AS, p.244),(AS, p.266), (AS, p.281), (AS, p.313), (AS, p.394), (AS, p.492), (AS, p.510), (AS, p.525), (AS, p.542),(AS, p.548), (AS, p.555-56), (AS, p.608), (AS, p.678), (AS, p.728), (AS, p.787), (AS, p.791), (AS, p.820), (AS, p.833), (AS, p.896), (AS, p.1025)
- Anganagara (अंगनगर) (AS, p.4) संभवत: चंपा का ही नाम है। बुद्धचरित 21,11 के अनुसार बुद्ध के अंगनगर में पूर्णभद्र यक्ष तथा कई नागों को प्रव्रजित किया था।
- Alaka (अलका) (AS, p.42): अलकावती नामक यक्षों की नगरी का उल्लेख बुद्धचरित [21,63] में भी है जिसका भावार्थ यह है कि 'तव अलकावती नामक नगरी में 'तथागत' ने मद्र नाम के एक सदाशय यक्ष को अपने धर्म में प्रव्रजित किया'।
- Apana (आपण) (AS, p.64): बुद्धचरित के अनुसार अंग और सुह्म के बीच में स्थित नगर जहाँ गौतमबुद्ध ने केन्य व शेल नामक ब्राह्मणों को दीक्षित किया था।
- Iravati River (इरावती नदी) (AS, p.79): इरावती पूर्व उत्तर प्रदेश की राप्ती का भी प्राचीन नाम इरावती था। यह नदी कुशीनगर के निकट बहती थी जैसा कि बुद्धचरित 25, 53 के उल्लेख से सूचित होता है- 'इस तरह कुशीनगर आते समय चुंद के साथ तथागत ने इरावती नदी पार की और स्वयं उस नगर के एक उपवन में ठहरे जहाँ कमलों से सुशोभित एक प्रशान्त सरोवर स्थित था'। अचिरावती या अजिरावती इरावती के वैकल्पिक रूप हो सकते हैं। बुद्धचरित के चीनी-अनुवाद में इस नदी के लिए कुकु शब्द है जो पाली के कुकुत्था का चीनी रूप है। बुद्धचरित 25, 54 में वर्णन है कि निर्वाण के पूर्व गौतम बुद्ध ने हिरण्यवती नदी में स्थान किया था जो कुशीनगर के उपवन के समीप बहती थी। यह इरावती या राप्ती की ही एक शाखा जान पड़ती है। स्मिथ के विचार में यह गंडक है जो ठीक नहीं जान पड़ता। बुद्धचरित 27, 70 के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् मल्लों ने उनके शरीर के दाहसंस्कार के लिए हिरण्यवती नदी को पार करके मुकुटचैत्य [4] के नीचे चिता बनाई थी। संभव है महाभारत सभा 9, 22 का 'वारवत्या' भी राप्ती ही हो।
- Uruvela (उरुवेला) (AS,p.101): बिहार राज्य के बोधगया में स्थित था। प्राचीन बौद्धग्रन्थों में उरुवेला का उल्लेख बुद्ध की जीवन कथा के संबंध में है। यह वही स्थान है जहाँ गौतम संबुद्धि प्राप्त करने के पूर्व ध्यानस्थ होकर बैठे थे। इसी स्थान पर ग्राम-वधू सुजाता या अश्वघोष के अनुसार नंदबाला (देखें बुद्धचरित 12, 109) से भोजन प्राप्त कर उन्होंने अपना कई दिन का उपवास भंग किया था और शारीरिक कष्ट द्वारा सिद्ध प्राप्त करने के मार्ग की सारहीनता उनकी समझ में आई थी। स्थान का उल्लेख महावंश (1, 12; 1, 16) में भी है आदि जिस पीपल के पेड़ के नीचे गौतम को संबुद्धि प्राप्त हुई थी उसको अग्निपुराण, 115, 37 में महाबोध वृक्ष कहा गया है। इस ग्राम का शुद्ध नाम शायद उरुबिल्व था। नैरंजना नदी उरुवेला के निकट बहती थी। (देखें बुद्धचरित 12, 108)
- Kailash (कैलास) (AS, p.226): 'बुद्धचरित' 28, 57 में बौद्ध स्तूपों की भव्यता की तुलना कैलास के हिमाच्छादित शिखरों से की गई है।
