Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Pancham Parichhed
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पंचम परिच्छेद
उन प्राचीन राजवंशों का वर्णन जो जाति-राष्ट्र के सिद्धांतों पर चलने के कारण जाट कहलाए।जाति-राष्ट्र के प्राचीन राजवंशों का वर्णन
इस परिच्छेद में हम कुछ-एक प्राचीन राजवंशों और उनकी शासन प्रणालियों का वर्णन करना चाहते हैं जिन्होंने जाति-राष्ट्र की नीति को अपनाकर गणतंत्र-शासन-प्रणाली को बहुत दिन जीवित रखा। और आज घोर साम्राज्य के युग में उनके उत्तराधिकारियों का अधिकांश जन समुदाय पंजाब, राजपूताना और युक्तप्रांत में खेती पर निर्वाह कर रहा है। हालांकि उनमें से कुछेक ने बड़ी बहादुरी के साथ लड़कर भरतपुर, धौलपुर, पटियाला, नाभा, जींद और फरीदकोट जैसे राज्य भी कायम कर रखे हैं। यह कहा जा सकता है कि यह राज्य साम्राज्य के ही प्रतीक हैं फिर भी उनमें जाति-राष्ट्र की झलक मारती है। भरतपुर और पटियाला राजागण कोई भी ऐसा कार्य हठात् नहीं कर सकते जिसका समस्त जाति की ओर से विरोध होने की आशंका हो। इन राज्य में जमीन पर राष्ट्र के साथ ही साथ जाति का भी अधिकार है। राजा उनकी जमीन को न तो उचित मुआवजा दिए बिना अपने काम में ला सकता है और न बेच सकता है। अपनी भूमि की मालिक
संपूर्ण जाति है। हां, राज्य को चलाने के लिए उसे राजस्व अवश्य देना पड़ता है। ये राज्य हालांकि दूसरी जातियों पर भी शासन करते हैं किंतु उन्हें भी वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो इनकी खास जाति को है। इन राज्यों के जाति-राष्ट्र होने में यदि कोई अंतर है तो केवल इतना कि इनके यहां अपनी जाति अथवा प्रजा के चुने प्रतिनिधियों की शासन सभा नहीं है। अस्तु,-
हां, तो हमें बताना है कि प्राचीन काल में कौन से राजवंशों ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जाति राष्ट्र के नियमों को माना और जिसके कारण वे जात अथवा जाट कहलाए।
1. शिवि
1. शिवि - खानदान बहुत पुराना है। वैदिक काल से लेकर किसी न किसी रूप में सिकंदर के आक्रमण के समय तक इनका जिक्र पाया जाता है। पुराणों ने शिवि लोगों को उशीनर की संतानों में से बताया है। राजा ययाति के पुत्रों में यदु, पुरू, तुर्वषु, अनु और द्रुहयु आदि थे। उशीनर ने अनु खानदान के थे। पुराणों में इनकी जो वंशावली दी है वह इस प्रकार है:- 1. चंद्र 2. बुद्ध 3. पुरुरवा 4. आयु 5. नहुष 6. ययाति* 7. (ययाति के तीसरे पुत्र) अनु 8. सभानर 9. कालनर 10. सृजय 11. जन्मेजय 12.
* कुछ लोग राजा ययाति की राजधानी शाकंभरी अर्थात सांभर झील को मानते हैं जो कि इस समय जयपुर जोधपुर की सीमा पर है।
महाशील 13. महामना 14. महामना के दूसरे पुत्र उशीनर और 15. उशीनर के पुत्र शिवि। प्रसिद्ध दानी महाराज शिवि की कथाओं से सारी हिंदू जाति परिचित है।* ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब विश्वविजेता सिकंदर का भारत पर आक्रमण हुआ था, उस समय शिवि लोग मल्लों के पड़ोस में बसे हुए थे। उस समय के इनके वैभव के संबंध में सिकंदर के साथियों ने लिखा है:- "कि इनके पास 40,000 तो पैदल सेना थी।" कुछ लोगों ने पंजाब के वर्तमान शेरकोट को इनकी राजधानी बताया है।†हम 3 स्थानों में इनके फैलने का वर्णन पाते हैं। आरंभ में तो यह जाति मानसरोवर के नीचे के हिस्से में आबाद थी। फिर यह उत्तर-पूर्व पंजाब में फैल गई। यही पंजाब के शिवि लोग राजपूताना में चित्तौड़ तक पहुंचते हैं। जहां इनकी मध्यमिका नगरी में राजधानी थी। यहां से इनके सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिन पर लिखा हुआ है- 'मज्झिम निकाय शिव जनपदस'
