Jat History Thakur Deshraj/Chapter IV

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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चतुर्थ अध्याय : स्वभाव, रंग-रूप, रहन-सहन, रस्म-रिवाज, वेश एवं भाषा

स्वभाव, रंग-रूप

मल्ल विद्या का शौक - जाटों में अधिकांश समूह चन्द्रवंशी क्षत्रियों का हैं। प्राचीन चन्द्रवंशी क्षत्रियों के सच्चे उत्तराधिकारी होने के कारण इतना लम्बा समय बीत जाने पर भी उनमें अपने प्राचीन पुरखाओं जैसा स्वभाव अभी तक बना हुआ है। चन्द्रवंशी क्षत्रियों को मल्ल विद्या का बड़ा शौक था। भीम, जरासन्ध, कृष्ण, बलराम और वारूण आदि के अनेक उदाहरण महाभारत में उनके मल्लविद्या- प्रेमी होने के मिलते हैं। जाटों में मल्ल बनने का बड़ा शौक है। दिल्ली और आगरा के बीच में जाटों की कोई भी बस्ती ऐसी नहीं मिलेगी, जिसमें जाट-बालकों के मल्ल-विद्या सीखने के अखाड़े न हों। मुग्दर घुमाने, नाल उठाने और लाठी चलाने को वे बड़े शौक से सीखते हैं।

विनोदी स्वभाव - अपने पूर्वजों की तरह उनका स्वभाव विनोदी है। वे सदैव हंसमुख और प्रसन्नचित्त रहते हैं। वे परस्पर मिलते हैं तो उनके चहरे पर मुस्कराहट होती है। मीठे मजाक का चलन भी उनमें खूब है। जिस समय वे अधिक प्रसन्न होते हैं, ठहाका मार कर हंसते हैं। हाथ पर हाथ मार कर (ताली बजाकर) प्रसन्नता प्रकट करने का भी उनमें आम रिवाज है। वे अपने सीधे और निष्कपट होने के लिए तो सर्व प्रसिद्ध हैं। क्रोध के समय वे दांतों के नीचे होंठ को दबाकर अथवा हाथ भींचकर अपना भाव प्रकट करते हैं। जहां उन्हें अपना अपमान सहना पसन्द नहीं, वहां वे दूसरों का अपमान करना भी बहुत बुरा समझते हैं । परिश्रम से कभी जी नहीं चुराते हैं। पुरूषों की भांति उनकी स्त्रियां भी परिश्रमशील, विनोदी तथा हंसमुख होती हैं।

जाटों के स्वभाव के सम्बन्ध में डॉक्टर बिरेरेटन का कथन है -


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कहा जाता है कि वे स्वामिभक्त और साहसी होते हैं। अपनी रीति-रस्तों पर चलने वाले मेहनती होते हैं। फुर्तीले तथा गठीले बदन के होते है। यही साहब एक स्थान पर जाट स्त्रियों के सम्बन्ध में लिखते हैं-

"The women are of very strong physique exceeding man in this respect proportionately speaking. They are not remarkable for personal beauty, but some have fine figure... but are said to rule their husbands. The prevailing complexion is fair and colour of eyes and hair is dark, fine and straight."
अर्थात् - जाट स्त्रियां शरीर की बहुत मजबूत होती हैं और इस बात में मनुष्यों से चढ़ी-बढ़ी होती हैं। वे देखने में विशेष सुन्दर नहीं होती हैं परन्तु कुछ बहुत सुन्दर भी होती हैं। वे बहुत ही मेहनती होती हैं और कहा जाता है कि वे अपने पतियों पर शासन करती है। अधिकांश का रंग साफ है। नेत्र काले रंग के हैं। बाल काले सुघर और मुलायम हैं।

लम्बाई में वे पूरी उंचाई के होते हैं। उनमें अनेक का रंग तपाये हुए सोने की तरह गोरा और अधिकांश का रंग गेहुंआ और सांवला होता है। उनके कन्धे भरे हुए, भुजाएं खूब लम्बी और सुदृढ़ होती हैं। परिश्रमशील होने के कारण उनका प्रत्येक अंग दृढ़ और सुडौल होता है। उन्नत कन्धे और चौड़े सीने के कारण वह अच्छे सैनिक समझे जाते हैं।

