Pava

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(Redirected from Apapa)
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.)
Bihar Sharif on Nalanda District Map

Pava (पावा) was an city in ancient India, at the time of Gautama Buddha. It was a city of the Mallas which the Buddha visited during his last journey, going there from Bhogagama and staying at Cunda's mango grove. It is present city known as Fazilnagar in Kushinagar district, Uttar Pradesh.

Variants of name

Location

पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ़ रेलवे स्टेशन (बिहार) से 9 मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है। यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है।[1]

Pava (Fazilnagar) on Kushinagar District Map

Pava is located about 15 kms east of Kushinagar in Uttar Pradesh on NH-28. At present known as Fazilnagar also known as Pawanagar or Pawapuri ,is a block in Kushinagar district of Uttar Pradesh, India. It is a block of Kasia Tehsil , one of the four tehsils in Kushinagar. It is 55 km from Deoria and 69 km from Gorakhpur.

Mention by Panini

Pava (पावा) is mentioned by Panini in Ashtadhyayi. [2]

Jat clans

Pawa is a Gotra of the Anjana Jats in Gujarat.

History

V. S. Agrawala[3] writes that Panini mentions Pāvā (पावा) (IV.2.97) - probably Pāwā of the Pali text, capital of the Malla Country.


Pavapuri and Kushinara were the twin capital of Mall dynasty which was part 16 Mahajanpads of ancient India.

It is believed that Lord Buddha, while going to Kushinagar from Vaishali, stayed here over night to accept meals from one of his disciples Chunda. There is also a tale which says Lord Buddha died here. Cunda lived in Pava and invited the Buddha to a meal, which proved to be his last. It was on this occasion that the Cunda Sutta was preached.[4] From Pava the Buddha journeyed on to Kushinagar, crossing the Kakkuttha River on the way[5]

According to the Sangiti Sutta, at the time the Buddha was staying at Pava, the Mallas had just completed their new Mote hall, Ubbhataka, and, at their invitation, the Buddha consecrated it by first occupying it and then preaching in it. After the Buddha had finished speaking, Sariputta recited the Sangiti Sutta to the assembled monks.

After the Buddha's death, the Mallas of Pava claimed a share in his relics. The Brahmin Dona satisfied their claim, and a Stupa was erected in Pava over their share of the relics.[6]

पापापुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...पापापुर (AS, p.548): बुद्धचरित 25,50 के अनुसार कुशीनगर में मृत्यु होने के पूर्व तथागत बुद्ध पापापुर आए थे जहां उन्होंने अपने भक्त चुंड के यहां सूकरमाद्दव भोजन स्वीकार किया था. पापापुर पावापुरी का संस्कृत रूपांतर है. इसे जैन साहित्य में अपापा भी कहा गया है.

अपापापुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ...अपापापुर (AS, p.28) बिहार शरीफ़ स्टेशन से 9 मील पर स्थित है। अंतिम जैन तीर्थकर महावीर के मृत्युस्थान के रूप में यह स्थान इतिहास-प्रसिद्ध है। महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में अपापापुर के राजा हस्तिपाल के लेखकों के कार्यालय में हुई थी। उस दिन कार्तिकमास के कृष्णपक्ष की अमावस्या थी। विविध तीर्थकल्प के अनुसार अंतिम जिन या तीर्थकर महावीर की वाणी इस स्थान के निकट स्थित एक पहाड़ी की गुफा में गूंजती थीं इस जैन ग्रन्थ के अनुसार महावीर जृंभिका से महासेन वन में आए थे। यहां उन्होंनें दो दिन के उपवास के पश्चात् अपना अंतिम उपदेश दिया और राजा हस्तिकाल के करागृह में पहुंच कर निर्वांण प्राप्त किया।

फाजिलपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[9] ने लेख किया है .....फाजिलपुर (AS, p.598): फाजिलपुर (जिला गोरखपुर) कसिया से 10 मील दक्षिण पूर्व में स्थित है. कार्लाइल के अनुसार यही प्राचीन पावापुरी है (देखें पावा)

पावापुरी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[10] ने लेख किया है ... पावापुरी = पावा = आपापा = पापापुर (AS, p.555): जैन-परंपरा के अनुसार अंतिम तीर्थंकर महावीर का निर्वाण स्थल है. 13वीं शती ई. में जिनप्रभसूरी ने अपने ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प रूप में इसका प्राचीन नाम अपापा बताया है। पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ़ रेलवे स्टेशन (बिहार) से 9 मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है। यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है। महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहाँ खंडहर के रूप में स्थित है। स्तूप से प्राप्त ईटें राजगृह के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं। जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है।

महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में अपापा के राजा हस्तिपाल के लेखकों के कार्यालय में हुई थी। उस दिन कार्तिक की अमावस्या थी। पालीग्रंथ संगीतिसुत्तंत में पावा के मल्लों के उब्भटक नामक सभागृह का उल्लेख है। स्मिथ के अनुसार पावापुरी जिला पटना (बिहार) में स्थित थी. कनिंघम [11] के मत में जिसका आधार शायद बुद्धचरित [25, 52] में कुशीनगर के ठीक पूर्व की ओर पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है, कसिया जो प्राचीन कुशीनगर के नाम से विख्यात है, से 12 मील दूर पदरौना नामक स्थान [p.556]: ही पावा है। जहाँ गौतम बुद्ध के समय मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी। जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था। जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। (बुद्धचरित 25,50)

कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में 10 मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर नामक ग्राम से किया है। [12] जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था। यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है।

पावापुरी परिचय

स्थिति: बिहारशरीफ़ से 8 किमी दक्षिण-पूर्व पावापुरी जैनियों का प्रमुख तीर्थस्थल है। यहीं जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर जी ने निर्वाण प्राप्त किया था। पटना से 104 किलोमीटर और नालन्दा से 25 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ का जल मन्दिर, मनियार मठ तथा वेनुवन दर्शनीय स्थल हैं।

महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी। यहाँ कमल तालाब के बीच जल मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। सोमशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर भी दर्शनीय हैं।

पावापुरी पटना-राँची मार्ग पर एक गाँव है, जो जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। जैन मान्यता के अनुसार इसी स्थान पर महावीर स्वामी ने मोक्ष प्राप्त किया था। जहाँ महावीर स्वामी ने मोक्ष पाया था, वहां 'थल मंदिर' और जहां वे जलाए गए थे, वहां 'जल मंदिर' बना है।[13]

मल्ल: ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज[14] ने लिखा है.... मल्ल - [पृ.100]: सिकंदर के साथियों ने इन्हें मल्लोई ही लिखा है। हिंदुस्तान के कई इतिहासकारों को उनके संबंध में बड़ा भ्रम हुआ है। वह इन्हें कहीं उज्जैन के आसपास मानते हैं। वास्तव में यह लोग पंजाब में रावी नदी के किनारे पर मुल्तान तक फैले हुए थे। फिरोजपुर और बठिंडा के बीच के लोग अपने प्रदेश को मालवा कहते हैं। बौद्ध काल में हम लोगों को चार स्थानों


[पृ.101]: पर राज्य करते पाते हैं-- पावा, कुशीनारा, काशी और मुल्तान। इनमें सिकंदर को मुल्तान के पास के मल्लों से पाला पड़ा था। इनके पास 90000 पैदल 10000 सवार और 900 हाथी थे। पाणिनी ने इन्हें आयुध जीवी क्षत्रिय माना है। हमें तो अयोधन और आयुध इन्हीं के साथी जान पड़ते हैं। जाटों में यह आज भी मल, माली और मालवन के नाम से मशहूर हैं। एक समय इनका इतना बड़ा प्रभाव हो गया था इन्हीं के नाम पर संवत चल निकला था। इनके कहीं सिक्के मिले जिन पर 'मालवानाम् जय' लिखा रहता है। ये गणवादी (जाति राष्ट्रवादी) थे। इस बात का सबूत इन के दूसरे प्रकार के उन सिक्कों से भी हो जाता है जिन पर 'मालव गणस्य जय' लिखा हुआ है। जयपुर के नागर नामक कस्बे के पास से एक पुराने स्थान से इनके बहुत से सिक्के मिले थे। जिनमें से कुछ पर मलय, मजुप और मगजस नाम भी लिखे मिले हैं। हमारे मन से यह उन महापुरुषों के नाम हैं जो इनके गण के सरदार रह चुके थे। इन लोगों की एक लड़ाई क्षत्रप नहपान के दामाद से हुई थी। दूसरी लड़ाई समुद्रगुप्त से हुई। इसी लड़ाई में इनका ज्ञाति राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गया और यह समुद्रगुप्त के साम्राज्य में मिला लिया गया इनके सिक्के ईसवी सन के 250-150 वर्ष पूर्व माने जाते हैं।

लेखक का पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) भ्रमण:

12.11.2010: गया (8.00 बजे)–बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) (21.30 बजे)

पावापुरी - कुंडलपुर - पटना भ्रमण दिनांक 12.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में नालंदा का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए पावापुरी- कुंडलपुर - पटना का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल, लोक-परंपरायें तथा इनका पर्यटन महत्व. रास्ते के नगरनौसा नामक गाँव में छठ-पर्व मनाने का आनंद भी आप ले सकते हैं.