दूसरा समुदाय इनका तिब्बत को पार कर जाता है जो वहां शियूची नाम से प्रसिद्ध होता है। कई इतिहासकारों का कहना है कि कुशान लोग शियूची जाति की एक शाखा थे।
* शिवि जाति के कुछ प्रसिद्ध राजाओं का हाल परिशिष्ट में पढ़िए।
† यह शेरकोट पहले शिविपुर कहलाता था। कुछ लोग धवला नदी के किनारे के शिवप्रस्थ को शिवि लोगों की राजधानी मानते हैं।
महाराजा कनिष्क कुशान जाति के ही नरेश थे।
तीसरा दल इनका जाटों के अन्य दलों के साथ यूरोप में बढ़ जाता है। स्केंडिनेविया और जटलैंड दोनों ही में इनका जिक्र आता है। टसीटस, टोलमी, पिंकर्टन तीनों ही का कहना है कि-" जट्टलैंड में जट लोगों की 6 जातियां थी। जिनमें सुएवी, किम्ब्री हेमेन्द्री और कट्टी भी शामिल थीं, जो एल्व और वेजर नदियों के मुहाने तक फैल गईं थीं। वहां पर इन्होंने युद्ध के देवता के नाम पर इमर्नश्यूल नाम का स्तूप खड़ा किया था।” बौद्ध लोगों का कहना है कि भगवान बुद्ध तथागत ने पहले एक बार शिवि लोगों में भी जन्म लिया था। इन लोगों में हर-गौरी और पृथ्वी की पूजा प्रचलित थी। संघ के अधिपति को गणपति व गणेश कहते थे। इनकी जितनी भी छोटी-छोटी शाखाएं थी वह जाति राष्ट्र में सम्मिलित हो गई थी।
आरंभकाल में भारत में शिवि लोगों को दक्ष लोगों से भी भयंकर युद्ध करना पड़ा था। वीरभद्र नाम का इनका सेनापति दक्षनगर को विध्वंस करने के कारण ही प्रसिद्ध हुआ था। एक बार इन में गृह कलह भी हुआ था। जिसका समझौता इस प्रकार हुआ कि हस्ति शाखा के प्रमुख को पार्लियामेंट का इनको सर्वसम्मति से प्रधान चुनना पड़ा।* मालूम ऐसा होता है
* पुराणों में यह कथा बड़े गोलमोल के साथ वर्णन की गई है। हस्ति कबीले के लोग पीछे काबुल नदी के किनारे बसे थे। उनका हस्तीनगर आजकल न्यस्त व न्यस कहलाता है।
शिवि लोगों के संघ में जब कि वह जाति राष्ट्र के रूप में परिवर्तित हुआ सभी शिवि लोग शामिल हो गए थे। यह भी सही बात है कि नाग लोग भी शिव लोगों की ही शाखा के हैं। क्योंकि पूनिया जाट कहा करते हैं कि आदि जाट तो हम हैं और शिवजी की जटाओं से पैदा हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवि जाटों की संख्या एक समय बहुत थी। क्योंकि सिकंदर के समय में 40 हजार तो उनके पास पैदल सेना ही थी। यदि हम दस आदमियों पीछे भी एक सैनिक बना दे तो इस तरह वे 4 लाख होते हैं और जबकि उनके दो बड़े-बड़े समूह चीन और यूरोप की ओर चले गए थे। यदि समस्त शिवि जाटों की अंदाज से ही गिनती करें तो वह 10 लाख के करीब साबित हो सकते हैं।
शायद कुछ लोग कहें कि 'यह माना कि शिवि एक महान और संपन्न जाति भारत में थी किंतु यह कैसे माना जाए किसी भी शिवि लोग जाट थे'? इसका उत्तर प्रमाण और दंतकथा दोनों के आधार पर हम देते हैं।
(1) पहली दंतकथा तो यह है कि जाट शिव की जटाओं में से हुए हैं। अर्थात शिवि लोग जाट थे।
(2) जाट शिव के गणों में से हैं अर्थात गणतंत्री शिवि जाट थे।
(3) जाट का मुख्य शिव ने बनाया, इसके वास्तविक माने यह है कि 'जाट-राष्ट्रों' में प्रमुख शिवि हैं।
यह इन दंतकथाओं के हमारे किए अर्थ न माने जाएं, तब भी इतना तो इन दंतकथाओं के आधार पर स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जाट और शिवि लोगों का कोई
न कोई संबंध तो है ही। हम कहते हैं कि संबंध यही है कि शिवि लोग जाट थे। इसके लिए प्रमाण भी लीजिए। "ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ द नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज एंड अवध" नामक पुस्तक में मिस्टर डबल्यू क्रुक साहब लिखते हैं:
The Jats of the south-eastern provinces divide them selves into two sections - Shivgotri or of the family of Shiva and Kashyapagotri.