रहन-सहन

चूंकि अति प्राचीन काल में जाट (दो-आबे) में तथा सिन्ध नदी के किनारे पर रहते थे, इसलिए अब भी वे अपनी बस्तियां पानी के किनारे बसाना अधिक पसन्द करते हैं और जहाँ पानी का आश्रय नहीं होता है, वहां अपनी बस्ती के निकट तालाब और बावड़ी बना लेते हैं। तालाब खुदाने, धर्मशाला बनाने की ओर उनकी अधिक रुचि होती है। वे अपनी बस्तियों के बीच में अथवा ऐसे स्थान पर जो कि बस्ती के सहारे हो और साथ ही वृक्षों की घनी छाया हो, नगर का सम्मिलित बैठक-भवन बना लेते हैं, जिसे कि ग्रामीण बोल-चाल में, अथांई, थला, परस, चौपाल आदि कहते हैं। ऐसे बैठक-भवन प्रायः पृथ्वी तल से उंचे और सहन वाले होते हैं। कहीं तो उसके पास में बुर्ज भी बनवाते हैं। इन स्थलों पर एक नक्कारा जिसे कहीं यमक और कहीं बम्ब कहते हैं, रखते हैं। ये बम्ब या तो किसी उत्सव पर बजाए जाते हैं या किसी खास घटना के समय आस-पास के गांव वालों को बुलाने के लिए ।


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और बैठक-भवनों को इतने आदर की दृष्टि से देखते हैं कि उस पर स्त्रियां नहीं चढ़तीं और न जूतों सहित जाते हैं। ग्राम में पंचायत का स्थान यही बैठक-भवन होते हैं। यद्यपि सर्वत्र इस समय उनके हाथ राज-शक्ति नहीं है, फिर भी अपने समस्त सामाजिक निर्णय इन्हीं बैठक-भवनों पर पंचायतों द्वारा करते हैं।

सवारी के लिए रथ उन्हें अधिक प्रिय हैं, देश और परिस्थिति के अनुसार कहीं ऊंट और कहीं घोडे़ अवश्य रखते हैं। यद्यपि इस समय मांस खाने का उनमें बहुत कम रिवाज है फिर भी सुअर का शिकार करने का शौक इनमें अधिकता से पाया जाता है। जाट नौजवान भाग कर बरछे से सुअर-वध कर डालता है। यद्यपि विदेशी-शासन की कृपा से हथियारों का अभाव हो गया है।

ये अपनी बस्तियों के पास बाग-बगीचे लगाना पसन्द करते हैं। उत्सव और त्यौहारों के समय इन वाटिकाओं में जाकर खेलते-कूदते और प्रसन्नता मनाते हैं। फूल और पत्तों से खास कर केलों के पत्तों से उत्सव के समय पर अपने घरों, बैठक-भवनों को सजाने के बड़े शौकीन हैं।

रस्म-रिवाज

प्राचीन आर्यों ने आठ प्रकार के विवाह माने हैं। जाटों में किसी-न-किसी अंश में आठों तरह के विवाह अब तक प्रचलित हैं। महाभारत में यह जिक्र आता है कि विचित्रवीर्य के मर जाने के बाद मत्स्योदरी ने भीष्म से अपने भाई की विधवा स्त्रियों से संतान उत्पन्न करने का प्रस्ताव किया था । जाटों में यह रिवाज प्रायः बहुत-सी जगह अब तक चलता आता है कि वे अपनी विधवा भौजाइयों से विवाह करते हैं और उनकी सन्तान उनके मृतक भाई तथा उनकी भी सम्पत्ति पाने की अधिकारिणी समझी जाती हैं। वे शत्रु को परास्त करके उसकी लड़की को शादी के निमित्त लाने की अपने पूर्वजों की रिवाज को अब तक काम में लाते रहते हैं।

महाभारत काल में चन्द्रवंशियों में अपवाद रूप से ऐसा भी रिवाज था कि वे जीते हुए व्यक्ति की स्त्री को उसके पति को परास्त करके ले आते थे।1 द्रौपदी को जिस समय जयद्रथ बलपूर्वक ले जाने की चेष्टा कर रहा था, धौम्य ऋषि ने यही कहा था कि पहले इसके पतियों को पराजित करा। यदा-कदा जाटों में अब भी ये घटनाऐं घट जाती हैं कि वे जीते हुए की स्त्री को ले आते हैं किन्तु अब के परिवर्तित नियम के अनुसार, स्त्री की रजामन्दी आवश्यक होती है। कहा जाता है राजपूताने के राजपूत दरोगा दास, गोला लोगों की स्त्रियों पर अपना पूर्णाधिकार रखते हैं, जाटों में ऐसी प्रथा कहीं भी नहीं है।


1. देखो महाभारत मीमांसा


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जाटों के राजघराने भी इस मर्ज से बचे हुए हैं। यह प्रथा भारतीय है या विदेशी हमारे विषय से बाहर की बात है।