- Kaushambi (कौशांबी) (AS, p.244): बुद्धचरित 21,33 के अनुसार कौशांबी में, बुद्ध ने धनवान, घोषिल, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया था। यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित (सम्भवतः बुद्धचरित का घोषिल) ने 'घोषिताराम' नाम का एक सुन्दर उद्यान बुद्ध के निवास के लिए बनवाया था। घोषित का भवन नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में था। घोषिताराम के निकट ही अशोक का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहारवन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था जिसके एक भाग में आचार्य वसुबंधु रहते थे। इन्होंने विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसी वन के पूर्व में वह मकान था जहाँ आर्य असंग ने अपने ग्रंथ योगाचारभूमि की रचना की थी।
- Gandaki River (गंडकी नदी) (AS, p.266): 'बुद्धचरित' 25, 54 के अनुसार कुशीनगर में निर्वाण से पूर्व तथागत ने हिरण्यवती नदी में स्नान किया था। इससे पूर्व कुशीनगर आते समय महात्मा बुद्ध ने इरावती या अचिरवती नदी को पार किया था। इरावती राप्ती का ही नाम है। विंसेंट स्मिथ ने कुशीनगर की स्थिति नेपाल में राप्ती और गंडक (हिरण्यवती) के संगम पर मानी थी (अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया, पृ. 167) किंतु कुशीनगर का अभिज्ञान अब 'कसिया' से निश्चित हो जाने पर हिरण्यवती को गोरखपुर ज़िले की राप्ती या उसकी कोई उपशाखा मानना पड़ेगा, न कि गंडकी। (देखें - सदानीरा)
- Gaya (गया) (AS, p.281): बौद्ध साहित्य में [p.281]: फल्गु की सहायक नदी वर्तमान नीलांजना को नैरंजना कहा गया है-- 'स्नातो नैरांजनातीरादुत्ततार शनै: कृश:' (बुद्धचरित 12,108) अर्थात गौतम (बोधिद्रुम के नीचे समाधिस्थ होने के पहले) नैरंजना नदी में स्नान करके धीरे धीरे तट से चढ़कर ऊपर आए. यह गया से दक्षिण 3 मील दूर महाना अथवा फल्गु में मिलती है. वर्तमान महाना अवश्य ही महाभारत की महानदी है जिसका ऊपर उद्धतुत श्लोक वन. 87, 11 में उल्लेख है.
- Ghoshitarama (घोषिताराम) (AS, p.313) कौशांबी, उत्तर प्रदेश का एक प्रसिद्ध उद्यान था, जिसे यहाँ के एक विख्यात 'श्रेष्ठी' ((प्रतिष्ठित व्यवसायी या महाजन या व्यापारी)) 'घोषित' (सम्भवतः 'बुद्धचरित' का घोषिल) ने बनवाया था। घोषिताराम उद्यान महात्मा बुद्ध के निवास के लिए बनवाया गया था। श्रेष्ठी घोषित का भवन कौशांबी नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में स्थित था। घोषिताराम के निकट ही मौर्य सम्राट अशोक का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहार वन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था, जिसके एक भाग में आचार्य वसुबन्धु रहते थे। इन्होंने 'विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि' नामक ग्रंथ की रचना की थी। उद्यान के पूर्व में वह मकान था, जहाँ आर्य असंग ने अपने ग्रंथ 'योगाचारभूमि' की रचना की थी।
- Tameshvaranatha (तामेश्वरनाथ) (AS, p.394): कहा जाता है यही वह स्थान है जहां अनोमा को पार करने के पश्चात सिद्धार्थ ने अपने राजसी वस्त्र उतार दिए थे तथा राजसी केशों को काट कर फेंक दिया था. यहां से उन्होंने अपने सारथी छंदक को विदा कर दिया था-- देखें बुद्धचरित 6,57-65 'निष्कास्य तं चोत्पलपत्रनीलं चिच्छेद चित्रं मुकुटं सकेशम्, विकीर्यमाणांशुकमंतरीक्षे चिक्षेप चैन सरसीव हंसम्, 'छंदं तथा साश्रुमुखं विसृज्य' इत्यादि. युवानच्वांग के अनुसार इस स्थान पर इन्हीं तीनों घटनाओं के स्मारक के रूप में अशोक ने तीन स्तूप बनवाए थे जिनके खंडहर तामेश्वरनाथ के मंदिर के निकट हैं.