अर्थात् - दक्षिणी पूर्वी प्रान्तों के जाट अपने को दो भागों में विभक्त करते हैं - शिवगोत्री या शिव के वंशज और कश्यप गोत्री ।
इसी तरह की बात कर्नल टॉड भी प्रसिद्ध इतिहासकार टसीटस (Tacitus) के हवाले से लिखते हैं:- "स्कंदनाभ देश में जट नामक एक महापराक्रमी जाति निवास करती थी। इस जाति के वंश की बहुत सी शाखाएं थी। उन शाखाओं में शैव और शिवि लोगों की विशेष प्रतिष्ठा थी। "
हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथकारों ने शिवि लोगों को शैवल और शैव्य कर के भी लिखा है। इनमें कई सरदार बड़े प्रतापी हुए हैं। उनके जीवन पर परिशिष्ट भाग में थोड़ा सा प्रकाश डालेंगे।
2. मद्र
2. मद्र - [पृ.95]: महाभारत में इनका खूब जिक्र आता है। पांडू की दूसरी रानी माद्री इन्हीं की राजकन्या थी। पुराणों में दी हुई वंशावली के अनुसार यह लोग भी शिवि लोगों की एक शाखा ही साबित होते हैं। शिवि के दो पुत्र बताए जाते हैं। एक मद्र, दूसरे केकय। राम के जमाने में शायद यह लोग एकतंत्री खयाल कर रहे हों। किंतु महाभारत के बाद तो हम इन्हें गणतंत्र
के रूप में पाते हैं। जाटों में आजकल यह लोग मद्रेने अथवा मदेरणा कहलाते हैं। बांग्ला-विश्वकोश की सातवीं जिल्द में श्री नरेंद्रनाथ बसु ने मद्र जाटों के संबंध में इस प्रकार लिखा है- "अध्यापक लासेन पंडित बोलेन कि महाभारते जे मद्र उ जाति गणे उल्लेख आ चि जाट जाति ताह दीगं अंतर्मुक़। अर्थात प्रोफेसर लासेन का कहना है कि है महाभारत में जिन मद्रों का जिक्र आता है जाट जाति उन्हीं के अंदर से है।"
यहां हमारा प्रोफेसर लासेन और नागेंद्रनाथ बसु से इतना मतभेद है कि जाट जाति मद्रों में से नहीं है किंतु मद्र जाट जाति का एक टुकड़ा है। जाट तो एक संघ (लीग) है जिसमें मद्र भी शामिल हो गए थे। इस तरह मद्र भी जाट हैं। यह लोग शिवि जाटों के पश्चिम में आबाद थे और शिवियों की भांति ही मद्र भी उशीनर कहे जा सकते हैं। उशीनगर का नाम बार-बार हम इसलिए ले रहे हैं कि उशीनर वेदों की कई रिचाओं का दृष्ट्वा समझा जाता है। अपने इन पूर्वजों पर जाटों को अभिमान होना चाहिए। जात्रा लोग भी इन्हीं मद्रों की एक शाखा थी। किंतु हम खूब जानते हैं कि महाभारत काल में जात्रा कोई ऐसी अभक्ष्य भौज्य जाति न थी जैसा कि कर्ण पर्व में उसे बताया गया है।
चिनाब और रावी नदियों के बीच के प्रदेश में मद्र लोगों की साकल नगरी राजधानी थी। कुछ लोग मद्रों को वाल्हिकों का
साथी बताते हैं। संभव है मद्रों ने वाल्हिकों के साथ मिलकर जाति राष्ट्र की स्थापना की हो। ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर-मद्रों का भी जिक्र आता है। संभव है वे लोग हिंदुकुश के उस पार रहते हों।
3. गांधार
3. गांधार - [पृ.97]: यह लोग भी शिवियों की भांति अति पुराना राजवंश है। दुर्योधन की मां रानी गांधारी इन्हीं लोगों की राजकन्या थी। संसार के इतिहास में इतनी तपस्विनी और अपने को पति के व्यक्तित्व में मिला देने वाली बहुत कम स्त्रियां निकलेंगी। वेदों में गांधार लोगों का भी नाम खूब आता है। भगवान कृष्ण के सिद्धांत के अनुसार ही उन्होंने भी अपने को ज्ञातिवादी बना लिया था।* इनकी राजधानी मद्रों के पड़ोस में तक्षशिला थी। तक्षशिला विद्या के लिहाज से सप्तसिंधु देश का दूसरा काशी है। कुछ लोगों के मतानुसार पुरुषपुर (पेशावर) और गांधार (कन्दहार) में भी उनकी राजधानी रही थी। आगरा जिले के जाटों में सन 1921 कि जनगणना में गांधारों की संख्या 2468 थी। पंजाब और बरेली में भी गांधार जाट हैं।
* याज्ञवल्क्य स्मृति में ज्ञाति, गण, श्रेणी, जनपद को समानवाची तथा संगठित संस्था के रूप में वर्णित किया है। यथा- व्यव तारान स्वयम पश्येत सम्यै: परिवृतो अन्यहमं। कुलानि जाति मृणीश्च गणाज्जानपदानपि । 1। 160।