मनुस्मृति तथा अन्य आर्ष-ग्रन्थों में यह आदेश दिया गया है कि स्त्री किसी भी जाति की हो, उससे शादी की जा सकती है। महाभारत में ऐसे अनेक उल्लेख हैं। भीम ने हिडिम्बा नाम की राक्षसी और अर्जुन ने चित्रांगदा नाम की पहाड़ी से और श्रीकृष्ण ने जाम्बवती नाम की कुमारी से, जो कि जंगली जाति ऋक्षों से थी, शादी की थी। चाहे भारत की अन्य जातियों के अन्दर से यह रिवाज उठ गया हो, किन्तु जाटों मे अभी तक मौजूद है। विवाह-काल के समय सिर पर सरपेज तथा मुकुट बांधते है। हाथ में तलवार और शरीर पर पीले तथा लाल वस्त्र होते हैं। पीले वस्त्र को जाटों के यहां वैसे भी महत्व दिया गया है।

त्यौहार - जाटों में विशेष रूप से धूमधाम से जो त्यौहार मनाए जाते हैं वे ये हैं - अक्षयतीज, गंगादशहरा, श्रावणी (सूलना-राखीपून्यो) जन्माष्टमी, हरियाली तीज, देव छठ, विजय-दशमी, दीप-मालिका, देवोत्थान, एकादशी, संक्रान्ति, बंसत-पंचमी, शरद्-पूर्णिमा, होली और रामनवमी।

अक्षय तीज को वह अपना खास त्यौहार मानते हैं। इसके सम्बन्ध में उनकी धारणा है कि इसी दिन द्रौपदी का दुःशासन द्वारा चीर खींचा गया था, जिसे भगवान कृष्ण ने अक्षय कर दिया। तभी से यह त्यौहार माना जाने लगा। इस दिन जाट युवक डोंडियों से खेल कर युद्ध का उपक्रम करते हैं।

गंगा-दशहरा के सम्बन्ध में भी उनका ख्याल है कि उनके पूर्वज पाण्डव सबसे पहले इसी दिन गंगा नहाने गए थे।

सलूने को ब्राह्मणों का त्यौहार समझते हैं, किन्तु मनाते खूब जोरों से हैं। कूदने के सिवाय कुश्तियां भी होती हैं। स्त्रियां झूला झूलती हैं। इससे पहले हरियाली तीज नामक एक त्यौहार मनाया जाता है। भरतपुर का राज-परिवार बड़ी शान के साथ, विशेष तौर से मनाता है और उस दिन दरबार खास डीग के भवनों में किया जाता हैं।

जन्माष्टमी का त्यौहार महाराज श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर मनाया जाता है और जाटों का खास दावा है कि कृष्ण हमारे पूर्वज थे। इस दिन उपवास रखते तथा दानपुण्य करते हैं।

देव-छठ को बलरामजी का जन्म-दिवस मान कर जन्माष्टमी की भांति मनाते हैं। दशहरे के दिन कहीं तलवार की और कहीं घोड़े की पूजा होती है । भरतपुर का दशहरा राजपूताने भर में प्रसिद्ध है।

खेजड़ी (शमी) वृक्ष

शमीवृक्ष की पूजा : कहीं-कहीं खेजड़ी (जांटी, शमीवृक्ष) की पूजा होती है। खेजड़ी की पूजा करने का कारण उनकी तरफ से यह बताया जाता है कि वब्रुवाहन का सिर जिससे कि पाण्डवों की सेना को हानि होने की संभावना थी, भगवान कृष्ण ने खेजड़ी पर टांगा था।


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दूसरी बात यह भी कहते हैं कि जब पाण्डव अज्ञातवास में रहे थे, तब उन्होंने अपने शस्त्र इसी वृक्ष पर रखे थे।

दीपमालिका के दिन मुख्यतः घरों और नगर की सफाई तथा रात्रि को बहुत से दीपक जला कर दीपमालिका मनाते हैं। रात्रि को लक्ष्मी-पूजन भी होता है।

देवात्थान के दिन घरों और शालों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बेल-बूटे फूल स्वस्ति-चित्र चित्रित करते हैं। संक्रान्ति के दिन विविध मिष्ठान्न बनाकर खाया जाता और दानपुण्य किया जाता है। इस दिन गौओं को चारा और दाना भी सामर्थ्यानुसार खिलाया जाता है।

बंसत-पंचमी को अपने उत्थान का दिन समझते हैं । भरतपुर में बन्ध-बारहठा में दरबार करके इस त्यौहार को मनाया जाता है। जाटों के कौमी झंडे का रंग भी बसंती हैं।

होली के दूसरे दिन गांव-गांव में दंगल करके कुश्तियां लड़ते हैं । होलिकाष्टक के दिनों में राग-रंग की धूम रहती है। यह उत्सव एक सप्ताह तक रहता है।

रामनवमी के दिन जन्माष्टमी की भांति व्रत आदि रखकार इस त्यौहार को मनाते हैं, क्योंकि यह राम-जन्म का दिन है। इसके अलावा और भी कोई छोटे-छोटे त्यौहार मनाए जाते हैं।

