Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Prastavana

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

प्रस्तावना

इतिहास की आवश्यकता

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उन्नति की इच्छुक प्रत्येक जाति को इतिहास की अत्यंत आवश्यकता है। क्योंकि जनसमूह जितना प्राचीन गौरवपूर्ण गाथाओं को सुनकर प्रभावित होता है उतना भविष्य के सुंदर से सुंदर आदर्श की कल्पना से नहीं होता है। यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि जिस जाति का जितना ही गौरवपूर्ण इतिहास होगा वह जाति उतनी ही सजीव होगी। इसी कारण विजेता जाति ने पराजित जाति के इतिहास को या तो कतई तौर से नष्ट करके पेश करती है जैसा कि भारत के मुगल, पठान आदि लोगों ने किया था अथवा ऐसे ढंग से पेश करती है जिससे जाति को गौरवान्वित होने का उत्साह न हो सके। इतिहास का इस प्रकार स्वरूप प्राय अंग्रेज लेखकों ने भारत के सामने पेश किया है।

इस प्रकार सारा भारत विदेशी ताकतों द्वारा पराजित होता है उसी प्रकार जाट जाति भी कुछ देशी विदेशी ताकतों के धोखे अथवा वीरता से जीत ली गई। संसार के इतिहास में भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है बहादुर से बहादुर जातियां भी कभी न कभी विजित हो जाती हैं। एशिया तथा यूरोप में अपने वीरतापूर्ण कार्यों से तहलका मचा देने वाली जाट जाति भी छठी शताब्दी के बाद मुसलमान ब्राह्मण


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और राजपूतों द्वारा जीत ली गई। सिंध और काबुल में क्रमशः चच और लल्लिय नाम के ब्राह्मण मंत्रियों ने अपने जाट नरेशों के साथ विश्वासघात करके दोनों राज्य छीन लिए। अन्य छोटे-मोटे पंजाब, सिंध, युक्त-प्रांत और कश्मीर के जाट राज्य मुसलमानों ने जीत लिए। राजस्थान, मध्य भारत के जाट राज्य नई हिंदू सभ्यता से मंडित राजपूतों ने हतिया लिए।

दोहरे संघर्ष का सामना

जाटों को पिछले एक हजार वर्ष ईसा की छठी शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक दोहरे संघर्ष का सामना करना पड़ा है। धार्मिक संघर्ष और राजनैतिक संघर्ष ने उनके ढांचे को काफी जर्जर कर दिया है। पंजाब और राजपूताना में फिर से यदि वे राज्य शक्ति प्राप्त न करते तो इसमें संदेह है कि सामाजिक पद उनका आज के स्थान पर भी रहता।

इतिहास को अंधकार में डालने की कार्यवाहियां

चूँकि वे वीजित हो चुके थे, अतः उनके अवशिष्ट इतिहास को अंधकार में डालने और दूसरा ही रूप देने की विचित्र कार्यवाहियां की गई। जगा और भाट जिनकी कि उपयोगिता पिछले जमाने में जाट मानने लग गए थे उनकी बहियों में जाटों को दोगला लिखाया गया। हर एक ऐसे जाट खानदान के संबंध में जो कि राजपूतों में भी मिलता है। यह लिखा गया कि उसके अमुक पुरुष ने अमुक गोत्र के जाट की लड़की से शादी कर ली थी। अतः राजपूतों ने उसे बिरादरी से निकाल दिया और वह जाट हो गया। इसके स्पष्ट अर्थ यह हैं कि जाट उन लोगों का समूह है जो राजपूतों ने बिरादरी से बाहर कर दिए थे।

आत्म-गौरव और जातीय-अभिमान मिटाना

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कहावत है कि गुलाम जाति का दिमाग भी गुलाम हो जाता है। इसी लोकोक्ति के अनुसार जाटों का एक समूह भी यह मानने लग गया कि हम तो पहले राजपूत थे बाद में जाट हो गए हैं। हालांकि यह बात ऐसी थी जैसे स्कूल में पढ़ने वाले लाखों विद्यार्थियों का यह ख्याल हो गया है कि अंग्रेजों के आने से पहले हिंदुस्तान निरा जंगलियों का देश था। सदैव से ही विजेता जाति इस प्रयत्न में रहती है कि किसी भी तरह पराजित जाति के अंदर से आत्मगौरव अथवा जातीय-अभिमान की मात्रा मिटा दी जाए। क्योंकि आत्म-गौरव और जातीय अभिमान सदैव ही व्यक्ति के हृदय में उन्नत होने की प्रेरणा किया करते हैं।