सिकंदर को भी इन लोगों से पाला पड़ा था। उसके साथियों ने इन्हें गंगरेदी नाम से याद किया है। इनकी एक शाखा गंगस कहलाती है। पीछे यह शाखा गढ़मुक्तेश्वर के पास पहुंच गई और गंगाघाट नामक शहर को अपनी राजधानी बनाया।
छान्दोग्य उपनिषद की रचना गांधार देश के क्षत्रियों ने ही की थी। जाटों को जिस प्रकार गीता पर अभिमान है उसी भांति छान्दोग्य उपनिषद पर भी होना चाहिए क्योंकि वह उन्हीं के पूर्वजों की रची हुई है।
4. पांचाल
4. पांचाल: [पृ.98]: बौद्ध काल में इनके दो दल हो गए थे। उत्तर पांचाल और दक्षिण पांचाल। दक्षिणी लोगों की राजधानी कन्नोज थी। उत्तरी लोगों की कांपिल्य। लोगों का अनुमान है कि बदायूं के आसपास उनका राज्य होगा। लेकिन हमारा अनुमान है कि कासगंज और अलीगढ़ के बीच में इनकी कम्पिलानगरी थी। पीछे के समय में फूल सिंह पांचाली जिसे साधारण बोलचाल में लोग पंजाबी कहते हैं।* यहां का राजा था। निषद देश के राजा नल के बाप से इसी फूलसिंह ने इस बात पर युद्ध किया था कि जबकि गंगा मेरे राज्य में होकर बहती है तुमने हमारे घाट पर हमसे पहले स्नान कैसे कर लिया। राजा रानी
* यूपी के जाटों में पंजाबी एक गोत्र भी है जो कि पांचाली का ही अपभ्रंश और समान अर्थी है।
दोनों बहुत दिनों तक उसके यहां कैद रहे थे। पंजाबी गोत्र के जाट इन्हीं पाँचालों के उत्तराधिकारी हैं। महाभारत की प्रसिद्ध चतुर स्त्री द्रोपदी पाँचालों में पैदा हुई थी।
5. शूर - इन्हें सौरसेनों के नाम से भी याद किया जाता है। महाभारत के बाद इनके भी दो दल हो गए थे। एक दल की राजधानी मथुरा थी। कुछ दिन बाद शौरसेनी (सिनसिनी) बना ली। इनमें से विजयदेव ने बयाना को अपनी राजधानी बनाया। इनका दूसरा समुदाय सोरों और बटेश्वर के बीच में आबाद था।
6. दशार्ण - दशार्ण और दशार्ह लोग मंदसौर और उज्जैन के आसपास रहते थे। असल में 10 कुलों ने मिलाकर जो जाति राष्ट्र कायम किया था उसकी राजधानी दशपुर अथवा मंदसौर थी। जाटों में आजकल यह लोग दसपुरिया और दशार्ह कहलाते हैं। मंदसौर का प्रसिद्ध राजा यशोधर्मन इन्हीं दस खानदानों में से बरिक गोत का जाट नरेश था। उसका वर्णन आगे के प्रश्नों में दिया जा रहा है।
7. यदु - यादुओं की सैकड़ों शाखाएं हो गई थी। जिनमें से वृष्णि शाखा तो नितांत रूप से जाटों में शामिल है। बल्कि कहना यह चाहिए वृष्णि वंश दिवाकर भगवान श्रीकृष्ण ने ही जाति राष्ट्र की सर्वप्रथम नींव लगाई थी। उनके प्रयत्न से ही तो यह महान जाट संघ कायम हुआ था।
8. भोज - भोज और कुंती भोज इनकी दो शाखाओं का पता चलता है। यह चंबल की सहायक अस्वर्थ नदी के किनारे रहते थे। ग्वालियर राज्य में भोजा गोत्र के जाट मिलते तो अवश्य हैं किंतु हमें अभी उनका पूरा इतिहास उपलब्ध नहीं हुआ है।
9. काश्यप - शिवि लोगों के वर्णन में मिस्टर क्रूक साहब के हवाले से यह बात हम बता चुके हैं कि जाटों में एक बड़ा समूह काश्यप लोगों का भी है। सूर्यवंश की प्रसिद्धि इन्हीं काश्यप से बताई जाती है। काशी के काश्य भी काश्यप हैं जो कि जाटों के अंदर काफी काशीवात कहलाते हैं। मगध के लिच्छवि शाक्य और ज्ञातृ भी काश्यप ही थे। इनके अलावा सैकड़ों काश्यिप गोत्री खानदान जाटों में मौजूद हैं। पुराणों में तो कैस्पियन सागर को कश्यप ऋषि का आश्रम बताया है। कुछ लोग श्रीनगर से 3 मील दूर हरी पर्वत पर कश्यप ऋषि का आश्रम मानते हैं।
10. मल्ल
10. मल्ल - सिकंदर के साथियों ने इन्हें मल्लोई ही लिखा है। हिंदुस्तान के कई इतिहासकारों को उनके संबंध में बड़ा भ्रम हुआ है। वह इन्हें कहीं उज्जैन के आसपास मानते हैं। वास्तव में यह लोग पंजाब में रावी नदी के किनारे पर मुल्तान तक फैले हुए थे। फिरोजपुर और बठिंडा के बीच के लोग अपने प्रदेश को मालवा कहते हैं। बौद्ध काल में हम लोगों को चार स्थानों