- Nadika (नादिक) (AS, p.492) बौद्ध धर्म के ग्रंथ 'महापरिनिब्बान सुत्त' (अध्याय,2) के अनुसार वैशाली (बिहार) के एक भाग अथवा उपनगर का नाम था। इस नगर में वृष्णि वंशीय क्षत्रियों का निवास स्थान था। 'बुद्धचरित' 22, 13 में उल्लेख है कि अंतिम बार पाटलिपुत्र से लौटते समय वैशाली के मार्ग पर जाते हुए महात्मा बुद्ध इस स्थान पर ठहरे थे। उस समय वहाँ अनेक लोगों की मृत्यु हुई थी। बुद्ध ने इन मृत लोगों के जन्म कर्म के विषय में अनेक बातें अपने शिष्यों को बताई थीं।
- Nairanjana River (नैरंजना नदी) (AS, p.510): नैरंजना नदी के तट पर भगवान बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्ति हुई थी। अश्वघोष-रचित बुद्धचरित्र में नैरंजना का उल्लेख इस प्रकार है:- 'ततो हित्वाश्रमं तस्य श्रेयोऽर्थी कृतनिश्च्य: भेजे गयस्य राजर्षे- र्नगरीं संज्ञामाश्रमम। अय नैरंजनातीरे शुचौ शुचिपराक्रम: चकार वासमेकांत-विहाराभिरतिर्मुनि। बुद्धचरित. 12,89-90 अर्थात् तब श्रेय पाने की इच्छा से गौतम ने उद्रक मुनि का आश्रम छोड़कर राजर्षिगय की नगरी से आश्रम का सेवन किया और पवित्र पराक्रमवान एकांतविहार में आनंद प्राप्त करने वाले उस मुनि ने, नैरंजना नदी के पवित्र तीर पर निवास किया। इस उद्धरण से नैरंजना का वर्तमान नैलंजना से अभिज्ञान स्पष्ट हो जाता है।
- Padmashandavana (पद्मषंडवन) (AS, p.525): बुद्धचरित 3,63,64 में वर्णित विहारोद्यान जहां सिद्धार्थ को उसका सारथी राजकुमार के मनोविनोदार्थ ले गया था--'विशेष युक्तंतु नरेंद्र शासनात्सपद्मषंडं वनमेव निर्ययौ. तत: शिवं कुसमितबालपादपं, परिभ्रमत् प्रमुदितमत्तकोकिलम्, विमानवत्सकमलचारु दीर्घिकं ददर्श तद्वनमिव नंदनंवनम्'. इस उद्यान में कुसुमित बालपादप, प्रमुमुदित कोकिलाएं तथा कमलों से भरी पूरी झील शोभायमान थी. यह उद्यान कपिलवस्तु के निकट ही स्थित था.
- Pataliputra (पाटलिपुत्र) (AS, p.541-42): गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, बिहार में गंगा के उत्तर की ओर लिच्छवियों का 'वृज्जि गणराज्य' तथा दक्षिण की ओर 'मगध' का राज्य था। बुद्ध जब अंतिम [p.542]: बार मगध गए थे, तो गंगा और शोण नदियों के संगम के पास पाटलि नामक ग्राम बसा हुआ था, जो 'पाटल' या 'ढाक' के वृक्षों से आच्छादित था। मगधराज अजातशत्रु ने लिच्छवी गणराज्य का अंत करने के पश्चात् एक मिट्टी का दुर्ग पाटलिग्राम के पास बनवाया, जिससे मगध की लिच्छवियों के आक्रमणों से रक्षा हो सके। बुद्धचरित 22,3 से ज्ञात होता है कि यह क़िला मगधराज के मन्त्री वर्षकार ने बनवाया था।
- Papapura (पापापुर) (AS, p.548): बुद्धचरित 25,50 के अनुसार कुशीनगर में मृत्यु होने के पूर्व तथागत बुद्ध पापापुर आए थे जहां उन्होंने अपने भक्त चुंड के यहां सूकरमाद्दव भोजन स्वीकार किया था. पापापुर पावापुरी का संस्कृत रूपांतर है. इसे जैन साहित्य में अपापा भी कहा गया है.