षोडस संस्कार - अशिक्षा के कारण सभी जातयों के षोडस संस्कारों में से कुछ एक संस्कार प्रचलित हैं, जिनमें से दो एक का उल्लेख इस प्रकार है - नामकरण संस्कार पर घर की शु़द्धि होती है, हवन किया जाता है, बिरादरी का भोज किया जाता है, पंडित शिशु का नाम रखता है। पहले इनके नामों के आगे इन्द्र, जित, धर्मन्, वर्धन् सेन, देव लगाने की प्रथा थी जैसे कि शालेन्द्र, रूद्रजित, यशोधर्मन्, भीमसेन, जगद्देव आदि। इस समय कुछ एक जिले के लोगों को छोड़ कर प्रायः सभी प्रान्तों के जाट अपने नाम के साथ सिंह, जीत, सेन, पाल, इन्द्र, मल्ल, देव का प्रयोग करते है हैं। जैसे - पद्मसिंह, रणजीतसिंह, धर्मजीत, जंगजीत, वीरसेन, धीरसेन, राजपाल, आनन्दपाल, राजेन्द्र, महेन्द्र, ब्रजेन्द्र, सूरजमल, रणमल, रामदेव, कृष्णदेव आदि। निरर्थक नाम रखना प्राचीन आर्यों की भांति अपशकुन समझा जाता है। प्रायः निरर्थक नाम वे लोग अपनी सन्तानों का रखते हैं, जिनकी सन्तान बचती नहीं है अर्थात् वे उन्हें मरे हुए समझ कर कूड़ा घसीटा आदि नाम रख देते हैं।

जन्म से पहले वर्ष के आखिर तक किसी त्यौहार के दिन घर पर या निकट के तीर्थ पर जाकर शिशु-मुंडन कराते हैं। कर्ण-वेध संस्कार तीसरे से पांचवें वर्ष तक हो जाता है। यज्ञोपवीत संस्कार की प्रथा बौद्ध-काल से उनमें उसी तरह से नष्ट हो गई थी, जैसे कि अन्य क्षत्रिय-वर्गों में । अब प्रायः सारे भारत मे वैदिक रीत्यानुसार सात से ग्यारह वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेने की प्रणाली है। अधिकांश में बाल-विवाहों का बहुत कम चलन है। वृद्ध-विवाह का तो इनमें नाम निशान भी नहीं।


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विवाह के बाद पहले अथवा तीसरे वर्ष गौना करने की प्रणाली भी उनमें पड़ गई है।

अतिथि-सत्कार का इनमें बड़ा प्रचलन है। कहीं-कहीं तो अतिथि का सत्कार करने में शक्ति के बाहर खर्च करने की इनमें आदत है। वह अपनी ही कौम के लोगों से इससे अधिक कुछ नहीं पूछते कि वह जाट है। जाट कह देने मात्र से ही वह उसे अपना हुक्का दे देते हैं। जाटों के अन्दर दस्से और ढइये कुछ नहीं होते। जाति से बहिष्कृत करने का इनमें बहुत कम रिवाज है। मृतक-भोज की विनाशकारी प्रथा भी इनके अन्दर पड़ गई है। मृतक-भोज का नाम कहीं पर नुक्ता, खरच, काज, कहीं बारा आदि है। उक्त अवसर पर जीमनें को लड्डू, मालपुआ, चावल, हलुआ आदि बनाते हैं और राजपूतों के तो कई स्थानों पर कई-कई दिन तक खाने वालों का जमघट रहता है। अजमेर-मेरवाड में नुक्ता तीन नामों से पुकारा जाता है - गामसार, सगासार और समस्त। गामसार का मतलब है गांव भर के लोगों को खिलाया जाए, सागासार में गांव वालों के अलावा रिश्तेदारों को भी बुलाया जाता है, समस्त में सारे गोत्र के लोग बुलाए जाते हैं।

पिछले दो वर्षो से राजस्थान-जाट-क्षत्रिय-सभा के उद्योग से इस ओर बहुत कुछ सुधार हुआ है। शेखावाटी (जयपुर) में उनका सिर्फ नाम भी बाकी है। खेडेलावाटी (जयपुर) में उसकी पूंछ बाकी है और अजमेर-मेरवाडे़ में समस्त की अन्त्येष्टि हो गई। बीकानेर-जोधपुर आदि में भी इस ओर सुधार हो रहा है।