पर राज्य करते पाते हैं-- पावा, कुशीनारा, काशी और मुल्तान। इनमें सिकंदर को मुल्तान के पास के मल्लों से पाला पड़ा था। इनके पास 90000 पैदल 10000 सवार और 900 हाथी थे। पाणिनी ने इन्हें आयुध जीवी क्षत्रिय माना है। हमें तो अयोधन और आयुध इन्हीं के साथी जान पड़ते हैं। जाटों में यह आज भी मल, माली और मालवन के नाम से मशहूर हैं। एक समय इनका इतना बड़ा प्रभाव हो गया था इन्हीं के नाम पर संवत चल निकला था। इनके कहीं सिक्के मिले जिन पर 'मालवानाम् जय' लिखा रहता है। ये गणवादी (जाति राष्ट्रवादी) थे। इस बात का सबूत इन के दूसरे प्रकार के उन सिक्कों से भी हो जाता है जिन पर 'मालव गणस्य जय' लिखा हुआ है। जयपुर के नागर नामक कस्बे के पास से एक पुराने स्थान से इनके बहुत से सिक्के मिले थे। जिनमें से कुछ पर मलय, मजुप और मगजस नाम भी लिखे मिले हैं। हमारे मन से यह उन महापुरुषों के नाम हैं जो इनके गण के सरदार रह चुके थे। इन लोगों की एक लड़ाई क्षत्रप नहपान के दामाद से हुई थी। दूसरी लड़ाई समुद्रगुप्त से हुई। इसी लड़ाई में इनका ज्ञाति राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गया और यह समुद्रगुप्त के साम्राज्य में मिला लिया गया इनके सिक्के ईसवी सन के 250 150 वर्ष पूर्व माने जाते हैं।
11. क्षुद्रक : यह मल्ल लोगों के पड़ोसी थे और एक समय सम्मिलित रूप से इन्होंने शासन भी किया था। मनु की 114 वीं पीढ़ी में महाराज क्षुद्रक हुये हैं किंतु उनके वंशजों के प्रजातंत्री होने के कारण हिंदू शास्त्रों में इनकी प्रशंसा नहीं लिखी है। यह क्षुद्रक ही आगे चलकर शूद्रक कहलाते हैं। कादंबरी की कथा ईस जाति राष्ट्र के एक सरदार के पुत्र चंद्रापीड के संबंध में तैयार हुई थी। फाहियान के समय में इनका एक खानदान सिंध में भी राज करता था।
12. यौधेय
12. यौधेय: यह प्रजातंत्री एवं जातिवादी समुदाय बहुत दिनों तक अपनी सत्ता को जमाए रहा। पौराणिकों ने इन्हें महाराज युधिष्ठिर के वंशजों में से लिखा है। भारतवर्ष के अलावा इनका एक समूह हिमालय को पार करके जगजार्टिस नदी को पार करता हुआ कैस्पियन सागर के नीचे तक पहुंच गया था। वहां पर इन्हें यौधेय की बजाय लोग भाषा भेद के कारण ढे और दहाये नाम से याद करते थे। यह शब्द यौधेय से धेय और फिर अपभ्रंश होकर धे रह गया। यही धे अंग्रेजी वालों ने ढे और दहाये नाम से पढा। जब इस्लाम का आक्रमण हुआ तो इनका एक बड़ा समूह भारत में लौटा आया जो ढे जाट के नाम से पुकारा जाता है। और मेरठ के आसपास के प्रदेश में आबाद है। हेले या देशवाले जाट इनके साथ बराबरी का बर्ताव नहीं करते हैं।
भारतवर्ष में जो यौधेय बाकी रह गए थे, वह आजकल जोहिया कहलाते हैं। बीकानेर देश में राठौड़ों के विरुद्ध इन
[पृ.103]: जोहिया जाटों को बड़ा भयंकर युद्ध करना पड़ा था। 15वीं सदी में इनके हाथ से बीकानेर का राज्य निकल गया। उस समय शेरसिंह उनमें बड़ा वीर सरदार था। कुछ लोग इन में से व्यापार भी करने लग गए थे। इन्हें चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्तय और कनिष्क जैसे साम्राज्य-वादियों से भी पाला पड़ा था किंतु फिर भी उन्होंने अपने अस्तित्व को स्थिर रखा। इस वीर समुदाय की सैनिक शक्ति की धाक पहली, दूसरी शताब्दियों तक तो सारे भारत में थी। रुद्रदामन ने इनके विषय में लिखा था:-
- सर्व क्षेत्रा विष्कृत वीर शब्द जातोत्सेकाभिधेयानां यौधेयानाम्।
अर्थात सभी क्षत्रियों के सामने यौधेयों ने अपना नाम (युद्धवीर) चरितार्थ करने के कारण जिन्हें अभिमान हो गया था और जो परास्त नहीं किए जा सकते थे, यह थी उनकी वीरता जिसका उल्लेख उनके शत्रु ने भी किया है।
भरतपुर राज्य में उनका एक शिलालेख मिला था। इस बात का वर्णन डॉ. फलीट ने गुप्तों के वर्णन के साथ किया है। उस शिलालेख में यौधेय-गण के निर्वाचित प्रधान का उल्लेख है। इनका प्रधान महाराज महासेनापति की उपाधि धारण करता था। कुछ अन्य गणों के अध्यक्ष भी राजा और राजन्य की उपाधि धारण करने लग गए थे। मालूम होता है एकतंत्रियों के