- Pavapuri (पावापुरी) = पावा = आपापा = पापापुर (AS, p.555-56): जैन-परंपरा के अनुसार अंतिम तीर्थंकर महावीर का निर्वाण स्थल है. 13वीं शती ई. में जिनप्रभसूरी ने अपने ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प रूप में इसका प्राचीन नाम अपापा बताया है। पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ़ रेलवे स्टेशन (बिहार) से 9 मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है। यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है। महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहाँ खंडहर के रूप में स्थित है। स्तूप से प्राप्त ईटें राजगृह के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं। जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है। महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में अपापा के राजा हस्तिपाल के लेखकों के कार्यालय में हुई थी। उस दिन कार्तिक की अमावस्या थी। पालीग्रंथ संगीतिसुत्तंत में पावा के मल्लों के उब्भटक नामक सभागृह का उल्लेख है। स्मिथ के अनुसार पावापुरी जिला पटना (बिहार) में स्थित थी. कनिंघम [5] के मत में जिसका आधार शायद बुद्धचरित [25, 52] में कुशीनगर के ठीक पूर्व की ओर पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है, कसिया जो प्राचीन कुशीनगर के नाम से विख्यात है, से 12 मील दूर पदरौना नामक स्थान [p.556]: ही पावा है। जहाँ गौतम बुद्ध के समय मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी। जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था। जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। (बुद्धचरित 25,50)
- Barana (बरन) (AS, p.608): वरण नामक एक नगर का बुद्धचरित 21,25 में उल्लेख है. संभवत: यह बरन का ही संस्कृत रूप है.
- Bhoganagara (भोगनगर) (AS, p.678): हार्नल (Hoernle) के अनुसार भोगनगर में भोजक्षत्रियों की राजधानी थी और यह वैशाली और पावा के निकट स्थित था. यह बौद्धकालीन नगर था. बौद्ध-साहित्य में इसे मल्लराष्ट्र का एक नगर बताया गया है (देखें बुद्धचरित 25,36-- 'तब वैशाली से चलकर धीरे-धीरे तथागत भोगनगर की ओर बढ़े और वहां रुककर सर्वज्ञ ने अपने साथियों से कहा--.'
- Mahivati (महीवती) (AS, p.728): 'तब तथागत ने तपस्वी कपिल को महीवती में विनीत बनाया जहां शिला पर में मुनि के चरण अंकित थे'-- बुद्धचरित 21,24. इस नगरी का अभिज्ञान अनिश्चित है. संभवत: यह मही नदी या माही के तट पर स्थित है प्राचीन स्तंभतीर्थ (=खंभात) है. बुद्धचरित 21,22 में शूर्पारक का उल्लेख है जो प्रसंग से महीवती के निकट ही होना चाहिए. अत: यह अभिज्ञान ठीक जान पड़ता है.
- Ramagama (रामगाम) (AS, p.787): महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक स्थान है। बौद्ध साहित्य के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् अनेक शरीर की भस्म के एक भाग के ऊपर एक महास्तूप 'रामगाम' या 'रामपुर' ('बुद्धचरित', 28, 66) नामक स्थान पर बनवाया गया था। 'बुद्धचरित' के उल्लेख से ज्ञात होता है कि रामपुर में स्थित आठवां मूल स्तूप उस समय विश्वस्त नागों द्वारा [p.788]: रक्षित था। इसीलिए अशोक ने उस स्तूप की धातुएं अन्य सात स्तूपों की भांति ग्रहण नहीं की थीं।
- Rampur District (रामपुर) (AS, p.791): उत्तर प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। रामपुर नगर उपर्युक्त ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है तथा कोसी के बाएँ किनारे पर स्थित है। यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान भी है, जिसका महात्मा बुद्ध से निकट सम्बन्ध रहा है। भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् उनके अस्थि अवशेषों के आठ भागों में से एक पर एक स्तूप बनाया गया था, जिसे 'रामभार स्तूप' कहा जाता था। संभवतः इसी स्तूप के खंडहर इस स्थान पर मिले हैं। किंवदंती है कि इसी स्तूप से नागाओं ने बुद्ध का दांत चुरा लिया था, जो लंका में 'कांडी के मंदिर' में सुरक्षित है। कुछ विद्वान् रामपुर को 'रामगाम' मानते हैं। रामपुर का उल्लेख 'बुद्धचरित' (28, 66) में है, जहाँ रामपुर के स्तूप का विश्वस्त नागों द्वारा रक्षित होना कहा गया है। कहा जाता है कि इसी कारण अशोक ने बुद्ध के शरीर की धातु अन्य सात स्तूपों की भांति, इस स्तूप से प्राप्त नहीं की थी।