खान-पान

जाटों का खान पान

प्रायः सारी जाट-जाति निरामिष भोजी है। जाट लोग मांस-भक्षण को बुरा समझते हैं, किन्तु कुछ लोग जर्मन महायुद्ध के समय मांस खाना सीख आए हैं। उस साथ पारिवारिक जन उन दिनों न तो भोजन करते हैं, न पानी पीते हैं, जिन दिनों कि वह मांस खाते हैं। कहीं-कहीं तो यहां तक होता है कि उन दिनों उनके पीने के लिए पानी के घड़े तक अलग रख दिए जाते हैं। जाट-स्त्रियां मांस पकाने के सम्बन्ध की कुछ भी क्रिया नहीं जानतीं। महाभारत कालीन जाटों के बुजुर्ग मांस भक्षी थे या नहीं, इसका निर्णय ठीक तौर से नहीं होता है। किन्तु द्रौपदी की जहां पाक-शास्त्र की प्रशंसा की गई है, वहां तनिक भी नहीं लिखा गया कि वे मांस पकाना भी जानती थीं या नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि मांस खाने से शक्ति बढ़ती है किन्तु जाट बिना ही मांस खाये कमजोर नहीं होते। उनके लिए जिस भांति मांस भक्षण बुरा है, उसी भांति वे सुरा-पान को बुरा मानते हैं। किन्तु खेद है अब उनमे कहीं-कहीं पर कुछ अन्य लोगों के प्रभाव से, शराब-खोरी की आदत पड़ गई है। फिर भी इतनी मात्रा में शराब-खोरी का जाटों में प्रचार नहीं हुआ कि वह मिटने में समय लगाए।


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राजपूताने के सीधे सादे जाटों में भी अपने राजपूत भाईयों की देखा-देखी शराब पीने का रिवाज पड़ना आरम्भ हुआ था किन्तु वह पनप नहीं सका। जाटों में से जो सिक्ख है, वे मांस खाते हैं लेकिन उनकी इस आदत ने सामाजिक सम्बन्धों में हिन्दू जाट और सिख में कोई अन्तर नहीं आने दिया। सिख तमाकू नहीं पीते हैं किन्तु शराब उनकी ओर भी घुसने लगी है। देवी, चामुंडा अथवा शक्ति के नाम पर बलिदान करने की प्रथा जाटों के अन्दर पनपने लगी थी क्योंकि राजपूत अथवा अन्य जातियों में इस प्रथा को देखते थे और साथ ही वे सुनते थे कि जिसे देवता के नाम पर बलि चढ़ाई जाती है, वह प्रसन्न होता है किन्तु सौभाग्य का विषय है कि यह प्रथा उनमें घुस नहीं सकी। शराब का व्यसन भी मृत्यु के मुंह में है। इस तरह वे खान-पान के बड़े पवित्र हैं। दूध और जाट का तो मानो घनिष्ठ सम्बन्ध है।

पीपल वृक्ष

वे बिना दूध के घर को भूतों का घर कहतें हैं इसलिए गाय और भैंस पालने से उन्हें बड़ा आनन्द आता हैं। ब्रज की जाट माताएं बालकों को उत्साहित करके दही-दूध खिलाती हैं। वे दूध-दही को मक्खन अथवा रतन के नाम से पुकारते हैं। त्यौहारों के दिनों पर तथा अतिथि के आने पर खीर, पुआ और चावल बनाते हैं। खीर-पुआ उनका सर्व श्रेष्ठ भोजन है।

पीपल और वट के वृक्षों को काटने की उनमें मनाही है, क्योंकि वे इन्हें सर्वोपयागी वृक्ष मानते हैं।

बड़ों का सम्मान

माता-पिता गुरू और ज्येष्ठ भाई की वे बड़ी इज्जत करते हैं। बड़ों के सामने पैर फैला कर अथवा अशिष्टता से बैठना बुरा समझते हैं। उनकी आज्ञा मानना उनकी खास आदत है। बहुत से स्थानों पर छोटा भाई बड़े भाई का नाम लेना अशिष्टता समझता है। उनकी तरूण वृद्धाओं की सेवा करना सौभाग्य समझती हैं। प्रातः सायं अथवा किसी दूसरे नगर में आते समय वे वृद्धाओं के पैर छूती हैं। यथा संभव जाट पारिवारिक संगठन को नहीं टूटने देते हैं। प्रयत्न यह करते हैं कि यदि एक बाप के चार बेटे हैं तो चारों ही सम्मिलित रहें। पारिवारिक प्रथा के वे कट्टर अनुयायी हैं।

दाय-भाग

पिता के मरने पर उसकी संपति के सभी पुत्र पाने के बराबर अधिकारी होते हैं। गोद लिये हुए का हक उनके यहां है, किन्तु लड़की व उसकी संतान का नहीं है। हां, वे बहन-बेटियों को सारी उम्र दान देते रहते हैं। उनके यहां करेवा हुई स्त्री के साथ जो लड़का उसके पूर्व-पति की संतान होता है, उसका उस जायदाद में कोई हिस्सा नहीं होता।