पावापुरी (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

पावापुरी परिचय: नालन्दा भ्रमण के बाद हम नालंदा जिले में ही स्थित पावापुरी पहुँचे. पावापुरी नालन्दा से करीब 25 किमी दूरी पर पूर्व में स्थित है. यह पटना से दक्षिण-पूर्व दिशा में 104 किलोमीटर दूरी पर है. पावापुरी पटना-राँची मार्ग पर एक गाँव है. बिहारशरीफ़ से 8 किमी दक्षिण-पूर्व पावापुरी जैनियों का प्रमुख तीर्थस्थल है. यहीं जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था. यहाँ का जल मन्दिर दर्शनीय स्थल हैं. महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी. यहाँ कमल तालाब के बीच जल मंदिर विश्व प्रसिद्ध है. सोमशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर भी दर्शनीय हैं. जैन मान्यता के अनुसार इसी स्थान पर महावीर स्वामी ने मोक्ष प्राप्त किया था. जहाँ महावीर स्वामी ने मोक्ष पाया था, वहां 'थल मंदिर' और जहां वे जलाए गए थे, वहां 'जल मंदिर' बना है.

पावापुरी का इतिहास

पावापुरी को पावा, आपापा, और पापापुर नामों से भी जाना जाता है. जैन-परंपरा के अनुसार अंतिम तीर्थंकर महावीर का निर्वाण स्थल है. 13वीं शती ई. में जिनप्रभसूरी ने अपने ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प रूप में इसका प्राचीन नाम अपापा बताया है. पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ़ रेलवे स्टेशन (बिहार) से 9 मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है. यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है. महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहाँ खंडहर के रूप में स्थित है. स्तूप से प्राप्त ईटें राजगृह के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं. जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है.

महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में अपापा के राजा हस्तिपाल के लेखकों के कार्यालय में हुई थी. उस दिन कार्तिक की अमावस्या थी. पालीग्रंथ संगीतिसुत्तंत में पावा के मल्लों के उब्भटक नामक सभागृह का उल्लेख है. स्मिथ के अनुसार पावापुरी जिला पटना (बिहार) में स्थित थी. कनिंघम (ऐशेंट ज्याग्रेफी आफ इंडिया पृष्ठ 49) के मत में जिसका आधार शायद बुद्धचरित [25, 52] में कुशीनगर के ठीक पूर्व की ओर पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है, कसिया जो प्राचीन कुशीनगर के नाम से विख्यात है, से 12 मील दूर पदरौना नामक स्थान ही पावा है, जहाँ गौतम बुद्ध के समय मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी. जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था. जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी. (बुद्धचरित 25,50). कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में 10 मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर नामक ग्राम से किया है. (ऐशेंट ज्याग्रेफी ऑव इंडिया पृष्ठ 714) जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था. यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है.

पावापुरी के मल्ल-क्षत्रिय कहाँ गए : गौतम बुद्ध के समय पावापुरी मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी. मल्ल-क्षत्रियों के संबंध में जानने की मेरी प्रबल इच्छा हुई. ये लोग वर्तमान में कहाँ हैं इस पर अनुसंधान करने पर पता लगता है कि मल्ल-क्षत्रियों के संबंध में ठाकुर देशराज (पृ.100-101) ने लिखा है. मल्ल लोगों को ही सिकंदर के साथियों ने मल्लोई लिखा है. हिंदुस्तान के कई इतिहासकारों को उनके संबंध में बड़ा भ्रम हुआ है. वह इन्हें कहीं उज्जैन के आसपास मानते हैं. वास्तव में यह लोग पंजाब में रावी नदी के किनारे पर मुल्तान तक फैले हुए थे. फिरोजपुर और बठिंडा के बीच के लोग अपने प्रदेश को मालवा कहते हैं. बौद्ध काल में हम लोगों को चार स्थानों पर राज्य करते पाते हैं-- पावा, कुशीनारा, काशी और मुल्तान. इनमें सिकंदर को मुल्तान के पास के मल्लों से पाला पड़ा था. इनके पास 90000 पैदल 10000 सवार और 900 हाथी थे. पाणिनी ने इन्हें आयुध जीवी क्षत्रिय माना है. हमें तो अयोधन और आयुध इन्हीं के साथी जान पड़ते हैं. जाटों में यह आज भी मल, माली और मालवन के नाम से मशहूर हैं. एक समय इनका इतना बड़ा प्रभाव हो गया था इन्हीं के नाम पर संवत चल निकला था. इनके कहीं सिक्के मिले जिन पर 'मालवानाम् जय' लिखा रहता है. ये गणवादी (जाति राष्ट्रवादी) थे. इस बात का सबूत इन के दूसरे प्रकार के उन सिक्कों से भी हो जाता है जिन पर 'मालव गणस्य जय' लिखा हुआ है. जयपुर के नागर नामक कस्बे के पास से एक पुराने स्थान से इनके बहुत से सिक्के मिले थे. जिनमें से कुछ पर मलय, मजुप और मगजस नाम भी लिखे मिले हैं. हमारे मन से यह उन महापुरुषों के नाम हैं जो इनके गण के सरदार रह चुके थे. इन लोगों की एक लड़ाई क्षत्रप नहपान के दामाद से हुई थी. दूसरी लड़ाई समुद्रगुप्त से हुई. इसी लड़ाई में इनका ज्ञाति राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गया और यह समुद्रगुप्त के साम्राज्य में मिला लिया गया इनके सिक्के ईसवी सन के 250-150 वर्ष पूर्व माने जाते हैं.