इसी लक्ष्य को सामने रखकर राजपूताने में तो राजपूत शासकों ने जाटों के लिए पालत्यां, खोथला आदि जैसे घृणित नाम भी ईज़ाद कर लिए। पालत्यां का अर्थ पालित और आश्रित होता है। उनका कहना है कि हमने जाट लोगों को लाकर अपने राज्य में बसाया था। हालांकि यह बात मजाक से अधिक वजनदार नहीं है। जाट राजपूताने में जहां भी कहीं आबाद हैं दस पाँच शताब्दियों से नहीं किंतु बीसवीं शताब्दी से आबाद हैं। राजस्थान के वर्तमान राजपूत शासक खानदान में कोई भी 10 वीं शताब्दी से पहले का नहीं है। यह बात उन्हीं के इतिहास से साबित होती है।

इतना सब कुछ लिखने से हमारा इसके सिवा कुछ मतलब नहीं है कि जाट जाति आत्मगौरव और जाति अभिमान से वंचित


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की जा चुकी है। उसके दिमाग में दूसरों द्वारा जो गलत बातें बिठा दी गई हैं उन्हें ही वह सही मान बैठी है।

सही बात तो यह है

पिछले 5 वर्षों से मैंने इस और भरपूर शक्ति लगाई है कि लोग इस गलत बात को अपने दिमाग से निकाल कर फेंक दे कि हमारे किसी पुरखे ने जाटनी से शादी कर ली थी इसलिए हम राजपूत से जाट हो गए। सही बात तो यह है कि वे सभी राजपूत खानदान जो जाटों के गोत्र से मिलते हैं, अपने पुराने समूह को छोड़कर अथवा उन तमाम रिवाजों से - जिन्हें नया हिंदू धर्म पसंद नहीं करता था और जो वैदिक काल से चली आती थी, संबंध विच्छेद करके हमसे अलग हो गए हैं। जस्टिस कैंपबेल साहब ने भी यही बात कही है कि पुराने रिवाजों को मानने वाला जाट और नवीन रिवाजों को मानने पर राजपूत है।

कोई जाति आत्मगौरव से तभी ओत-प्रोत हो सकती है जब उसका अपना इतिहास हो। भला जिस जाट जाति ने एशिया और यूरोप को अपनी योग्यता और वीरता से चकित किया हो, उसका कोई इतिहास नहीं था! अवश्य था किंतु पोथी के रूप में - सो भी किसी एक ऐसी पोथी के रूप में जिससे केवल जाट इतिहास की पोथी का नाम दे सकें न था। इसी कमी को दूर करने के लिए मैंने 3 वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद सन् 1934 ई. की बसंत पंचमी पर "जाट इतिहास" तैयार किया था। जाट और गैर जाट सभी लोगों ने उसकी प्रशंसा की थी। पंडित इंद्र विद्यावाचस्पति ने उसकी भूमिका में लिखा था कि "यह


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इतिहास जाट जाति का विश्वकोश है। जाट जाति के संबंध में कुछ जानने के लिए दूसरे द्वार पर जाने की आवश्यकता नहीं है। इस इतिहास को लिखकर ठाकुर देशराज ने जाट जाति का ही नहीं अपितु सारी आर्य जाति का उपकार किया है"।

मासिक 'विश्वामित्र' दैनिक 'अर्जुन' साप्ताहिक 'सैनिक' आदि जिस किसी भी अखबार के पास उस की कॉपी भेजी सबने समालोचना में उसकी प्रशंसा की थी। कई राजपूत नरेशों और जागीरदारों ने भी उसे खरीदा है। जिनमें युवराज श्री रघुवीरसिंहजी सीतामऊ (जिन्हें कि एक इतिहास पुस्तक लिखने पर ही डीलिट की उपाधि मिली है), राजा साहब खंडेला, राव साहब खरबा, राव साहब आवागढ़ और राजा बहादुर कोटला के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