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उनमें से जो राजा कहलाने का गौरव रखते है, उनके यहां राज का मालिक तो बड़ा पुत्र ही होता है किन्तु अन्य सबका खान-पान बंध जाता है।

छूआ-छूत और ऊंच-नीच के भाव जाटों में अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा बहुत ही थोड़े हैं। प्रसिद्ध बात है कि उनका चौंका बारह कोस के भीतर होता है। कहीं-कहीं वे नाई, गड़रिये और लोधों के घर का (कच्चा) बना हुआ भोजन खा लेते हैं। गांवों में बसने वाली अछूत जातियों के साथ अन्य हिन्दुओं की तुलना में वे कहीं कई गुना अधिक अच्छा व्यवहार करते हैं। कहा जा सकता है कि वे सामाजिक रिवाजों में अधिक स्वतंत्र और अग्रसर हैं।

पहनावा

हरयाणवी औरत का पहनावा

जाट लोग आदि से ही प्रजातन्त्री और परिश्रमशील रहे हैं। यौद्धा जाति के होने के कारण पहनावा ढीला-ढाला नहीं होता। किन्तु इस समय प्रान्त-प्रान्त के पहनावे में भिन्नता है। फिर भी उसमें बहुत कुछ समानता है। कुश्ती और मल्ल-विद्या से प्रेम रखने वाले जाट-युवक धोतियों के अलावा कछनी और लंगोट भी बांधते हैं। पहलवान प्रायः ढीला-ढाला और घेरदार कुर्ता पहनते हैं।

राजस्थानी जाट का पहनावा

पगड़ी का प्रचलन अब केवल बुड्ढों के लिए रह गया है, किन्तु अजमेर-मेरवाड़े के युवक और बालक पगड़ी बांधते हैं। सिर बस्तर उनका मोटा और मजबूत होता है। अंगरखी चुस्त होती है। धोती प्रायः सभी जगह के जाट दुहरी लांग की बांधते हैं। यद्यपि कई सदियां हुईं कि उनके प्रजातंत्र नष्ट हो गये और वे कहीं-कहीं तो नितान्त शासित होकर अपने पुराने रस्म-रिवाज और पहनावे को छोड़कर अपने पड़ौसियों की नकल करने लग गये हैं किन्तु उनके पहनावे और सिंह-ठवनि के चलने से स्पष्ट प्रकट होता है कि वे सैनिक जाति के हैं। सिख-धर्म ने पंजाब के सिख-जाटों के पहनावे को एक

दम बदल दिया है। इसी भांति राजपूताने के जाटों के पहनावे में शीघ्र ही हरे-फेर होने का सूत्रपात हो रहा है। अजमेर-मेरवाड़े की समीपवर्ती स्थानों में जाट लोग पैरों में स्त्रियों की भांति कड़ा पहनते हैं। सम्भव है यह रिवाज उनके अन्दर उस समय से आया है जबकि वे गदा युद्ध करते थे। उस समय हाथ और पैर की गांठों के बचाने के लिए कड़े हाथ-पैर में रहने चाहिये थे किन्तु अब, जब कि वे निरे भार स्वरूप हैं, उनका बहिष्कार हो रहा है। कहीं-कहीं के जाट दाढ़ी रखते है, कहीं के नहीं।

राजस्थानी औरत का पहनावा

राजस्थान के सभी जातियों की स्त्रियों का पहनावा बहुत ही बेढंगेपन का है। जाटनियों के कमर में बंधने वाला ऊनी रस्सा सम्भव है किसी समय अच्छा रहा हो किन्तु इस समय उसकी आवश्यकता नहीं। इतिहास बताता है कि भरतपुर की महारानी किशोरी युद्ध में जाती थी। युद्ध-प्रिय जातियों की स्त्रियों का पहनावा जैसा होना चाहिए, उसके लिहाज से मौजूदा पहनावे में स्त्रियों को हेर-फेर करना होगा।


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अब घाघरा पहनने की प्रथा को हटाकार स्त्रियों को नेकर, साड़ी और चुस्त जाकिट पहनने की ओर झुकना पड़ेगा। बेढंगें जेवर भी या तो पहनने बन्द करने होंगे या उनमें समयोचित सुधार करना होगा। यों तो भारत की सभी जातियों की स्त्रियों के पहनावे में हेर-फेर की आवश्यकता है, किन्तु जाट वीरांगनाएं पहनने में एक दम हेर-फेर कर दें। यही समय का तकाजा है।