दलीप सिंह अहलावत (p.254-255) ने इन मल्ल या मालव जाट गोत्र के इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डाला है. उनके अनुसार मल्ल या मालव चन्द्रवंशी जाट गोत्र है. रामायणकाल में इस वंश का शक्तिशाली राज्य था. सिकन्दर के समय मुलतान में ये लोग विशेष शक्तिसम्पन्न थे. मालव क्षत्रियों ने सिकन्दर की सेना का वीरता से सामना किया और यूनानी सेना के दांत खट्टे कर दिये. सिकन्दर बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ सका. मैगस्थनीज ने इनको ‘मल्लोई’ लिखा है और इनका मालवा मध्यभारत पर राज्य होना लिखा है. मालव लोगों के नाम पर ही उस प्रदेश का नाम मालवा पड़ा था. इस मालवा नाम से पहले इस प्रदेश का नाम अवन्ति था. वहां पर आज भी मालव गोत्र के जाटों की बड़ी संख्या है. सिकन्दर के समय पंजाब में भी इनकी अधिकता हो चुकी थी. इन मालवों के कारण ही भटिण्डा, फरीदकोट, फिरोजपुर, लुधियाना के बीच का क्षेत्र (प्रदेश) मालवा कहलाने लगा. इस प्रदेश के लगभग सभी मालव गोत्र के लोग सिक्खधर्मी हैं. ये लोग बड़े बहादुर, लम्बे कद के, सुन्दर रूप वाले तथा खुशहाल किसान हैं. सियालकोट, मुलतान, झंग आदि जिलों में मालव जाट मुसलमान हैं. मल्ल लोगों का अस्तित्व इस समय ब्राह्मणों और जाटों में पाया जाता है. कात्यायन ने शब्दों के जातिवाची रूप बनाने के जो नियम दिये हैं, उनके अनुसार ब्राह्मणों में ये मालवी और क्षत्रिय जाटों में माली कहलाते हैं, जो कि मालव शब्द से बने हैं. पंजाब और सिंध की भांति मालवा प्रदेश को भी जाटों की निवासभूमि एवं साम्राज्य होने का सौभाग्य प्राप्त है. महात्मा बुद्ध के स्वर्गीय (487 ई० पू०) होने पर कुशिनारा (जि० गोरखपुर) के मल्ल लोगों ने उनके शव को किसी दूसरे को नहीं लेने दिया. अन्त में समझौता होने पर दाहसंस्कार के बाद उनके अस्थि-समूह के आठ भाग करके मल्ल, मगध, लिच्छवि, मौर्य ये चारों जाट वंश, तथा बुली, कोली (जाट वंश), शाक्य (जाट वंश) और वेथद्वीप (बेतिया, ज़िला चंपारन) के ब्राह्मणों में बांट दिये. उन लोगों ने अस्थियों पर स्तूप बनवा दिये. मध्यप्रदेश में मालवा भी इन्हीं के नाम पर है. मालव वंश के शाखा गोत्र - 1. सिद्धू 2. बराड़


पावापुरी के चित्र
कुंडलपुर (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

भगवान महावीर का जन्म स्थान: आज से 2600 वर्ष पूर्व भगवान महावीर का जन्म कुण्डलपुर में हुआ था यह सर्वविदित है. कुण्डलपुर जैन धर्मावलम्बियों की मान्यतानुसार वह स्थान है जो कि बिहार शरीफ से 13 किमी. एवं राजगृह से 16 किमी. दूर है. नालंदा से 3 किमी. दूर बड़गाँव के बाहर एक जिनमंदिर के क्षेत्र को भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के नाम से जाना जाता है जो कि सदियों से जैन लोगों के आस्था का केन्द्र है. तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की यात्रा करने वाले शत-प्रतिशत धर्मावलम्बी मार्ग में भगवानमहावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के दर्शन करने अवश्य ही जाते हैं. वहाँ एक परकोटे में जिनमंदिर में भगवान महावीर की मूलनायक प्रतिमा है तथा मंदिर के बाहर चबूतरे पर एक छत्री बनी है जिसमें भगवान महावीर के चरण चिन्ह हैं.