जाट इतिहास का अधिक से अधिक प्रचार हो

....'जाट इतिहास' ने 'जाट जनता' में आत्मगौरव और जातीय मान की वृद्धि के लिए एक नई स्फूर्ति पैदा की है। सभी विचारशील जाट सज्जन यह चाहते हैं कि उसका अधिक से अधिक प्रचार हो। प्रत्येक घर नहीं तो प्रत्येक गांव में जाट इतिहास की एक कॉपी तो हो ही। साथ ही जो जाट सरदार शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं उनकी प्रबल इच्छा थी कि जाटों की निजी शिक्षण संस्थाओं में तो इतिहास अवश्य ही पढ़ाया जाए। मुझे किसी ने कहा था कि बड़ोत जाट हाईस्कूल में धर्म शिक्षण के घंटे में जाट इतिहास पढ़ाया जाता है। अब की साल अप्रैल के महीने में जाट हाईस्कूल मुजफ्फरनगर के उत्सव में शामिल होने के लिए मैं गया तो वहां


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पर मास्टर श्री शेरसिंहजी ने यह सलाह दी कि यदि आप स्कूलों में विद्यार्थियों के पढ़ने के लिए जाट इतिहास का एक ऐसा खंड अलग छपा दें जिसमें उत्पत्ति और गौरव संबंधी बातें हों तो ठीक रहे। हम अपने स्कूल की पाठ-विधि में उसे रख लेंगे। इसके बाद मैं सोनीपत गया वहां पर जाट हाई स्कूल में चौधरी टीकारामजी सेक्रेटरी पंजाब काउंसिल के तत्वावधान में जाट गौरव पर मेरा भाषण हुआ। मेरे भाषण की समाप्ति पर चौधरी करणसिंहजी हेड मास्टर ने भी अपने सारयुक्त भाषण में लगभग वही बात कही जो मास्टर शेरसिंहजी मुजफ्फरनगर की सलाह में थी।

चौधरी शादीरामजी वकील और सेक्रेटरी साहब के आश्वासनों से मैंने यह निश्चय कर लिया कि जाट बालकों के लिए अवश्य ही जाट इतिहास का एक प्रथम संस्करण प्रकाशित करूंगा। रोहतक हाईस्कूल मैनेजिंग कमेटी के सेक्रेटरी चौधरी भूपसिंह जी एडवोकेट साहब ने भी इस तजवीज को पसंद किया।

अन्य जाट शिक्षण संस्थाओं के अध्यापकों और प्रबंधकों से मुझे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ फिर भी मैं आशा करता हूं कि मेरे इस आयोजन को स्वीकार करेंगे ही।

प्रस्तुत पुस्तक की उपयोगिता

विद्यार्थी-काल में आत्मगौरव और जाति-अभिमान के भाव पैदा करने के उद्देश्य से इतिहास का यह खंड अवश्य लाभदायक होगा। ऐसी मुझे आशा है।


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इसके बाद मैं चाहता हूं कि शेष इतिहास को भी नई खोजों के मैटर समेत खंडों में ही प्रकाशित करा दूं, ताकि जाट इतिहास का अधिकाधिक प्रचार हो सके। किंतु इससे मुझे लाभ की अपेक्षा हानी की अधिक संभावना है। कारण कि बचे हुए इतिहासों का बिकना खटाई में पड़ जाएगा। परंतु व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा मैंने सदा सार्वजनिक कौम के लाभ को महत्व दिया है। यदि उनका स्वागत हुआ तो अगले वर्ष राजपूताना-मध्य भारत का इतिहास खंड भी प्रकाशित किया जाएगा। इसके बाद पंजाब और दिल्ली प्रांत का अलग खण्ड होगा। सिंध प्रांत का जाट इतिहास भी स्वतंत्र खंड में प्रकाशित किया जाएगा। 'विदेशों में जाटशाही खंड' का मैटर इकट्ठा करने के लिए मैं ईरान और अफगानिस्तान जाने की सोच रहा हूं। देखें देव कहां तक सहायता देता है।