जेवर

महेल राजस्थान में शान का प्रतीक महिलाओं का आभूषण

जेवर प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न तरह के होते हैं। स्त्री-पुरूष, प्रायः सभी जेवरों के भक्त होते हैं। यू.पी. तथा पंजाब में पुरूषों के जेवरों में गंडे, तोड़े, जंजीर, अंगूठी, छाप, बीरबली, बालियां आदि है। राजस्थान में कहीं-कहीं हाथ-पैरों में कड़े और गले में हार पुरूष पहनते हैं। स्त्रियां, पीतल से लेकर सोने तक के अनेक नामों के जेवर पहनती हैं जो बिछुए, सांकर, छल्ली, छड़े, लच्छे, सांकरी, कड़े, पायजेब, सांठ, बांकडा, कमरधनी, हमेल, जंजीर, गुलूबंद, हांसली, कंठी, पचमनियां, मोहनमाला, झुमका, एरन, बाली, तुरपुती, झुबझुबी, नथ, बोरला, सेंठा, लोंग आदि अनेक नाम से पुकारे जाते हैं। स्त्रियों के हाथों में चूड़ी पहनने का ढंग भी बेढंगा ही है। लेकिन इसमें सन्हेह नहीं कि जाट किसी भी प्रान्त में रहते हों और चाहे वे नई सभ्यता की ओर अभी बढ़े हुए नहीं जान पड़ते हों, तो भी जब वे सुधार की ओर अग्रसर होंगे, तब सबसे अग्रसर और उचित स्थान पर दिखाई देंगे।

भाषा

जाट या तो ब्रज-भाषा बोलते हैं या खड़ी बोली। उनके उच्चारण में अधिकांश शब्द ठेठ हिन्दी के अथवा संस्कृत के अपभ्रंश होते हैं। उनमे अंग्रेजी, संस्कृत और उर्दू के अनेक विद्वान् हैं, किन्तु उनमे से यह बात बहुत कम जानते होंगे कि किसी समय जाटों ने जब कि वह सभ्यता के शिखर पर थे, अनेक ग्रन्थ लिखे थे। यही नहीं किन्तु एक लिपि का भी प्रचार किया था। इस समय वह लिपि कहीं सिन्धी, कहीं खुदाबादी, कहीं शहाबादी, कहीं माजनी और कहीं जाटवी कही जाती है। प्रायः उत्तरी भारत के सभी महाजन उसी लिपि का प्रयोग अपने कागजात में करते और शराफी बोलते हैं। उसका असली नाम लुण्डा है। लुण्डा भाषा के अक्षर गुरूमुखी से मिलते-जुलते हैं। हिन्दी (नागरी) अक्षरों से भी उनकी समानता है। शब्द उच्चारण में कहीं-कहीं अक्षरों का भेद जाटों में अवश्य है। मथुरा जिले के कुछ जाट, ग्वाय, ग्याते, गुतकूं आदि शब्दों का और जयपुर के जाट, अठे, बठे कठै शब्दों का प्रयोग करते है|यह उच्चारण का भेद देश की परिस्थिति के अनुसार सभी जातियों में


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पाया जाता है, चाहे वे ब्राह्मण हो, अथवा चाहे जाट व कोली। मन्दसौर और अजमेर के निकट के जाट भाई ‘से’ के स्थान पर ‘हे’ प्रयोग करते हैं। वे साथ को हाथ और सासु को हाऊ कहते हैं। उनकी इस बोल-चाल से एक और भी पता चलता है कि वे गजनी से आगे बढ़े हुए उन जाटों के साथी हैंजो पर्शिया के पश्चिमोत्तर में भारत से जाकर बसे थे, और अपना उपनिवेश स्थापित किया था। परिस्थितियों ने जब उन्हें विवश किया तो भारत की ओर लौट आये। कहा जाता है कि फर्सी ‘से’ के स्थान ‘हे’ का ही प्रयोग करते हैं। अपने पड़ौसियों से इस प्रयोग को लेकर हमारे अजमेर-मेरवाड़ी जाट सरदार, मालवा और राजपूताना की पवित्र-भूमि पर सिख उदय से कई सदी पहले आ गये होंगे। उनकी भाषा में ‘से’ के स्थान ‘हे’ का प्रयोग भले ही होता हो, किन्तु पार्सी शब्द उनके मुंह से एक भी नहीं सुना जाता।

शारीरिक बनावट और भाषा ही तो दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बल पर अंग्रेज विद्वानों ने जाटों को विशुद्ध आर्यवंश से बताया है।

बोल-चाल में वे परस्पर एक दूसरे के लिये बहुवचन का कम प्रयोग करते हैं क्योंकि वे शौरसेनी भाषा-भाषी हैं, इसी से उनकी यह आदत है। शौरसैनी भाषा इटावा से लेकर मन्दसौर तक और पलवल से लेकर रतलाम तक बोले जाने वाली भाषा है।