कुण्डलपुर के चित्र
नगरनौसा में छठ-पर्व दिनांक 12.11.2010

कुंडलपुर भ्रमण के बाद पटना के लिए रवाना हुये जहाँ रात्री के 21.30 बजे पहुँचे. रास्ते में नालंदा जिले की सीमा के पास पटना जिले की सीमा से पहले नगरनौसा (Nagarnausa) नामक गाँव में मोहना नदी पर स्थि छठ-घाट पर स्थित छठ पर्व की एक झलक देखने का भी अवसर मिला. आज कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी का दिन था. शाम के समय नदी के घाट पर भक्तों की भारी भीड़ थी. भक्त लोग डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य दे रहे थे. कुछ समय रुक कर अवलोकन किया और छठ पर्व के बारे में ज्ञानार्जन किया.

छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक पर्व है. सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है. कहा जाता है यह पर्व बिहारीयों का सबसे बड़ा पर्व है और यह उनकी संस्कृति है. छठ पर्व बिहार मे बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है. छठ पूजा छठी म‌इया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद और कुछ शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए. त्यौहार के अनुष्ठान कठोर हैं और चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं. इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और प्रसाद और अर्घ्य देना शामिल है.

छठ पर्व की शुरुआत

एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी. तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था. इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी. कहा जाता है कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया.

आज छठ पर्व का तीसरा दिन था, जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है. पूरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते हैं. छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है. छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद,फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है. वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथों से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है. छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलायें छठ का गीत गाते हुए जाती हैं. नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलायें घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती हैं. नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते हैं और दीप जलाते हैं. सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्यदेव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते हैं और डूबते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते हैं.

नगरनौसा गाँव में छठ-पर्व के चित्र

पटना (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

नालंदा जिला पार करने के बाद हमने पटना जिले में प्रवेश किया. रात हो रही थी और हमें वहाँ से गुवाहाटी की ट्रेन पकड़ने की जल्दी थी इसलिये कोई स्थान विशेष देखने के लिए समय नहीं था. पटना बिहार राज्य का एक महत्वपूर्ण ज़िला है. गंगा तथा सोन जैसी नदियों के द्वारा सिंचित तथा उर्वर भूमि से युक्त पटना एक कृषि प्रधान जिला है.

बिहार के विकास में लेखक का योगदान: बिहार प्रदेश के इस भूभाग में जब हम भ्रमण कर रहे थे और यहाँ हरे-भरे सिंचित कृषि क्षेत्रों को देखा तब याद आया कि इस क्षेत्र के विकास के लिए मैं भी थोड़ा योगदान कर चुका हूँ. नवम्बर 2005 से अक्टूबर 2007 तक बाण सागर परियोजना रीवा, मध्य प्रदेश, में आयुक्त के पद पर पदस्थ रहने का अवसर मुझे मिला था. उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार प्रदेशों की सिंचाई क्षमता बढ़ाने और विद्युत् उत्पादन करने वाली 28 वर्ष से लंबित सोन नदी पर निर्माणाधीन बहु-उद्देशीय बाण सागर नदी-घाटी बांध परियोजना को पूर्ण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ. तीन दशकों से लंबित इस परियोजना की डी.पी.आर. पूर्ण कर बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों से मध्य प्रदेश राज्य को रु. 120 करोड़ की राशि दिलवाई. बाण सागर परियोजना पूर्ण होने से सर्वाधिक और तत्काल लाभ बिहार के इसी भूभाग को मिला क्योंकि यहाँ नहरों का जाल पहले से बिछा हुआ था. जबकि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में नहरों का जाल बिछाने का काम होना अभी बाकी था. सोन नदी पटना शहर के पास ही गंगा नदी में मिलती है और उसका सिंचित क्षेत्र भी यही भूभाग है. उल्लेखनीय है कि बाण सागर परियोजना का शुभारम्भ वर्ष 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था. 28 वर्ष बाद मेरे कार्यकाल में 25 सितम्बर 2006 को पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा इस परियोजना का राष्ट्र को समर्पण किया गया.