- Lumbinigrama (लुंबिनीग्राम), नेपाल, (AS, p.820): ....युवानच्वांग की यात्रा: चीनी पर्यटक युवानच्वांग ने भारत भ्रमण के दौरान (630-645 ई.) में लुम्बनी की यात्री की थी। उसने यहाँ का वर्णन इस प्रकार किया है- 'इस उद्यान में सुन्दर तड़ांग है, जहाँ पर शाक्य स्नान करते थे। इसमें 400 पग की दूरी पर एक प्राचीन साल का पेड़ है। जिसके नीचे भगवान बुद्ध अवत्तीर्ण हुए थे। पूर्व की ओर अशोक का स्तूप था। इस स्थान पर दो नागों ने कुमार सिद्धार्थ को गर्म और ठंडे पानी से स्नान करवाया था। इसके दक्षिण में एक स्तूप है, जहाँ पर इन्द्र ने नवजात शिशु को स्नान करवाया था। इसके पास ही स्वर्ग के उन चार राजाओं के स्तूप हैं जिन्होंने शिशु की देखभाल की थी। इस स्तूपों के पास एक शिला-स्तूप था, जिसे अशोक ने बनवाया था। इसके शीर्ष पर एक अश्व की मूर्ति निर्मित थी।'. स्तूपों के अब कोई चिह्न नहीं मिलते। अश्वघोष ने बुद्धचरित 1,6 में लुम्बनी वन में बुद्ध के जन्म का उल्लेख किया है।(यह मूलश्लोक विलुप्त हो गया) बुद्धचरित 1,8 में इस वन का पुनः उल्लेख किया गया है- 'तस्मिन् वने श्रीमतिराजपत्नी प्रसूतिकालं समवेक्षमाणा, शय्यां वितानोपहितां प्रपदे नारी सहस्रै रभिनंद्यमाना।'
- Varana वरण (AS, p.833) - बुद्धचरित 21,25 में वर्णित एक नगर जहाँ वारण नामक यक्ष को बुद्ध ने धर्म दीक्षा दी थी. इसका अभिज्ञान अनिश्चित है. (दे. वरन)
- Shalvapura (शाल्वपुर) (AS, p.896): ...'बुद्धचरित' (बुद्धचरित 9,70) में शाल्वाधिपति 'द्रुम' का उल्लेख है- 'तथैव शाल्वाधिपतिर्द्रु माख्यो वनात् ससूनुर्तगरं विवेश।' महाभारत, वनपर्व (महाभारत, वनपर्व 294,7) के अनुसार, सावित्री के श्वसुर द्युमत्सेन शाल्व देश के राजा थे- 'आसीच्छाल्वेषु धर्मातमा क्षत्रियः पृथिवीपतिः द्युमत्सेन इतिख्यातः पश्चादन्धो बभूव ह।'
- Hiranyawati (हिरण्यवती) (AS, p.1025)
English translations
- E.B. Cowell, trans. The Buddha Carita or the Life of the Buddha, Oxford, Clarendon 1894, reprint: New Delhi, 1977. PDF (14,8 MB)
- Samuel Beal, trans. The Fo-Sho-Hing-Tsan-King. Oxford, 1883. English translation of the Chinese version PDF (17,7 MB)
- E. H. Johnston, trans. The Buddhacarita or Acts of the Buddha. Lahore, 1936. 2 vols. (Cantos 1-14 in Sanskrit and English). Reprint: Delhi, Motilal Barnasidass 1978
- E. H. Johnston, trans. (1937), "The Buddha's Mission and last Journey: Buddhacarita, xv to xxviii", Acta Orientalia, 15: 26-62, 85-111, 231-292.
- Patrick Olivelle, trans. Life of the Buddha. Clay Sanskrit Library, 2008. 1 vols. (Cantos 1-14 in Sanskrit and English with summary of the Chinese cantos not available in the Sanskrit)
- Willemen, Charles, trans. (2009), Buddhacarita: In Praise of Buddha's Acts, Berkeley, Numata Center for Buddhist Translation and Research. ISBN|978-1886439-42-9
External links
- Cowell's edition in Roman characters with supplements from Johnson's edition
- बुद्धचरितम् in Devanagari characters
- Cowell's text and translation (verse by verse)
- Cowell's translation (only)
- Buddhist Studies: Buddhacarita
- Multilingual edition of Buddhacarita in the Bibliotheca Polyglotta
References
- ↑ Willemen, Charles, transl. (2009), Buddhacarita: In Praise of Buddha's Acts, Berkeley, Numata Center for Buddhist Translation and Research, p. XIII.
- ↑ University of Oslo, Thesaurus Literaturae Buddhicae: Buddhacarita Taisho Tripitaka T.192
- ↑ E.B. Cowell, trans. The Buddha Carita or the Life of the Buddha, Oxford, Clarendon 1894, reprint: New Delhi, 1977, p. X (introduction).
- ↑ देखें मृकुटचैत्यवंधन
- ↑ (ऐशेंट ज्याग्रेफी आफ इंडिया पृष्ठ 49)