[पृ.104]: मुकाबले में गण अपने अध्यक्षों को राजा महाराजा या राजन्य की उपाधि देने लग गए थे। लिच्छवियों ने तो अपने 7077 मेंबरों को भी राजा की उपाधि दे डाली थी। यौधेयों का यह शिलालेख गुप्त काल का बताया जाता है। जोधपुर में भी यौधेयों का गण था और उसका सरदार था महिपाल। यह महिपाल अवश्य ही 1200 ई. के लगभग था। उसके वंश के लोग अजीतगढ़ चूड़ी की ओर बढ़ गए। इन यौधेयों की कालांतर में अनेक शाखाएं भी हो गई। कुलरिया शाखा के लोग अब तक अजीतगढ़ चूड़ी के पास मौजूद हैं।
दिल्ली और करनाल के मध्य सोनीपत में उनके सिक्के हाथ लगे हैं। पंजाब में सतलुज-यमुना के समस्त प्रदेश में यौधेयों के सिक्के पाए जाते हैं। यौधेयों के सिक्के कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार के भी हैं। शुंग काल के सिक्कों पर चलते हुए हाथी और एक सांड की मूर्ति अंकित मिलती है। उन सिक्कों पर 'यौधेयानाम' ऐसा लिखा रहता है। दूसरे तरह के सिक्कों पर उन्होंने युद्ध के देवता कार्तिकेय की मूर्ति अंकित की है। तीसरी तरह के सिक्कों पर 'यौधेय-गणस्य-जय' लिखा रहता है। इस सिक्के में एक योद्धा के हाथ में भाला लिए हुए त्रिभंगी गति से खड़ी हुई मूर्ति बनाई गई है। कुछ सिक्कों पर 'हि' और 'त्रि' भी लिखा हुआ पाया गया है।
यौधेय लोगों में निर्वाचित सभापति या प्रधान हुआ करता था। उपरोक्त बात उन के शिलालेखों से साबित होती है।
[पृ.105]: ऐसा मालूम होता है यह ईसवी सन् की दूसरी शताब्दी में ही राजपूताना की ओर आ गए थे। पश्चिमी राजपूताना, मारवाड़ और जैसलमेर तथा बीकानेर की भूमि पर अपना अधिकार जमा लिया था। रुद्रदामन से जो युद्ध हुआ था वह जोधपुर की भूमि पर हुआ था क्योंकि रुद्रदामन बराबर पैर फैला रहा था। हिसार और दिल्ली की ओर भी यह लोग बढ़ गए थे। कुछ लोग पंजाब में ही अड़ रहे थे। बहावलपुर के जोहिया अपने को राजपूतों की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं किंतु राजपूताना में अधिकांश समूह अपने असली स्टाक में हैं और जाट कहलाते हैं।
13. वत्स - हम कौशांबी के वत्सों की बात नहीं कर रहे हैं। हम तो उन वत्सों का थोड़ा सा हाल देना चाहते हैं जो कौशांबी को छोड़कर पंजाब में आ गए थे और अब जाटों में बच्छ कहलाते हैं। प्रद्योत के समय में बातिभय, जिसे कि आजकल बठिंडा कहते हैं, उस पर राजा उदयान राज करता था। इस उदयान की उज्जैन के राजा प्रद्योत से लड़ाई हुई थी। इसका मंत्री योधनारायण बड़ा योग्य पुरुष था वासवदत्ता संस्कृत काव्य इसी राजा की रानी के नाम पर बना है। इसी वत्स खानदान में कई पीढ़ियों बाद बच्छराज के घर में मलखान का जन्म हुआ था। बच्छ उस समय विपत्ति के दिन काट रहा था। मलखान की परवरिश चंदेल राजा परिमाल के यहां जस्सराज के लड़कों के साथ हुई थी। जस्सराज और वत्सराज (बच्छराज) दोनों
[पृ.106]: मित्र थे। बड़े होने पर मलखान ने अपने बाप दादाओं की भूमि भटिंडा के पास सरसा में अपना राज्य कायम किया। पूरनसिंह जाट, जो कि मलखान की सेना का एक प्रसिद्ध सेनापति था, मलखान का रिश्ते में चचेरा भाई होता था। इन बच्छ अथवा बछड़े जाटों की यूपी में भी आबादी है। बौद्ध ग्रंथों में वत्सों को गणतंत्री बच्छ के नाम से ही लिखा गया है।
14. नव
14. नव - ‘मथुरा मेमायर्स’ के लेखक ग्राउस साहब ने नव लोगों का वर्णन इस प्रकार किया है - उशीनर की पांच रानियां थीं - 1. नृगा 2. कृमि 3. नवा 4. दर्व 5. दृषद्वती। इनके एक-एक पुत्र हुआ। उनके नाम नृग, कृमि, नव, सुव्रत और शिवि थे। इनमें से नव ने नवराष्ट्र पर राज किया। कृमि ने कुमिल्लापुरी और शिवि ने, जो कि ऋग्वेद की एक ऋचा का लेखक कहा जाता है, शिवव्यास पर राज किया और नृग ने यौधेयों पर राज किया । (महाभारत में उशीनरों को नीचा क्षत्रिय बताया गया हैं)