पटना का इतिहास

पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था. पटना का इतिहास बहुत शानदार जो हमें ज्ञात होना चाहिए. पाटलिपुत्र (AS, p.541): गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, बिहार में गंगा के उत्तर की ओर लिच्छवियों का 'वृज्जि गणराज्य' तथा दक्षिण की ओर 'मगध' का राज्य था। बुद्ध जब अंतिम बार मगध गए थे, तो गंगा और शोण नदियों के संगम के पास पाटलि नामक ग्राम बसा हुआ था, जो 'पाटल' या 'ढाक' के वृक्षों से आच्छादित था. मगधराज अजातशत्रु ने लिच्छवी गणराज्य का अंत करने के पश्चात् एक मिट्टी का दुर्ग पाटलिग्राम के पास बनवाया, जिससे मगध की लिच्छवियों के आक्रमणों से रक्षा हो सके. बुद्धचरित 22,3 से ज्ञात होता है कि यह क़िला मगधराज के मन्त्री वर्षकार ने बनवाया था. अजातशत्रु के पुत्र 'उदायिन' या 'उदायिभद्र' ने इसी स्थान पर पाटलिपुत्र नगर की नींव डाली. पाली ग्रंथों के अनुसार भी नगर का निर्माण 'सुनिधि' और 'वस्सकार' (=वर्षकार) नामक मन्त्रियों ने करवाया था. पाली अनुश्रुति के अनुसार गौतम बुद्ध ने पाटलि के पास कई बार राजगृह और वैशाली के बीच आते-जाते गंगा को पार किया था और इस ग्राम की बढ़ती हुई सीमाओं को देखकर भविष्यवाणी की थी, कि यह भविष्य में एक महान् नगर बन जाएगा. अजातशत्रु तथा उसके वंशजों के लिए पाटलिपुत्र की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी. अब तक मगध की राजधानी राजगृह थी, किंतु अजातशत्रु द्वारा वैशाली (उत्तर बिहार) तथा काशी की विजय के पश्चात् मगध के राज्य का विस्तार भी काफ़ी बढ़ गया था और इसी कारण अब राजगृह से अधिक केंद्रीय स्थान पर राजधानी बनाना आवश्यक हो गया था।

जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प में पाटलिपुत्र के नामकरण के संबंध में एक मनोरंजक सा उल्लेख है. इसके अनुसार अजातशत्रु की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उदयी ने अपने पिता की मृत्यु के शोक के कारण अपनी राजधानी को चंपा से अन्यत्र ले जाने का विचार किया और शकुन बताने वालों को नई राजधानी बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में भेजा. ये लोग खोजते-खोजते गंगातट पर एक स्थान पर पहुंचे. वहाँ उन्होंने पुष्पों से लदा हुआ एक पाटल वृक्ष (ढाक या किंशुक) देखा, जिस पर एक नीलकंठ बैठा हुआ कीड़े खा रहा था. इस दृश्य को उन्होंने शुभ शकुन माना और यहाँ पर मगध की नई राजधानी बनाने के लिए राजा को मन्त्रणा दी. फलस्वरूप जो नया नगर उदयी ने बसाया, उसका नाम पाटलिपुत्र या कुसुमपुर रखा गया. उदयी ने यहाँ श्री नेमिका चैत्य बनाया और स्वयं जैन धर्म में दीक्षित हो गया. विविधतीर्थ कल्प में चन्द्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक और कुणाल को क्रमश: पाटलिपुत्र में राज करते बताया गया है. जैन साधु स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में ही तपस्या की थी. इस ग्रंथ में नंद और उसके वंश को नष्ट करने वाले चाणक्य का भी उल्लेख है.

इनके अतिरिक्त सर्वकलाविद मूलदेव और अचल सार्थवाह श्रेष्ठी का नाम भी पाटलिपुत्र के संबंध में आया है। वायुपुराण के अनुसार 'कुसुमपुर' या 'पाटलिपुत्र' को उदयी ने अपने राज्याभिषेक के चतुर्थ वर्ष में बसाया था। यह तथ्य 'गार्गी संहिता' की साक्षी से भी पुष्ट होता है. परिशिष्टपर्वन (जैकोबी द्वारा संपादित, पृ0 42) के अनुसार भी इस नगर की नींव उदायी (=उदयी) ने डाली थी. पाटलिपुत्र का महत्त्व शोण-गंगा के संगम कोण में बसा होने के कारण, सुरक्षा और व्यापार, दोनों ही दृष्टियों से शीघ्रता से बढ़ता गया और नगर का क्षेत्रफल भी लगभग 20 वर्ग मील तक विस्तृत हो गया. श्री चिं.वि. वैद्य के अनुसार महाभारत के परवर्ती संस्करण के समय से पूर्व ही पाटलिपुत्र की स्थापना हो गई थी, किंतु इस नगर का नामोल्लेख इस महाकाव्य में नहीं है, जबकि निकटवर्ती राजगृह या गिरिव्रज और गया आदि का वर्णन कई स्थानों पर है.

मौर्य साम्राज्य की राजधानी: पाटलिपुत्र की विशेष ख्याति भारत के ऐतिहासिक काल के विशालतम साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य की राजधानी के रूप में हुई. चंद्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र की समृद्धि तथा शासन-सुव्यवस्था का वर्णन यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भली-भांति किया है. उसमें पाटलिपुत्र के स्थानीय शासन के लिए बनी एक समिति की भी चर्चा की गई है. उस समय यह नगर 9 मील लंबा तथा डेढ़ मील चौड़ा एवं चर्तुभुजाकार था. चंद्रगुप्त के भव्य राजप्रासाद का उल्लेख भी मेगेस्थनीज ने किया है, जिसकी स्थिति डा. स्पूनर के अनुसार वर्तमान कुम्हरार के निकट रही होगी. यह चौरासी स्तंभो पर आधृत था. इस समय नगर के चतुर्दिंक लकड़ी का परकोटा तथा जल से भरी हुई गहरी खाई भी थी. अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए दो प्रस्तर-स्तंभ प्रस्थापित किए थे. इनमें से एक स्तंभ उत्खनन में मिला भी है. अशोक के शासनकाल के 18वें वर्ष में कुक्कुटाराम नामक उद्यान में 'मोगलीपुत्र तिस्सा' (तिष्य) के सभापतित्व में द्वितीय बौद्ध संगीति (महासम्मेलन) हुई थी.