यद्यपि एक बार भारत में उर्दू भाषा का साम्राज्य रह चुका है, फिर भी उसके कारण शौरसैनी भाषा पर कोई असर नहीं पड़ा है और न जाटों की बोल-चाल में उर्दू के कारण कोई अन्तर आया है।

अंग्रेजी भाषा भी भारत में जवान और फिर बुड्ढी हुई जा रही है, किन्तु जाटों की बोल-चाल पर उसका कोई असर नहीं पड़ा है। वे चाहे पढ़े हों चाहे अपढ़, अपने घर में तथा भाइयों में इसी शौरसैनी (अपनी मातृ-भाषा) का प्रयोग करते हैं। उनकी स्त्रियां अपने पुरूषों से बोल-चाल ही सभ्यता में हेटी हों सो बात नहीं। वे अपने बच्चों को अपनी ही भाषा में कहानी सुनातीं हैं। जरा, मगर, लेकिन, अलबत्ता अब तक उनसे तनिक, पर और निष्ठै, को नहीं छुड़ा पाया है।

जाटों के स्वभाव, रस्म-रिवाज और परिचय के सम्बन्ध ‘मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण’ नाम इतिहास ग्रन्थ में पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति ने इस प्रकार लिखा है -

जाट कहां से आए और पहले पहल कहां बसे, इस विवाद में पड़ना व्यर्थ है। हमारे कार्य के लिए इतना जान लेना पर्याप्त है कि जब से जाटों का कोई इतिहास मिलता है तब से वे भारत में ही रहते हैं। यदि कहीं भारत से बाहर उनका निशान पाया जाता है, तो उसका भी मूल-स्थान भारत ही में मिलेगा। उनकी सबसे प्रथम ऐतिहासिक चर्चा भारत पर अरबों के आक्रमण के साथ आरम्भ होती है। जाट लोग फारस की सीमा तक फैले हुए थे।

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-134


अरब के निवासी उस समय भारतीयों में से जाटों को ही जानते थे। इसीलिए वे सभी हिन्दू कहानियों को जाट नाम से पुकारते थे। वे एक प्रकार से उससे पूर्व बढ़ते हुए भारतीय आधिपत्य की सफल सेना पल्टन के सिपाही थे। अपनी बहादुरी, साहसिकता और धार्मिक उदारता के कारण, ये आगे बढ़ने के योग्य भी थे। जब भारत पर मुसलमान टूटे, तब उन्हें सीमा प्रान्त के कदम-कदम पर जाटों से टक्कर लेनी पड़ी। सीमा प्रान्त और उससे आगे बढ़े रहने का ही परिणाम था कि जाट-जाति के आचार-व्यवहार में बहुत-सी विश्रृंखलता पाई जाती थी और अब भी पाई जाती है। वह ब्राह्मणों के दास न उस समय बन सके और न अब तक हैं। यही कारण था कि वे हिन्दुओं के मध्यकालीन कृत्रिम-सामाजिक जीवन में बहुत निचले दर्जे पर रखे जाते थे। जब मुहम्मद-बिन-कासिम ने सिन्ध को जीत लिया तब उसने हिन्दू वजीर से जाटों की दशा के सम्बन्ध में पूछा तो उसने बताया कि -

"उनमें बड़े और छोटे में कोई भेद नहीं है। उनकी प्रकृति जंगलियों की सी है। वे राजाओं के विरूद्ध विद्रोह करने में प्रवीण हैं और उनका काम सड़कों पर लूट मार करना है।"

इन उद्धरणों से दो बातें स्पष्ट होती है - प्रथम तो यह कि उनमें ऊंच-नीच का कोई भेद न होने के वे लोग (ब्राह्मणों की निगाह में) शूद्र गिने जाते थे और दूसरी यह कि वे प्रायः राज के विरूद्ध विद्रोही रहा करते थे। सदियां गुजर गई हैं, और कई सल्तनतें भारत की रंगस्थली पर अपना-अपना अभिनय करके चली गई हैं, परन्तु जाटों की कुछ विशेषतायें अब भी शेष है। आज भी वे सामाजिक दृष्टि से अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक स्वच्छन्द हैं और आज भी एक अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दंडता उनके अंदर विद्यमान हैं। उन्हें प्रेम से वश में लाना जितना सरल है आंखें दिखाकार दबाना उतना ही कठिन है। सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से वे अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक स्वाधीन हैं और सदा रहे हैं। लड़ना उनका पेशा है। मनमानी करने में और अपनी आन की खातिर अपना घर बिगाड़ देना या जान को खतरे में डाल देना जाट की विशेषता है। (पृ. 268 - 272)


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-135


चतुर्थ अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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