पाणिनि ने उशीनरों को वर्णन ऐसा किया है कि वे पंजाब के पास रहते थे। ऐतरेय ब्राह्मण ने उन्हें (उशीनरों को) कुरु, पांचालों में शामिल किया है। उशीनर की पांचवीं रानी दृषद्वती के नाम पर दृषद्वती नदी का नाम हुआ, जो महाभारत में कुरुक्षेत्र की दक्षिणी सीमा बताई गई है। आजकल यह नदी लुप्त है।
इस सबसे प्रकट होता है कि नवराष्ट्र, जिसका राजा नव था, वह गुड़गांव व मथुरा के
[पृ.107]: समीप रहा होगा और उसकी राजधानी यही रही होगी जो अब नोह (नूह) कहलाती है। (मथुरा मेमायर्स पृ० 320-322)।
मि ग्राऊस साहब के कथन को जो कि अङ्ग्रेज़ी में है, हम यहाँ ज्यों का त्यों देते हैं:-
Under the same head comes the apparently Muhammadan name Noh; which, with the addition of the suffix jhil, is the designation of a decayed town on the left bank of the Jamuna to the north of the district. At no very great distance, but on the other side of the river, in Gurgaon, is a second Noh; and a third is in the Jalesar Pargana, which now forms part of the Agra district. So far as I have any certain knowledge, the name is not found in any other part of India; though it occurs in Central Asia; for I learn from Colonel Godwin Austen that there is a Noh in Ladak or rather Rudok at the eastern end of the Pagang Lake, and on its very borders. The Yarkand expedition is also stated in the papers to have reached Leh via Khotan, Kiria, Polu, and Noh, by the easternmost passover the Kuen-lun mountains. Upon this point I may hope to acquire more definite information hereafter, the best maps published up to the present time throw no light on the matter, for though they give the towns of Kiria and Khotan, they do not show Noh, and its existence therefore requires confirmation. The three places in this neighbourhood all agree in being evidently of
[पृ.108]: great antiquity, and also in the fact that each is close to a large sheet of water. The lake, or morass, at Noh Jhil spreads in some years over an area measuring as much as six miles in length by one in breadth. It is no doubt to a great extent of artificial formation, having been excavated for the double purpose of supplying earth, with which to build the fort, and also of rendering it inaccessible when built. The inundated appearance of the country combines with the name to suggest a reminiscence of the Biblical Deluge and the Patriarch Noah. But the proper spelling of his name, as Mr. Blochmann informs me, is Nuh, with the vowel u and the Arabic h, Badaoni, who twice * mentions the town, spells it with the imperceptible h, but in the ain-i-Akbari, which herein agrees with in modern usage, the final letter is the Arabic h. Again, if a reference to the Deluge were intended, the word Noh would not have been used simply by itself - and standing as it does, it can scarcely be other than the name of the founder. But (again to quote Mr. Blochmann) “Muhammadans use the name Nuh extremely rarely. Adam, Musa, Yusuf, and Ayub are common, but on looking over my lists of saints, companions of Muhammad, and other worthies of
*. Once as the scene of a fight between Iqbal Khan and Shams Khan of Bayana (A.H. 802), and again as the place where Mubarak Shah crossed the Jamuna for Jartoli.