जैन धर्म की अनुश्रुति में भी कहा गया है कि पाटलिपुत्र में ही जैन धर्म की प्रथम परिषद का सत्र संपन्न हुआ था. इसमें जैन धर्म के आगमों को संग्रहीत करने का कार्य किया गया था. इस परिषद के सभापति 'स्थूलभद्र' थे. इनका समय चौथी शती ई.पू. में माना जाता है. मौर्य काल में पाटलिपुत्र से ही संपूर्ण भारत (गांधार सहित) का शासन संचालित होता था. इसका प्रमाण अशोक के भारत भर में पाए जाने वाले शिलालेख हैं. गिरनार के रुद्रदामन् अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि मौर्य काल में मगध से सैकड़ों मील दूर सौराष्ट्र प्रदेश में भी पाटलिपुत्र का शासन चलता था.

शुंगों की राजधानी: मौर्यों के पश्चात् शुंगों की राजधानी भी पाटलिपुत्र में ही रही. इस समय यूनानी मेनेंडर ने साकेत और पाटलिपुत्र तक पहुँचकर देश को आक्रांत कर डाला, किंतु शीघ्र ही पुष्यमित्र शुंग ने इसे परास्त करके इन दोनों नगरों में भली प्रकार शासन स्थापित किया.

गुप्त काल के प्रथम चरण में भी गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में ही स्थित थी. कई अभिलेखों से यह भी जान पड़ता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने, जो भागवत धर्म का महान् पोषक था, अपने साम्राज्य की राजधानी अयोध्या में बनाई थी. चीनी यात्री फ़ाह्यान ने, जो इस समय पाटलिपुत्र आया था, इस नगर के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि, "यहाँ के भवन तथा राजप्रासाद इतने भव्य एवं विशाल थे कि शिल्प की दृष्टि से उन्हें अतिमानवीय हाथों का बनाया हुआ समझा जाता था।" गुप्त कालीन पाटलिपुत्र की शोभा का वर्णन संस्कृत के कवि 'वररुचि' ने इस प्रकार किया है-'सर्ववीतभयै: प्रकृष्टवदनैर्नित्योत्सवव्यापृतै: श्रीमद्रत्नविभूषणांणगरचनै: स्त्रग्गंधवस्त्रोज्ज्वलै:, कीडासौख्यपरायणैर्विरचित प्रख्यातनामा गुणैर्भूमि: पाटलिपुत्रचारूतिलका स्वर्गायते सांप्रतम्।

पश्चगुप्त काल में पाटलिपुत्र का महत्त्व गुप्त साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ कम हो चला। तत्कालीन मुद्राओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गुप्त साम्राज्य के ताम्र-सिक्कों की टकसाल समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही अयोध्या में स्थापित हो गई थी.

छठी शती ई. में हूणों के आक्रमण के कारण पाटलिपुत्र की समृद्धि को बहुत धक्का पहुँचा और उसका रहा-सहा गौरव भी जाता रहा। 630-645 ई. में भारत की यात्रा करने वाले चीनी पर्यटक युवानच्वांग ने 638 ई. में पाटलिपुत्र में सैंकड़ों खंडहर देखे थे और गंगा के पास दीवार से घिरे हुए इस नगर में उसने केवल एक सहस्त्र मनुष्यों की आबादी ही पाई।. युवानच्वांग ने लिखा है कि पुरानी बस्ती को छोड़कर एक नई बस्ती बसाई गई थी. महाराज हर्ष ने पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी न बनाकर 'कान्यकुब्ज' को यह गौरव प्रदान किया. 811 ई. के लगभग बंगाल के पाल नरेश धर्मपाल द्वितीय ने कुछ समय के लिए पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी बनाई. इसके पश्चात् सैकड़ों वर्ष तक यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर विस्मृति के गर्त में पड़ा रहा.