उस बड़े इतिहास को लिख कर भी मैं संतोष से नहीं बैठा हूं। मैं जानता हूं और मानता हूं कि महान जाट जाति का तो महान ही इतिहास होना चाहिए। यदि कोई खास स्थिति पैदा न हो गई हो तो अगले 5 वर्ष में केवल जाट गौरव की सामग्री इकट्ठा करने में ही बिताऊंगा। मेरी प्रबल इच्छा है कि अपनी कौम के सामने - जैसी कि वह महान है - वैसा ही महान इतिहास ग्रंथ जिसमें लगभग 5 हजार पेज हों, पेश करूँ।


[p.viii] पाठक ! इस खंड में भी कुछ ऐसी सामग्री पाएंगे जो मेरी हाल की नई खोज का नतीजा है। इस प्रकार नई खोज की सामग्री मेरे पास बहुत है जो प्रत्येक खंड के साथ यथा समय जाट जगत की सेवा में पेश की जाएगी।

मैं समझता हूं कि 'जाट इतिहास' में उच्च कोटि की हिंदी का प्रयोग हुआ था। इसलिए मैंने इस 'खंड इतिहास' में भाषा सरल बनाने की कोशिश की है फिर भी अनेकों स्थलों पर सरल करने में मैं सफल नहीं हुआ। क्योंकि सरल करना और भावों को शिथिल करना एक जैसा ही है।

वैसे मैंने यह प्रयत्न किया है कि यह इतिहास भौगोलिक आधार से रहित न हो। इसलिए जाटों की संख्या, विस्तार, आदि-भूमि और नौ-आबादी (उपनिवेशों) सबका पता देने की कोशिश की है। 'जाट-स्थान' का एक नक्शा भी इसमें दिया गया है जो अंदाज से नहीं किंतु ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर तैयार कराया गया है।

पाठक इसमें जाटों की राष्ट्रीय-पताका का भी दर्शन करेंगे। पताका पर हल और तलवार का चिन्ह कल्पना से नहीं दिए गए हैं। यह टोड साहब के उस उल्लेख के आधार पर हैं जो उन्होंने यूरोप में फैलने वाले जाट समूह के झंडे पर बताए हैं। तलवार और हल के चिन्ह उनके प्रजातांत्री (जाति-राष्ट्रवादी) होने के परिचायक हैं। श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने 'हिंदू पोलिटी' नामक तवारीख में प्रजातंत्र समुदायों


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के संबंध में लिखा है कि "शांति के समय उनके हाथों में हल और युद्ध के समय तलवार होती है"।

मेरी अंतरात्मा कहती है कि भारत की राष्ट्रीय पताका पर भी एक दिन यही हल और तलवार के चिन्ह होंगे। इस अंतर्ध्वनि में मैं सचाई इसलिए मानता हूं कि अब से कई वर्ष पहले जाटों के झंडे का जैसा मूर्त रूप मेरी आंखों में नाचा था वैसा ही टाॅड राजस्थान में मैंने लिखा पाया।

पंजाब स्थित मालवा प्रदेश की जाट सभा के झंडे पर भी जब यही हल और तलवार का चिन्ह सुना तो अत्यंत प्रसन्नता हुई। जाटों के झंडे का रंग मैं बसंती मानता हूँ। ऐसा लेखबद्ध प्रमाण भी मेरे पास है। प्रत्येक जाति और संप्रदाय में झंडे की बड़ी कदर होती है। हमारा तरुण समाज भी अपनी प्यारी पताका की कद्र करना सीखेगा और उसमें श्रद्धा और भक्ति रखेगा। पुस्तक के अंत में इसी हेतु से एक पताका गान भी दिया जा रहा है जिससे ठाकुर रामबाबूसिंहजी परिहार ने तैयार किया है। मुझे आशा है जाट जगत मेरे इस आयोजन और सेवा को पसंद करेगा।


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