[पृ.109]: Islam, I do not find a single person with the name Nuh, and hence I would look upon a connection of Noh with Noah as very problematical. I would rather connect it with the Persian nuh, 'nine' which when lengthened becomes noh, but not nuh, as the Persian dih, 'a village' becomes deh, not dih.” But if we abandon the Semitic name, it will be better, considering the purely Hindu character of the country, to try and fall back upon some Sanskrit root, and I am inclined to regard the name as a Muhammadan corruption of nava - and the adjective meaning 'new' but a proper name - and with the h added either purposely to make the distinction, or inadvertently in the same way as raja is in Persian characters incorrectly written rajah. In the Harivansa (line 1677) mention is made of a king Ushinara, of the family of Kaksheyu, who had five wives, Nriga, Krimi, Nava, Darva, and Drishadvati. They bore him each one son, and the boys were named Nriga, Krimi, Nava, Suvrata and Sivi; of whom Nava reigned over Navarashtram, Krimi, over Kumila-puri; Sivi, who is said to be the author of one of the hymns of the Rig Veda (X.179), over the Sivayas, and Nriga over the Yaudheyas. In the Mahabharat the Usinaras are said to be a lower race of Kshatriyas. They are mentioned by Panini in a connection which seems to imply that they were settled in or near the Punjab; and in the Aitareyas
[पृ.110]: Brahmana, Usinara is collocated with Kuru and Panchala. Again, Drishadvati, the fifth of Usinara's wives, recalls to mind the unknown river of the same name, which is mentioned by Manu as one of the boundaries of Brahmavarta, and in the Mahabharat as the southern boundary of Kurukshetra. From all this it may be inferred that the Navarashtra, over which Usinara's third son Nava reigned, cannot have been far distant from Mathura and Gurganw - and its capital may well have been the very place which still bears his name under the corrupt form of Noh or Nauh.
[पृ.112]: स्वतंत्रता में यह सर्वोपरि थे। नागरिक नियमों का पालन बड़ी उत्तमता से करने के कारण ही इस नाम को प्राप्त हुआ।
मोगा वंश इस वंश के लोग राजपूताना और युक्तप्रांत दोनों ही प्रांतों में पाए जाते हैं। आजकल जहां मोगा मंडी है उसी के आसपास इनका राज्य रहा था। राजा मोअस या मोग ईसा पूर्व पहली सदी में एक प्रसिद्ध राजा रहा है। उसकी मुहरों पर "रज दिरजस महतस मोअस" अर्थात राजाधिराज मोगा लिखा है। इसका राज्य तक्षशिला से लेकर वर्तमान मोगा मंडी तक फैला हुआ होगा। इसका नाम तक्षशिला के एक ताम्रपत्र में भी आया है। पंजाब में मोगियाना इलाका है।
मौर्य - यह पिप्पली वन में गणतंत्रात्मक शासन करते थे। राजा नंद की मुरा स्त्री इन्हीं के वंश की थी। इसी से चंद्रगुप्त मौर्य भी कहलाया था। जाटों में जो मौर्य हैं हमारा मत है कि वह पिप्पली वन से दिल्ली राजपूताना और पंजाब व सिंध में फैले थे। मौखरी, पौरुषवार, ठकुरी, वैस, वर्म, बिरक भी भारत में एक समय प्रसिद्धि पा गए थे। इनका वर्णन जाट इतिहास में काफी दिया है।