पटना नामकरण: 1541 ई. में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पुन: एक बार बसाया, क्योंकि बिहार का निवासी होने के कारण वह इस नगर की स्थिति के महत्त्व को भलीभंति समझता था. अब यह नगर पटना कहलाने लगा और धीरे-धीरे बिहार का सबसे बड़ा नगर बन गया. शेरशाह से पहले बिहार प्रांत की राजधानी बिहार नामक स्थान में थी, जो पाल नरेशों के समय में उद्दंडपुर नाम से प्रसिद्ध था. शेरशाह के पश्चात् मुग़ल काल में पटना ही में से बिहार प्रांत की राजधानी स्थायी रूप रही. ब्रिटिश काल में 1892 में पटना को बिहार-उड़ीसा के संयुक्त सूबे की राजधानी बनाया गया. 'कुम्हरार के हाल' के उत्खनन से ज्ञात होता है कि प्राचीन पाटलिपुत्र दो बार नष्ट हुआ था. परिनिब्बान सुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार यह नगर केवल बाढ़, अग्नि या पारस्परिक फूट से ही नष्ट हो सकता था. 1953 की खुदाई से यह प्रमाणित होता है कि मौर्य सम्राटों का प्रासाद अग्निकांड से नष्ट हुआ था. शेरशाह के शासनकाल की बनी हुई 'शहरपनाह' के ध्वंस पटना से प्राप्त हुए हैं. चौक थाना के पास मदरसा मस्जिद है, जो शायद 1626 ई. में बनी थी. इसी के निकट 'चहल सतून' नामक भवन था, जिसमें चालीस स्तंभ थे. इसी भवन में फ़र्रुख़सियर और शाहआलम को अस्तोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बिठाया गया था. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के पिता हयातजंग की समाधि बेगमपुर में है. प्राचीन मस्जिदों में शेरशाह की मस्जिद और अंबर मस्जिद हैं. सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था. उनकी स्मृति में यहाँ एक गुरुद्वारा भी बना हुआ है. वायुपुराण में पाटलिपुत्र को 'कुसुमपुर' कहा गया है. कुसुम 'पाटल' या 'ढाक' का ही पर्याय है. कालिदास ने इस नगरी को पुष्पपुर लिखा है.

अलविदा बिहार !: रात में हमने पटना शहर में प्रवेश किया. आज छठ का त्योहार होने के कारण पटना के रास्तों पर भारी भीड़ थी. भीड़ को पार करना कठिन हो रहा था. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता बीच-बीच रास्तों को गाडियाँ जाने के लिए खुलवा रहे थे. 12.11.2010 रात के 21.30 बजे हम पटना स्टेशन पहुँच गए और गौहाटी के लिए ट्रेन (2506 North East Exp) से 22.20 पर रवाना हुये. और इस प्रकार हमने बिहार को अलविदा कहा और आसाम राज्य की यात्रा पर चल पड़े. बिहार के उपरोक्त स्थानों में दो दिन के भ्रमण के बाद हमारी बिहार के प्रति धारणा बदल गई. यहाँ पर सड़कों, ऐतिहासिक धरोहरों और पर्यटन स्थलों का अच्छा विकास हुआ है.

Source: Facebook-post of Laxman Burdak 10.2.2021

Jat Clans

Jat History

Ram Swarup Joon[15] writes about Malha, Malo or Malli: The Malhi and Malo republics and clans have been mentioned in the accounts of Alexander's invasion.

The Rock inscription of Malha Jats of the period of Panini (6th century BCE) refers to their four kingdoms Kashnara, Pava, Multan and Varansi.

A rock inscription of Nagaragram in Jaipur speaks of Jaimalo.

The area of Malwa comes to be known as such after their name.

A large number of Malha Jats is in Malwa today.

Muslim and Sikh Malhi Jats is found in large numbers in Jhang, Multan and Sialkot. In Sialkot they have 25 villages in a compact area.


Centre of Jainism

It is believed as the place where Lord Mahavir attained Nirvana. Pava was also a centre of Jainism and, at the time mentioned above, Mahavira had just died at Pava and his followers were divided by bitter wrangles.[16] Cunda Samanuddesa was spending his rainy season at Pava, and he reported to the Buddha, who was at Samagama, news of the Nirgranthas’ quarrels.[17]

External links

References

  1. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.555
  2. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p. 72
  3. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.72
  4. SNA.i. 159
  5. D.ii.126 ff.; Ud.viii.5; the road from Pava to Kushinagar is mentioned several times in the books Vin.ii.284; D.ii.162.
  6. D.ii.167; Bu.xxviii.3
  7. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.548
  8. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.28
  9. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.598
  10. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.555
  11. (ऐशेंट ज्याग्रेफी आफ इंडिया पृष्ठ 49)
  12. ऐशेंट ज्याग्रेफी ऑव इंडिया पृष्ठ 714
  13. पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 562, परिशिष्ट 'ग' |
  14. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Pancham Parichhed,p.100-101
  15. Ram Swarup Joon: History of the Jats/Chapter V,p. 94
  16. D.iii.210
  17. D.ii.117f; M.ii.243f